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रविवार, 23 मार्च 2014

अरुण श्रीवास्तव की कवितायें

                                                                  अरुण श्रीवास्तव 
   


 

      प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर अरुण श्रीवास्तव की कवितायें



एक .......

मैं देव न हो सकूंगा


सुनो ,
व्यर्थ गई तुम्हारी आराधना !
अर्घ्य से भला पत्थर नम हो सके कभी ?
बजबजाती नालियों में पवित्र जल सड़ गया आखिर !
मैं देव न हुआ !

सुनो ,
प्रेम पानी जैसा है तुम्हारे लिए !
तुम्हारा मछ्लीपन प्रेम की परिभाषा नहीं जानता !
मैं ध्वनियों का क्रम समझता हूँ प्रेम को !
तुम्हारी कल्पना से परे है झील का सूख जाना !
मेरे गीतों में पानी बिना मर जाती है मछली !
मैं अगला गीत अनुकूलनपर लिखूंगा !

सुनो ,
अंतरंग क्षणों में तुम्हारा मुस्कुराना सर्वश्व माँगता है !
प्रत्युत्तर में मुस्कुरा देता हूँ मैं भी !
तुम्हारी और मेरी मुस्कान को समानार्थी समझती हो तुम -
जबकि संवादों में अंतर है हीऔर भीनिपात का !
संभवतः अल्प है तुम्हारा व्याकरण ज्ञान -
तुम्हरी प्रबल आस्था के सापेक्ष !

सुनो ,
मैं देव न हो सकूंगा !
मेरे गीतों में सूखी रहेगी झील !
मैं व्याकरण की कसौटी पर परखूँगा हर संवाद !

सुनो ,
मुझसे प्रेम करना छोड़ क्यों नहीं देती तुम ?



दो ....

बीमार पीढ़ी


अच्छा !!
तो प्रेम था वो !
जबकि प्रेयसी के रक्त से फर्श पर लिखा था प्रेम !

जबकि केंद्रित था -
किसी विक्षिप्त लहू का आत्मिक तत्व ,
पलायन स्वीकार चुकी उसकी भ्रमित एड़ियों में !
किन्तु -
एक भी लकीर न उभरी मंदिर की सीढियों पर !
एड़ियों से रिस गईं रक्ताभ संवेदनाएं !
भिखमंगे के खाली हांथों सा शुन्य रहा मष्तिष्क !

ह्रदय में उपजी लिंगीय कठोरता के सापेक्ष 
हास्यास्पद था -
तोड़ दी गई मूर्ति से साथ विलाप !
विसर्जित द्रव का वाष्पीकृत परिणाम थे आँसू !

हाँ !
प्रेम ही था शायद !
अभीष्ट को निषिद्ध में तलाशती हुई ,
संडास में स्खलित होती बीमार पीढ़ी का प्रेम !


.


तीन ....

अंतिम योद्धा


हाँ ,
मैं पिघला दूँगा अपने शस्त्र ,
तुम्हारी पायल के लिए !
और धरती का सौभाग्य रहे तुम्हारे पाँव -
शोभा बनेंगे ,
किसी आक्रमणकारी राजा के दरबार की !
      फर्श पर एक विद्रोही कवि का खून बिखरा होगा !

हाँ ,
मैं लिखूंगा प्रेम कविताएँ !
किन्तु ठहरो तनिक
पहले लिख लूँ -
एक मातमी गीत अपने अजन्मे बच्चे के लिए
तुम्हारी हिचकियों की लय पर !
      बहुत छोटी होती है सिसकारियों की उम्र

हाँ
मैं बुनूँगा सपने ,
तुम्हारे अन्तः वस्त्रों के चटक रंग धागों से !
पर इससे पहले कि उस दिवार पर -
      जहाँ धुंध की तरह दिखते हैं तुम्हारे बिखराए बादल
      जिनमें से झांक रहा हैं एक दागदार चाँद !
      वहीं दूसरी तस्वीर में
      किसी राजसी हाथी के पैरों तले है दार्शनिक का सर !
- मैं टांग दूँ अपना कवच ,
कह आओ मेरी माँ से कि वो कफ़न बुने ,
मेरे छोटे भाइयों के लिए !
मैं तुम्हारे बनाए बादलों पर रहूँगा !

हाँ ,
मुझे प्रेम है तुमसे !
और तुम्हे मुर्दे पसंद हैं !



चार .....

पाखंड


कवि !
तुम स्त्री होने की घोषणा करते हो स्त्री लिखते हुए
मानो भोगा हो तुमने -
- अपवित्र दिनों की धार्मिक उपेक्षाएँ
- प्रसव पीड़ा और रोते बच्चे को सुलाने का सुख भी !

तुम कहते हो -
- कि आवश्यक है एक स्त्री होना कवि होने के लिए !
- कि मुस्कुराना स्वीकार का लक्षण है !

जबकि -
- किसी स्त्री के हस्ताक्षर नहीं  तुम्हारे उपसंहारीय कथन के नीचे !
- तुम्हारे शीर्षक पर मुस्कुरा देती है स्त्री !

तुम्हारी कविताओं में जन्म लेती है स्त्री ,
अपने स्त्रियोचित उभारों के साथ !
और -
जब तुम लिख रहे होते हो नैसर्गिक और निषेध वाली पंक्ति ,  
वो मुस्कुराकर दुपट्टा संभालना सीख लेती है !

तुम्हारे शब्द उसकी परिधि कम करते हैं !
वो बढ़ा लेती है अपनी मुस्कुराहटें !

और लगभग अंत में -
तुम बंजर होने की प्रक्रिया कहते हो मोनोपाज को !
उसके होंठो पर तैर जाती है मुक्ति की मुस्कराहट !

आश्चर्य है-
- कि मुस्कुराहटों का रहस्य नहीं समझते तुम !
- कि एक पुरुष तय करता है  स्त्री होने की परिभाषा !

लेकिन ,
संभवतः नहीं देखा तुमने स्त्रियों के अंतरंग क्षणों में -
हँस देती है मुस्कुराती हुई स्त्री ,
जब एक पुरुष करता है - स्त्री होने का पाखंड ! .





परिचय और संपर्क

अरुण श्रीवास्तव
उम्र – ३० वर्ष
निवास – मुगलसराय , उ.प्र.

मो.न. - 09936530629