रविवार, 9 जून 2013

कृष्णकांत की कवितायें

                                   कृष्णकांत 


कृष्णकांत की ये कवितायेँ मुझे मित्र अशोक कुमार पाण्डेय के जरिये प्राप्त हुयी थी | उनका दिल से आभारी हूँ , कि उन्होंने इसे सिताब दियारा ब्लॉग के लिए सुझाया | वैसे आभार तो मुझे कृष्णकांत का भी करना चाहिए , जिन्होंने न सिर्फ इन इन्हें सिताब दियारा को भेजा , वरन इतना बेहतरीन लिखा भी | सच कहता हूँ , मुझे इन कविताओं ने बहुत गहराई से प्रभावित किया है | इनमे न सिर्फ असुविधाजनक सवाल हैं , अपने आपको कटघरे में रखने का साहस है , वरन इस व्यवस्था को न्यायप्रिय बनाने की छटपटाहट भी है | आजकल कविताओं में इतनी साफगोई बेशक कुछ लोगों को खटकती है , लेकिन यकीन जानिये , यही साफगोई हमारे दौर की कविताओं को इतिहास में बचा भी सकती है |
                                           

      तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर युवा कवि कृष्णकांत की कवितायें



1...  एक जंगल की मौत
           
जब किसी देश में 
हत्या इतनी साधारण बात हो जाए 
कि मरने वाले की मां के सिवा 
किसी की आंख नम न हो
तब वह देश
देश नहीं, कब्रगाह हो जाता है  

कब्रगाह हुए देश में 
हत्याओं को कोई भी हत्या नहीं कहता 
बस्तियां भर जाती हैं गूंगे और बहरे लोगों से 
जंगल से लकड़ियां बीनते हुए बच्चों पर 
पुलिसिया गोलीबारी 
युवराज की बरात में आतिशबाजी सरीखी है 
राजा जिन बच्चों की चारपाई पर रात गुजारता है 
जिनके हिस्से की रोटी खाकर 
अपनी महानता के किस्से उड़ाता है 
अगली रात सरकारी गोलियां 
उनके सीने छलनी कर देती हैं 

उघड़ी छातियों वाली एक मां 
जब जंगल से लौटती है 
बच्चों के लिए कंद बटोर कर 
तो घर पर बिखरी होती हैं 
छेवनों की अंतड़ियां 
सैनिक जा चुके होते हैं 
अपनी छावनियों में 

अपने आंसू बटोरने निकले गांव वाले 
निहारते हैं गांव की पगडंडियां 
और बिखर चुके उनकी बच्चियों के स्तन 
इसी चीखपुकार में गांव की बुजुर्ग स्त्री 
खामोश खुदकुशी करती है 
गांव अनाथ हो जाता है 

जब जब एक जंगल का खून होता है 
शहर मुस्कराता है, राजभवन में उत्सव होता है 
वजीर नाचता है, राजा तालियां बजाता है 
और जनता चुपचाप किया करती है 
अपनी बारी का इंतजार 

सबसे काली सुबह तो वह होती है 
जब खबरनवीस तोहफे में मिले 
घोड़े पर सवार शहर आता है 
और राजधानी में रंडीनाच की खबरें बांचता है 
मैं बौखलाहट में सूरज निगल लेता हूं 
और अपनी दालान में 
चुपचाप मर जाता हूं.
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2....   मैं दोषी नहीं था    

पहली बार जब मैं जेल गया 
मेरे हाथों में 
एक खिलौने का डब्बा था 
उसमें कुछ कंचे थे 
गली में पड़ा मिला 
एक जंग खाया चाकू था 
कुछ बिजली के फ्यूज हुए तार थे 
और तब मैं यह भी नहीं जानता था 
कि आतंकवादी होने का मतलब क्या होता है 

दूसरी बार जब जेल गया 
तो मैं कुछ बड़ा हो गया था 
और एक अजीज दोस्त से 
बतिया रहा था 
एक नक्सली की पुलिसिया हत्या के बाद 
अखबार में छपी खबर और तस्वीर के बारे में 
तब मैं नहीं जानता था नक्सली होने का मतलब 
और यह भी नहीं कि नक्सली शब्द कहना 
जबान पर लाना कोई जुर्म है 

तीसरी बार जब जेल गया 
तब मैने बिल्कुल नहीं जाना 
कि मैं जेल क्यों गया 
इतना मालूम चला था अखबारों से 
कि उनका प्रचार कामयाब हुआ 
और पूरा देश घृणा करने लगा है मुझसे 
हालांकि, जेल में मिलने आती 
अपनी नन्ही बच्ची की आंखों में 
मैं देख लिया करता था अपना चेहरा 
उसकी आंखें बोलती थीं 
मैं दोषी नहीं था
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3....   उन्मादियों के नाम 
            
तुम्हारा उन्माद चुनिंदा है मेरे बंधु 
नोट, वोट और सत्ता के गिर्द 
रचा हुआ एक षडयंत्र मात्र 
ले लो एक सर के बदले दूसरा सर 
खूब करो देशभक्ति का अश्लील प्रदर्शन 
लेकिन कैसे छुपाओगे अपना हिजड़ापन 
अपनी बांड़ी पूंछ के तले

जो ताकतवर है, जो तुम्हारी चुरकी पकड़ 
जब तब खोपड़ी झकझोर देता है 
उसके सामने तुम अक्सर मिमियाते देखे जाते हो 
तुमने कभी कातिल को नहीं मारा 
तुमने उससे घृणा भी नहीं की कभी 
तुमने अपनी गुलामी को कभी नकारा नहीं 
तुम्हें दुमछल्ला बनने पर कोई एतराज नहीं हुआ कभी 

सामंत की लठैती पर पीछे खड़े होकर 
ताली बजाने से बेहतर होता 
तुम किसी चकलाघर में दलाली करते 
खून का गंदा खेल खेलकर कुरसी हथियाने से बेहतर था 
तुम नौटंकी कंपनी के जोकर होते 

तुम्हारे सर के बदले सर काटने के 
खूनी तमाशे के बीच 
मैं पुरउम्मीद हूं कि एक दिन ऐसा जरूर आएगा 
जब दो राजधानियों के बीच का घिनौना खेल 
खत्म हो जाएगा.

(पाकिस्तान में भारतीय कैदी सरबजीत की कोट लखपत जेल में हत्या के बाद कश्मीर की जेल में पाकिस्तानी कैदी पर हमले के बाद।)
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4.....  मेरे हिस्से की सांसें 
         
भागती सड़कों को कभी 
रोककर पूछना चाहता हूं 
कहो दोस्त, सब खैरियत तो है!
उसकी एक सादा मुस्कान 
भींचना चाहता हूं मुट्ठियों में 
उसकी रफ्तार को परे रख 
उसे गले लगाना चाहता हूं 
चाहता हूं कि बंदूकों और बारूदों से 
घबराए हुई यतीम गलियां 
कुछ तेज रफ्तार सड़कों से मिलकर 
दो बोल बतियाने की मोहलत पा सकें 
उनकी रगों का खून इतना स्निग्ध हो 
कि वे हर यतीम को अपना समझ सकें 
शोर-शराबे, चीत्कारों के बीच 
जहां भी रहूं 
इतना होता रहे हमारे आसपास 

मुझको लगता है मेरी गर्दन पर 
एक लहकती शान वाला चाकू रखा है 
और मेरे सीने पर एक कसाई बैठा है 
जो आंख झपकते ही 
रेजा-रेजा बिखेर देगा मेरे सारे ख्वाब 
मेरे हिस्से की सांसें जहर में सीझ गई हैं 
और घर के कंगूरों पर 
सरकारी डाकुओं ने बंकर बना लिया है 
अपना घर जला कर 
मैं इन्हें ध्वस्त  करना चाहता हूं 
मेरी लरजती हथेलियों पर 
रोटी के कुछ टुकड़े हैं 
और उनपर बारूद रखा है 
गायब हो गया है मेरे हिस्से का नमक 

मैं रोटियों से ये बारूद झाड़ दूंगा 
मैं लुटेरों को घर के कंगूरों से उतार फेंकूंगा 
मैं हर किसी के लिए 
जीने भर की दो चार सासें 
आजाद कराउंगा...।
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5.....    शहर 

जब कोई उच्चारता है शहर
तो मेरे जेहन में कौंध जाता है
एक त्रासदी सा कुछ
मुझे लगता है कि किसी ने
शहर नहीं पुकारा है,
एक जिन्न का आह्वान किया है
ऐसा जिन्न जो बोतल से बाहर आता है
तो बस्तियां तब्दील हो जाती हैं श्मशान में

यहां पर मैं आपको रोककर बताना चाहता हूं
कि इस श्मशान में हर कोई दफ्न नहीं होता
यह जिन्न नरमुंड लीलने से पहले
व्यावसायिक छंटनी करता है
जिसकी जेबें भरी हैं
वह उसका निवाला नहीं है
जिसकी रसोई में निवाला नहीं है
इस जिन्न का निवाला वही है

उंची उंची अट्टालिकाओं वाले इस श्मशान में
कुछ छटपटाती चीखें हैं मेरे दोस्त
इराक, अफगानिस्तान की तरह
कश्मीर और विदर्भ की तरह
इनका चीखना और घुट कर मर जाना
उंचे कान वालों के लिए कोई मुद्दा नहीं हैं

मैं एक ऐसे ही शहर में आ गिरा हूं
जो राजधानी में गढ़े गए जिन्न के चंगुल में है
यहां एक हरे भरे आसमान में
बूढ़े बरगद का खुदकुशी कर लेना
किसी के लिए गौरतलब नहीं है 

वार्षिक योजनाओं और बजटों में एक झरोखा है
कभी उसमें झांकना तो पाओगे
फाइलों के बंडल में 
एक नर्इ् नई सहेज कर रखी हुई मोटी सी फाइल है
जिसमें उजड़ें घरों को नेस्तनाबूत करने
और भूखों को उन्हीं के खेतों में
बहुत नीचे दफना देने का मसौदा है
इसी से श्मशानों के चमचमाने का
बीजारोपण होना है।
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परिचय और संपर्क

कृष्णकांत 

उत्तर प्रदेश के गोंडा में जन्म
इलाहाबाद विवि से पढ़ाई लिखाई
दिल्ली में रहकर पत्रकारिता
फिलहाल दैनिक जागरण में बतौर सीनियर सबएडीटर कार्यरत
विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में कविताएं, कहानियां और लेख प्रकाशित

एफ—89, गली नंबर तीन, ​पश्चिमी विनोद नगर, नई दिल्ली—92
मोबाइल09718821664


8 टिप्‍पणियां:

  1. 'रेजा रेजा बिखेर देगा मेरे सारे ख़्वाब '
    अपने समय में घटित हो रही जघन्यता जहां 'ह्त्या एक साधारण सी बात हो जाए' . कवि बहुत आहत है,. अपने आसपास होने वाले विद्रूप से '.बूढ़े बरगद का खुदकशी कर लेना किसी के लिए कोइ मुद्दा नहीं '..राष्ट्र नाम से चलने वाली सत्ता जिसका काम तो जीवन को बेहतर बनाने का था , लेकिन वही षड्यंत्रकारी बन हिंसक हो कमजोर को कुचलने में लगी है 'भूखों को उन्हें के खेतों में \बहुत नीचे दफना देने का मसौदा है' . कवि की तड़प में 'मेरे हिस्से की साँसे जहर में सीझ गई हैं ' फ़ैली संवेदनहीनता के प्रति तीव्र विक्षोभ उभरता है ...
    अपने समय की कुरीतियों से उभरा तल्खी का यह स्वर बहुत माने रखता है ... मैं इसका स्वागत करता हूँ ...कृष्ण कान्त को बधाई और इन कवितायों तक पहुँचाने के लिए सिताब दियारा का धन्यवाद

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  2. धन्यवाद सर इतनी अच्छी कवितायें उपलब्ध कराने के लिये, सुनकर मुर्दे में भी जान आ जाये, कृष्‍णकांत बहुत अच्‍छा लिखते हैं, बहुत मार्मिक, नि:शब्द करती हुई,आम-आदमी के मुददों और उसकी जबान, ये उनकी सबसे बडी देन थी.... नयी पीढ़ी में मकबूल हैं... बहुत सरलता से बोलते हैं... इसे बनाये रखिये, शुभकामनायें

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  3. कृष्‍णकांत की कविताओं में अपनी जनता प्रति जितनी गहरी प्रतिबद्धता है, वही उनकी सबसे बड़ी ताकत है। महानगर में रहकर भी उनकी संवेदनाएं उस व्‍यापक जनगण की चिंताओं को पूरी शिद्दत से अपनी कविता के दायरे में लेती हैं और प्रतिरोध का एक वितान रचती हैं, यह उनकी कविता के प्रति गहरी आश्‍वस्ति पैदा करता है। बधाई और शुभकामनाएं।

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  4. बेनामी9:37 pm, जून 09, 2013

    भीतर तक हिला देने वाली कविताएँ ....कवि की विचारधारा और प्रतिबद्धता ही इनकी सबसे बड़ी ताकत और पहचान है . बहुत -बहुत बधाई इन कविताओं के लिए . सिताब दियारा को बहुत -बहुत धन्यवाद .
    -नित्यानंद गायेन

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  5. एक विशाल संभावना का नाम है कृष्णकांत ! यह मेरा सौभाग्य है की मैं भाई कृष्णकांत के स्नेह का स्वाद चख चूका हूँ!


    *अमित आनंद

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  6. शुभूजी, प्रियंकाजी, प्रेमचंदजी और अमितजी, आप सभी का तहे-दिल से शुक्रिया। इन कविताओं को आप सब तक पहुंचाने के लिए आदरणीय रामजी तिवारी का भी बहुत बहुत आभार।

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  7. कलम मेँ कितनी ताक़त होती है कृष्णकांत जी कि कविताओँ मेँ दिखता है..
    आपको बहुत बधाई कृष्णकांत जी..
    रंजीता शर्मा

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  8. वर्तमान विद्रूप समय में जब हम कुछ नहीं कर सकते तो ऐसी अभिव्यक्ति मन को असीम संतोष प्रदान करती है . बहुत सच्ची कवितायेँ !

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