रविवार, 30 सितंबर 2012

हमारी अर्थी शाही हो नहीं सकती - अनुज लुगुन


                                  अनुज लुगुन 


हिंदी कविता का यह युवा स्वर वहां से आता है , जहाँ पलाश के फूलने का समय है , और जंगल जल रहा है | वह आपको अपने यहाँ आने का निमंत्रण तो दे रहा है , लेकिन इसलिए नहीं कि आप उसे लूट लें , वरन इसलिए कि आपका जीवन भी थोडा संगीतमय हो जाए | अन्यथा वह खुली चेतावनी भी देने से नहीं हिचकता , कि भले ही गंगाराम के साथ जो कुछ हुआ हो , लेकिन हम आखिरी सांस तक आपसे लड़ेंगे | वह जानता है , कि उसकी अर्थी शाही नहीं हो सकती , लेकिन वह यह भी जानता है , कि शाही अर्थियों वाले इतिहास के गर्त में बिला जाते हैं , और हक़ के लिए लड़ने वाले सदा सदा के लिए अमर | 

अनुज को जानने वाले और उनसे मिलने वाले यह जानते हैं , कि यह युवा कवि बाहर से जितना सौम्य और शांत दीखता है , भीतर से उतना ही चेतन-संपन्न , प्रतिरोधी और दृढ निश्चयी है ....| सिताब दियारा ब्लाग ,युवा कविता के इस स्वर को अपनी हार्दिक शुभकामनाएं देता है |


                                तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर अनुज लुगुन की कवितायें 

हमारी अर्थी शाही  हो नहीं सकती


हमारे सपनों में  रहा है
एक जोड़ी  बैल  से हल जोतते  हुए
खेतों के  सम्मान  को  बनाए रखना
हमारे सपनों में  रहा है
कोइल  नदी  के किनारे एक घर
जहाँ  हमसे ज्यादा हमारे  सपने हों
हमारे सपनों में  रहा है
कारो नदी  की एक छुअन
जो  हमारी आलिंगनबद्ध  बाजुओं को
और  गाढ़ा  करे
हमारे सपनों में  रहा है
मान्दर  और  नगाड़ों  की  ताल में  
उन्मत्त बियाह

हमने  कभी सल्तनत  की  कामना  नहीं   की
हमने  नहीं चाहा  कि  हमारा  राज्याभिषेक  हो
हमारे शाही  होने की  कामना  में  रहा है 
अंजुरी  भर सपनों  का  सच होना
दम तोड़ते  वक्त बाहों  की  अटूट  जकड़न
और  रक्तिम  होंठों की  अंतिम  प्रगाढ़  मुहर।

हमने चाहा  कि
पंडुकों  की नींद
गिलहरियों  की धमाचौकड़ी  से टूट   भी  जाए
तो उनके  सपने  न टूटें
हमने चाहा  कि
फसलों की  नस्ल  बची रहे
खेतों के  आसमान के  साथ
हमने चाहा  कि जंगल  बचा  रहे
अपने  कुल-गोत्र  के  साथ
पृथ्वी  को हम पृथ्वी  की तरह ही देखें
पेड़  की  जगह पेड़  ही  देखें
नदी की  जगह नदी
समुद्र  की जगह  समुद्र
और पहाड़ की  जगह  पहाड़,

हमारी चाह और  उसके  होने  के बीच
एक खाई  है
उतनी ही गहरी उतनी  ही  लम्बी
जितनी  गहरी खाई 
दिल्ली  और  सारण्डा  जंगल  के बीच है
जितनी  दूरी राँची  और  जलडेगा  के बीच है
इसके  बीच हैं-
खड़े  होने की  ज़िद  में
बार-बार कूडे़  के  ढेर  में  गिरते बच्चे
अनचाहे  प्रसव  के  खिलाफ 
सवाल जन्माती औरतें
खेत की बिवाइयों  को
अपने चेहरे  से  उधेड़ते  किसान
और  अपने  गलन के  खिलाफ
आग के  भट्ठों  में लोहा  गलाते  मजदूर
इनके  इरादों  को
आग  से ज्यादा  गर्म बनाने  के  लिए
अपनी चाह  के  होने  के  लिए
  मेरी  प्रणरत  दोस्त!
हमारी अर्थी  शाही हो  नहीं  सकती।


हमारी मौत पर
शोक  गीत  के  धुन  सुनाई  नहीं देंगे
हमारी मौत से कहीं कोई  अवकाश  नहीं  होगा
अखबारी  परिचर्चाओं  से बाहर
हमारी अर्थी  पर केवल  सफेद चादर होगी
धरती, आकाश
हवा, पानी  और  आग के  रंगों  से  रंगी
हम केवल  याद  किए जाएँगे
उन लोगों  के  किस्सों  में
जो हमारे साथ  घायल  हुए थे
जब  भी  उनकी आँखें  ढुलकेंगी
शाही अर्थी के  मायने  बेमानी होगें
लोग उनके  शोक  गीतों  पर ध्यान नहीं देंगे
वे  केवल  हमारे किस्से सुनेंगे
हमारी अंतिम  क्रिया पर
रचे जाएँगे संघर्ष  के  गीत
गीतों  में  कहा  जाएगा
क्यों धरती का  रंग हमारे  बदन-सा है
क्यों  आकाश  हमारी आँखों  से छोटा  है
क्यों हवा की  गति हमारे  कदमों  से धीमी है
क्यों पानी से ज्यादा रास्ता  हमने  बनाए
क्यों आग की  तपिश हमारी बातों  से  कम है

  मेरी  युद्धरत  दोस्त!
तुम कभी  हारना  मत
हम लड़ते  हुए मारे  जाएँगे
उन जंगली  पगडंडियों  में 
उन चौराहों में
उन घाटों  में
जहाँ  जीवन  सबसे  अधिक  संभव  होगा।


पहाड़ पर लालटेन-2
(कवि  मंगलेश  डबराल को  याद करते  हुए)


जंगल  में  नहीं सोया  है  रक्त
हाथ  की  नाड़ियों में   दौड़ने  लगा है
और  मुट्ठियाँ  तन गई   हैं
सिर  पर गट्ठर  ढोई    औरतें
बूढ़ी  नहीं  हुईं 
समय का  पहिया उल्टा घूम  गया
औरतें जवान  लड़कियों  में  तब्दील  हो  गईं
और  सिर  पर ढोए  लकड़ियों  का गट्ठर
कन्धे की  बन्दूकों  में
डरते-खाँसते 
अंत  में  गायब हो  जाने  वाले  बूढ़े
भरोसा  करने  लगे हैं अपने बेटों  पर
कि पुरखों  की जमीन,  जंगल  और  नदियाँ
वे बचा कर रखेंगे
कब्र  में जाने  से पहले

उन्हें  यकीन  होने  लगा  है 
कि उनके  बेटों  की मौत  के  बाद
उनके  पोते  उठ खड़े  होंगे
उन्हीं  अधिकारों के  लिए
तमाम मोर्चेबन्दी  होगी
अनेक  यातनाएँ  झेलेंगे
पर उठ खड़े होंगे
नन्हीं  चिरई की  तरह
अन्त में बची सूखी  झाड़ियों  पर भी
और  वे  अपने  संघर्ष  के  गीत
आने  वाली पीढ़ियों  को हस्तांतरित  करेंगे।


जंगल  के  बाहर  से
लगातार  फरमान  आ रहे हैं  
जमीन  और खेतों को
पराजित सिपाही  के  आखिरी  विकल्प-सा
उनके  दस्तावेजों में सौंप  देने की
गिरवी से होने  वाली  आस  को भी  रौंदते  हुए
लगातार मौत की  फुनगियों  पर
लटकाए जा  रहे हैं किसान
गदर के  मंजरों  को
आम के  पेड़ों  और  बरगद की  डालों  पर
दुहराया  जा रहा  है
और  जुटाई  जा  रही है 
देशभक्ति  की जमीन

भूख  और  बेदखली  के  पंजों  से
जंगल  के बाहर  से आती  फरमान
आ पहुँची  है  जंगलों  तक
जंगल  के लोग  पत्थरों  पर
पैने  कर चुके  हैं अपनी-अपनी दरान्तियाँ
और  अपनी  पुरखैती  दहाड़ को सँभाले  हुए
रात के  अँधेरे  में
अपने पुरखों  की शिकार कला पर
चर्चा  कर रहे हैं।


पहाड़ पर जली  लालटेन
शोलों में   तब्दील  हो  चुकी  है
और  देख  रही है 
शिकारी  आँखों से उसकी रोशनी  में
चट्टानों  के नीचे दबी 
वर्षों  की  आर्तनाद
पेड़ की  टहनियों  पर
टँगी  पत्तों की  पीली उदासी
भूख  और  बेदखली  की  ऊब
जमीन  और खेती  के  मसलों  पर
जंगलों  और  गाँवों की 
घेरेबन्दी  के खिलाफ

धीरे-धीरे  टिमटिमाती पहाड़ पर  लालटेन
अब धधक रही है  ज्वालामुखी  की  तरह.....



तुम अगर आओ

अगर तुम  आना  चाहो
तो आओ
एक-एक  सीढ़ी  चढ़ते  हुए
भोर  के  सूरज  की  तरह पहाड़ियों  पर
और  लीप दो उजासपन  के  गोबर।

अगर तुम  आना  चाहो
तो आओ
हमारे जंगलों में
वसन्त के  बयार की तरह
और  सूखी डंठलियों पर भर  दो
नई  कोंपलें।

अगर तुम  आना  चाहो
तो आओ
हमारी जमीन  पर
बादलों  की बेबसी  की तरह
और  हरी कर  जाओ
हमारी कोख।


अगर तुम आना चाहो
तो आओ
हमारी नदियों  पर
पंडुक की  तरह
और  अपनी  चोंच  से
इसकी  धार  पर
संगीत दे  जाओ।

अगर ऐसा  कुछ  भी  नहीं  हुआ
तुम्हारे   आने  पर
तो -
पहाड़ों  से उतर आएँगे हमारे देवता
आग बरसाने के  लिए
हमारे  पुरखों  की पवित्र  आत्माएँ
उठ खड़ी  होंगी
अपने सीने  का पत्थर
हाथ  में  लिए  हुए।
अगर ऐसा  भी  कुछ  नहीं हुआ
तो हमारी माताओं और  बहनों  को भी 
सामने खड़े  पाओगे
तीर-धनुष और  कुल्हाड़ी  लिए  हुए
हमारी कलाओं  में  नहीं   है
कुछ  भी  धोखे  से हासिल  करना   


यह  पलाश के फूलने का  समय  है।

(1)

जंगल में  कोयल कूक  रही  है
जाम की डालियों  पर
पपीहे छुआ-हुई  खेल रहे हैं
गिलहरियों  की धमाचौकड़ी
पंडुओं की नींद  तोड़  रही  है
यह  पलाश के फूलने का  समय  है।


यह  पलाश के फूलने का  समय  है
उनके  जूडे़ में  खोंसी  हुई है
सखुए  की टहनी
कानों में  सरहुल की बाली
अखाडे़ में  इतराती  हुई वे
किसी  भी जवान  मर्द से
कह सकती हैं अपने लिए  एक  दोना
हड़ियाँ  का रस बचाए रखने के  लिए
यह  पलाश के फूलने का  समय  है।


यह  पलाश के फूलने का  समय  है
उछलती  हुईं वे गोबर  लीप रही हैं
उनका  मन सिर  पर ढोए
चुएँ  के पानी  की  तरह छलक  रहा है
सरना  में पूजा के  लिए
साखू  के पत्तों पर
वे  बाँस के  तिनके नचा रही हैं
यह  पलाश के फूलने क समय  है।

(2)

यह  पलाश के फूलने का  समय  है
रेत  पर बने  बच्चों के घरौन्दों  से
उठ रहा है धुआँ
हवाओं  में घुल  रहा  है बारूद
चट्टानों  से रिसते  पानी पर
सूरज  की  चमक लाल  है
और जंगल की पगडंडियों में
दिखाई पड़ता है  दंतेवाड़ा
यह  पलाश के फूलने का  समय  है।


यह  पलाश के फूलने का  समय  है
नियमगिरि  से निकले नदी के तट  पर
कन्दू पक कर लाल  है
हट चुकी है  मकडे़ की  जाली
गुफाओं  की  खबर  है
खदानों में वेदान्ता  का विज्ञापन टंगा  है,
साखू  के सागर 
सारंडा  की  लहरों  में
बिछ गई  है बारूदी सुरंगें
हर  दस्तक का रंग  यहाँ  लाल है।

यह  पलाश के फूलने का  समय  है।
दूर-दूर  तक जगंल का हर  कोना पलाश  है
साखू पलाश है
केन्दू पलाश है
पलाश आग है
आग  पलाश  है
जंगल में  पलाश के फूल को देख
आप  भ्रमित  हो सकते  हैं कि
जंगल जल रहा है

जंगल में  जलते  आग  को देख
आप कतई न समझें
पालश  फूल  रहा  है
यह  पलाश के फूलने का  समय  हैं
और,  जंगल जल रहा है।



गंगाराम कलुण्डिया

गंगाराम  कलुण्डिया  भारतीय  सेना  के   देशभक्त  सैनिक  थे।  1971  ई0  के भारत-पाकिस्तान युद्ध में  उन्होंने  लड़ाई  लड़ी  और  राष्ट्रपति  द्वारा  वीरता  पुरस्कार  से सम्मानित  भी  हुए।  तत्पश्चात् सूबेदार  होकर  सेवानिवृत्त  हुए।  अपने  क्षेत्र  पं0  सिंहभूम के  कोल्हान  में  खरकई  नदी  में  सरकार  की ईचा  बाँध  परियोजना  से  विस्थापित  हो रहे  आदिवासियों  का  इन्होंने  नेतृत्व  किया  तथा  विस्थापन  के  विरूद्ध  आन्दोलन चलाया।  प्रतिरोध  के  बढ़ते  तेवर  को  देख  पुलिस  ने  3  अप्रैल  1982 ई0  को  शीर्ष नेतृत्वकर्ता गंगाराम कलुण्डिया की गोली मार कर हत्या कर दी और  आन्दोलन  दबा दिया  गया।
यह  कविता  गंगाराम  कलुण्डिया  और  उन्हीं  की तरह  अपने  अस्तित्व  और अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष करने  वाले  आदिवासियों  को  समर्पित।


1. देश

गंगाराम  !

तुम कहाँ मरने  वाले  थे
पुलिस  की  गोली  से
तुम्हें  तो  दुश्मन  की  सेना  भी
खरोंच  नहीं  पाई  थी  सीमा  पर
दनदनाते  गोलियों
धमकते  गोलों  और 
क्षत-विक्षत लाशों के  बीच सीमा  पर
लुढ़कते-गुढ़कते-  रेंगते

अपनी  बन्दूक  थामे  रहनेवाले  योद्धा  थे
तुम कहाँ मरने  वाले  थे
पुलिस  की गोली  से।

खून के छीटों  के बीच
याद  आता  रहा  होगा  तुम्हें
बेर  की काँटीली  डालियों  पर
फुदकते  गाँव  के  बच्चे औरतों  के  साथ
चट्टान के ओखल में 
मडुवा  कूटती पत्नी  का  साँझाया  चेहरा
और  देश  के करोड़ों  लोगों  की आँखों  में 
तैरती  मछरी  की  बेबसी
दुश्मनों  के गोला-बारूद  की लहरों  को 
रोकने  के लिए गंगाराम, 
तुम  बाँध  थे
तुम कहाँ मरने  वाले  थे
पुलिस  की  गोली  से।

गंगाराम  !
तुमने  बाँध  दी  थी  बाँध
अपनी  छाती  की  दीवार  से
और  उसमें  अठखेलियाँ करने  लगी  थीं
देश  के  मानचित्र की रेखाएँ
उनकी  अठखेलियों  में तुम्हें  याद  आता  था
अपने  बच्चें  की  शरारत
उनकी  शरारतों  के  लिए

तुम जान देने  वाले  पिता  थे
पिता  की  भूमिका  में
देश  के      वीर  सपूत  थे
तुम कहाँ करने  वाले  थे
पुलिस  की  गोली  से।


2.  देश भक्ति


गंगाराम  !

तुम कहाँ मरने  वाले  थे
पुलिस  की  गोली  से
लेकिन आ  धमके  एक दिन
पुलिसिया दल-बल के साथ
तुम्हारी  छाती  पर  बाँध-बाँधने,
तुम्हारी  छाती-
जिसकी  शिराओें  में  होती  हैं  नदियाँ
अस्थियों  में  वृक्षों  की प्रजाति
मास-  पिण्डों  में  होते  हैं
मौसमों  के गीत
आखाड़ों  की थिरकन
तुम्हारी  छाती  में  होती  है 
पृथ्वी और  उसकी  सम्पूर्ण  प्रकृति,
तुम्हारी  छाती  पर आए मूँग  दलने
तुम्हारे  ही  देश  के  लोग।

गंगाराम  !
तुम  देश  के  लिए  हो
या, देश  तुम्हारे  लिए
संसदीय बहसों  और
अदालती  फैसलों  में  नहीं  हुआ  है निर्णय

जबकि तुमने  तय कर लिया  था 
कि तुम  लड़ोगें  अपने  देश  के लिए।
सलामी  देते  झण्डे  के
हरेपन  के  लिए तुम  लड़े  थे
जंगलों  के लिए
जिसको  सींच  जाती  थी  पहाड़ी  नदी
पहाड़ी  नदी  की  सलामी  को
बंधक  बना  कर रोक  देना
देशभक्त सिपाही  की  तरह
तुम्हें  कतई  स्वीकार  नहीं  था
तुम  नहीं  चाहतें  थे
देसाउली  और  सरना  से उठकर
हमारे  जीवन में 
उतर जाने  वाली  ठंडी  हवा
उस  बाँध  में  डूब  कर निर्वात्  हो  जाए
उस  निर्वात्  को  भेदने  के लिए तुम  चक्रवात थे
तुमने  आह्वान  किया  शिकारी  बोंगा  से
तीर  के  निशाने  से  न चूकने  के लिए
तुमने याद किया
पुरखों  का आदिम  गीत
तुम्हारी  आवाज कोल्हान  में  फैल  गई
निकल पड़े  बूढे़-बच्चें  औरत  सभी
धान काटती  दरान्ती
और  लकड़ी  काटती 
कुल्हाड़ी  लेकर सदियों  से  बहती    रही
अपनी  धार  बचाने गंगाराम  !
तुम मुर्गें  की  पहली बाग़ थे

तुम कहाँ मरने  वाले  थे
पुलिस  की गोली  से।


3.  देशांतरण

गंगाराम  !

तुम कहाँ मरने  वाले  थे
पुलिस  की  गोली  से
तुम्हें  तो  मृत्यु  ने
ले  लिया  था 
आकस्मिक  अपनी  गोद में

जिसके  सामने  हर कोई  मौन है 
मगर तुम  सदैव इस मौन  से 
अजेय  संवाद  करते  रहे
तुम्हारा  अजेय संवाद
आज  भी  बहस करता  है
उनके गिरेबान  से
जब भी  वो
कदम  उठाते  हैं 
तुम्हारे  देश  की ओर।


गंगाराम  !

तुम्हारे  मरने  पर
नहीं  झुकाया  गया  तिरंगा
नहीं हुए  सरकारी  अवकाश
और  न ही  बजाए  गए
शोक  गीत  के  धुन
तुम्हारे  बंधुओं  के अलावा
किसी  का घर  अंधेरे  नहीं  हुआ

तुम्हारे  मरने  से  ही 
ऊँचा हो सकता था देश  का  मान
बढ़  सकती  थी  उसकी  चमक
विज्ञापनों  में  वे  कह सकते  थे
अपने  प्रोडक्ट  का नाम।

गंगाराम  !

तुम मरे 
ऊँचे आसनों पर
बैठे लोगों  की  कागजी  फाँस से
जहाँ  हाशिए  पर रखे  गए  हैं तुम्हारे  लोग
देशांतर  है  जहाँ
तुम्हारे  ग्लोब  का  मानचित्र 
तुम्हारी  आखरी  तड़प  ने
उनके  सफेद  कागजों  पर
कालिख  पोत  दी  है
मरते  हुए  भी
देशी  हितों  के  अखबार निकले
गंगाराम  !

तुम कहाँ मरने  वाले  थे  
पुलिस  की  गोली  से
तुम्हें  तो  दुश्मनों की सेना  भी
खरोंच  नहीं  पाई  थी  सीमा  पर।



परिचय 
अनुज लुगुन 
जन्म - 1986 
सिमडेगा , झारखण्ड
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में शोध छात्र 
भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित 








13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत दिनों से अनुज की कवितायें कहीं नहीं दिखीं थीं. आज यहाँ पढ़कर संतोष हुआ कि वह सक्रिय हैं. आपने सही कहा कि ऊपर से शांत दिखने वाले इस कवि के भीतर एक लगातार उमड़ता हुआ असंतोष और व्यग्रता का समंदर है जिसे वह अपनी कविताओं में पूरी ताक़त के साथ दर्ज करता है.

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  2. अनुज लुगुन को पढना एक ऐसे जंगल से गुजरना है जिसमें सौन्दर्य है , किन्तु उससे अधिक पीड़ा है और पीड़ा से भी अधिक विद्रोह है... यूँ अंतिम दो कवितायेँ पहले से पढ़ी हुई थीं.. हमारी अर्थी शाही हो नहीं सकती , पहाड़ पर लालटेन -२ , तुम अगर आओ . नयी है ..
    इधर कुछ दिनों पहले महाश्वेता देवी का उपन्यास पढ़ रहा था --जंगल के दावेदार, .. ये कवितायेँ उन्ही जंगलों में खिंच ले जा रही हैं... निर्वासन और दावेदारी का वही संघर्ष है वहां वह बिरसा मुंडा के नेतृत्व में चल रहा था तो यहाँ गंगाराम के | उपन्यास का अंतिम पाराग्राफ़ था--" धरती पर कुछ समाप्त नहीं होता .....संघर्ष भी समाप्त नहीं होता , इसका अंत हो ही नहीं सकता| पराजय से संघर्ष का अंत नहीं होता | वह बना रह जाता है , क्योंकि मानुस रह जाता है, हम रह जाते हैं|"
    तुम अगर आओ कविता एक अर्थ में विशेष रही कि कवि अपने विरोधियों की सही पहचान चाहता है , अँधा विरोध नहीं....इधर कई ऐसी विचार धाराएँ चल ररही हैं जो अपने संघर्ष को पूरी जाति के विरोध में रखती हैं, तब होता यह है कि उनके लिए विरोधी जाति की हर ईकाई विरोधी है , और वे उस प्रत्येक ईकाई से वह सब करना चाहते हैं जो इतिहास में उन्हें झेलना पड़ा ... यह विचारधारा उतनी ही खतरनाक है कि कोई कहे अंग्रेजों ने हम पर उतने अत्याचार किये तो अब हमें भी उसपर उतने अत्याचार करने ही होंगे...
    अनुज लुगुन की कवितायेँ विशवास बनाये रखती है... यह इसकी ताकत है..

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  3. मद्धिम स्वर में संवाद करते करते कवि हमें एक गहरी पीड़ा और आक्रोश के बीच खड़ा कर देता है | अपनी जमीन पर डटे रहने का प्रण , उन तमाम विस्थापितों की तरफ से पैदा हुई आवाज है | और हाँ ...संवाद भी कितना बेधक हो सकता है , यह भी यहाँ देखा जा सकता है ...| keshav tiwari , baanda , u.p.

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  4. अदभुत कविताएँ हैं. अनुज लुगुन को पढ़ना एक अलग एहसास जगाता है. इसे शब्दों में बया करना मुश्किल है. ... तेजभान तेज

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  5. 'पहाड़ों से उतर आयेंगे देवता आग बरसाने के लिए' , इधर बीच की कविताओं में अगर आग शब्द का किसी ने जायज और सार्थक प्रयोग किया है , तो वे अनुज ही हैं |अनुज की कवितायेँ इशारा करने में यकीन नहीं रखती , सीधे संवाद करती हैं | 'अनुज' मेरे मित्रों में हैं , और उनकी कविताओं में जो गाथा , साहस , शौर्य और प्रश्न दीखते हैं , वे अन्यत्र दुर्लभ हैं ...उन्हें हमारी शुभकामनाये अरु सिताब दियारा का आभार ...|

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    1. ये टिप्पड़ी 'अरविन्द' की है

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    2. अनुज की कविताएँ साझा करने के लिए सिताब का शुक्रिया.."कवि का साथ" में सुना था..१५ जुलाई,२०११ को..हेबिटेट सेंटर के गुलमोहर में उनकी "पलाश" अलग सुगंध छोड़ गई थी.

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  6. अनुज लुगुन की कवितायेँ पहली बार पढ़ीं और पढकर अहसास हुआ कि कविता को दरअसल किस तेबर की दरकार है .यह कलम बनी रहे ,इसकी धार तेज़ होती रहे .आमीन .

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  7. व्यापक फलक और सहज शिल्पकारिता इन कविताओं को सीधे दिल में उतार देती है और दिमाग के तार झनझना उठते है. पहले भी अलग-अलग जगह पढ़ी थी, लेकिन एक साथ पढना एक अलग ही अहसास करा गया.प्रस्तुति के लिए धन्यवाद.

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  8. जो भी प्रकृति और मनुष्य के साथ जुड़ा है, वह मेरा कवि है.

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  9. अनुज लुगुन की कवितायेँ बार बार पढ़ने का मन करता है इनकी कवितायेँ आप को झकझोरती है जगती है और प्रश्न करती है ...

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  10. बड़े भाई अनुज लुगुन की कवितायें अपने परिवेश और समय के अभिव्यक्ति की सार्थकता प्रमाणित करती है , बधाई !

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