अरुण श्रीवास्तव
प्रस्तुत
है सिताब दियारा ब्लॉग पर अरुण श्रीवास्तव की कवितायें
एक .......
मैं देव न
हो सकूंगा
सुनो ,
व्यर्थ गई तुम्हारी आराधना !
अर्घ्य से भला पत्थर नम हो सके कभी ?
बजबजाती नालियों में पवित्र जल सड़ गया आखिर !
मैं देव न हुआ !
सुनो ,
प्रेम पानी जैसा है तुम्हारे लिए !
तुम्हारा मछ्लीपन प्रेम की परिभाषा नहीं जानता !
मैं ध्वनियों का क्रम समझता हूँ प्रेम को !
तुम्हारी कल्पना से परे है झील का सूख जाना !
मेरे गीतों में पानी बिना मर जाती है मछली !
मैं अगला गीत “अनुकूलन” पर लिखूंगा !
सुनो ,
अंतरंग क्षणों में तुम्हारा मुस्कुराना सर्वश्व माँगता है !
प्रत्युत्तर में मुस्कुरा देता हूँ मैं भी !
तुम्हारी और मेरी मुस्कान को समानार्थी समझती हो तुम -
जबकि संवादों में अंतर है “ही” और “भी” निपात का !
संभवतः अल्प है तुम्हारा व्याकरण ज्ञान -
तुम्हरी प्रबल आस्था के सापेक्ष !
सुनो ,
मैं देव न हो सकूंगा !
मेरे गीतों में सूखी रहेगी झील !
मैं व्याकरण की कसौटी पर परखूँगा हर संवाद !
सुनो ,
मुझसे प्रेम करना छोड़ क्यों नहीं देती तुम ?
व्यर्थ गई तुम्हारी आराधना !
अर्घ्य से भला पत्थर नम हो सके कभी ?
बजबजाती नालियों में पवित्र जल सड़ गया आखिर !
मैं देव न हुआ !
सुनो ,
प्रेम पानी जैसा है तुम्हारे लिए !
तुम्हारा मछ्लीपन प्रेम की परिभाषा नहीं जानता !
मैं ध्वनियों का क्रम समझता हूँ प्रेम को !
तुम्हारी कल्पना से परे है झील का सूख जाना !
मेरे गीतों में पानी बिना मर जाती है मछली !
मैं अगला गीत “अनुकूलन” पर लिखूंगा !
सुनो ,
अंतरंग क्षणों में तुम्हारा मुस्कुराना सर्वश्व माँगता है !
प्रत्युत्तर में मुस्कुरा देता हूँ मैं भी !
तुम्हारी और मेरी मुस्कान को समानार्थी समझती हो तुम -
जबकि संवादों में अंतर है “ही” और “भी” निपात का !
संभवतः अल्प है तुम्हारा व्याकरण ज्ञान -
तुम्हरी प्रबल आस्था के सापेक्ष !
सुनो ,
मैं देव न हो सकूंगा !
मेरे गीतों में सूखी रहेगी झील !
मैं व्याकरण की कसौटी पर परखूँगा हर संवाद !
सुनो ,
मुझसे प्रेम करना छोड़ क्यों नहीं देती तुम ?
दो ....
बीमार पीढ़ी
अच्छा
!!
तो
प्रेम था वो !
जबकि
प्रेयसी के रक्त से फर्श पर लिखा था “प्रेम”
!
जबकि
केंद्रित था -
किसी
विक्षिप्त लहू का आत्मिक तत्व ,
पलायन
स्वीकार चुकी उसकी भ्रमित एड़ियों में !
किन्तु
-
एक
भी लकीर न उभरी मंदिर की सीढियों पर !
एड़ियों
से रिस गईं रक्ताभ संवेदनाएं !
भिखमंगे
के खाली हांथों सा शुन्य रहा मष्तिष्क !
ह्रदय
में उपजी लिंगीय कठोरता के सापेक्ष
हास्यास्पद
था -
तोड़
दी गई मूर्ति से साथ विलाप !
विसर्जित
द्रव का वाष्पीकृत परिणाम थे आँसू !
हाँ
!
प्रेम
ही था शायद !
अभीष्ट
को निषिद्ध में तलाशती हुई ,
संडास
में स्खलित होती बीमार पीढ़ी का प्रेम !
.
तीन ....
अंतिम योद्धा
हाँ
,
मैं
पिघला दूँगा अपने शस्त्र ,
तुम्हारी
पायल के लिए !
और
धरती का सौभाग्य रहे तुम्हारे पाँव -
शोभा
बनेंगे ,
किसी
आक्रमणकारी राजा के दरबार की !
फर्श पर एक विद्रोही कवि का खून बिखरा होगा
!
हाँ
,
मैं
लिखूंगा प्रेम कविताएँ !
किन्तु
ठहरो तनिक
पहले
लिख लूँ -
एक
मातमी गीत अपने अजन्मे बच्चे के लिए
तुम्हारी
हिचकियों की लय पर !
बहुत छोटी होती है सिसकारियों की उम्र
हाँ
मैं
बुनूँगा सपने ,
तुम्हारे
अन्तः वस्त्रों के चटक रंग धागों से !
पर
इससे पहले कि उस दिवार पर -
जहाँ धुंध की तरह दिखते हैं तुम्हारे बिखराए
बादल
जिनमें से झांक रहा हैं एक दागदार चाँद !
वहीं दूसरी तस्वीर में
किसी राजसी हाथी के पैरों तले है दार्शनिक
का सर !
- मैं
टांग दूँ अपना कवच ,
कह
आओ मेरी माँ से कि वो कफ़न बुने ,
मेरे
छोटे भाइयों के लिए !
मैं
तुम्हारे बनाए बादलों पर रहूँगा !
हाँ
,
मुझे
प्रेम है तुमसे !
और
तुम्हे मुर्दे पसंद हैं !
चार .....
पाखंड
कवि
!
तुम
स्त्री होने की घोषणा करते हो स्त्री लिखते हुए
मानो
भोगा हो तुमने -
-
अपवित्र दिनों की धार्मिक उपेक्षाएँ
-
प्रसव पीड़ा और रोते बच्चे को सुलाने का सुख भी !
तुम
कहते हो -
-
कि आवश्यक है एक स्त्री होना कवि होने के लिए !
-
कि मुस्कुराना स्वीकार का लक्षण है !
जबकि
-
-
किसी स्त्री के हस्ताक्षर नहीं तुम्हारे
उपसंहारीय कथन के नीचे !
-
तुम्हारे शीर्षक पर मुस्कुरा देती है स्त्री !
तुम्हारी
कविताओं में जन्म लेती है स्त्री ,
अपने
स्त्रियोचित उभारों के साथ !
और
-
जब
तुम लिख रहे होते हो नैसर्गिक और निषेध वाली पंक्ति ,
वो
मुस्कुराकर दुपट्टा संभालना सीख लेती है !
तुम्हारे
शब्द उसकी परिधि कम करते हैं !
वो
बढ़ा लेती है अपनी मुस्कुराहटें !
और
लगभग अंत में -
तुम
बंजर होने की प्रक्रिया कहते हो मोनोपाज को !
उसके
होंठो पर तैर जाती है मुक्ति की मुस्कराहट !
आश्चर्य
है-
-
कि मुस्कुराहटों का रहस्य नहीं समझते तुम !
-
कि एक पुरुष तय करता है स्त्री
होने की परिभाषा !
लेकिन
,
संभवतः
नहीं देखा तुमने स्त्रियों के अंतरंग क्षणों में -
हँस
देती है मुस्कुराती हुई स्त्री ,
जब
एक पुरुष करता है - स्त्री
होने का पाखंड ! .
परिचय और संपर्क
अरुण श्रीवास्तव
उम्र – ३० वर्ष
निवास – मुगलसराय , उ.प्र.
मो.न. - 09936530629