रविवार, 6 सितंबर 2015

फिल्म 'पीकू' के खतरे - रामजी तिवारी





जीवन की व्यस्तताओं ने सिताब दियारा ब्लॉग को लगभग चार महीने तक रोके रखा था | लगता है, उनकी तरफ से अब कुछ मोहलत मिलने वाली है | तो उम्मीद कर रहा हूँ कि कम से कम सप्ताह में एक बार हम आपके सामने किसी नयी पोस्ट के साथ मौजूद रहेंगे | और यह भी कि सिताब दियारा ब्लॉग को आप लोगों का प्यार पहले की तरह ही मिलता रहेगा | आज की पोस्ट लोकप्रिय फिल्म ‘पीकू’ को एक अलग तरीके से देखने-समझने की कोशिश को रेखांकित करती है |

        
    तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर फिल्म ‘पीकू’ की यह समीक्षा                       

                            ‘पीकू’ के खतरे


युवा निर्देशक ‘सुजीत सरकार’ की नयी फिल्म ‘पीकू’ इस समय बड़ी चर्चा में है | विषय के रूप में एक महत्वपूर्ण मुद्दे को उठाने के कारण भी, और अपनी निर्देशकीय क्षमता के कारण भी | लेकिन मेरी समझ में इस फिल्म की चर्चा इसलिए अधिक हो रही है, क्योंकि बालीवुड की मुख्य धारा में आजकल ऎसी फिल्मों को बनाने का चलन समाप्त होता जा रहा है | और चूकि यहाँ पर बनने वाली फिल्मों का अधिकाँश हिस्सा, औसत फिल्मों की श्रेणी में भी नहीं रखा जा सकता, इसलिए इस औसत फिल्म को इतनी सराहना मिल रही है | कहें तो एक अच्छी फिल्म लायक सराहना मिल रही है |


खैर ... ‘सुजीत’ की इस बात के लिए सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने ‘पीकू’ के बहाने एक बेहद ही संवेदनशील विषय को अपनी फिल्म के लिए चुना है | एक ऐसा विषय, जिसका सरोकार इस देश में पंद्रह-बीस करोड़ लोगों से सीधे तौर पर जुड़ा है | और यदि हम परोक्ष रूप से हिसाब लगाएं, तो यह सम्पूर्ण मानव समाज के भविष्य के साथ भी है | बूढ़े लोगों की समाज में क्या स्थिति हो, और उनकी देखभाल किस तरह से की जाए, यह एक ऐसा विषय है, जो आज की आपाधापी दुनिया में लगभग हाशिये पर डाल दिया गया है | आज की बदहवास दुनिया इन लोगों को अपनी छाती पर आरोपित किये गए एक ‘भार’ के रूप में लेती है | उसे लगता है कि यदि वह इन लोगों के चक्कर में फंसी, तो उसका अपना भविष्य भी फंस जाएगा | इसलिए जैसे ही कोई अवसर उसके हाथ लगता है, वह इन बूढ़े लोगों से पिंड छुड़ाकर भाग खड़ी होती है | उन्हें उनके हाल पर छोड़ देनें में पैदा होने वाली एक सामान्य झिझक भी अब उसके पास नहीं फटकती | उलटे यदि कोई, उसके ही शब्दों में इस ‘झंझट-बवाल’ से से मुक्त होने के फैसले पर सवाल उठाता है, तो वह अपने सारे ज्ञान का उपयोग अपने इस ‘हाहाकारी’ फैसले को सही ठहराने के लिए करने लगती है |


फिल्म का कथानक एक सत्तर वर्षीय, लगभग सनकी बूढ़े ‘भास्कर बनर्जी’ के आसपास घूमता है | वह अपनी अविवाहित बेटी ‘पीकू’ के साथ रह रहा है, जो उसी के शब्दों में हर तरह से आत्मनिर्भर है | आर्थिक और सामाजिक के साथ-साथ यौनिक रूप से भी | बूढ़े के पास समस्याओं का अम्बार है, जिसमें उसका ‘कब्ज’ प्रमुख है | वह चिढ़चिढ़ा तो है ही, हर बात में टांग अडाने भी वाला है | ‘पीकू’ उसे लेकर बेहद संवेदनशील है | बेशक कि वह उससे लडती है, झगडती है, उस पर झुंझलाती है, लेकिन उसकी देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती | यहाँ तक कि अपने जीवन को भी, वह अपने पिता पर कुर्बान कर देती है | अपने मन में घर बसाने की उठने वाली ईच्छा को दफ़न कर देती है | और यदा-कदा कोई व्यक्ति इस बारे में जिक्र भी करता है, तो उसका बूढा बाप उस जिक्र के बीच में आकर खड़ा हो जाता है | उसे लगता है कि ‘पीकू’ के शादी कर लेने के बाद उसकी देखभाल ठीक से नहीं हो पायेगी | इस तरह ‘पीकू’ का जीवन थोडा अपना और ढेर सारा अपने पिता को समर्पित जीवन हो जाता है |


इस विपरीत दौर में भी, यह फिल्म न सिर्फ बूढ़े लोगों के पास संवेदनशीलता के साथ बैठती है, वरन उन्हें भी एक तरह से अपने बच्चों की तरह ही जिम्मेदारी मानकर स्वीकार करती है, उसे निभाती है | अपनी तमाम व्यस्तताओं के बीच वह अपने पुरनियों का ख्याल भी रखती है, और उन्हें सँभालने के लिए अपने जीवन को कुर्बान करने की ताकत भी | वह दिखाती है कि अपने माँ-बाप के लिए, चाहें वे हद दर्जे के सनकी और विक्षिप्त ही क्यों न हों, अपने जीवन की तमाम खुशियाँ कुर्बान की जा सकती है | इस फिल्म की प्रशंसा इसलिए भी की जानी चाहिए, कि इसने भारतीय समाज की उस सामान्य समझ को चुनौती दी है, जिसमें माना जाता है कि एक बेटा ही अपने ‘माँ-बाप’ की देख-रेख करता है | और यह भी कि ‘बेटी’ तो पराई धन होती है | बेशक कि यह लगभग एक अपवादमूलक दास्तान है, लेकिन हमें इस तरह के ‘अपवादों’ का स्वागत करना चाहिए, जो किसी सकारात्मकता को समर्पित दिखाई देते हों |


यहाँ तक तो मैं भी उस प्रचलित धारणा के साथ चलना चाहता हूँ, जो इस फिल्म के साथ चस्पा कर दी गयी है | लेकिन मेरे जैसे लोग, जो बूढ़े लोगों के बीच ही जी रहे हैं, इस कहानी के अतिरेकों को लेकर कुछ अलग राय भी रखना चाहेंगे | इसलिए, कि यह फिल्म अतिरंजना के किनारे पर खड़ी होकर इस समस्या को देखती है | वह आम-जीवन की सामान्यता से दूर, किसी विशेष बूढ़े व्यक्ति का चुनाव करती है | बेशक कि बुढापे की उस अवस्था में दिमाग ठीक से काम नहीं करता | कुछ जानी और कुछ अनजानी बीमारियाँ घेर लेती हैं | आदमी चिढ़चिढ़ा हो जाता है और एक ही बात की रट लगाने लगता है | अज्ञात भय और वहम के बीच झूलने लगता है | लेकिन यह कोई सामान्यीकृत स्थिति नहीं है | हालाकि बीमारियाँ इससे अधिक भी हो सकती हैं, लेकिन सामान्य स्थिति में इस तरह के ‘सनकीपना’ की कल्पना जायज नहीं कही जा सकती है | इस दौर में अपने आस पास के बूढ़े लोगों को देखकर मेरा अनुभव कुछ दूसरा ही कहता है | अपवादों को छोड़ दें, तो आज बूढ़े लोगों की अपेक्षाएं काफी सिमट गयी हैं | कोई उनकी देखभाल कर रहा है, अब उनके लिए इतना भी पर्याप्त है | बस हुआ यह है कि युवा पीढ़ी के जीवन की आपाधापी इतनी बढ़ गयी है, कि उस सामान्य जिम्मेदारी को भी आजकल वह एक बड़े बोझ के रूप में लेने लगी हैं | और जो कोई इस समाज में इस जिम्मेदारी को निभा रहा है, उसे ग्लोरिफाई कर दिया जाता है | हालाकि मैं यह नहीं कहता कि इस तरह के अपवादमूलक चरित्र इस समाज में नहीं होते हैं, लेकिन उन्हें अपवाद के रूप में ही देखा जाना चाहिए | किसी सामान्य फेनामिना की तरह से नहीं | कहना न होगा, कि बूढ़े लोगों को चित्रित करते समय जिस संवेदनशीलता की जरूरत होनी चाहिए थी, यह फिल्म अतिरंजना के प्रयास में उससे काफी दूर चली गयी है | इतनी, कि इस समाज एक सामान्य बूढा आदमी इसमें काफी पीछे छूट जाता है |


और जब एक बार आप ‘अतिरंजना’ को ही फिल्म के आधार में रूप में स्वीकार कर लेते हैं, तो फिर वह अतिरंजना पूरी फिल्म में ‘यत्र-तत्र-सर्वत्र’ दिखाई देनी लगती है | मसलन इस फिल्म की मुख्य नायिका ‘पीकू’ के चरित्र को देखिये, जो अपने बूढ़े बाप की देखभाल करने के लिए अपने जीवन की लगभग कुर्बानी दे देती है | और यह भी, कि उसका बूढा बाप इतना आत्मकेंद्रित है कि वह उसके एकाकी जीवन को ही अपने तर्कों से उचित ठहराने लग जाता है | फिर ‘पीकू’ की यह प्रगतिशीलता तो समझ में आती है कि वह विवाह पूर्व यौन-सम्बन्ध को अपनी जरुरत बताकर स्वीकार करती है | लेकिन एक बाप भी इसे सार्वजनिक रूप से ख़ुशी-ख़ुशी उद्घाटित करता है कि उसकी बेटी विवाह पूर्व ‘यौन-सम्बन्ध’ रखती है, और इस मामले में भी वह आत्मनिर्भर है, एकदम अतिरंजना का किनारा ही कहा जाएगा | कम से कम वर्तमान भारतीय समाज में किसी भी सत्तर वर्षीय बूढ़े बाप द्वारा दिखाई जाने वाली यह प्रगतिशीलता तो गले नहीं उतरती | और न ही यह, कि एक बाप अपनी देखभाल के लिए अपनी बेटी की जिंदगी को दाव पर लगा दे |


मैं इस अतिरंजना को एक-बारगी स्वीकार कर लेता, यदि उसके निहितार्थ समाज पर इतने प्रतिगामी असर डालने वाले नहीं होते | यह फिल्म बाहर से जितनी संवेदनशील और मानवीय नजर आती है, भीतर से उतनी खतरनाक संकेत छोडती है | हम सब जानते हैं कि आज के समाज में बूढ़े लोगों की स्थिति कितनी दयनीय होती चली जा रही है | एकल परिवारों ने उन्हें या तो अकेलेपन के अवसाद में धकेल दिया है, या फिर गाँव में किसी कोने-अंतरे में रहने को मजबूर कर दिया है | मैं नहीं जानता, कि आंकड़ों के अनुसार इस देश में कितनी प्रतिशत युवा पीढ़ी अपने माँ-बाप के साथ रह रही है | लेकिन आसपास के गाँवों की स्थिति को देखते हुए इतना अवश्य कह सकता हूँ कि यह संख्या अब काफी तेजी से घटती जा रही है | तो इस ख़राब दौर में यह फिल्म किसी सामान्य बूढ़े आदमी का चुनाव क्यों नहीं करती है ...? वह एक ‘एक्सट्रीम’ पर क्यों चली जाती है ...? और ऐसा करके, कहीं वह उन लोगों के हाथ में एक और ‘रास्ता’ तो नहीं थमा देती, जो अपने माँ-बाप को छोड़ने के लिए पहले से ही ऐसे अनेक तर्कों के का उपयोग कर रहे हैं | क्या अब वे यह नहीं कहने लगेंगे, कि चूकि बूढ़े लोग इतने ही ‘सनकी और विक्षिप्त’ व्यवहार वाले होते हैं, इसलिए उनके साथ इस भाग-दौड़ के जीवन को नहीं निबाहा जा सकता है | या कि हम तो चाहते हैं कि माँ बाप हमारे साथ रहें, लेकिन उनका सनकी व्यवहार उन्हें हमारे साथ चैन से रहने नहीं देता है | तो यह एक तरह से ‘कोढ़ में खाज’ वाली स्थिति हो जायेगी, जिसको पहले ही पीड़ित बुजुर्गों को ही झेलना पड़ेगा | 


यहाँ यह तर्क दिया जा सकता है कि ‘पीकू’ तो इस मायने में और भी क्रांतिकारी फिल्म है कि वह इस दर्जे के ‘सनकी और विक्षिप्त’ बूढ़े को भी सम्भाल लेने की प्रेरणा देती है | तो इस तर्क पर इसकी कैसे आलोचना की जा सकती है | लेकिन यदि हम गौर से देखते हैं, तो पाते हैं कि यह फिल्म इसका समाधान इस अतिरेक पर जाकर करती है कि ऐसे लोगों को सँभालने के लिए युवाओं को अपने जीवन की बलि चढ़ा देनी चाहिये | मतलब कि जैसे ‘पीकू’ अपना तमाम जीवन, अपने पिता की देखभाल और सेवा के लिए न्योछावर कर देती है, वैसा ही हमको भी करना चाहिए | हां ... यह अतिरेक है, जो मुझे खल रहा है, कि अपने माँ-बाप को संभालने के लिए किसी बेटे-बेटी को अपना जीवन खपा देना पड़ता है | बिलकुल नहीं | अपनी आपाधापी को कम करके, इस जिम्मेदारी को एक सामान्य संवेदनशील प्रक्रिया के जरिये भी निभाया जा सकता है |


क्या हकीकत में ऐसा ही है ...? बिलकुल नहीं | बीमारी की स्थिति को छोड़ दिया जाए, तो एक आम बूढा आदमी भी अंततः आदमी ही होता है | उसकी गतिविधियां आपको थोड़ी परेशान कर सकती हैं, लेकिन इतनी भी नहीं कि आपको अपने जीवन की कुर्बानी ही देनी पड़ जाए | और फिर एक बूढा आदमी आत्मकेंद्रित भी हो सकता है, लेकिन इतना भी नहीं कि वह आपके जीवन को ही मांगने लग जाए | किसी ‘पीकू’ को अपने किसी पिता ‘भास्कर बनर्जी’ को संभालने के लिए अपना जीवन नहीं देना होता, जैसा कि यह फिल्म बताती है | वरन अपना जीवन जीते हुए भी इस समाज में कई ‘पीकू’ अपने कई ‘भास्कर बनर्जियों’ की देखभाल करती है, उन्हें संभालती हैं | बूढ़े लोगों के बीच गाँव में रहते हुए, मैं ऐसे बेटे-बेटियों के किस्से भरपूर जानता हूँ, जिनके जीवन में उनके माँ-बाप का जीवन समाहित होता है | उनमें कोई अलगाव और विरोधाभास नहीं होता | और हां .... ! उन बेटे-बेटियों के भी, जो अपने माँ-बाप के जीवन को अपने जीवन में एक खलल के रूप में देखते हैं और फिर उन्हें छोड़ने के लिए ऐसे अनगिनत तर्क गढ़ते रहते हैं | इसलिए मैं इस बात से डरता हूँ, कि कहीं यह फिल्म भी उनके हाथ में एक और नया तर्क न थमा दे, कि बूढ़े लोग इतने ही ‘सनकी और विक्षिप्त’ होते हैं | और कि उन्हें सँभालने के लिए युवा पीढ़ी को अपना जीवन खपा देना पड़ता है |


मेरी नजर में इन दो अतिरंजनाओं ने ‘पीकू’ बनाने का उद्देश्य ही ‘डिफीट’ कर दिया है | क्या ही बेहतर होता कि ‘भास्कर बनर्जी’ एक आम-सामान्य बूढ़े आदमी के किरदार में होते, जिनकी संतान उन्हें अपने जीवन में शामिल करते हुए अपना दायित्व निभा रही होती | ऐसा सन्देश इस समय को थोड़ा बेहतर बनाता | थोड़ा और मानवीय बनाता | दुर्भाग्यवश ‘सुजीत सरकार’ ने अपने पात्रों को अतिरंजना का वह चोला पहना दिया हैं, जहाँ से सार्थक के बजाये निरर्थक अर्थ भी लगाए जा सकते हैं | काश ....! कि मैं गलत होऊं ...|  


प्रस्तुतकर्ता


रामजी तिवारी

बलिया, उत्तर-प्रदेश

मो.न. 09450546312  


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