वीणा वत्सल सिंह की कविताओं में एक ख़ास तरह की बेचैनी और
छटपटाहट दिखाई देती है | अच्छी बात है कि इन्होने इस बेचैनी और छटपटाहट को बिना
किसी अतिरिक्त शोरगुल के साधा है | उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे चलकर इनमें और अपेक्षित
विकास होगा |
आज सिताब दियारा ब्लॉग पर वीणा वत्सल सिंह की कवितायें
एक .....
सपने
हँसते हैं
***************
तपते रेत पर दूर तक बने
पैरों के निशान
पैरों में बनते, पकते फूटते छालों से
अनजान रेत
अपनी रौ में और अधिक
और अधिक
तपती जाती है
समय भला कब देखता है
पीछे मुड़कर
जिन्दगी के पलों का हिसाब
फुर्सत का कोई लम्हा माँग बैठता है
इच्छायें सर उठाती हैं
छालों की टीस
उन्हें फिर से सुला जाती है
मन का रीता कोना
अपने खालीपन के अहसासों से भर
गूँजने लगता है
भागता है परछाईयों के पीछे
दौड़ता है सपनों को पकड़ने
सपने
सच की दहलीज पर आ ठिठक जाते हैं
पैर के छालों की टीस
मन के रीतेपन को झिंझोड़ देती है
सपने हँसते हैं
किसी दिन
सच की दहलीज लांघ पाने की आशा में
तपते रेत पर दूर तक बने
पैरों के निशान
पैरों में बनते, पकते फूटते छालों से
अनजान रेत
अपनी रौ में और अधिक
और अधिक
तपती जाती है
समय भला कब देखता है
पीछे मुड़कर
जिन्दगी के पलों का हिसाब
फुर्सत का कोई लम्हा माँग बैठता है
इच्छायें सर उठाती हैं
छालों की टीस
उन्हें फिर से सुला जाती है
मन का रीता कोना
अपने खालीपन के अहसासों से भर
गूँजने लगता है
भागता है परछाईयों के पीछे
दौड़ता है सपनों को पकड़ने
सपने
सच की दहलीज पर आ ठिठक जाते हैं
पैर के छालों की टीस
मन के रीतेपन को झिंझोड़ देती है
सपने हँसते हैं
किसी दिन
सच की दहलीज लांघ पाने की आशा में
दो ...
कौन चाहता
है
*****************
बेचैनी भरे खारेपन में डूब
भला समुन्दर होना कौन चाहता है
संवाद शब्दों की जागीर नहीं
मौन सुनने के दिनों में
भला बोलना कौन चाहता है
दूरियाँ बुनती हैं जाल सपनों का
इनमें उलझ
भला अलग होना कौन चाहता है
ह्रदय में दहकते गुलमोहर के दिनों में
शाख पर अमलतास है कि गुलाब
भला इसे देखना कौन चाहता है
पेट भरा हो अपना
तो मन में चहकती हैं बुलबुलें
ऐसे में आँतों की ऐंठन
महसूसना
भला कौन चाहता है
बेचैनी भरे खारेपन में डूब
भला समुन्दर होना कौन चाहता है
संवाद शब्दों की जागीर नहीं
मौन सुनने के दिनों में
भला बोलना कौन चाहता है
दूरियाँ बुनती हैं जाल सपनों का
इनमें उलझ
भला अलग होना कौन चाहता है
ह्रदय में दहकते गुलमोहर के दिनों में
शाख पर अमलतास है कि गुलाब
भला इसे देखना कौन चाहता है
पेट भरा हो अपना
तो मन में चहकती हैं बुलबुलें
ऐसे में आँतों की ऐंठन
महसूसना
भला कौन चाहता है
तीन ....
जिन्दगी
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सपनों के ईंटों से बनती दीवार में
चुनती जिन्दगी
मुझ से फिसलकर दूर जा
हँसती जिन्दगी
शब्दों की प्रतीक्षा में
मौन लिखती जिन्दगी
मन में आये हर सवाल के जवाब में
सवाल करती जिन्दगी
भावों के जंगल में मुझसे
छुपम - छुपाई खेलती जिन्दगी
कभी नजरें चुराती
कभी लपक कर मुझसे लिपटती जिन्दगी
रात में दिन का भ्रम कर
ठहाके लगाती जिन्दगी
बाँह पकड़ मुझे
मुझसे दूर ले जाती जिन्दगी
भावों के बाजार में
रोज नर्तकी सी सजती जिन्दगी
मौत के फलसफे को
अपनी चुहल से झुठलाती जिन्दगी
प्रेम की तृष्णा में जल
मोम सी पिघलती जिन्दगी
सपनों के ईंटों से बनती दीवार में
चुनती जिन्दगी
मुझ से फिसलकर दूर जा
हँसती जिन्दगी
शब्दों की प्रतीक्षा में
मौन लिखती जिन्दगी
मन में आये हर सवाल के जवाब में
सवाल करती जिन्दगी
भावों के जंगल में मुझसे
छुपम - छुपाई खेलती जिन्दगी
कभी नजरें चुराती
कभी लपक कर मुझसे लिपटती जिन्दगी
रात में दिन का भ्रम कर
ठहाके लगाती जिन्दगी
बाँह पकड़ मुझे
मुझसे दूर ले जाती जिन्दगी
भावों के बाजार में
रोज नर्तकी सी सजती जिन्दगी
मौत के फलसफे को
अपनी चुहल से झुठलाती जिन्दगी
प्रेम की तृष्णा में जल
मोम सी पिघलती जिन्दगी
चार ....
एक उलझा
हुआ दिन
**********************
एक उलझे हुए दिन की
उलझी हुई सी धूप में
खंडहर से हो चुके मकान के एक कमरे के
कोने को साफ़ कर
बैठा मन
अपनी ही तरंगों में उलझा हुआ
क्षितिज के उस पार देखने की
नाकाम कोशिशें करता
ढलते सूरज की किरणों से
कुछ देर और रुक जाने का आग्रह करता है
यह जानते हुए भी कि
उसका आग्रह बेमानी है
अँधेरे के रहस्यों में खोये
सुखद तड़प और बेचैनी में
जीने के आतुर ह्रदय को देख
हँसता हुआ मन
उचक कर
उस खँडहर से हो चुके
मकान की छत पर
जा बैठता है और ,
कमरे का वह साफ़ कोना
शब्दों के पार के मौन-आमंत्रण को
समझने के प्रयास में लीन हो जाता है
एक उलझे हुए दिन की
उलझी हुई सी धूप में
खंडहर से हो चुके मकान के एक कमरे के
कोने को साफ़ कर
बैठा मन
अपनी ही तरंगों में उलझा हुआ
क्षितिज के उस पार देखने की
नाकाम कोशिशें करता
ढलते सूरज की किरणों से
कुछ देर और रुक जाने का आग्रह करता है
यह जानते हुए भी कि
उसका आग्रह बेमानी है
अँधेरे के रहस्यों में खोये
सुखद तड़प और बेचैनी में
जीने के आतुर ह्रदय को देख
हँसता हुआ मन
उचक कर
उस खँडहर से हो चुके
मकान की छत पर
जा बैठता है और ,
कमरे का वह साफ़ कोना
शब्दों के पार के मौन-आमंत्रण को
समझने के प्रयास में लीन हो जाता है
पांच
वह कुटिया
वाली स्त्री
***********************
मन के जिस हिस्से में
गंगा की धारा बहती है
उसी के सुरम्य तट पर
बनी कुटिया में
एक और स्त्री रहती है
जो आम स्त्री से बिलकुल अलग है
आईने में दिखते चेहरे से भी
वह एकदम अलग है
लोलुप दृष्टियों से स्वयं को बचाती छवि से
वह स्त्री अलग है
रोज के क्रिया - कलापों में संलग्न स्त्री से
वह कुटिया में रहने वाली स्त्री अलग है
वह कुटिया वाली स्त्री प्रेम जीती है
संसार को रंगना चाहती है अपने रंग में
पुरुष उसके लिए
कुंठा नहीं
मात्र प्रेम का अवलंब है
पुत्र ,पति ,पिता,भाई ,सखा
हर रूप में उसमें बसा
वह कुटिया वाली स्त्री
पुरुष के इस प्रेम से ही बनी है
वह धड़कती है हर आम स्त्री में
और उसका जीना
जीवन में समरसता घोल जाता है
हर बेचैनी
हर कडवाहट
हर तकलीफ के बाद भी
मन के जिस हिस्से में
गंगा की धारा बहती है
उसी के सुरम्य तट पर
बनी कुटिया में
एक और स्त्री रहती है
जो आम स्त्री से बिलकुल अलग है
आईने में दिखते चेहरे से भी
वह एकदम अलग है
लोलुप दृष्टियों से स्वयं को बचाती छवि से
वह स्त्री अलग है
रोज के क्रिया - कलापों में संलग्न स्त्री से
वह कुटिया में रहने वाली स्त्री अलग है
वह कुटिया वाली स्त्री प्रेम जीती है
संसार को रंगना चाहती है अपने रंग में
पुरुष उसके लिए
कुंठा नहीं
मात्र प्रेम का अवलंब है
पुत्र ,पति ,पिता,भाई ,सखा
हर रूप में उसमें बसा
वह कुटिया वाली स्त्री
पुरुष के इस प्रेम से ही बनी है
वह धड़कती है हर आम स्त्री में
और उसका जीना
जीवन में समरसता घोल जाता है
हर बेचैनी
हर कडवाहट
हर तकलीफ के बाद भी
परिचय और
संपर्क
वीणा
वत्सल सिंह
शिक्षा
-- एम् .ए.(हिन्दी )
सम्प्रति
- स्वतंत्र लेखन
विभिन्न
पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां तथा कवितायें प्रकाशित
उपन्यास
'कतरा-कतरा जिन्दगी' प्रकाशन की प्रतीक्षा में