कोरोना समय के सबक
देश इस समय कोरोना महामारी की विपदा को झेल रहा
है. इसकी वजह से देश में लाखों लोगों की जान गयी है और करोड़ों लोग बीमार पड़े हैं. इसकी व्यापकता इतनी है
कि आप देश के किसी भी व्यक्ति से बात कीजिये, उसके पास एक पीड़ाजनक अनुभव है, उसके
पास अपने किसी प्रियजन को खोने की कहानी है. बहुत सारे लोग आपको यह शिकायत करते
हुए मिल जायेंगे कि यदि उनके प्रियजनों को समय से अस्पताल में जगह मिली होती, उन्हें
जरूरत की दवाएं मिली होती, आक्सीजन और वेंटिलेटर का सहारा मिला होता तो उनकी जान
बचाई जा सकती थी. तब शायद वे हमारे बीच में जिंदा होते. कहना न होगा कि इस महामारी
के खौफ का साया अभी भी लाखो-करोड़ों लोगों के सिर पर मंडरा रहा है. ऐसा लगता है कि
हम किसी अँधेरी सुरंग में फंस गए हैं, जहाँ से निकलने का कोई रास्ता दिखाई नहीं
देता.
बहरहाल मानव जाति का इतिहास बताता है कि वह ऐसी
अनगिनत आपदाओं से गुजरा है. उसने समय के साथ इन पर विजय भी हासिल की है. ऐसे में
हमारे पास यह भरोसा करने का पर्याप्त कारण है कि कोरोना महामारी के बीच से भी
हमारा समाज एक न एक दिन जरुर बाहर निकलेगा. और तब वह इस बात पर भी मंथन करेगा कि
हमसे कहाँ चूक हुई. हमने इस महामारी से क्या सबक सीखा. जैसे कि एक-दो सबक तो तुरंत
ही जेहन में उठ रहे हैं.
पहला सबक है कि भारत का स्वास्थ्य ढांचा अपर्याप्त
और कमजोर हैं, और इसे सार्वजनिक भागीदारी से ही बेहतर बनाया जा सकता है. जबकि
दूसरा सबक यह है कि आपातकाल में सरकार की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती है. और जो
लोग सामाजिक जीवन में बाजार की भूमिका को बढ़ाने और सरकार की भूमिका को कम करने की
वकालत करते हैं, वे सिरे से गलत हैं.
तो बात पहले स्वास्थ्य ढाँचे की करते हैं. हम
जानते हैं कि देश का स्वास्थ्य ढांचा सार्वजनिक और निजी दो पायों पर खड़ा है. इसमें
संकल्पना की गयी है कि सरकार को मुख्यतया स्वास्थ्य सेवाओं की जिम्मेदारी अपने
हाथों मे लेनी चाहिए. और जो लोग आर्थिक रूप से सक्षम हैं, वे निजी स्वास्थ्य ढाँचे
का लाभ उठा सकते हैं. सार्वजनिक स्वास्थ्य ढाँचे की बात करें तो भारत में इसे कई
स्तरों पर निर्मित किया गया है. आरंभिक स्तर पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और मोहल्ला क्लिनिक की व्यवस्था
है, जिनका मुख्य कार्य गाँव और मोहल्ले में जनता की छोटी-मोटी बीमारियों का त्वरित
और प्राथमिक इलाज करना होता है. इसके ऊपर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र होते हैं,
जिसमें कई गावों को मिलाकर एक बेहतर अस्पताल की व्यवस्था की गयी है. फिर जिला
चिकित्सालय आता है, जो विशेषज्ञ डाक्टरों की टीम और बेहतर चिकित्सा सुविधाओं से
सुसज्जित होता है. और इसके ऊपर मेडिकल कालेज, पी.जी.आई. और एम्स जैसे संस्थान आते
हैं, जहाँ जटिल बीमारियों का इलाज, शोध और चिकित्सा सेवा की पढ़ाई होती है.
अब सवाल यह उठता है कि इतने बेहतरीन सिस्टम के
होते हुए भी हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था इतनी बदहाल क्यों है. तो इसका जबाब पाने के
लिए हमें उदारीकरण के बाद सरकार की नीतियों मे आये बदलाव को समझना होगा. जब सरकार ने
सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर से अपना ध्यान कम करना शुरू कर दिया. और इसकी जगह
भरने के लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित किया जाने लगा. नतीजा यह हुआ कि इतने
बेहतरीन ढाँचे का जो लाभ देश की जनता को मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया. अस्पतालों
मे नियमित डाक्टरों की नियुक्तियां प्रभावित हुई. उनका बजट कम हुआ. और धीरे-धीरे
पूरी व्यवस्था पंगु होती चली गयी. बल्कि यह कहना अधिक समीचीन होगा कि सार्वजनिक
स्वास्थ्य सेवाओं का पूरा सिस्टम स्वयं ही बीमार पड़ता चला गया. इसका अपवाद दक्षिण
भारत के कुछ राज्यों मे दिखाई देता है, जहाँ पर सरकारों ने सार्वजनिक स्वास्थ्य
ढाँचे पर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान दिया. जिसकी वजह से ये राज्य इस आपदा में भी उत्तर
भारत के तमाम राज्यों की अपेक्षा बेहतर प्रदर्शन करते हुए नजर आ रहे हैं.
इसी से जुड़ा महामारी का एक सबक यह भी है कि
भारत जैसे विकासशील देश में स्वास्थ्य सेवाओं को निजी क्षेत्र के भरोसे नहीं छोड़ा
जा सकता है. “आपदा मे अवसर” वाले शब्द-युग्म का जो दुरूपयोग इन निजी अस्पतालों ने
इस दौर में किया है, वह आपराधिक और मनुष्य-विरोधी है. अनियंत्रित लूट-घसोट की जो
कहानियां सुनाई दे रही है, वह रूह को कपाने वाली हैं. कुछ कारपोरेट अस्पतालों ने
कोविड के इलाज में पंद्रह से बीस लाख रूपये का पैकेज चलाया. तो उनकी देखादेखी कुछ
साधारण निजी अस्पतालों ने भी अपनी सेवायें पांच से दस गुना तक महंगी कर दी.
इन्होंने भी प्रति मरीज पांच से सात लाख रूपये की वसूली की है. अब आप कल्पना करके
देखिये कि हमारे देश मे कितने ऐसे लोग हैं जो अपनी बीमारी में पांच सात लाख रूपये
का खर्च वहन कर सकते हैं. 135 करोड़ की आबादी मे 100 करोड़ लोग तो बिलकुल भी नहीं. ऐसे
में आम आदमी के सामने मरने के अलावा और क्या विकल्प बचता है.
बेशक कुछ लोग ये बात कह सकते हैं कि महामारी के
समय में, जहाँ एक साथ हजारों और लाखों लोग बीमार पड़ रहे हैं. और जहाँ विकसित देशों
की स्वास्थ्य सेवायें भी कम पड़ रही है, ऐसे में हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था का चरमरा
जाना स्वाभाविक ही है. तो उनके लिए यह कहना जरुरी लगता है कि इस दौर में हमारा
परफार्मेंस दुनिया के अधिकतर विकासशील देशों के बराबर भी नहीं दिखाई देता है.
विकसित देशों से तो तुलना ही बेमानी है. सच्चाई यह है कि इस महामारी ने हमारे देश
को वैश्विक पटल पर काफी पीछे धकेल दिया है. और यह किसी भी राष्ट्र के लिए सुखद
नहीं कहा जा सकता है.
इस महामारी का दूसरा सबक सरकार और व्यवस्था को
लेकर है. पूंजीवादी व्यवस्था के समर्थकों की तरफ से एक तर्क सामान्यतया दिया जाता
है कि वही सरकार अच्छी होती है, जो कम शासन करती है. जो लोगों के जीवन मे कम हस्तक्षेप
करती है. जो कुल मिलाकार अर्थव्यवस्था को अपने हिसाब से संचालित होने का अवसर देती
है, और अपने किनारे रहती है. जबकि कोविड समय ने दिखाया है कि समाज जब कठिन दौर से
गुजर रहा होता है, तो सरकार को दूरदर्शी सोच वाली और चुस्त-दुरुस्त होनी चाहिए. केवल
बाजार के भरोसे छोड़कर समाज का भला नही किया जा सकता है. क्योंकि ऐसे दौर में बाजार
एक दैत्य का रूप धारण कर लेता है और वह समाज को ही नष्ट करने पर आमादा हो सकता है.
बाजार के पास नैतिकता नहीं होती, वह कमजोर और गरीब लोगों की मदद भी नहीं करता.
बजाय इसके वह दूसरे की पीड़ा मे अपने लिए अवसर तलाशना शुरू कर देता है और अमानवीय
व्यवहार करने लगता है. ऐसे में सक्रिय और समझदार सरकार की जरूरत होती है.
दुर्भाग्यवश भारत में ये दोनों बातें मिसिंग
दिखाई देती है. अव्वल तो सरकार के स्तर पर जिस सक्रियता की उम्मीद की जा रही थी,
वह भी नहीं दिखाई देती. और दूसरे सरकार से जिस समझदारी भरे निर्णय की अपेक्षा थी,
उस मोर्चे पर भी निराशा ही मिली है. जैसे कोरोना की शुरुआत मे सरकार ने डिनायल मोड
अपनाया. उसने नमस्ते-ट्रम्प जैसा भीडभाड़ वाला कार्यक्रम आयोजित कराया. सरकार बनाने
और गिराने का खेल खेला. जब लाकडाउन के बाद करोड़ों लोग सड़कों पर बेहाल होकर निकले,
तो उसे नजरअंदाज किया गया. जब लोग आक्सीजन और अस्पताल में बिस्तर के लिए परेशान हो
रहे थे, तो उसने आंकड़ों को छिपाना आरम्भ कर दिया. संक्रमण को कम दिखाने के लिए
टेस्ट कम किये जाने लगे. जब निजी अस्पतालों में लूट-घसोट चरम पर थी, तो उसने सपष्ट
और कठोर निर्णय लेने के बजाय केवल औपचारिक आदेश निकाले. महामारी से पीड़ित जनता का
ध्यान डाइवर्ट करने के लिए मीडिया के द्वारा एक विशेष समुदाय को टार्गेट किया गया.
और फिर पहली लहर के गुजर जाने के बाद अपनी पीठ थपथपाने के लिए आनन-फानन में कोरोना
पर विजय प्राप्त करने की घोषणा तक कर दी गयी.
इसी पहलू का दूसरा दुखद अध्याय यह भी रहा कि सरकार
से जब सबसे अधिक दूरदर्शितापूर्ण निर्णयों की अपेक्षा की जा रही थी, तब उसने सबसे
कमजोर और साधारण निर्णय लिए. उसने चार घंटे की नोटिस पर देश मे लाकडाउन की घोषणा
कर दी. बिना इस बात की परवाह किये कि भारत की एक बड़ी आबादी किस तरह से रोजदिन
कमाती है और खाती है. उसके पास रहने के लिए कोई मुकम्मल जगह नहीं है. उसके पास
भविष्य के लिए कोई पूंजी नहीं है. और यह सब इतना अचानक हुआ कि पूरे देश में
लाखो-करोड़ लोग विभिन्न जगहों पर फंस गये. फिर हमने वह हृदयविदारक दृश्य भी देखा,
जिसमें करोड़ों लोग देश के शहरों से निकलकर अपने गाँव और घर के लिए पैदल ही चल पड़े.
इस प्रयास में सैकड़ों लोगों की जान तक चली गयी.
सरकार से एक बड़ी चूक तब भी हुई, जब विशेषज्ञों
की सलाह को दरकिनार करते हुए उसने समय-पूर्व कोरोना पर विजय प्राप्त करने की घोषणा
कर दी. उसने बड़ी राजनैतिक रैलियां की और धार्मिक आयोजनो की इजाजत दी. इसका सन्देश जनता
के बीच यह गया कि कोरोना तो अब समाप्त हो चुका है. जबकि सच्चाई यह थी कि दुनिया भर
में दूसरी लहर आ चुकी थी. और तब हमें सचेत हो जाना चाहिए था कि देर-सबेर यह लहर
भारत में भी आयेगी. लेकिन हमारे नेतृत्व ने फरवरी महीने में ही इस पर विजय की
घोषणा कर दी और हम निश्चिन्त हो गए.
और फिर वैक्सीनेशन के मामले में भी सरकार ने
समझदारी नहीं दिखाई. कोरोना के आरम्भ में जब दुनिया भर में वैक्सीन के विकास पर
काम हो रहा था, उसी समय विकसित देशों ने अपनी जनसंख्या के हिसाब से कम्पनियों को
आर्डर दे दिए थे. उन्होंने अपने लिए एडवांस बुकिंग करा ली थी. लेकिन उस समय भारत
मे कहा गया कि हम आत्मनिर्भर तरीके से इससे निबटेंगे. फिर जब फरवरी का महीना आया
और कोरोना संक्रमण कम होने लगा तो सरकार ने उस थोड़ी सी वैक्सीन को भी मैत्री के
नाम पर दुनिया भर में भेजना शुरू कर दिया. और तभी इस विपदा ने देश को अपने आगोश मे
ले लिया.
क्या हम कोरोना समय की इन सीखों का ख्याल
रखेंगे ? हमारे समाज का भविष्य काफी हद तक इस पर निर्भर होगा.
प्रस्तुतकर्ता
रामजी तिवारी