बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

कोरोना समय के सबक

 

                                           कोरोना समय के सबक

 

देश इस समय कोरोना महामारी की विपदा को झेल रहा है. इसकी वजह से देश में लाखों लोगों की जान गयी है और करोड़ों लोग बीमार पड़े हैं. इसकी व्यापकता इतनी है कि आप देश के किसी भी व्यक्ति से बात कीजिये, उसके पास एक पीड़ाजनक अनुभव है, उसके पास अपने किसी प्रियजन को खोने की कहानी है. बहुत सारे लोग आपको यह शिकायत करते हुए मिल जायेंगे कि यदि उनके प्रियजनों को समय से अस्पताल में जगह मिली होती, उन्हें जरूरत की दवाएं मिली होती, आक्सीजन और वेंटिलेटर का सहारा मिला होता तो उनकी जान बचाई जा सकती थी. तब शायद वे हमारे बीच में जिंदा होते. कहना न होगा कि इस महामारी के खौफ का साया अभी भी लाखो-करोड़ों लोगों के सिर पर मंडरा रहा है. ऐसा लगता है कि हम किसी अँधेरी सुरंग में फंस गए हैं, जहाँ से निकलने का कोई रास्ता दिखाई नहीं देता.

बहरहाल मानव जाति का इतिहास बताता है कि वह ऐसी अनगिनत आपदाओं से गुजरा है. उसने समय के साथ इन पर विजय भी हासिल की है. ऐसे में हमारे पास यह भरोसा करने का पर्याप्त कारण है कि कोरोना महामारी के बीच से भी हमारा समाज एक न एक दिन जरुर बाहर निकलेगा. और तब वह इस बात पर भी मंथन करेगा कि हमसे कहाँ चूक हुई. हमने इस महामारी से क्या सबक सीखा. जैसे कि एक-दो सबक तो तुरंत ही जेहन में उठ रहे हैं.

पहला सबक है कि भारत का स्वास्थ्य ढांचा अपर्याप्त और कमजोर हैं, और इसे सार्वजनिक भागीदारी से ही बेहतर बनाया जा सकता है. जबकि दूसरा सबक यह है कि आपातकाल में सरकार की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती है. और जो लोग सामाजिक जीवन में बाजार की भूमिका को बढ़ाने और सरकार की भूमिका को कम करने की वकालत करते हैं, वे सिरे से गलत हैं.

तो बात पहले स्वास्थ्य ढाँचे की करते हैं. हम जानते हैं कि देश का स्वास्थ्य ढांचा सार्वजनिक और निजी दो पायों पर खड़ा है. इसमें संकल्पना की गयी है कि सरकार को मुख्यतया स्वास्थ्य सेवाओं की जिम्मेदारी अपने हाथों मे लेनी चाहिए. और जो लोग आर्थिक रूप से सक्षम हैं, वे निजी स्वास्थ्य ढाँचे का लाभ उठा सकते हैं. सार्वजनिक स्वास्थ्य ढाँचे की बात करें तो भारत में इसे कई स्तरों पर निर्मित किया गया है. आरंभिक स्तर पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और मोहल्ला क्लिनिक की व्यवस्था है, जिनका मुख्य कार्य गाँव और मोहल्ले में जनता की छोटी-मोटी बीमारियों का त्वरित और प्राथमिक इलाज करना होता है. इसके ऊपर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र होते हैं, जिसमें कई गावों को मिलाकर एक बेहतर अस्पताल की व्यवस्था की गयी है. फिर जिला चिकित्सालय आता है, जो विशेषज्ञ डाक्टरों की टीम और बेहतर चिकित्सा सुविधाओं से सुसज्जित होता है. और इसके ऊपर मेडिकल कालेज, पी.जी.आई. और एम्स जैसे संस्थान आते हैं, जहाँ जटिल बीमारियों का इलाज, शोध और चिकित्सा सेवा की पढ़ाई होती है.

अब सवाल यह उठता है कि इतने बेहतरीन सिस्टम के होते हुए भी हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था इतनी बदहाल क्यों है. तो इसका जबाब पाने के लिए हमें उदारीकरण के बाद सरकार की नीतियों मे आये बदलाव को समझना होगा. जब सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर से अपना ध्यान कम करना शुरू कर दिया. और इसकी जगह भरने के लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित किया जाने लगा. नतीजा यह हुआ कि इतने बेहतरीन ढाँचे का जो लाभ देश की जनता को मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया. अस्पतालों मे नियमित डाक्टरों की नियुक्तियां प्रभावित हुई. उनका बजट कम हुआ. और धीरे-धीरे पूरी व्यवस्था पंगु होती चली गयी. बल्कि यह कहना अधिक समीचीन होगा कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का पूरा सिस्टम स्वयं ही बीमार पड़ता चला गया. इसका अपवाद दक्षिण भारत के कुछ राज्यों मे दिखाई देता है, जहाँ पर सरकारों ने सार्वजनिक स्वास्थ्य ढाँचे पर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान दिया. जिसकी वजह से ये राज्य इस आपदा में भी उत्तर भारत के तमाम राज्यों की अपेक्षा बेहतर प्रदर्शन करते हुए नजर आ रहे हैं.

इसी से जुड़ा महामारी का एक सबक यह भी है कि भारत जैसे विकासशील देश में स्वास्थ्य सेवाओं को निजी क्षेत्र के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है. “आपदा मे अवसर” वाले शब्द-युग्म का जो दुरूपयोग इन निजी अस्पतालों ने इस दौर में किया है, वह आपराधिक और मनुष्य-विरोधी है. अनियंत्रित लूट-घसोट की जो कहानियां सुनाई दे रही है, वह रूह को कपाने वाली हैं. कुछ कारपोरेट अस्पतालों ने कोविड के इलाज में पंद्रह से बीस लाख रूपये का पैकेज चलाया. तो उनकी देखादेखी कुछ साधारण निजी अस्पतालों ने भी अपनी सेवायें पांच से दस गुना तक महंगी कर दी. इन्होंने भी प्रति मरीज पांच से सात लाख रूपये की वसूली की है. अब आप कल्पना करके देखिये कि हमारे देश मे कितने ऐसे लोग हैं जो अपनी बीमारी में पांच सात लाख रूपये का खर्च वहन कर सकते हैं. 135 करोड़ की आबादी मे 100 करोड़ लोग तो बिलकुल भी नहीं. ऐसे में आम आदमी के सामने मरने के अलावा और क्या विकल्प बचता है.

बेशक कुछ लोग ये बात कह सकते हैं कि महामारी के समय में, जहाँ एक साथ हजारों और लाखों लोग बीमार पड़ रहे हैं. और जहाँ विकसित देशों की स्वास्थ्य सेवायें भी कम पड़ रही है, ऐसे में हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था का चरमरा जाना स्वाभाविक ही है. तो उनके लिए यह कहना जरुरी लगता है कि इस दौर में हमारा परफार्मेंस दुनिया के अधिकतर विकासशील देशों के बराबर भी नहीं दिखाई देता है. विकसित देशों से तो तुलना ही बेमानी है. सच्चाई यह है कि इस महामारी ने हमारे देश को वैश्विक पटल पर काफी पीछे धकेल दिया है. और यह किसी भी राष्ट्र के लिए सुखद नहीं कहा जा सकता है.

इस महामारी का दूसरा सबक सरकार और व्यवस्था को लेकर है. पूंजीवादी व्यवस्था के समर्थकों की तरफ से एक तर्क सामान्यतया दिया जाता है कि वही सरकार अच्छी होती है, जो कम शासन करती है. जो लोगों के जीवन मे कम हस्तक्षेप करती है. जो कुल मिलाकार अर्थव्यवस्था को अपने हिसाब से संचालित होने का अवसर देती है, और अपने किनारे रहती है. जबकि कोविड समय ने दिखाया है कि समाज जब कठिन दौर से गुजर रहा होता है, तो सरकार को दूरदर्शी सोच वाली और चुस्त-दुरुस्त होनी चाहिए. केवल बाजार के भरोसे छोड़कर समाज का भला नही किया जा सकता है. क्योंकि ऐसे दौर में बाजार एक दैत्य का रूप धारण कर लेता है और वह समाज को ही नष्ट करने पर आमादा हो सकता है. बाजार के पास नैतिकता नहीं होती, वह कमजोर और गरीब लोगों की मदद भी नहीं करता. बजाय इसके वह दूसरे की पीड़ा मे अपने लिए अवसर तलाशना शुरू कर देता है और अमानवीय व्यवहार करने लगता है. ऐसे में सक्रिय और समझदार सरकार की जरूरत होती है.

दुर्भाग्यवश भारत में ये दोनों बातें मिसिंग दिखाई देती है. अव्वल तो सरकार के स्तर पर जिस सक्रियता की उम्मीद की जा रही थी, वह भी नहीं दिखाई देती. और दूसरे सरकार से जिस समझदारी भरे निर्णय की अपेक्षा थी, उस मोर्चे पर भी निराशा ही मिली है. जैसे कोरोना की शुरुआत मे सरकार ने डिनायल मोड अपनाया. उसने नमस्ते-ट्रम्प जैसा भीडभाड़ वाला कार्यक्रम आयोजित कराया. सरकार बनाने और गिराने का खेल खेला. जब लाकडाउन के बाद करोड़ों लोग सड़कों पर बेहाल होकर निकले, तो उसे नजरअंदाज किया गया. जब लोग आक्सीजन और अस्पताल में बिस्तर के लिए परेशान हो रहे थे, तो उसने आंकड़ों को छिपाना आरम्भ कर दिया. संक्रमण को कम दिखाने के लिए टेस्ट कम किये जाने लगे. जब निजी अस्पतालों में लूट-घसोट चरम पर थी, तो उसने सपष्ट और कठोर निर्णय लेने के बजाय केवल औपचारिक आदेश निकाले. महामारी से पीड़ित जनता का ध्यान डाइवर्ट करने के लिए मीडिया के द्वारा एक विशेष समुदाय को टार्गेट किया गया. और फिर पहली लहर के गुजर जाने के बाद अपनी पीठ थपथपाने के लिए आनन-फानन में कोरोना पर विजय प्राप्त करने की घोषणा तक कर दी गयी.

इसी पहलू का दूसरा दुखद अध्याय यह भी रहा कि सरकार से जब सबसे अधिक दूरदर्शितापूर्ण निर्णयों की अपेक्षा की जा रही थी, तब उसने सबसे कमजोर और साधारण निर्णय लिए. उसने चार घंटे की नोटिस पर देश मे लाकडाउन की घोषणा कर दी. बिना इस बात की परवाह किये कि भारत की एक बड़ी आबादी किस तरह से रोजदिन कमाती है और खाती है. उसके पास रहने के लिए कोई मुकम्मल जगह नहीं है. उसके पास भविष्य के लिए कोई पूंजी नहीं है. और यह सब इतना अचानक हुआ कि पूरे देश में लाखो-करोड़ लोग विभिन्न जगहों पर फंस गये. फिर हमने वह हृदयविदारक दृश्य भी देखा, जिसमें करोड़ों लोग देश के शहरों से निकलकर अपने गाँव और घर के लिए पैदल ही चल पड़े. इस प्रयास में सैकड़ों लोगों की जान तक चली गयी.

सरकार से एक बड़ी चूक तब भी हुई, जब विशेषज्ञों की सलाह को दरकिनार करते हुए उसने समय-पूर्व कोरोना पर विजय प्राप्त करने की घोषणा कर दी. उसने बड़ी राजनैतिक रैलियां की और धार्मिक आयोजनो की इजाजत दी. इसका सन्देश जनता के बीच यह गया कि कोरोना तो अब समाप्त हो चुका है. जबकि सच्चाई यह थी कि दुनिया भर में दूसरी लहर आ चुकी थी. और तब हमें सचेत हो जाना चाहिए था कि देर-सबेर यह लहर भारत में भी आयेगी. लेकिन हमारे नेतृत्व ने फरवरी महीने में ही इस पर विजय की घोषणा कर दी और हम निश्चिन्त हो गए.

और फिर वैक्सीनेशन के मामले में भी सरकार ने समझदारी नहीं दिखाई. कोरोना के आरम्भ में जब दुनिया भर में वैक्सीन के विकास पर काम हो रहा था, उसी समय विकसित देशों ने अपनी जनसंख्या के हिसाब से कम्पनियों को आर्डर दे दिए थे. उन्होंने अपने लिए एडवांस बुकिंग करा ली थी. लेकिन उस समय भारत मे कहा गया कि हम आत्मनिर्भर तरीके से इससे निबटेंगे. फिर जब फरवरी का महीना आया और कोरोना संक्रमण कम होने लगा तो सरकार ने उस थोड़ी सी वैक्सीन को भी मैत्री के नाम पर दुनिया भर में भेजना शुरू कर दिया. और तभी इस विपदा ने देश को अपने आगोश मे ले लिया.

क्या हम कोरोना समय की इन सीखों का ख्याल रखेंगे ? हमारे समाज का भविष्य काफी हद तक इस पर निर्भर होगा.

 

 

प्रस्तुतकर्ता

रामजी तिवारी


बुधवार, 13 फ़रवरी 2019

होलोकास्ट और सिनेमा - रामजी तिवारी


"होलोकास्ट और सिनेमा" को लेकर इधर बीच एक पत्रिका के कुछ लिखा था | सोचा कि इसे सिताब दियारा ब्लॉग के पाठकों के साथ भी सांझा करता चलूँ | 
                                                     रामजी तिवारी                           

                        "होलोकास्ट और सिनेमा"



नाजी आत्याचारों की कहानी दुनिया भर में मनुष्यता के ऊपर एक धब्बे के रूप में विदित है | घृणा और नफरत की एक ऐसी कहानी, जिसने मानव जाति को हमेशा-हमेशा के लिए शर्मसार कर दिया | कहते हैं कि इस नरसंहार में लगभग 60 लाख यहूदियों को मौत के घाट उतार दिया गया | हिटलर के नेतृत्व में जर्मन राष्ट्रवाद अपने हिंसक रूप में सामने आया | उसने अपने हर एक विरोधी को देश का दुश्मन, जर्मनी की राह में बाधा और इस नाते रास्ते से हटाने योग्य करार दिया | जर्मन लोगों के मन में यह बात बिठा दी गयी कि उनकी प्रगति में सबसे बड़ी बाधा यहूदी लोग ही हैं | यदि जर्मनी को उन्नति के रास्ते पर आगे बढ़ना है तो इस दुनिया से यहूदियों का समूल अंत होना जरुरी है | फिर विश्व युद्ध में जैसे-जैसे जर्मनी का शिकंजा यूरोप की गर्दन पर कसता गया, यहूदी जनता के नरसंहार का सिलसिला भी बढ़ता गया | एक बहुत सुनियोजित तरीके से यह प्रयास किया गया कि दुनिया से यहूदी लोगों का खात्मा कर दिया जाए | नाजी जर्मनी द्वारा यहूदी जनता के इसी नरसंहार को ‘होलाकास्ट’ के रूप में जाना जाता है |

मनुष्यता के ऊपर कहर बनकर बरपी इस त्रासदी को दुनिया भर में याद किया जाता है | अभिव्यक्ति की लगभग सभी विधाओं में इस नरसंहार पर काम हुआ है, इसकी निंदा हुई है | मसलन यदि हम सिनेमा के माध्यम को ही देखते हैं, तब भी हमारे सामने सैकड़ों फ़िल्में तैर जाती हैं, जिसमें होलोकास्ट को चित्रित किया गया है | खासकर यूरोप में तो शायद ही कोई ऐसी फ़िल्मी धारा होगी, जिसने इस विषय पर हाथ नहीं आजमाया हो । और हॉलीवुड में तो इसकी भरमार है ही । ऐसे में एक सामान्य दर्शक के मन में यह सवाल जरुर उठता है कि इस विषय को सिनेमा के माध्यम से समझने के लिए हमें किन फिल्मों का सहारा लेना चाहिए | जाहिर है कि यह चयन बहुत कठिन है | मगर फिर भी इतनी सारी फिल्मों के बीच से कुछ फ़िल्में जरूर ऐसी चिन्हित की जा सकती हैं, जिन्हें देखने की सलाह हर फ़िल्म समीक्षक देता है । मसलन यदि पांच फिल्मों को चुनने की बात हो तो मैं निम्न फिल्मों का जिक्र करना चाहूँगा |
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1 – शिंडलर्स लिस्ट ..... (निर्देशक – स्टीफन स्पीलबर्ग)



नाजी अत्याचारों (होलोकास्ट) पर बनी 'शिंडलर्स लिस्ट' एक ऐसी फ़िल्म है,  जो कई दफा देखने के बावजूद हर दफ़ा हमें देखने के लिए प्रेरित करती है | जिसे देखते हुए हम भीतर से बेचैन हो उठते हैं । यह विश्व सिनेमा में बनी ऐसी बहुत सारी फिल्मों की अग्रणी धावक है, जिसे हम पापकार्न खाते हुए नहीं देख सकते । इसे देखते हुए एक सवाल मन में जरूर आता है कि जब कोई दर्शक इस फ़िल्म को देखते हुए इतना व्यथित और दुखी हो जाता है तो उन लोगों का मन और दिल आखिर किस तरह से निर्मित हुआ होगा, जिन्होंने इन अत्याचारों को संपादित किया ? उनका दिमाग किस तरह से विकसित हुआ होगा, जिन्होंने लाखो-लाख लोगों को मौत के घाट उतारा ? इतनी क्रूरताएं उनके भीतर आखिर किस तरह से पैदा हुयी होंगी..... ?

यह एक बड़े फलक की फिल्म है, जिसमें कई कहानियां एक साथ गुथी हुई हैं | मगर मुख्य कहानी एक जर्मन व्यापारी आस्कर शिंडलर के इर्द-गिर्द घूमती है | वह बर्तन (एनामल) बनाने कारखाना चलाता है | जब यहूदी लोगों को डेथ कैम्प में मारने के लिए ले जाया जाता है तो सबसे पहले उन लोगों की छटनी की जाती है, जो स्वस्थ होते हैं, जो अभी काम लायक होते हैं | इन स्वस्थ लोगों को ऐसे कारखानों में मजदूर के रूप में बेचा जाता है | जब तक वे काम करने के लायक होते हैं, उन्हें इन कारखानों में जीवन दान मिला रहता है | और जब वे अशक्त या बीमार होने लगते हैं तो उन्हें वापस डेथ कैम्प में भेज दिया जाता है, जहाँ मृत्यु उनका इन्तजार कर रही होती है |

आस्कर शिंडलर एक संवेदनशील आदमी रहता है | वह धीरे-धीरे अपने कारखाने में काम करने वाले यहूदियों से प्यार करने लगता है | उसकी कोशिश होती है उसका कोई भी आदमी डेथ कैम्प में वापस नहीं जाए | यहाँ तक कि वह डेथ कैम्प से ऐसे यहूदियों को भी मजदूर के रूप में खरीदता है, जिनकी उसे जरुरत नहीं होती | यहूदी मजदूरों की उसकी सूची लम्बी होती जाती है | बदले में वह अधिकारियों को घूस देता है | यह कहकर कि ये लोग अभी काम लायक है | बेशक कि इस प्रयास में वह दिवालिया हो जाता है लेकिन उसकी सूची के यहूदी लोग जिन्दा बच रहते हैं | इस बीच विश्व युद्ध में जर्मनी की हार हो जाती है | आस्कर शिंडलर अपने कारखाने से विदा लेता है | वहां के मजदूर यहूदी लोग उसे अश्रु पूरित विदाई देते हैं | वह बहुत मार्मिक दृश्य है जिसमें विदा होता हुआ शिंडलर अफ़सोस करता है कि यदि उसके पास कुछ और पैसे होते तो वह कुछ और लोगों की जान बचा सकता था | एक यहूदी मजदूर आगे बढ़कर शिंडलर को थामता है | एक हिब्रू की कहावत के साथ कि “जिसने एक व्यक्ति की जान बचाई, उसने पूरी दुनिया की जान बचाई |”

यह फ़िल्म बताती है कि नफरत के बीज़ से यदि पागलपन की यह क्रूर दास्तान लिखी जा सकती है तो उस नफरत और पागलपन की आंधी में भी प्यार और मानवीयता के कुछ पौधे अवश्य बचे रह जाते हैं । इस फ़िल्म की सबसे बड़ी सफलता भी यही है कि इतनी क्रूरता और अमानवीयता को फिल्माने के बाद भी यह दर्शको को थोड़ा और मानवीय, थोडा और संवेदनशील बनाती है । यह हिंसा का उत्सवीकरण नहीं करती, वरन उसके विपरीत हिंसात्मक दौर में भी मनुष्य का विवेकीकरण करती है । 

2 – लाइफ इज ब्यूटीफुल ... (निर्देशक – राबर्तो बेंजिनी)



'शिंडलर्स लिस्ट' यदि होलोकास्ट पर बनी हुयी भव्य हालीवुडीय प्रस्तुति है तो 'लाइफ़ इज ब्यूटीफुल' उस विषय पर बनने वाली संवेदनशील इटेलियन प्रस्तुति ...। फिल्म निर्देशक राबर्तो बेंजिनी का कमाल पूरी फिल्म में दिखाई देता है, जिसमें उनका नायक सामने से तो हंसता दिखाई देता है मगर उसके पीछे दर्शकों के आंसू नहीं सूखते । शिंडलर्स लिस्ट’ जहां सीधे-सीधे और कई बार तो वीभत्सता के लगभग ठीक बीचोबीच दर्शकों को ले जाकर खड़ी कर देती है, जिसमे उस दौर की यहूदी जनता पिस रही थी । तो ‘लाइफ इज ब्यूटीफुल’ एक सामान्य सी चलती हुयी हँसती-खेलती जिंदगी में ऐसा कंकड़ मारती है कि सामने दिखने वाली हंसी के पीछे की जिंदगी एक भयानक दुःस्वप्न में बदल जाती है । 

इस फिल्म को पहली बार में ही दर्शक पूरा देख पाता है | अन्यथा उसके बाद वह जितनी बार भी फिल्म से गुजरता है, उस अंतिम दृश्य से पहले वाले दृश्य को फारवर्ड करके गुजरता है, जिसमें फ़िल्म का नायक बध के लिए ले जाया जा रहा है | वह लोहे के बक्से में छिपे हुए अपने पांच वर्षीय बेटे के सामने से ऐसे गुजर रहा है, जैसे कि वह कोई शहंशाह हो । क्योंकि वह जानता है कि यदि यह बात उसके बेटे को पता चल जायेगी कि उसे मारने के लिए ले जाया जा रहा है तो उसका बेटा भी उसके मोह में उस बक्से से बाहर निकल आएगा और वह भी मारा जाएगा । 

यह फ़िल्म हिंसा और पागलपन की उस त्रासदी को सीधे-सीधे परदे पर नहीं उतारती, वरन संकेतो में  दर्शकों के भीतर स्वयं उतरती जाती है । फिल्म यह बताती है कि 1939 में जर्मनी द्वारा पोलैंड पर किये गए आक्रमण के बाद कैसे यूरोप की सम्पूर्ण यहूदी आबादी अपने आपको एक कत्लगाह के बीच पाने लगती है । पहले तो वह यह भरोसा नहीं कर पाती कि आखिर उसके साथ यह ज्यादती क्यों हो रही है । और फिर बाद में वह अपनी बारी का इन्तजार करने लगती है । अपनी मृत्यु की बारी का । 

यह जानते हुए कि होलोकास्ट कोई मिथकीय या काल्पनिक घटना नहीं है, वरन पिछली सदी में घटित हुयी क्रूर सच्चाई है, इस फ़िल्म को देखने के बाद दर्शको के भीतर थोड़ा प्रेम, थोड़ी दया, थोड़ी करुणा, थोड़ी क्षमा और थोड़ी संवेदना जरूर बढ़ती है । और कहना न होगा कि उसी अनुपात में उनके भीतर की थोड़ी घृणा, थोड़ी नफरत, थोड़ी हिंसा, थोड़ी पाशविकता और थोड़ी दरिंदगी भी कम जरूर होती है .... । 

3 - द पियानिस्ट ....... (निर्देशक - रोमन पोलांस्की)



‘होलोकास्ट’ पर आप चाहें जिस भी तरह से फिल्मों की रेटिंग बना लें, ‘द पियानिस्ट’ नामक फ़िल्म पहले पांच में जरूर स्थान बनाएगी । पोलिश फ़िल्म निर्देशक 'रोमन पोलांस्की' द्वारा निर्देशित यह फ़िल्म एक पोलिश यहूदी पियानो वादक की आत्मकथा पर आधारित है । जो एक सामान्य दिन में वारसा के रेडियो स्टेशन में पियानो बजा रहा होता है कि तभी वहां पर बम फटने लगते हैं । बाद में सूचना मिलती है कि जर्मन सेनाओं ने पोलैंड में प्रवेश कर लिया है । या कहें तो पोलैंड पर उनका कब्ज़ा हो गया है । 

फिर यह फ़िल्म अत्यंत बारीक संवेदनशीलता से उस बदलाव को रेखांकित करती है, जो हर अगले क्षण में वहां की यहूदी आबादी महसूस करती है । पहले यहूदियों को चिन्हित करने के लिए और गैर यहूदी जनता से अलगाने के लिए अपनी कमीज या कोट की बांह पर एक नियत चिन्ह को धारण करने का आदेश दिया जाता है । फिर उन्हें उसी शहर के एक कोने में ले जाकर 'घेट्टो' (बंद बस्ती) में बसाया जाता है । और फिर उस शहर से निकालकर यातना कैंपो (मृत्यु कैंपो) की तरफ बढ़ा दिया जाता है । 

धरती को यहूदी रहित करने का वह प्रयास इतनी हिंसा और बर्बरता से भरा हुआ होता है  कि जिसको इतने समय बाद भी दुनिया के किसी हिस्से में बैठकर देखने वाला आदमी दुःख और अवसाद से भर जाता है । वह बार-बार इस चीज को समझना चाहता है कि जो लोग नवजात बच्चों, अपाहिज बूढ़ो और गर्भवती महिलाओं को कतार में खड़ा कराकर गोली मार रहे थे, वे आखिर किस दुनिया के वासी थे । और ऐसा करके वे आखिर अपने बच्चों के लिए कैसी दुनिया सौंपने का इरादा रखते थे । लाख प्रयास के बाद भी कोई संवेदनशील आदमी इस गुत्थी को सुलझा नहीं पाता | उस फ़िल्म को अपने जेहन में लिए वह कई रातों तक बेचैन रहता है । तब तक, जब तक कि समय आकर उसकी यादों पर बैठ नहीं जाता । 

रोमन पोलांस्की चूकि खुद भी उन अत्याचारों के गवाह रहे हैं और उससे बचकर निकल जाने वाले कुछ भाग्यशाली बच्चों में से एक, इसलिए वे इस फ़िल्म को जीवन के एकदम करीब खींचकर ले जाने में सफल हुए हैं । वे इस फ़िल्म को 'शिण्डलर्स लिस्ट' की भव्यता और 'लाइफ इज ब्यूटीफुल' की नाटकीयता से भी बचाने में कामयाब रहे हैं । 'शिण्डलर्स लिस्ट' के दस वर्ष बाद और 'लाइफ इज ब्यूटीफुल' के पांच वर्ष बाद भी यदि वे उसी विषय पर एक पूर्ण मौलिक और मास्टरपीस फ़िल्म बनाने में कामयाब रहे हैं  तो यह अपने आपमें कोई छोटी उपलब्द्धि है । 

कहना न होगा कि यह त्रयी आपको उस विषय की एक जरुरी समझ तो दे ही देती है |

4 - द ब्वायज इन ए स्ट्रिप्ट पाजामा..... ( निर्देशक – मार्क हरमन )



होलोकास्ट को लेकर किसी भी संवेदनशील आदमी के मन में यह सवाल जरुर उठता है कि जो नाजी लोग यहूदी जनता का नरसंहार कर रहे थे, उनके भीतर क्या चल रहा था । उनके परिवार में किस बात पर बहस होती थी । अपने बच्चों से वे क्या कहते थे कि वे आजकल किस जिम्मेदारी को निभा रहे हैं । मसलन कोई आस्तविज के डेथ कैम्प में काम करने वाला कमांडर अपने बीबी बच्चों के साथ कैसा रिश्ता जी रहा था । जो दिन में सैकड़ों निरपराधों को गैस चैम्बरों में झोंक देता था, वह शाम को अपने घर में लौटकर कैसा व्यवहार करता था । या यदि वह घर से दूर था तो अपने घर पर क्या सन्देश भेजता था । और यह सवाल भी बारहां परेशान करता रहा है कि उसके घर के लोग जब उसकी ज्यादतियों को जान जाते, तब वे उसके साथ कैसा व्यवहार करते ।  क्या वे उसे रोकने का कोई प्रयास करते या वे उसकी सरहाना करते कि उसने आज सैकड़ों यहूदियों को गैस चेंबर में डालकर बहुत अच्छा काम किया है । 

अंग्रेजी फिल्म 'द व्यायज इन द स्ट्रिप्ट पाजामा' इस तरह के प्रश्नों का एक संतोषजनक जबाब देती है । फिल्म बताती है कि अत्याचारी का विरोध उसके घर में भी होता है । बेशक कि वह ताकतवर होता है और उस विरोध को कुचलकर आगे बढ़ जाता है लेकिन उसे अपने घर में भी विरोध का सामना करना पड़ता है । उसे यह अहसास दिलाया जाता है कि वह जो कर रहा है वह सही नहीं है । और भविष्य में इसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे । 

यह फिल्म दर्शकों को एक अजीब दुविधा में डाल देती है । एक तरफ वे पीड़ितों के पक्ष में रहते हुए यह सोचने लगते हैं कि जब अत्याचार करने वाले के जीवन में यह पीड़ा आयेगी, तब उसे उसका ज्ञान होगा कि वह कितना गलत कर रहा है । लेकिन एक दिन जब वह स्थिति आ ही आती है कि अत्याचार करने वाले का बेटा ही उस भयावह स्थिति में फंस जाता है तो दर्शक बेचैन हो उठते हैं कि उसके साथ यह अत्याचार न हो । यह बेचैनी इसलिए उठती है कि दर्शक किसी भी निरपराध के साथ होने वाले अत्याचार के खिलाफ होता है । 

'धारीदार पाजामा' वाले लड़के को केंद्र में रखकर बनी यह फिल्म दर्शको के भीतर मनुष्यता को थोड़ी और समृद्ध होती है |

5- सन आफ सोल  (निर्देशक – लास्जो नेमर)



इस कड़ी की पांचवी फिल्म हंगेरियन निर्देशक लास्ज़ो नेमर की 'सन आफ सोल' है | यह उस दौर के सबसे भयावह और संवेदनशील विषय को केंद्र में रखकर बनायी गयी है जिसमें नरसंहार के लिए कुख्यात आस्त्विज कैम्प के भीतर काम करने वाले 'सोंडर कमांडो' की कहानी दर्ज है । 'सोंडर कमांडो' उन यहूदी लोगों को कहा जाता था, जिनसे इन यातना शिविरों में साफ़ सफाई का काम लिया जाता था । जब ये लोग इन मृत्यु कैम्पों में पहुंचते थे तो इन्हें अपने ही साथियों से अलगा दिया जाता था और बन्दूक की नोक पर कहा जाता था कि उन्हें गैस चैम्बरों में मारे गए यहूदी लोगों के शवों को ठिकाने लगाना है । उन्हें फिर से साफ़ सफाई करके दूसरे नव आगंतुक यहूदियों को मारने लायक तैयार करना है । जो लोग इस कार्य के लिए तैयार नहीं होते थे, उन्हें उसी क्षण मार दिया जाता था । ऐसे में कुछ लोग इस आशा में यह कार्य करने लगते थे कि शायद यहां के नाजी कमांडरों को दया आ जाए और वे उन्हें जीवन बख्श दें । या शायद इस तरह उन्हें मृत्यु से कुछ दिनों की मोहलत मिल जाए। हालांकि ऐसा होता नहीं था । इन सोंडर कमांडरों से कुछ समय तक काम लेने के बाद इन्हें भी मौत के घाट उतार देने का ही प्रचलन था । 

यह फिल्म एक ऐसे ही 'सोंडर कमांडर' (गेजा रोरिग) के आसपास बुनी गई है । इसमें हर समय मृत्यु के साए में जीने वाला और लगभग रोबोट बन चुका एक व्यक्ति है, जिसके जीवन की लगभग सारी इन्द्रियाँ सूख चुकी हैं । जिसकी रूह भी लगभग मार दी गयी है । लेकिन इसके बावजूद जब उसके सामने मानव गरिमा का नैतिक सवाल खड़ा होता है तो बिना इस बात की परवाह किये कि इस सवाल की तरफ झुकने की कीमत उसे अपनी जान के रूप में चुकानी पड़ेगी, वह उस मानव गरिमा के साथ खड़ा नजर आता है । बाकि कहानी जानने के बजाय यह जरुरी है कि आप इस फिल्म को देखकर इसकी संवेदनशीलता और मार्मिकता को महसूस करें । यह समझें कि हमारी अपनी दुनिया में आदमी भी बसते हैं और हैवान भी । और यह भी कि हमें कैसी दुनिया चाहिए । 

यह फिल्म अपने छायांकन की विशिष्ट तकनीक के लिए भी ख़ास है । लगभग पूरी फिल्म में कैमरा नायक की पीठ के साथ ही चलता रहता है । यह एक अद्भुत प्रयोग है, जिसमें नेपथ्य की सारी क्रियाएं धुंधली छाया के रूप में दिखाई देती हैं । हालांकि फिल्म में संवादों का बहुत कम इस्तेमाल किया गया है, लेकिन फिल्म बताती है कि भावों को संप्रेषित करने के लिए सबसे सशक्त भाषा भंगिमाओं की ही होती है ।

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अब सवाल यह उठता है कि ‘होलोकास्ट’ जैसी त्रासदी पर सिनेमा देखने का क्या औचित्य है | एक ऐसी त्रासदी, जिसमें मनुष्यता क्षत-विक्षत होती है, जिसमें पाशविकता नंगा नाच करती है | तो जबाब यह है कि किसी भी ऐसे विषय पर कला के विभिन्न रूपों से रूबरू होने का हमें सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि हमारे भीतर उस विषय को लेकर एक मुकम्मल समझ बनती है | हम यह जान सकते हैं कि किसी भी दौर में कोई भी त्रासदी कैसे घटित होती है | उसके क्या कारण होते हैं, वह कैसे पनपती है और कैसे बीभत्स रूप को धारण करती है | यह इतिहास से परिचित होने के लिए भी जरुरी है और इतिहास से सबक लेने के लिए भी | सबक इस रूप में कि ऐसी त्रासदी से बचने के लिए हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए | हम यह जान सकें कि ये त्रासदियाँ कैसे शुरू होती है | कैसे व्यक्ति और समाज के भीतर उनका बीज पड़ता है | और फिर कैसे वह राक्षस बनकर समाज को ही खाने लगता है | इन फिल्मों के जरिये मिला मार्गदर्शन हमारे भीतर मनुष्यता के न्यूनतम गुणों को बरकरार रखने में सहायक होता है, जो इस दौर की सबसे बड़ी जरूरत है |



प्रस्तुतकर्ता
रामजी तिवारी
मो न. 9450546312