बुधवार, 17 जुलाई 2013

साहित्य हमें मनुष्य बनाता है - विमलेश त्रिपाठी



                                  विमलेश त्रिपाठी 



युवा लेखक विमलेश त्रिपाठी से डा.सुनीता की यह बातचीत कई मायनों में महत्वपूर्ण है | इसमें लेखक के भीतर चलने वाली रचना-प्रक्रिया की जानकारी तो मिलती है , साथ ही साथ वह अपने दौर के बारे में क्या सोचता है , और भविष्य को लेकर उसकी क्या योजनायें हैं , क्या चिंताएं हैं , इसका भी खुलासा होता है | एक पिछड़े और दूर – दराज के गाँव से महानगर तक पहुँचने और उस दौरान किये गए संघर्ष को भी विमलेश ने इस बातचीत में दर्ज किया है |
                                                            

    तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर विमलेश त्रिपाठी से डॉ. सुनीता की बातचीत

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डॉ. सुनीता - आज के साहित्य को आप किस नजरिये से देखते हैं ?

विमलेश त्रिपाठी - आज के साहित्य खासकर हिन्दी साहित्य में लेखन को लेकर आश्वस्त हुआ जा सकता है। ढेरों मात्रा में साहित्य की पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है – किताबें छप रही हैं। लेकिन जिस मात्रा में लेखन और प्रकाशन की गति में तीव्रता आयी हैं उसी मात्रा में पाठकों की संख्या नहीं बढ़ी, बल्कि यह संख्या कम ही हुई है। हिन्दी में साहित्य के काम को आज भी केन्द्रीय जगह नहीं मिल पाई है। मेरे कहने का मतलब यह है कि जिस तरह बांग्ला आदि भाषा में पढ़े-लिखे लोग साहित्य से प्यार करते हैं – उस तरह हिन्दी में यह चलन अबतक विकसित नहीं हो पाया है। इसके अपने कारण हो सकते हैं। मुझे अचरज होता है कि बांग्ला के एक वैज्ञानिक से आप रविन्द्रनाथ की कविताओं पर बात कर सकते हैंवह आपसे अदिकार पूर्वक बात करता है लेकिन क्या किसी हिन्दी भाषी वैज्ञानिक या इंजिनियर से आप प्रेमचंद या निराला पर इसी अपेक्षा के साथ बात कर सकते हैं? हमारी मुश्किल यह है कि हमने अपने बच्चों को हमेशा ही उपयोगितावादी ढंग से सोचने के लिए प्रेरित किया। उन्हें पता ही नहीं कि साहित्य और संस्कृति मनुष्य और उसके जूवन के लिए कितनी जरूरी चीजें हैं। यह दुर्भाग्य की बात है कि हिन्दी पट्टी में साहित्य और कविता को आज भी फाल्तू का काम समझा जाता है। इसके साथ ही साहित्य की एक दुखती हुई रग यह भी है कि हिन्दी क्षेत्रों में साहित्यकार को वह सम्मान नहीं मिलता जो बांग्ला में या अन्य भारतीय भाषाओं में मिलता रहा है।
दूसरी बात यह है कि हिन्दी साहित्य से जुड़े लोग कई खेमें और गुटों में विभक्त हैं। पुरस्कार के लिए जोड़-तोड़ साजिशें आदि चलती रहती हैं। एक समय था 2006 का जब मैंने इन गुटबंदुयों के कारण साहित्य को छोड़कर भाग गया था – मैंने 2010 तक कुछ भी नहीं लिखा। भेजपुरी के लोक कलाकारों के साथ घुमता रहा – गीत गाता रहा। लेकिन बाद में मुझे अहसास हुआ कि लेखन के बिना मैं रह ही नहीं सकता। जी ही नहीं सकता। तो फिर लौटकर आया। और इस संकल्प के साथ आया कि गुटबाजी और खेमेबाजी से दूर रहना है और पुरस्कार की महत्वकांक्षा कभी नहीं पालनी है। आपका लेखन ही अंततः बोलता है और वह आज नहीं तो कल बोलेगा ही। एक लेखक को सबसे ज्यादा भरोसा अपने लेखन और उस विवेकवान पाठक पर करना चाहिए जो उन्हें पढ़ता है। मैं बस इतना ही समझता हूं।

डॉ. सुनीता -आपने लेखन की शुरुआत कब की इसके पीछे कारण क्या रहे हैं ?

विमलेश त्रिपाठी - लेखन की शुरूआत कब हुई इसे ठीक तरह बताना मुश्किल है। हां, यह जरूर है कि साहित्य के प्रति बचपन से ही गहरी अभिरूचि रही है। उस समय हिन्दी की पाठ्य पुस्तकें ही सबसे पहले खत्म होती थीं – जब अपनी पाठ्य पुस्तक खत्म हो जाती तो बड़े भाई की फाठ्य पुस्तक की कहानियां एवं कविताएं पढ़ जाता था। रामचरित मानस मेरे घर में रखा हुआ रहता था – खाली समय में मैं उसकी चौपाइयां जोर-जोर से गाकर पढ़ता था – बाबा के साथ रामायण गाने वाली मंडली में रामायण गाने भी निकल जाता था – कुछ इसी तरह के दिनों में मेरे अंदर कुछ लिखने का मन हुआ। मुझे याद है करीब पांच-छः साल की उम्र में मैंने भोजपुरी में एक गीत लिखा था – जिसे मेरे बड़े भाई स्व. कमलेश त्रिपाठी ने गणतंत्र दिवस के अवसर पर स्कूल में गाया था।
विधिवत लेखन की शुरूआत 1997 से शुरू हुई। उसके पहले का लेखन गजल, गीत, कविता आदि के रूप में है- जो यूं ही मौज में आकर लिखा गया है। प्रेसिडेंसी कॉलेज के दिनों में कविता लिखता नहीं, बोलता था – एक दौर था जब मैं कविता में ही बात करता था । उन सबकी बस इतनी महत्ता है कि वे सारी चीजें मेरे भविष्य के लेखक के लिए वर्जिश की तरह थीं।

लेखन के पीछे का कारण मेरे अंदर की बेचैनी है। एक तरह का क्षोभ, एक तरह का खालीपन, समय में तैरता असंतोष, विषमता अन्याय आदि। इन तरह की बेचैनी से जो पीड़ा हुई वह लेखन की मार्फत अभिव्यक्त हुई।

ड़ॉ. सुनीता - साहित्य समाज को परिवर्तित करने में सक्षम है इस बात को जरा बिस्तार से बतायें ?

विमलेश त्रिपाठी - हमें शुरू से ही यह पढ़ने को मिला कि साहित्य समाज में बदलाव लाता है – इसलिए यह बहुत उपयोगी है। इतिहास से भी हमने यह सीखा है कि बड़े आन्दोलनों और बदलावों के पीछे साहित्य और सहित्यकारों की बड़ी भूमिका रही है। बाद में हमने देखा कि भक्ति आन्दोलन, सूफी आन्दोलन और स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान साहित्यकारों की सक्रिय भूमिका रही।
तो इस बात से इनकार तो नहीं ही किया जा सकता कि साहित्य का सामाजिक परिवर्तन या बदलाव में एक महत्त भूमिका होती है – लेकिन देखना यह होता है कि वह साहित्य सामान्य जन तक पहुंच पा रहा है या नहीं। हमारे हिन्दी क्षेत्र में मुझे लगता है कि साहित्य का विकास तो बहुत हुआ, शिल्प और संवेदना और भाषा के स्तर पर गहन परिवर्तन हुए लेकिन उसी अनुपात में पाठक का मानसिक विकास नहीं हो सका। यहां पाठक कहने से मेरा आशय उस पाठक वर्ग से है जिसे हम आम जनता कहते हैं और ऐसा विश्वास किया जाता है कि जिसके कंधे पर लोकतंत्र का भार है। हमारे हिन्दी पट्टी में रामचरित मानस के बाद के साहित्य की जानकारी आम जनता के पास नहीं है – यह एक कठिन सत्य है जिसे हमें स्वीकार करना चाहिए। हां, कुछ पढ़े-लिखे बच्चे स्कूलों में आधुनिक कवियों की कविताएं पढ़ जरूर लेते हैं – लेकिन यह पढ़ना परीक्षा पास करने के लिए होता है। समय के अंतराल में उन्हें साहित्य का भी बमुश्किल याद रहता है।

एक ऐसे पाठकविहीन समय में जहां साहित्य सिर्फ पाठ्य पुस्तकों और विश्वविद्यालयों में सिमट कर रह गया हो – उसकी मार्फत किसी बड़े बदलाव की कल्पना बेमानी लगती है। लेकिन हां जहां भी साहित्य की पहुंच है – वहां बदलाव जरूर होता है और वह भले ही धीमें हो लेकिन वह साकारात्मक बदलाव होता है – इस बात में कोई संदेह नहीं होना चाहिए।

डॉ. सुनीता - आधुनिक संसाधनों के आ जाने से साहित्य में किस प्रकार की गिरावट महसूस करते हैं या समृद्धि के तौर पर देखते हैं?

विमलेश त्रिपाठी - आधुनिक संसाधनों के कारण साहित्य के पठन में कमी आई है – इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। टेलिविजन और फिल्मों ने लोगों तक सस्ते मनोरंजन पहुंचाने का काम किया है – देखने में जाहिर है कि आसानी होती है। फिल्मों ने जिस तरह थियेटर की महत्ता को कम कर दिया उस तरह से टेलिविजन ने घर में घुसकर साहित्य को बेदखल करने का काम किया। बहुत पहले लोग साहित्य पढ़कर मनोरंजन करते थे। गांवों में चहां मेरा बचपन बीता, लोग कथाएं कहते थे – संगीत होता था। नाटक और रामलीला के दल हुआ करते थे – वह सब अब देखने को नहीं मिलते। लेकिन स्थिति बुरी तो हुई है लेकिन निराशाजनक नहीं है। तकनीक के विकसित होने के साथ अंतरजाल पर साहित्य की भरमार हुई है- ब्लाग्स चल रहे हैं और लोग वहां साहित्य पढ़ भी रहे हैं। एक ब्लॉगर के रूप में मेरा अपना अनुभव यह बताता है कि मेरे ब्लॉग अनहद पर रोज विजिट करने वालों की संख्या लगभग 500 है। तो तकनीक ने जहां एक ओर प्रिंट साहित्य के पाठकों की संख्या घटाई है वहीं ई-बुक, ब्लॉग और फेसबुक पर पाठकों की संख्या बहुत बढ़ी है। मेरा मानना है कि तकनीक के विकास और आधुनिक संसाधनों को आने से हम रोक नहीं सकते, लेकिन हम यह जरूर कर सकते हैं कि किस तरह उनका हम साकारात्मक उपयोग अपने पाठकों तक पहुंचने के लिए करें। फिल्मों में और टेलिविजन में आज साहित्य का न दिखना चिंता की बात है। इतने चैनलों की भीड़ में साहित्य और संस्कृति का एक भी चैनल नहीं है। क्या बुद्दिजीवियों को साथ मिलकर भारतीय भाषाओं के लिए साहित्य के एक चैनल की शुरूआत करने की पहल नहीं करनी चाहिए। ये चिंताएं बहुत दिनों से मेरे जेहन में है।

डॉ. सुनीता - आपके जीवन का उद्देश्य क्या है?

विमलेश त्रिपाठी - ऐसा कोई खास उद्देश्य तो नहीं, जिसका जिक्र किया जाय। बहुत पहले भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाना चाहता था – लेकिन नहीं जा सका। अब यही उद्देश्य है कि साहित्य में कुछ ऐसा करूं जिससे खुद के सामने जब खड़ा होऊं तो खुद पर खुनस न आए – एक संतोष का भाव हो। कोई एक रचना ऐसी लिखना चाहता हूं जिसे पढ़कर लगे कि बस अब और कुछ न भी लिखूं तो कोई मलाल नहीं। बस।

डॉ. सुनीता - अपने पाठकों से कोई रोचक प्रसंग बांटना चाहेंगे ?

विमलेश त्रिपाठी - हां, मेरी एक कविता है एक देश और मरे हुए लोग। मैंने पहला अंश जब लिखा तो लोगों ने उसे बहुत पसंद किया – कविता कोश में उसे मुखपृष्ठ पर लगभग महीने भर लगा कर रख्खा गया। लेकिन एक दिन एक सज्जन का फोन आया – कहने लगे कि दिल्ली से बोल रहा हूं और आपकी कविता एक देश और मरे हुए लोग पढ़ी है और उसका मैंने एक पंफलेट बनवाया है और उसे हर सरकारी दफ्तरों में चिपकाकर आता हूं। मुझे लगा कि कोई सनकी आदमी होगा। लेकिन मुझे तब बहुत आश्चर्य हुआ जब कई महीने बाद उन्होंने वह पैंफ्लेट मेरे पते पर भेज दिया। उनसे मेरी कभी मुलाकात नहीं है लेकिन उन्होंने पता नहीं कितने लोगों तक मेरी उस कविता को पहुंचाया है। यह एक ऐसी घटना है जो बार-बार मुझे प्ररित करती है कि मैं भी अपनी कविताओं को लेकर ट्रेन और बसों में चला जाऊं लोगों को सुनाऊं और बाटूं, लेकिन ये अब तक नहीं हो सका है – लेकिन कोई आश्चर्य नहीं जब ये काम मैं भविष्य में करूं।

डॉ. सुनीता - आपकी अधिकत्तर रचनाये किस विधा में हैं ? इनके सृजन के पीछे क्या मकसद छुपा रहा है ?

विमलेश त्रिपाठी - मैंने शुरूआत कविता से की तो जाहिर है कि मैंने कविताएं ढेरों मात्रा में लिखी हैं। उन ढेरों कविताओं में से कुछ कविताएं मेरे पहले संकलन हम बचे रहेंगे में संकलित है। कहानी लिखने की शुरूआत मैंने 2004 में किया और साल में लगभग एक कहानी लिखी। 2012 में एक कहानी संग्रह ज्ञानपीठ से छपी जिसपर त्ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार मिला। इन रचनाओं को लिखने का कोई खास मकसद नहीं होता – बस एक उद्वेलन होता है जिसे आप शब्दबद्ध किए बिना नहीं रह पाते। मेरा मानना है कि हमें अपने जीवन का मकसद सही रखना चाहिए – तभी हम सार्थक साहित्य लिख पाएंगे। ऐसा साहित्य जो और लोगों के लिए भी उपयोगी होगा।

डॉ. सुनीता - आपने शैक्षिक जीवन के बारे में क्रम से बतायें और यह भी कि आप किस तरह के विद्यार्थी रहे हैं ?

विमलेश त्रिपाठी - मेरी शुरू की पढ़ाई गांव में हुई। गांव में एक पेड़ के नीचे कक्षाएं लगती थीं और हम बच्चे घास पर बैठकर स्लेट पर ककहरा लिखते थे। उस समय पैर में चप्पल नहीं होते थे – बाल संवरे हुए नहीं होते थे। बेतरतीब अवस्था में स्कूल की घंटी बजने के साथ हम स्कूल पहुंचते थे और छुट्टी की घंटी के बजने का इंतजार करते थे। कैलास राम मास्टर हमें पहाड़ा सिखाते थे।
कक्षा पांच के बाद मुझे कोलकाता भेज दिया गया – बाबा का कहना था कि मैं गांव में रहकर नान्हों की संगत में बिगड़ रहा हूं। कोलकाता आने के बाद एक कमरे में बंद हो जाना पड़ा – गांव की खुली हवा से महानगर के पिंजड़े में जाना इतना कष्टकर था कि मैंने बाद में गांव की स्मृतियों पर ढेरों कविताएं लिखीं। गनीमत है अनगराहित भाई कविता मेरी उस पीड़ा को अबिव्यक्त करती है।
पढ़ने में मैं हमेशा से अच्छा था – लेकिन गणित से मुझे बहुत डर लगता था। बाद में मैंने गणित को एक चुनौती की तरह लिया और एच.एस. में भौतिकी और रासायन के साथ गणित भी लिया – लेकिन मुझे लगा कि विज्ञान पढ़कर मैं आइस्टीन या न्युटन नहीं बन सकता, सो मैंने विज्ञान को अलविदा कह दिया और साहित्य लेकर प्रसेडेन्सी कॉलेज से ऑनर्स किया। मैं अपने बैच में विश्वविद्यालय का टॉपर था यानि गोल्ड मेडलिस्ट। ये और बात है कि मैंने वह मेडल कभी लिया नहीं। उसके बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. और बीएड और अब पी.एचडी।

डॉ. सुनीता - जब आपको कोई पुरस्कार मिलता है तो कैसा लगता है लेखकीय बुनावट में उर्जा का संचार किस तरह से आता है ?

विमलेश त्रिपाठी - देखिए पुरस्कार मिलने से बस इतनी ही खुशी मिलती है कि मेरे काम को देखा पढ़ा जा रहा है- किसी अलग तरह की ऊर्जा के संचार की बात मैं स्वीकार नहीं करूंगा। वह ऊर्जा तो अपने आप आती है – कई बार जल्दी आती है कभी-कभी महीनों इंतजार करना पड़ता है। हां, यह जरूर है कि पुरस्कार मिलने से लोग आपको जानने-पढ़ने लगते हैं –यह सुखद होता है-इससे मुझे इनकार नहीं।

डॉ. सुनीता - अपने पारिवारिक जीवन शैली के बारे में भी कुछ बतायें?

विमलेश त्रिपाठी - जीवन शैली बहुत बेतरतीब है। घर और दफ्तर करने में रोज के लगभग 12 घंटे चले जाते हैं। महानगर कोलकाता में सड़क और रेल की यात्रा लगभग रोज ही करनी पड़ती है और यह कम त्रासद नहीं है। लेखन के लिए सिर्फ रात बचती है। कई बार दो बजे रात को नींद खुलती है और कम्प्युटर ऑन कर के लिखने बैठ जाता हूं। जाहिर है कि यह जीवन शैली घर के नॉर्मल लोगों को पसंद नहीं – लेकिन और कोई उपाय नहीं सुझता। समय नहीं होने के कारण कई जरूरी किताबें भी नहीं पढ़ पाता तो कोफ्त होती है – कई बार नौकरी छोड़ देने का मन करता है लेकिन फिर सोचता हूं कि नौकरी गई तो खाऊंगा क्या। बस इसी कश्मकश के बीच यह जीवन है।

डॉ. सुनीता - बचपन से ही लेखन का शौक था या बड़े होने पर किसी प्रेरणा या घटना ने उत्प्रेरित किया?

विमलेश त्रिपाठी - जैसा कि पहले ही बताया मैंने कि साहित्य से बचपन में ही गहरी अभिरूचि पैदा हो गई थी। हां, लेखन की शुरूआत बहुत बाद में हुई - जब कक्षा आठ में पढ़ता होऊंगा। लेकिन पहली मुकम्मल कविता 2001 में लिखी। बाद में वह कविता वसुधा में छपी। लेखन के पीछे कोई बाहरी प्रेरणा तो नहीं रही लेकिन मनीषा जी के जीवन में आने के बाद लेखन के प्रति मैं गंभीर हुआ। यह भी सच है कि बाद के दिनों में उनसे संबंध जटिल होते चले गए। लेकिन लेखन के लिए मैं हमेशा अपने अंदर की प्ररणा को ही दायी मानता हूं – मेरे अंदर एक बेचैनी है – एक तरह की पीड़ा है जो मुझे लेखन के लिए हमेशा उकसाती रहती है।





डॉ. सुनीता - हिन्दी साहित्य की कौन सी रचना आपके बेहद करीब है और क्यों ?

विमलेश त्रिपाठी - बचपन से ही तुलसी दास की रचनाएं घर में पढ़ी और गायी जाती थीं। मेरे बाबा स्व. कौशल तिवारी पढ़े-लिखे न थे लेकिन उनको रामचरितमानस की सैकड़ों चौपाइयां याद थीं। वे उनके अर्थ भी बखूबी समझते थे। पिता को भी संस्कार में रामचरित मानस और गीता नामक ग्रन्थ मिले थे। लेकिन पिता तो कोलकाता में रहते थे और कभी-कभी ही गांव आते थे।
बाद में पिता से रामचरित मानस की चौपाइयां और रश्मिरथि की पंक्तियां सुनने को मिलीं। पिता को रश्मिरथि पूरी कंढस्थ थी। लेकिन सबसे पहली पुस्तक जिसने मुझे गहराई के साथ झिंझोड़ा वह थी अज्ञेय की शेखरःएक जीवनी। मैं आज भी रामचरित मानस और शेखरःएक जीवनी को अपने बेहद करीब पाता हूं। बाद में दो कवि उसके साथ जुड़ गए एक निराला और दूसरे मुक्तिबोध। उनकी रचनाएं भी मुझे बेहद प्रिय हैं। हां, डॉ.रामविलास शर्मा की पुस्तक निराला की साहित्य साधना भी मेरे बहुत करीब है।
डॉ. सुनीता - मौजूदा हालात जिस तरह से कटघरे में है उसे देखते हुए साहित्यकारों की भूमिका कैसी होनी चाहिए ?

विमलेश त्रिपाठी - वर्तमान हालात जैसे हैं उसमें सबसे ज्यादा मूल्यों की ही क्षति दिख रही है। हम आज सबसे अधिक स्वार्थी और बेइमान होते जा रहे हैं। ऐसे में सबसे पहली बात तो यह कि साहित्यकार को अपने लेखन के साथ जीवन में भी इमानदार होना होगा।  मुझे हमेशा लगता रहा है के व्यक्तिगत जीवन में इमानदार हुए बिना कोई बड़ी रचना नहीं लिखी जा सकती – और अगर लिख भी दी गई तो जनता तक उसकी पहुंच उस तरह नहीं हो पाएगी –जैसी होनी चाहिए। व्यक्तिगत इमानदारी की बात मुक्तिबोध ने कभी उठाई थी – वह आज बहुत कम रह गई है जबकि उसकी सबसे ज्यादा जरूरत आज है।
दूसरी बात यह कि अगर जनता आपके साहित्य तक नहीं पहुंच पा रही है तो आपको जनता के पास पहुंचना होगा। एक बार जब आप जनता के अंदर साहित्य और संस्कृति के संस्कार भर पाएंगे तो आगे का काम आसान हो जाएगा। मुझे मालूम है कि यह आसान नहीं है लेकिन यह करने के अलावा और कोई रास्ता भी नहीं। एक घर में चुपचाप लिखकर आप यह कहेंगे कि साहब लोग तो मुझे पढ़ नहीं रहे हैं तो यह व्यवहारिक बात नहीं होगी – कम से कम आज के इस समय में तो नहीं ही होगी। आज लेखक को लिखने के साथ उसे पाठक तक पहुंचाने का यह दुहरा बोझ उठाना ही होगा।

डॉ. सुनीता - 'अधूरे अंत की शुरूआत' और 'हम बचे रहेंगे' के खासियत के बारे में बतायें ?

विमलेश त्रिपाठी - अधूरे अंत की शुरूआत मेरा पहला कहानी संग्रह है जिसे ज्ञानपीठ का युवा नवलेखन पुर्साकर दिया गया है। इस संग्रह में मेरी सात कहानियां शामिल हैं। इसकी खासियत तो आप पढ़कर ही जान पाएंगी लेकिन यह जरूर कहना चाहूंगा कि यह कहानियां वर्तमान संवेदनहीन समय में संवेदना को बचाने की कहानियां हैं।

हम बचे रहेंगे मेरा कविता संग्रह है जिसमें मेरी लगभग साठ कविताएं संकलित हैं । इस संग्रह पर प्रतिष्ठित सूत्र सम्मान दिया गया है। यह संतोष की बात है कि दोनों ही किताबें खासी चर्चित हो रही हैं। एक नए लेखक के लिए यह संतोष और राहत की बात है।

डॉ. सुनीता - स्थानीय भाषाओँ में रचे गये साहित्य का फलक सिकुड़ा हुआ होता है इस संदर्भ में आप क्या विचार रखते हैं?

विमलेश त्रिपाठी - ऐसा बिल्कुल नहीं है कि स्थानीय भाषाओं में लिखे गए साहित्य का फलक सिकुड़ा हुआ ही हो। स्थानीय भाषाओं में भी कालजयी कृतियां लिखी गई हैं- लिखी जा रही हैं। देखना यह होता है कि लेखक की सोच का फलक कितना व्यापक है। हिन्दी या अन्य किसी भाषा में लिखी हुई कोई रचना का फलक भी सिकुड़ा हुआ हो सकता है और एक स्थानीय भाषा या लोक भाषा में लिखी हुई रचना भी व्यापक हो सकती है। अगर हम भोजपुरी के भिखारी ठाकुर का उदाहरण लें तो बात समझ में आती है कि उस नाटककार की दृष्टि कितनी व्यापक थी। फसी तरह मैथेली और अवधि में भी अच्छी रचनाएं लिखी जा रही हैं – हां यह अवश्य है कि उन रचनाओं में स्थानीयता का पुट होता है लेकिन यह पुट तो मैला आंचल और राग दरबारी में भी है लेकिन वे दोनों काफी महत्वपूर्ण उपन्यास हैं। तो मेरा कहना बस इतना ही है कि भाषा चाहे कोई भी हो लेखक की दृष्टि व्यापक होनी चाहिए।

डॉ. सुनीता - साहित्य दिलों में बंधे गाँठ के सरहदों को तोड़ने में कितना कारगर साबित हुआ है इस पर अपना नजरिया रखें ?

विमलेश त्रिपाठी - यह कहना बाकई बहुत कठिन है लेकिन हम यह कह सकते हैं कि साहित्य का काम ही दिलों में बंधे गांठों को खोलना है। लेकिन साहित्य यह काम बहुत धीमे-धीमे करता है – यह जरूर है कि साहित्य का यह काम आज बहुत कम नजर आता है बहुत पहले बिगाड़ के डर से इमान की बात करने में लोग नहीं हिचकते थे – अब यह काम लोगों के लिए सहज हो गया है – लोग बिगाड़ के डर से इमान की बात नहीं कहते या ऐसे लोगों की कमी होती जा रही है।  लेकिन फिर वही मसला आता है कि जो साहित्य दिलों की गांठे सुलझाने के लिए लिखा जा रहा है वह लोगों के दिलों तक तो पहुंचे। दुर्भाग्य है कि हमारा हिन्दी साहित्य लिखा तो बहुत जा रहा है लेकिन पढ़ा बहुत कम जा रहा है। सबसे बड़ा मसला साहित्य को पाठकों तक पहुंचाना है – सिर्फ पहुंचाना ही नहीं उन्हें पढ़ने के लिए प्ररित करना भी। यदि वह लोगों तक पहुंचता है, यदि वे पढ़ते हैं तो जो दिलों की जमी गांठ जरूर पिघलेगी।

डॉ. सुनीता - आज के बाजारीकरण,भूमंडलीकरण और पूंजीवाद के दौर में सृजन,जन सरोकार से दूर हुआ है ?

विमलेश त्रिपाठी - जनता के लिए साहित्य या साहित्य का जन सरोकार ये दोनों एक ही बातें हैं। यह कहना सही नहीं है कि साहित्य जन सरोकार से दूर हुआ है। हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि वह जनता तक पहुंच नहीं पा रहा है, या जिस जन के लिए आप लिख रहे हैं, उसे उसके बारे में कुछ मालूम ही नहीं है।
बाजारीकरण के दौर में कुछ लोग हैं जो सिर्फ हिट होने और पुरस्कार बटोरने के लिए लिख रहे हैं – उनके लिए चाची और प्रेमिका में कोई अंतर नहीं है। शब्दों के चोंचले चलाने या सेक्स की छौंक लगाकर आप सस्ती लोकप्रियता जरूर अर्जित कर सकते हैं लेकिन इससे साहित्य का व्यापक उद्देश्य पूरा नहीं होता।

जो ऊर्जा आप पुरस्कार के लिए जोड़-तोड़ में लगा रहे हैं, उसका उपयोग आप जनता से जुड़ने में करें तो मसला आसान हो जाएगा।

डॉ. सुनीता - आपकी सबसे पहली रचना कौन थी,कब आई और कहाँ से प्रकाशित हुई ?

विमलेश त्रिपाठी - मेरी पहली रचना एक भोजपुरी गीत के रूप में थी। अब मुझे याद भी नहीं। यह तब की बात है जब में पांच-छः साल का रहा होऊंगा। उसके बाद एक कविता 1995 में प्रेसिडेंसी कॉलेज की गृह पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। अब मुझे उसका शीर्षक ही याद है – हम कहीं से ढह रहे हैं। पहली बार मेरी कविताएं वागर्थ में 2003 में प्रकाशित हुईं। उसके बाद ही लागातार प्रकाशन का सिलसिला शुरू हुआ। 2004 में पहली कहानी वागर्थ में ही प्रकाशित हुई।

डॉ. सुनीता - बदलते परिवेश में संस्कृति/सभ्यता और साहित्य में किस तरह के परिवर्तन आपके नजर में परिलक्षित होते हैं ?

विमलेश त्रिपाठी - साहित्य और संस्कृति में परिवर्तन को बाजारवाद और उपभोक्तवादी संस्कृति के आइने में देखा जा सकता है। आज हम बहुत ज्यादा आत्मकेन्द्रित और व्यवसायी बुद्धि के होते जा रहे हैं। हमारे अंदर का इमानदार आदमी आज कहीं पलायन कर गया है। संस्कृति भी एक तरह के व्यवसाय में बदलती जा रही है और साहित्य खेमेबाजी और गुटों का आखाड़ा बना हुआ है। ऐसे में बहुत मुश्किल है लेखन के साथ जनता से सरोकार स्थापित कर पाना। फिर भी कुछ जीवट लोग हैं जो यह काम लागातार कर रहे हैं। मैं उन्हें प्रणाम करता हूं।


डॉ. सुनीता - कौन-कौन से साहित्यकार आपके सृजन कर्म के केन्द्र में हैं और क्यों ?

विमलेश त्रिपाठी - निराला मेरे आदर्श रचनाकार हैं। इसके अलावा प्रेमचंद, अज्ञेय, नागार्जुन, मुक्तिबोध, केदारनाथ सिंह, कुंवर नारायण, राजेश जोशी के साथ ही उदय प्रकाश, अरूण कमल आदि को मैं पढ़ता सराहता रहा हूं।

लेकिन मेरी रचना के केन्द्र में मेरी कोशिश रहती है कि मेरा मेरापन कायम रहे।


डॉ. सुनीता - चलते-चलाते कुछ और बताना चाहेंगे जो छूट गया हो और आपको लगता है लोगों तक पहुंचनी चाहिए?

विमलेश त्रिपाठी - यही कि आप खुद साहित्य से जुड़ें और अपने बच्चों को भी उससे जोड़ें। क्योंकि इस कठिन समय में साहित्य ही है जो आपको मनुष्य बनाए रख सकती है। अच्छा साहित्य पढ़ें और लोगों को पढ़ने के लिए प्रेरित करें।



परिचय और संपर्क   
                   

डा. सुनीता                                       
        
जन्म तिथि -- 12 जुलाई 1982 

जन्मस्थान चंदौली , उ.प्र.

शिक्षा - बी.एच.यू. से पीएच.डी., नेट, बी.एड.

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉगों में रचनाएँ -  लेख, कहानी, कविताएँ -- प्रकाशित |
                            
सम्प्रति - सहायक प्रोफ़ेसर, हंसराज कॉलेज, नई  दिल्ली |   























2 टिप्‍पणियां:

  1. अपने समय के एक चर्चित रचनाकार को गहराई से जानने का अवसर मिला इस बातचीत के माध्यम से . बहुत सुंदर प्रस्तुति ......बहुत -बहुत बधाई .

    -नित्यानन्द गायेन

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  2. मनीषा त्रिपाठी1:35 pm, जुलाई 18, 2013

    बहुत अच्छी बात चीत। एक चर्चित लेखक की सोच से रूबरू होना अच्छा लगा।

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