संस्मरण की पहली क़िस्त में हमने ‘अशोक आजमी’ की उहापोह भरी हिचकिचाहटो को देखा था, जिसमें वे इसे ‘लिखने
और न लिखने’ के बीच झूल रहे थे | और फिर यह सोचकर उन्होंने लिखने का फैसला किया था
कि इसे ‘खुद से बातचीत’ करने के तौर पर और ‘जिंदगी को एक बार फिर से जीने’ के तौर
पर दर्ज किया जाना चाहिए | पहली क़िस्त में वे शुरूआती दिनों की कही-सुनी स्मृतियों
से होते हुए आगे बढे थे | आज इस दूसरी क़िस्त में वे अपने प्राथमिक कक्षाओं के दिनों
को याद कर रहे हैं |
आईये पढ़ते हैं अशोक आज़मी के संस्मरण
“ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर” की
दूसरी क़िस्त
“अचार जी अचार नहीं खाते”
स्कूल बड़ी मजेदार चीज़ होती है. मेरे लिए तो और मजेदार रही. पहला
क़िस्सा एडमिशन का ही है. पापा ने शोध रायपुर से किया. रविशंकर विश्वविद्यालय में
उनके सहपाठी और मित्र थे. उनके निर्देशन में शोध करते हुए तीन साल से अधिक समय
रायपुर में ही गुज़ारा. वहां हम यूनिवर्सिटी के पास ही किसी ऐसी चाल में रहते थे
जहाँ एक बड़े सेठ ने अपने मकान के पीछे के कम्पाउंड में कई घर बना रखे थे. सबके छत
खपरैल के थे. हमारे ठीक पड़ोस में एक रिक्शा मैकेनिक रहते थे. उनकी बेटी शब्बो मेरी
हमउम्र थी और जब तक वहाँ रहे वह मुझे राखी बांधती रही. पापा के पास उन दिनों कैमरा
था और उसके साथ की कई ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीरें अब भी हमारे पास हैं. वहीँ किसी
स्कूल में हम पढने जाते थे. देवरिया लौटे तो हमारे मकान मालिक का ही स्कूल था “लाल
बहादुर शास्त्री शिशु मंदिर.” एक साल तो वहीँ पढ़े. बड़े मजे थे. प्रिंसिपल कनक मौसी
थीं तो टीचर बेबी बुआ. दोपहर में मम्मी एल्यूमिनियम के डब्बे में गर्म पराठे सब्जी
पहुँचाती. मतलब घर का स्कूल. फिर अगले साल पापा तीसरी कक्षा में एडमिशन के लिए
सरस्वती शिशु मंदिर ले कर गए. वहाँ टेस्ट लिया गया. रिजल्ट यह कि तीसरी की जगह
चौथी में एडमिशन मिला और हम चतुर्थ क के विद्यार्थी हुए.
पढ़ाई में मैं औसत था और इसका श्रेय मुझे एकदम नहीं जाता है. मैंने
हमेशा ख़राब विद्यार्थी होने की कोशिशें कीं. लेकिन शिक्षक पिता, अपना सारा प्रेम
भूल पढ़ाई के लिए सख्त हो जाने वाले बाबा और पुत्रहीन नाना के रहते ख़राब विद्यार्थी
होना मेरे बूते के बाहर की बात थी. यह डेमोक्रेसी और चाइल्ड राईट सब बाद की बातें
हैं. हम तो पापा के शानदार बैक हैण्ड के बाद गालों पर उभरी पांच अँगुलियों के छाप
वाले ज़माने के हैं. पापा पढ़ते समय सामने की कुर्सी पर बैठते और ग़लती होने पर उनका
टेबल टेनिस का अभ्यस्त हाथ उसी चपलता से चलता. बाबा मारते नहीं थे लेकिन कम नंबर
आने पर उनकी इकलौती कहानी पहले पैरा से शुरू होती और भयंकर ग़रीबी में पढ़कर टाप
करने वाले उनके बेटों का पूरा क़िस्सा ग़ालिब-ओ-फ़िराक के शेरों और पुरबिहा सुभाषितों
के साथ इतनी बार सुना कि अब तक कंठस्थ है. नाना के पास गीताप्रेस और
उपनिषदों-पुराणों के अतिरिक्त डोज़ थे तो क़िस्सा कोताह यह कि ठीक ठाक विद्यार्थी
होने के अलावा उस नन्हीं जान के पास कोई और विकल्प नहीं था.
पहले दोस्त शिशु मंदिर में ही बने. वहां का समाज शास्त्र बहुत साफ़
था. कस्बानुमा शहर के परम्परावादी मध्य
वर्ग और निम्नमध्यवर्ग के बच्चे और सेठ-साहूकारों के बच्चे. बाक़ी जो ज़्यादा फीस दे
सकते थे या जिन्होंने दुनिया देखी थी उनके बच्चे कान्वेंट में पढ़ते थे. उनका लहजा
थोड़ा अलग होता. जैसे हम वनली बोलते थे तो वे ओनली. तो हम उन्हें “बन बन के बोलने
वाले” कहते थे. सेठ साहूकारों के बच्चे वैसे तो पढ़ाई के मामले में अक्सर बैक बेंचर
ही होते थे लेकिन बाक़ी चीजों में सम्मान उन्हें अधिक ही मिलता था. हमारे
प्रधानाचार्य थे शंकर जी मिश्र. ज़्यादातर आचार्य जी लोग पंडित या ठाकुर साहब ही
थे. कुछ बहन जी भी थीं. आचार्य लोग सफ़ेद धोती कुर्ता पहनते थे और बहन जी लोग नीली
एकरंगी साड़ी. शंकर जी हमेशा बीमार रहते थे. कोलाइटिस था शायद. स्कूल के अलावा
मिलने की जगह थी शाखा. आचार्य जी लोग सुबह सबेरे खाकी कच्छा और सफ़ेद शर्ट पहनकर
शाखा लगवाते. भगवा झंडा लगता और हिटलर वाले अभिवादन की मुद्रा में गाया जाता –
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि. तो हम भी उत्साह में दो तीन दिन शाखा में गए. चौथा
दिन रहा होगा, पापा ग्राउंड पर पहुँचे और पहले तो कान पकड़ के हमें एक किनारे किया
फिर आचार्य जी को जो डांट लगाईं तो आचार्य जी आचार्य मुद्रा से सीधे विद्यार्थी
मुद्रा में आकर जी सर जी सर करने लगे. वह पापा के विद्यार्थी रहे थे. बुरा तो लगा
लेकिन कालेज के शिक्षक होने का वह रौब दिमाग में ऐसा दर्ज़ हुआ कि तय कर लिया बड़ा
होके कालेज का टीचर ही बनना है. खैर इस तरह हमारा मन एक और बार मारा गया और हमारा
शाखा में जाने का कार्यक्रम हमेशा हमेशा के लिए ख़त्म हो गया. लेकिन नज़र तो हम पर
पड़ ही चुकी थी आचार्य जी की.
स्कूल में साम्प्रदायिक मानस बनाने का काम संघ बहुत होशियारी से करता
है. ऐसा नहीं है कि सीधे सीधे दंगा भड़काने की भाषा बोली जाय. बहुत आहिस्ता आहिस्ता
आपके मन में यह भर दिया जाता है कि हिन्दुस्तान हिन्दुओं का देश है, मुसलमान सिर्फ
आक्रमणकारी थे और उन्होंने हमारे धर्म पर हमला किया, हमें ग़ुलाम बनाया जिसके ख़िलाफ़
वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी. जो प्रेरक प्रसंग सुनाये जायेंगे उनका सन्देश
अक्सर यही होगा कि किस तरह आक्रमणकारी मुसलमानों ने हमारी माँ-बहनों के साथ उत्पात
करने की कोशिश की और किसी वीर ने उसका प्रतिकार किया. अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई
में सभी हिन्दू योद्धाओं को उनके विचारों से अलग कर सिर्फ मातृभूमि और धर्म के लिए
लड़ने वाले वीरों में तब्दील कर दिया जाता है. गुरुओं की महानता को लेकर जिस तरह से
बताया जाता है वह बच्चों के पूरे मनोविज्ञान पर असर डालता है. मैं याद करूँ तो दो
चीज़ें मेरे साथ हुईं, पहला अपने ब्राह्मण होने को लेकर एक अभिमान और दूसरा अपने
काले रंग का होने को लेकर हीनभावना का जन्म. ज़ाहिर तौर पर इन दोनों के लिए सिर्फ
स्कूल जिम्मेदार नहीं था. देवरिया जैसे ब्राह्मण बाहुल्य वाले शहर में एक शिक्षक
का बेटा होना और पिपरपांती जैसे गाँव में ननिहाल का होना, घर बाहर हर जगह ब्राह्मण
ही ब्राह्मण थे. मुझे नहीं याद आता कि हमारे घर आने जाने वालों में कोई मुसलमान या
दलित परिवार था. स्कूल भी ऐसा जहाँ मुसलमानों के बच्चे नहीं पढ़ते थे. जिस मोहल्ले
में था वहाँ श्रीवास्तव लोगों का बहुमत था. पापा के कालेज में जो विभाग पंडितों और
ठाकुरों में बंटे हुए थे. दलित पिछड़े हमारे जीवन में घर में काम करने वाली बाई,
हमारे कपडे सिलने वाले टेलर मास्टर, हमारे जूतों की मरम्मत करने वाले, हमारे घरों
में रंगाई करने वाले जैसी भूमिकाओं में ही थे. तो वह मानस बनाने के लिए एक
तरफ स्कूल में वैचारिक ट्रेनिंग थी तो
दूसरी तरफ समाज में हमारी अवस्थिति. रंग को लेकर कई चीजें थीं जिन पर आगे बात
करूँगा. अभी इतना ही कि हमारा वह शिशु मंदिर ‘को-एड’ वाला था. (यहाँ एक स्माइली देखी जाय)
आजकल स्कूली बच्चों के प्रेम आदि पर बहुत चिंता की जा रही है. मैं
आपको कोई तीस साल पहले के दौर में ले जा रहा हूँ. शिशु मंदिर में वार्षिक आयोजन के
लिए एक नाटक होना था. कृष्ण के जीवन पर. राधा बनीं हमारे पंचम ख की एक लड़की. कृष्ण
बनने के लिए दो लड़कों में लड़ाई हो गयी. और इस क़दर हुई कि नाटक कैंसिल करना पड़ा.
उसी सांस्कृतिक कार्यक्रम में एक और नाटक था. शायद खुदीराम बोस पर. मुझे उसमें
वकील की भूमिका मिली. कारण अलग थे, पर नाटक वह भी नहीं हुआ. हाँ, अध्यक्ष होने के
नाते भाषण देने का मौक़ा ज़रूर मिला. शिशु मंदिर सांस्कृतिक आयोजनों और भाषण वगैरह
को लेकर शुरू से बहुत सक्रिय थे. सांस्कृतिक आयोजनों के सहारे विचारधारा का जो
प्रसार वे बच्चों के बीच करते हैं, उसका आजीवन प्रभाव रहता है. मैं कम्युनिस्ट
नहीं हुआ होता तो पक्का संघ का बड़ा प्रवक्ता होता.
एक और चीज़ जो उनसे सीखनी चाहिए वह थी उनकी नेट्वर्किंग. उनके लिए एक
बच्चा एक परिवार तक पहुँचने का साधन होता है. आचार्य जी लोग कभी भी आपके घर आ सकते
थे. बहाना बच्चों की पढ़ाई से लेकर किसी आयोजन के लिए चंदा मांगने तक कुछ भी हो
सकता था. घरों पर आचार्य जी लोगों का शानदार स्वागत होता था. कभी बाहर से कोई
अतिथि, अक्सर संघ के प्रचारक, आते तो उन्हें चुनिन्दा परिवारों के भोजन करने ले
जाया जाता. वे घर आते, अभिभावकों से बतियाते और खाना खा के जाते. इतना समय
प्रभावित करने के लिए काफी था. मेरे घर भी अक्सर आना जाना लगा रहता. ऐसे ही एक दिन
शंकर जी एक संघ प्रचारक के साथ भोजन के लिए आये हुए थे, खाना लग रहा था. छोटा भाई
अचार की प्लेट लेकर गया तो कोलाइटिस के मरीज़ शंकर जी ने अचार के लिए मना कर दिया.
वह वहीँ से चिल्लाता हुआ भागा, मम्मी, अचार जी अचार नहीं खाते. पूरा घर ठहाकों से
भर गया. इस नन्हे बच्चे को आगे चलकर शिशु मंदिर के सबसे प्रतिभावान विद्यार्थियों
में शामिल होना था.
लेकिन इन सब कोशिशों का हम बच्चों पर इतना प्रभाव भी नहीं पड़ता था.
हममें से अधिकाँश अपनी पढ़ाई लिखाई के अलावा फ़िल्मी गानों और बदलती दुनिया के नए
रिवाजों के साथ बड़े हो रहे थे. उस जातिवादी और धार्मिक मानस के बावजूद हममें से
अधिकाँश दूसरे सामान्य बच्चों से ही थे. हम प्रेम करते थे, मिथुन की नक़ल में
डिस्को डांस करते थे और मानव देह के गोपन रहस्यों के बारे में फुस्फुसा के बात
करते थे. छठीं में विद्यामंदिर पहुंचें तो ‘को-एड’ ख़त्म हुआ. हमारी प्रेमिकाएं, जिन्हें
निश्चित रूप से हमारे प्रेम के बारे में कुछ नहीं पता था, कस्तूरबा गर्ल्स कालेज
या मारवाड़ी गर्ल्स कालेज में गयीं और हमें देखकर शर्माने लगीं. उनके लिए आगे संघ
का स्कूल नहीं था. उन्हें इन गर्ल्स स्कूलों में अच्छी महिलायें बनने के गुर सीखने
थे. शिशु मंदिर के जिस इकलौते जोड़े, पारिजात और दिवा ने बाद में प्रेम विवाह किया
उनके प्रेम के बारे में तब तक तो हमें कुछ पता न था, बल्कि पारिजात तो कृष्ण की
जिस भूमिका के लिए लड़ा उस नाटक में राधा कोई और थी. मैं इन सब के बीच उन दिनों अजीब कशमकश में
रहता. कवितायें लिखना शुरू हो गया था. कापी के पिछले पन्नों पर छंद में गीत लिखा
करता. देशभक्ति गीत या फिर प्रेम गीत. विरह से भरे प्रेम गीत. बहुत बाद में जब
लम्बी कहानी लिखी तो स्कूल से ही कवितायें लिखने वाले अफज़ल से उन्हीं कापियों के
पिछले पन्नों पर जो कविता लिखवाई वह उसी दौर की स्मृति में बची एक कविता है.
जिसे आजकल टीनेजर कहते हैं, उसकी बहुत बुरी स्मृतियाँ हैं मेरे खाते
में ... वह आगे ...|
जारी है ........
परिचय और संपर्क
अशोक आज़मी ....
(अशोक कुमार पाण्डेय)
वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
दिल्ली में रहनवारी
अच्छा है । अचार जी लोग अचार नहीं खाते । :)
जवाब देंहटाएंवनली को ओनली , यम को एम , यन को एन .............हर शहर इन ऐसे दो समूहों को साथ लिए आज भी दिखाई देता है , पहले वो बन बन के बोलते थे ......अब नही ......अब बनना सबके लिए जरूर हो गया
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ! अब पूरा इन्वाल्वमेंट दिखाई दे रहा है।
जवाब देंहटाएंयह किश्त बहुत पसंद आयी.
जवाब देंहटाएंतुम्हारी कलम में "Fade out- Fade in" टेक्नीक है. एकदम लगा जैसे नीले रंग की हाफ पैंट पहने इसे पढ़ रहा हूँ और शिशु मंदिर में प्रिंस के साथ खड़ा हूँ. तुम भी वैसी ही हाफ पैंट पहने कोई भाषण दे रहे हो। जातिवाद और संघ के प्रपंचों के बीच हमारे मासूम को-एड ने तुम्हे उसी वक्त कवि बना दिया था .....ये बात नयी है मेरे लिए.
जवाब देंहटाएंशानदार प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिख रहे हो, अशोक....हर बार आगे पढ़ने की उत्सुकता बढ़ जाती है। बहुत आत्मीय भाषा और चेतन विवेक के साथ बचपन को रिविजिट करना हम सबके लिए जरूरी है, जारी रखो यह जरूरी काम...
जवाब देंहटाएंAchchha laga padhkar...svabhaavik lekhan. Badhai Ashok jee ...Dhanyavaad Ramji bhai.
जवाब देंहटाएंआज भी स्कूल में साम्प्रदायिक मानसिकता बनाने का काम जारी है। पढ़ते हुए उस वक़्त में पहुँच जाते हैं। आपके लिखने की बहुत बड़ी खूबी है।
जवाब देंहटाएंशाहनाज़ इमरानी