उत्साह
और जज्बे से लबरेज युवा लेखक ‘अमृत सागर’ पहली बार ‘सिताब दियारा’ ब्लॉग पर उपस्थित हो रहे हैं | अपने जिले के इस होनहार
युवा लेखक में मुझे बहुत संभावनाएं दिखाई देती हैं | खासकर पत्रकारिता के उनके
अपने पेशे में , जिससे वे आते हैं , और जिसकी जमीन आज सालने वाले स्तर तक बंजर
बनती जा रही है | ‘अमृत’ इस जिले के उन कुछ गिने-चुने युवाओं में शामिल हैं , जो
अपने ब्लॉग के सहारे आम-अवाम की चिंताओं को मुखरित करते रहते हैं | हमारे लिए यह दोहरी
ख़ुशी का बात है , कि आज उनका जन्मदिन भी है | सिताब दियारा ब्लॉग इस अवसर पर
उन्हें ढेर सारी शुभकामनाएं प्रेषित करता है , और साथ ही साथ यह उम्मीद भी कि वे
आगे भी ‘सिताब दियारा’ के साथ अपना सहयोग बनाए रखेंगे |
प्रस्तुत
है सिताब दियारा ब्लॉग पर ‘अमृत सागर’ की कवितायें
एक ....
कई जोड़ी आँखें !
अल सुबह तोड़ देती हैं नींद का फरमान
कदम निकल पड़ते हैं सड़कों पर रास्ता बनाते
ये आँखें सूरज पर रोज ही टिकती हैं
इस आस में कि निवाला जुटा सके
हाथों को पीट कर ,पीठों पर चढ़ कर
शहर के लेबर चौराहे गवाह हैं
इन आँखों के उठने और झुकने के
सूखने और अनंत में खो जाने के
ये मजदूरी आँखे आज भी
आस का पानी लिए निहारेंगी
उन्हें नहीं पता मार्क्स और एंगल की
किताबों और घोषणापत्रों का
मजदूर दिवस के नारों का
कैलेण्डर में हर साल आने वाले एक मई का
क्रांतियों के इतिहास और आसरों
से बेखबर
इन कई जोड़ी आँखों पर आज कई कसीदे पढ़े जायेंगे
कई नामों के पीछे 'वाद' सटा कर आग उगले जायेंगे
फिर भी कई जोड़ी आँखें
लेबर चौराहों पर
सूरज को निहारते
सूख जायेंगी
और जारी रहेगी मजदूरों के हक़ और हुकुक की लड़ाई
दो ...
अकुलाहटें!
अकुलाहटों का आकार बढ़ता ही जाता है
कि दशकों ने धकेला है विचारों को
सब क्रांतियों कि साजिश हैं..
मंद हो तोड़ती हैं दम न जानें कितनी कोशिशें
कि करिश्मा है..चलन की सामाजिकता का
हुक्मरानों कि दैवीयता लांघती है
हाब्स लाक रूसो की चुनौतियों को
अब न जाने कितने लुई रौंदते हैं इन हिंदी पट्टियों को
फिर भी एक आसरा था चौथे खम्भे का
जो कि 'आजकल' ताज में ही सोचना मुफीद करता हैं
तीन ....
हो सकता है!
हो सकता है!
हो सकता है!
मान लूँ तेरी सभी शर्तें !
कस दूँ सभी अरमानों के गिरेबां
जमीं के हवाले कर दूँ नजरों के तीरों-निशां
फाड़ दूँ आस्तीनों में बनी सपनों की जेबें
अपनी जिद्द को चढ़ा दूँ सूली पे
बना लूँ तुझसे कई प्रकाशवर्षों की दूरी
ग़र दिला दो भरोसा!!
कि आसुओँ मेँ डूबेगा नहीं कोई मंजर
न माथे पर चमकेगी कोई शिकन
सुनी जाएगी अन्तःकरण की
हर गमकती सरसराहट
न छुटेगा तड़प-तड़प के दम
और न ही इस्तेमाल होगा कोई 'तरीका'
हो सकता है!
ढाल लूँ खुद को तेरे अक्श में!
वही माथे पर चुहचुहाता पसीना
हर चौखट खटखटाती
पुरवाई सी सांसें
तालुओं से चिपकती साफ़गोई
विभाजित रेखाओं को मिटाती बेफ़िक्री
ग़र मिटा दो मेरी यादों से
वो गुनगुनाती खुशनुमाँ रात
तुझसे सब बोल देने की बेकरारी
मेरे जेहन में तैरते तेरे लिखे हजारों शब्द
तेरी ओर न देखने की कसमसाहट
मेरी नजरों में कहीं छिप कर बैठी
तेरी निश्छल मुस्कराहट...
चार ...
दोस्ती
--------
आज भी हतप्रभ सा सोचता हूँ
कैसे तू रचता था अपना संसार
आखिर इतने भारी कैसे थे
तेरी बातों की पोटलियाँ और चुटकुलों के संदूक
-
कैसे बना लेता था तू अपने अड्डे
जो होते थे शांत पर समेटे सारा अद्भुत संसार
घंटों उसमें पैठना और तैरते रहना
फिर सूखे ही निकल आना
-
कितनी पहेलियाँ थी तुम्हारे पिटारे में
कंचे, रंगीन चुडियां, ऊन के गुच्छे
पेन के ढक्कन, छोटे-बड़े बटन....
जिससे तू अचानक ही खड़ा कर लेता एक नई दुनिया
-
उस घड़ी क्यों?
दो बूंद पड़ते ही मिट्टी की सोंधी महक
शरीर में करंट उतार देती थी
और नंगे पांव पंख बन जाते थे
-
क्यों छत का सीलन भरा कमरा
सारा आकाश था
घर के पीछे वाली दीवाल में
क्या मोहपाश था
-
जहां बतियाते-गप्पियाते थे हम
'नीली' और 'सफ़ेद' बातें
जिसे सुन मेरे शरीर में झुरझुरी सी उठती थी
और तू लाल हो लोटने लगता था
-
छोटी गली के ओट में
सुर्ख दोपहरी बिताना
बहबियानो में दुनिया से बेखबर
अपनी तिलंगी उड़ाना
-
कभी असमय तेरा मेरे पास आना
और घंटों चुप्पी को तकिया बनाना
पीछे के बगीचे को मेरे छत से
देर शाम तक निहारना
-
बिजली बनाती आँखों के तटबंधों को
अचानक खोल देना
निश्छल सैलाब को बहा देना
फिर दोस्ती के मांझे को पैना करना
--
अब, जब दोस्ती सुनता हूँ!
याद आते हैं तेरे कहकहे!
जब-जब तुझे ढूंढता हूँ!
याद आते हैं तेरे बतकहे!
कैसे तू रचता था अपना संसार
आखिर इतने भारी कैसे थे
तेरी बातों की पोटलियाँ और चुटकुलों के संदूक
-
कैसे बना लेता था तू अपने अड्डे
जो होते थे शांत पर समेटे सारा अद्भुत संसार
घंटों उसमें पैठना और तैरते रहना
फिर सूखे ही निकल आना
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कितनी पहेलियाँ थी तुम्हारे पिटारे में
कंचे, रंगीन चुडियां, ऊन के गुच्छे
पेन के ढक्कन, छोटे-बड़े बटन....
जिससे तू अचानक ही खड़ा कर लेता एक नई दुनिया
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उस घड़ी क्यों?
दो बूंद पड़ते ही मिट्टी की सोंधी महक
शरीर में करंट उतार देती थी
और नंगे पांव पंख बन जाते थे
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क्यों छत का सीलन भरा कमरा
सारा आकाश था
घर के पीछे वाली दीवाल में
क्या मोहपाश था
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जहां बतियाते-गप्पियाते थे हम
'नीली' और 'सफ़ेद' बातें
जिसे सुन मेरे शरीर में झुरझुरी सी उठती थी
और तू लाल हो लोटने लगता था
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छोटी गली के ओट में
सुर्ख दोपहरी बिताना
बहबियानो में दुनिया से बेखबर
अपनी तिलंगी उड़ाना
-
कभी असमय तेरा मेरे पास आना
और घंटों चुप्पी को तकिया बनाना
पीछे के बगीचे को मेरे छत से
देर शाम तक निहारना
-
बिजली बनाती आँखों के तटबंधों को
अचानक खोल देना
निश्छल सैलाब को बहा देना
फिर दोस्ती के मांझे को पैना करना
--
अब, जब दोस्ती सुनता हूँ!
याद आते हैं तेरे कहकहे!
जब-जब तुझे ढूंढता हूँ!
याद आते हैं तेरे बतकहे!
.....................................
पांच ...
यादे !
अब अक्सर ही
लम्बी और स्याह रातों में
जला लेता हूँ
तेरी दस्तावेजी यादों की
अधजली मोमबत्तियां
अपने गीले बिस्तर में
सिकुड़ जाता हूँ
इस डर से कि
कहीं चुटकीभर उजाला भी
सरक न जाये
मेरी आगोश से
जिसे देख गम के बादल
उमड़ पड़े बेसाख्ता
लेने को आलिंगन
और देर तक
उस दरिया में
डूबता-उतरता रहूँ मैं
फिर तान लेता हूँ
तेरे शब्दों की चादर
और बिखेर देता हूँ
तेरी मुस्कुराहटों की खुशबु
तब बंद आँखों में
चलाता हूँ कल्पना की कुंची
तराशता हूँ
तेरे सारे अक्श
और रख लेता हूँ
साझा सपनो के बीच
पलकों के बंद तहखानों में
लम्बी और स्याह रातों में
जला लेता हूँ
तेरी दस्तावेजी यादों की
अधजली मोमबत्तियां
अपने गीले बिस्तर में
सिकुड़ जाता हूँ
इस डर से कि
कहीं चुटकीभर उजाला भी
सरक न जाये
मेरी आगोश से
जिसे देख गम के बादल
उमड़ पड़े बेसाख्ता
लेने को आलिंगन
और देर तक
उस दरिया में
डूबता-उतरता रहूँ मैं
फिर तान लेता हूँ
तेरे शब्दों की चादर
और बिखेर देता हूँ
तेरी मुस्कुराहटों की खुशबु
तब बंद आँखों में
चलाता हूँ कल्पना की कुंची
तराशता हूँ
तेरे सारे अक्श
और रख लेता हूँ
साझा सपनो के बीच
पलकों के बंद तहखानों में
परिचय और
संपर्क
अमृत
सागर
बलिया
में जन्म
शिक्षा
– बलिया और वाराणसी से
पत्रकारिता
में गहरी रूचि
ब्लॉग
– ‘बागी बिगुल’ का सञ्चालन
मो.न.
- 09415659631
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