‘अनहद’ पत्रिका का तीसरा अंक प्रकाशित
साहित्य को गतिशील बनाये
रखने और उसे समाज के बड़े तबके तक पहुँचाने में लघु पत्रिकाओं कि
भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है | हिंदी सहित भारत की अन्य भाषाओं
में इनका स्वर्णिम इतिहास उपरोक्त तथ्य की गवाही देता है , कि इनमें एक तरफ जहाँ
साहित्य कि मुख्य विधाएं फली-फूली और विकसित हुयी है , वही
उसकी गौड़ विधाओं को भी पर्याप्त आदर और सम्मान मिला है | इनकी बहसों ने तो सदा ही रचनात्मकता के नए मानदंड और प्रतिमान स्थापित
किये हैं | हिंदी में इन लघु पत्रिकाओं का लगभग सौ सालो का
इतिहास हमें गर्व करने के बहुत सारे अवसर उपलब्ध करता है |
इन पत्रिकाओं का वर्तमान
परिदृश्य दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ा नजर आता है | एक तरफ तो इस पूरे
आंदोलन पर प्रश्न-चिन्ह खड़ा किया जा रहा है , वहीँ दूसरी ओर
इन पत्रिकाओं की भारी उपस्थिति और उनमे गुड़वत्ता की दृष्टि से रचे जा रहे
उत्कृष्ट साहित्य को भी स्वीकार्यता मिल रही है |
पत्रिकाएं प्रतिष्ठानों तक ही सीमित नहीं रही, वरन व्यक्तिगत एवम सामूहिक प्रयासों तक भी
फैलती चली गयी हैं | आज हिंदी में सौ से अधिक लघु पत्रिकाएं
निकलती हैं | मासिक, द्वी-मासिक
, त्रय-मासिक और अनियतकालीन आवृत्ति के साथ उन्होंने
साहित्यिक परिदृश्य की जीवंतता बरक़रार रखी हैं | ‘अनहद’ ऐसी ही एक अनियतकालीन साहित्यिक लघु
पत्रिका है , जिसका तीसरा अंक हमारे सामने है | पिछले दोनों अंकों की परंपरा और
गंभीरता को बरक़रार रखते हुए इसके सम्पादक संतोष
चतुर्वेदी ने इस अंक में भी अपनी मेहनत , लगन , दृष्टि और दूरदर्शिता
का परिचय दिया है | लगभग एक साल के अंतराल पर छपने वाली इस एकल प्रयास वाली
पत्रिका में अपने दौर के कई महत्वपूर्ण और सुपरिचित नामों को तो पढ़ा ही जा सकता है
, कुछ नए और बेहद संभावनाशील चेहरों से भी परिचित हुआ जा सकता है | विविधता को
बनाए रखते हुए , गंभीरता का निर्वाह करते हुए और अनावश्यक विवादों से अपने आपको बचाते
हुए ‘अनहद’ का यह तीसरा अंक न सिर्फ पठनीय
है , वरन संग्रहणीय भी |
अंक की शुरुआत हमेशा की तरह ‘ स्मरण में है आज जीवन ’ कालम से हुयी है | इस
कालम के अंतर्गत अपने दौर की उन तीन महत्वपूर्ण शख्शियतों - शहरयार , सत्यदेव दुबे और भगवत रावत – को याद किया गया है , जो गत दिनों इस दुनिया से
हमेशा – हमेशा के लिए रुख्शत हो गयी थीं | ‘अख़लाक़
मुहम्मद खान’ उर्फ़ शहरयार को याद करते हुए वर्तमान साहित्य की संपादक नमिता सिंह ने लिखा है , कि ग़ालिब और फैज की
परम्परा से जुड़ने वाले शहरयार साहब का यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा , कि उन्हें
हमारा समाज एक फ़िल्मी गीतकार के रूप में ही अधिक जानता है | वहीँ अली अहमद फातमी ने उनकी नज्मों और गजलों के
सहारे यह समझाने की कोशिश की है , कि शहरयार ने न सिर्फ आम-अवाम की समस्याओं पर
अपना लेखन केन्द्रित किया , वरन भविष्य के लिए रास्ता भी दिखाया | ‘ थियेटर के
जीनियस वोहेमियन सत्यदेव दुबे ’ को याद
करते हुए सत्यदेव त्रिपाठी ने भी एक
बहुत ही मार्मिक संस्मरण लिखा है , जिससे पता चलता है , कि हमारे दौर की इतनी
महत्वपूर्ण शख्शियत का दैनिक जीवन कितना सरल और कितना सामान्य था | युवा आलोचक भरत प्रसाद ने ‘सीधी लकीर के साधक’ शीर्षक से ‘भगवत रावत’ को याद किया है , और ‘एमर्सन’ की
उक्ति के सहारे अपनी बात कही है , जिसमें उसने कहा था , कि ‘केवल प्रतिभा ही लेखक
नहीं बना सकती , कृति के पीछे एक व्यक्तित्व भी होना चाहिए |’ कहना न होगा , कि यह
उक्ति भगवत रावत पर बिलकुल सटीक बैठती है |
जन्मशती
वर्ष कालम के अंतर्गत इस बार ‘अनहद’
ने रामविलास शर्मा को याद किया है |
हालाकि ‘प्रदीप सक्सेना’ के सम्पादन
में उद्भावना ने ‘रामविलास शर्मा’ पर ऐतिहासिक अंक निकाला है , लेकिन ‘अनहद’ का यह प्रयास भी अपने सीमित अर्थों में ही सही
, मह्त्वपूर्ण है | हमारे दौर के चार महत्वपूर्ण आलोचकों – शिवकुमार मिश्र , जीवन सिंह , अजय तिवारी और वैभव सिंह – के
लेखों के जरिये एक अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है , कि उस इतिहास-पुरुष ने अपने
जीवन में कितनी विविधता के साथ , कितनी विपुल मात्रा में लेखन कार्य किया है |
‘वाम कसमों की
रस्में’ कालम में प्रदीप सक्सेना
ने पिछली बार का. किशोरी लाल को याद किया था , वहीँ इस बार उन्होंने अपने आपको का. भुवनेश्वरी प्रताप पर केंद्रित किया है |
का. भुवनेश्वरी के पत्र कई मायनों में आँख खोलने वाले हैं | वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की कवितायें हमेशा की तरह अपनी
पक्षधरता के साथ पढी जा सकती हैं , तो इतिहासकार ‘हरवंश
मुखिया’ ने अपने महत्वपूर्ण लेख ‘इंडोलाजी
: कुछ रिक्त स्थान’ में इतिहास को पढने और समझने की एक नयी कोशिश की है
| पिछले अंक की भांति इस अंक में भी ‘चंद्रकांत
देवताले’ की डायरी के
महत्वपूर्ण पन्ने छपे हैं , जिसमें अन्य बातों के अलावा , उनके द्वारा
‘महाविद्यालय के शिक्षकों का वर्गीकरण’ देखने लायक है | अर्थशास्त्री ‘सौमेन सरकार’ का लेख यह आह्वान करता है , कि यदि
हम अपने समय को बचाना चाहते हैं , तो हमें इतिहास, भूगोल , समाज , संस्कृति सबको
मृत्यु से जीवन और जीजिविषा की ओर लौटाने का प्रयास करना होगा | एक और महत्वपूर्ण
कालम के अंतर्गत रंगकर्मी अशोक भौमिक पिछली बार चित्रकार ‘जैनुल आबेदीन’
की कला को देखा परखा था , वहीँ इस बार उन्होंने प्रख्यात चित्रकार ‘चित्तप्रसाद’ के ‘मजदूर-किसान सम्बन्धी चित्रों’
के सहारे यह समझने की कोशिश की है , कि एक कलाकार की अपने समाज में क्या भूमिका
होनी चाहिए | बसंत त्रिपाठी और राजीव कुमार के दो महत्वपूर्ण लेख भी इस अंक में
पढ़े जा सकते हैं , जो उन्होंने रवीन्द्र नाथ ठाकुर
को याद करते हुए लिखे हैं |
‘अनहद’
के इस तीसरे अंक में चार कहानियां है ,
और चार ही कवियों की कवितायें भी | कुमार अम्बुज , वंदना राग , विमलचंद्र पाण्डेय और वंदना
शुक्ल अपनी कहानियों के साथ इस अंक में उपस्थित हैं , तो नीलकमल , ज्योति चावला , प्रदीप जिलवाने और अरविन्द
अपनी कविताओं के साथ | इनके बारे में मैं चाहूंगा , कि आप इन्हें पढ़कर ही यह फैसला
करें कि ‘अनहद’ का यह प्रयास कितना सार्थक बन पड़ा है | हां ...! कविताओं की संख्या
थोड़ी अधिक होनी चाहिए थीं , और यह कमी कुछ खटकती सी है | पहले अंक में ‘अनहद’ में कुल ग्यारह कवियों की कवितायें छपी थीं ,
जो दूसरे अंक में सिमटकर सात रह गयीं और इस अंक में और सिकुड़ते हुए पांच पर चली
गयी हैं | जिस पत्रिका का संपादक स्वयं एक महत्वपूर्ण कवि हो , उसे इस कमी पर थोडा
ध्यान देना चाहिए | विमर्श कालम में
युवा कथाकार और आलोचक राकेश बिहारी ने
एक छोटा किन्तु महत्वपूर्ण लेख लिखा है , कि कहानी में कविता का प्रयोग कितना
आवश्यक है और कितना अनावश्यक | इसी कालम में हमारे समय के महत्वपूर्ण आलोचक मधुरेश ने ‘इतिहास
में वर्तमान’ शीर्षक से उपन्यास आलोचना पर एक बड़ा लेख लिखा है , जिसमें
पांच उपन्यासों के सहारे यह समझने की कोशिश की गयी है , कि ‘अपने समय को परिभाषित
करने की प्रक्रिया में इतिहासकार ही नहीं , जब-तब साहित्यकार भी इतिहास की ओर जाते
हैं और लोकवृत , तिजंधरी कथाओं तथा चरित नायकों के सहारे इतिहास को रचते हैं |’ कसौटी कालम के अंतर्गत ‘ग्यारह’ पुस्तकों की
समीक्षा भी ‘अनहद’ के इस अंक में पढी जा
सकती है | समीक्षक हैं – सरयू प्रसाद मिश्र ,
अमीरचन्द वैश्य , पंकज पराशर, सुमन कुमार सिंह , शैलेय , दिनेश कर्नाटक , विजय गौड़
, अरुण कुमार , प्रेम शंकर , रामजी तिवारी और रमाकांत राय |
तो कुल मिलाकर ‘संतोष
चतुर्वेदी’ के इस सार्थक प्रयास का स्वागत किया जाना चाहिए , और साथ यह
उम्मीद भी , कि भविष्य में ‘अनहद’ न सिर्फ
अपनी गंभीरता को कायम रखेगी , वरन अपने आपको और अधिक आत्मनिर्भर भी बनायेगी |
नोट ......
अनहद की प्रति मंगाने के
लिए ‘सम्पादक’ अनहद
के बैंक खाते में एक सौ रुपये जमा कर हमारे
फोन नं- 09450614857
पर सूचित करें. अनहद के बैंक खाते का विवरण इस प्रकार है
Account
no- 31481251626
शाखा: स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया, मऊ, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश
शाखा क्रमांक: 11205, IFSC code: SBIN 0011205
अनहद
समकालीन सृजन का
समवेत नाद
वर्ष-३, अंक-३ : जनवरी २०१३
(इस प्रति का मूल्य रुपये अस्सी मात्र)
प्रस्तुतकर्ता
रामजी
तिवारी
बलिया
, उ.प्र.
मो.
न. – 09450546312
http://news.apnimaati.com/2013/03/blog-post_31.html
जवाब देंहटाएंएक शानदार एवं संग्रहणीय अंक ....मिलने की प्रतीक्षा है
जवाब देंहटाएं- नित्यानंद