अच्युतानंद मिश्र
अच्युतानंद मिश्र के पास अपने परिवेश की गहरी समझ है | वे जहाँ से आते हैं , और जहाँ पर रहते हैं , उन दोनों समाजों को बहुत करीबी और पारखी नजर से देखते हैं | उनके बीच की दूरी और फांक को गहरी संवेदना के साथ समझते हैं | गोलमटोल वाले समय में अपनी कविताओं के द्वारा स्पष्टतः अपना पक्ष रखते हैं , और हमारे दौर के उस साहित्यिक प्रचलन का प्रत्याख्यान रचते हैं ,जिसमें रचना-रत रहने के बजाय सम्बन्ध-रत रहने पर अधिक ध्यान दिया जाता है | मेरा विश्वास है , कि इन्हें पढ़ने के बाद आप भी युवा कविता के इस तेवर और स्वर पर गर्व कर सकते हैं .... |
प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर अच्युतानंद मिश्र की कवितायें
प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर अच्युतानंद मिश्र की कवितायें
1..... जब उदासी ढून्ढ रही थी मुझे
उस दिन
जब उदासी ढून्ढ रही थी मुझे
मैं ढून्ढ रहा था तुम्हे
उस दिन हवा ने
जब जख्मों के नए ठिकाने
बताये थे
और चाँद से निकला था भभूका
सा
उस दिन मैं किसी नदी के
भीतर का शोक नहीं सुन रहा
था
न किसी पहाड़ की उचाई पर
खड़े होकर लाँघ रहा था दुःख
को
उस दिन तो मैं बस तुम्हे
छूना चाह रहा था अपनी आँखों
से
अपनी नींद में घुलाना
चाह रहा था तुम्हे
चाह रहा था कि भीतर के
अंधकार में
झलक जाये तम्हारा चेहरा
सच कहूँ
उस दिन मैं सुखी होना
चाह रहा था
जब उदासी ढून्ढ रही थी मुझे
2... जाल ,
मछलियाँ और औरतें
वह जो दूर गांव के सिवान पर
पोखर की भीड़ पर
धब्बे की तरह लगातार
हरकत में दिख रहा है
वह मल्लाह टोल है
वहीँ जहाँ खुले में
जाल मछलियाँ और औरतें
सूख रहीं हैं
आहिस्ते –आहिस्ते वे छोड़ रहीं हैं
अपने भीतर का जल –कण
मछलियों में देर तक
भरा जाता है नून
एक एक कर जाल में
लगाये जाते हैं पैबंद
घुंघरुओं की आवाज़ सुनकर
नून सनी मछलियाँ काँप जाती हैं
मछुवारिने जाल बुनती हैं
पानी की आवाज़ देर तक
सुनते हैं लोग और
पानी के जगने से पहले
औरतें पोंछ लेती है पानी
पानी के अंधकार में वे दुहराती हैं प्रार्थना
हे जल हमें जीवन दो
फिर उसे उलट देती हैं
हे जीवन हमें जल दो
मछलियाँ बेसुध पड़ी हैं नींद में
मछुवारों के पैरों की धमक
सुनती हैं वे नींद में
नींद जो कि बरसात के बूंदों की तरह
बूंद- बूंद रिस रही है
बूंद -बूंद घटता है जीवन
बूंद बूंद जीती हैं मछुवारिने
कौन पुकारता है नींद में
ये किसकी आवाज़ है
जो खींचती है समूचा बदन
क्या ये आखिरी आवाज़ है
इतना सन्नाटा क्यों है पृथ्वी पर ?
घन-घन- घन गरजते हैं मेघ
झिर-झिर-झिर गिरती हैं बूंदें
देर तक हांड़ी में उबलता हैं पानी
देर तक उसमे झांकती है मछुवारिने
देर तक सिझतें हैं उनके चेहरे
मछलियों के इंतज़ार में बच्चे रो रहे हैं
मछलियों के इंतज़ार में खुले है दरवाज़े
मछलियों के इंतज़ार में चूल्हों से उठता हैं धूआं
मछलियों के इंतज़ार में गुमसुम बैठी हैं औरतें
मल्लाह देखतें हैं पानी का रंग
जाल फेंकने से पहले कांपती है नाव
मल्लाह गीत गाते हैं
वे उचारते हैं
मछलियाँ मछलियाँ, मछलियाँ
उबलते पानी में कूद जाती हैं औरतें
वे चीखतीं हैं
मछलियाँ ,मछलियाँ ,मछलियाँ
बच्चे नींद में लुढक जाते हैं
तोतली आवाज़ में कहतें हैं
मतलियां मतलियां मतलियां
उठती है लहर
कंठ में चुभता है शूल
जाल समेटा जा रहा है
तड़प रही हैं मछलियाँ
उनके गलफ़र खुलें हैं
वे आखिरी बार कहती हैं मछलियाँ
मल्लाहों के उल्लास में दब जाती है
यह आखिरी आवाज़
3... क्या तुमने
देखा
जब वह बांस की महीन खपचियों से
बुन रही थी टोकरी
वह देख रही थी सपना
क्या तुमने देखा ?
जब वह तपती धूप में गोबर से
लीप रही तीन आंगन वाले
तुम्हारे घर को
वह लिख रही थी एक लंबी कविता
क्या तुमने देखा ?
जब वह पछिट रही थी
तुम्हारे असंख्य जोड़ी कपड़े
वह धरती को
थपकाकर सुला रही थी
क्या तुमने देखा ?
नहीं तुम नहीं देख पाओगे
वह सब कुछ
आखिर दुनिया घृणा की
बंद आँखों से नहीं
स्नेह की खुली आँखों से देखी जाती है
यकीन ना हो तो पूछना
अपनी बुढिया दादी से
भेद वाली वह बात
जब पैदा होने को थे तुम्हारे पिता
तो नाल काटने को बुलाया था उसे
उसके हाथ में था ब्लेड का एक टुकड़ा
बंद कमरें में बेहोश थी दादी
और किलक रहे थे पिता
4... सिलिया
चमारिन
सिलिया चमारिन अगर
चमारिन नहीं होती
तो वह डोमिन होती
डोमिन नहीं होती
तो वह मछुवारिन होती
अगर वह मछुवारिन नहीं होती
तो वह.........
खैर वह कुछ भी होती
फिर भी वह सिलिया चमारिन ही होती
जैसे की पंडित मातादीन कुछ भी होते
मगर वह पहले पंडित मातादीन ही होते
और यह पूरा गावं पांडेपुर ही होता
और यह पूरा देश भारत वर्ष
अगर पंडित मातादीन को बेटा होता
तो वह गोरा होता
पंडितायन गोरी थी
अगर सिलिया चमारिन को बेटी होती
तो वह काली होती
पंडित मातादीन काले थे
सिलिया चमारिन का छूआ
पंडित खा नहीं सकते थे
पंडित उन्हें ना छुएं
करिया चमारिन और
पंडित उज्जवलप्रकाश के जन्म
के बीच दो दिन का फर्क है
आखिर दो दिन में
कितने युग होते हैं ?
5 .... देश के बारे में
मिलों में, मंडियों में
खेतों में
घिसटता हुआ
लुढ़कता हुआ
पहुंच रहा हूँ
पेट की शर्तों पर
हमारे संविधान में
पेट का जिक्र कहीं नहीं हैं
संविधान में बस
मुंह और टांगें हैं
कभी मैं सोचता हूं
1975 में जब तोड़ी गई थी
नाक संविधान की
उसी हादसे में
शायद मर गया हो संविधान
राशन कार्ड हाथ में लिए
लाइनों में खड़े-खड़े
मैंने बहुत बार सोचना चाहा
है
देश के बारे में,
देश के लोगों के बारे में
पर मेरे सामने
तपेदिक से खांसते हुए
पिता का चित्र
घूम गया है
मैं जब भी कहीं
झंडा लहराता देखता हूं
सोचने लगता हूं
कितने झंडों के
कपड़ों को
जोड़कर
मेरी मां की साड़ी
बन सकती है
ये सोचकर मैं
शर्मिन्दा होता हूं
और चाहता हूं
कि देश पिता हो जाए
मेरे सिर पर हाथ रखे
और मैं उसके सामने
फूट-फूटकर रोऊँ
मेरे जीवन के सबसे अच्छे
दिन
मेरे बचपन के दिन थे
मैंने अपने बचपन के दिनों
की यादें
बहुत सहेज कर रखीं हैं
पर मुझे हर वक्त उनके खोने
का डर
लगा रहता है
मैं पूछना चाहता हूं
क्या हमारे देश में
कोई ऐसा बैंक खुला है,
जहां वे लोग
जो पैसा नहीं रख सकते
अपने गुजरे हुए दिन
जमा कर सके
एकदम सुरक्षित!
अच्युतानंद
मिश्र