विमल चन्द्र पाण्डेय लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
विमल चन्द्र पाण्डेय लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 23 अक्टूबर 2013

विमलचंद्र पाण्डेय की कहानी - 'जिन्दादिल'

                                 विमलचंद्र पाण्डेय 



युवा कथाकार विमलचन्द्र पाण्डेय अपनी कहानियों में बार-बार बनारस की तरफ लौटते हैं | उस बनारस की तरफ, जो विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी जीवन्तता की आभा विखेरता रहता है | उनके पात्र अपने ‘मुंह में सोने के चम्मच’ लेकर पैदा नहीं होते , और न ही वे एक झटके में कोई लंबा हाथ मारकर ऐश करने लगते हैं | वरन वे तो इस देश की आम-सामान्य जनता की तरह रोजदिन अपने अस्तित्व की लड़ाई में मुब्तिला रहते हैं , और उसी में अपने लिए ख़ुशी के क्षण भी ढूंढ लेते हैं |                
                                          
                  
        पढ़िए ‘सिताब दियारा ब्लॉग’ पर विमलचंद्र पाण्डेय की कहानी ‘जिंदादिल’

                              जिन्दादिल

दोनों लड़कों की उम्र पंद्रह-सोलह साल के आसपास रही होगी. उनमें से एक इतना गोरा था कि अंग्रेज़ों का वंशज लगता था. उसके होंठ लाल थे और आसमानी पैंट से उसकी टांगें बाहर झांक रही थीं. उसके बाल इतने भूरे थे कि लाल लग रहे थे. दूसरे लड़के की लंबाई गोरे से कुछ ज़्यादा नज़र आ रही थी और वह बहुत पतला था. उसके बाल तेल लगाने के कारण चिपके नज़र आ रहे थे. उसकी पैंट आसमानी न होकर काली थी और उसके चेहरे पर ‘अहं ब्रह्मास्मि का भाव पूरी गंभीरता से चिपका था. दोनों का लक्ष्य बेनियाबाग की वो लोकल जूतों की दुकानें थीं जहां मोलभाव नाम की क्रिया का जीवंत उदाहरण देखा जा सकता था.
मोलभाव एक ऐसी क्रिया थी जिसमें करने वाला और करवाने वाला दोनों अपना-अपना संकोच उठा कर सामने के ताखे पर रख देते थे और काम शुरू करते थे.
वे दोनों सुबह-सुबह दुकान खुलने के टाइम बेनिया पहुंचे थे ताकि दुकानदार बोहनी के दबाव में कम कीमत पर राज़ी हो जाय. दुकानें खुलने लगी थीं. कुछ खुल चुकी थीं और कुछ के शटर उठाये जा रहे थे. वे एक दुकान में घुस गये.
दुकानदार ने कई मॉडल गोरे को नपवा कर पसंद करवाये और गोरा उन्हें थोड़ी पसंदगी ज़ाहिर कर खारिज़ करता गया. आखिर दुकानदार ने एक भरकम सा जूता उठा कर सामने रखता था जो वुडलैंड जैसे किसी बड़े ब्रांड का डुप्लीकेट मॉडल था. गोरे ने नापा और उसे काफी अच्छा महसूस हुआ.
कितने का है ?”
“अरे साहब, आप देख लीजिये, दाम का क्या है. जितना आपका ठीक लगे, दे दीजियेगा. दुकानदार ने तीर फेंका.
दोनों राजकीय क्वींस कॉलेज में ग्यारहवीं के छात्र थे और इस कक्षा में जाते ही उन्हें अचानक अपने बड़े होने का एहसास हुआ था. इस एहसास को वे हमेशा सीने से लगाये चलते और दुनिया के लिये उनके होंठों पर व्यंग्य भरी मुस्कराहट हुआ करती थी. उन्हें लगता कि जिस तरह से वे बड़े हुये हैं, उस तरह से कोई और नहीं हुआ और जैसे जैसे अनुभव उन्हें हो रहे हैं, वे बड़े अनूठे हैं और किसी और को नहीं होते. इस बात को उन्होंने दुनिया के पहले रहस्य की तरह लिया था और अपने आगे किसी को लगाते नहीं थे. कक्षा के अन्य छात्रों की तरह वे भी हर काम अपनी मर्ज़ी से करना चाहते थे लेकिन उनके और अन्य छात्रों के बीच में जो आर्थिक स्थिति वाली दीवार थी वह उन्हें सब कुछ उनके जैसा करने से रोकती थी. बदतर यह कि कक्षा के कुछ बच्चे उन दोनों की जाति को लेकर भी उनका मज़ाक उड़ाया करते थे. गोरे के पिता एक ऑफिस में चपरासी थे और पतले के पिता की किराने की छोटी सी दुकान थी. वे दोनों जिन पिछड़ी मानी जाने वाली जातियों से आते थे, उनमें उनके गोरे होने को लेकर बहुत सारी अपमानजनक कहावतें थीं जिन्हें लेकर गोरे ने इसके विपरीत कुछ कहावतें बनायी थीं.
कॉलेज का नया प्रिंसिपल बहुत खड़ूस माना जाता था और वह छात्रों की इस उम्र का कतई सम्मान नहीं करता था जिसमें वे खुद को बिना किसी ठोस कारण सबसे महत्वपूर्ण मानते थे. अब तक इंटर के छात्र यूनीफॉर्म का सम्मान करते हुये सिर्फ सफेद रंग की शर्ट पहनने भर की औपचारिकता निभाते थे और आसमानी रंग की पैंट की जगह काली पैण्ट या नीली जींस पहन कर चले आते थे. उनके पैरों में चप्पल हुआ करती थी और बस्ते से छुटकारा पाकर अब वे सिर्फ एक पतली सी कॉपी मोड़ कर कमर में खोंस कर चले आते थे. नये प्रिंसिपल ने इन सब पर सख्ती की थी और बिना जूते पहने छात्रों को कई बार कक्षा में औचक निरीक्षण द्वारा बेइज़्ज़त कर बाहर निकाल दिया था. अब चप्पलें पहन कर आवारागर्दी के दिन हवा हो गये थे और अनायास ही छात्रों के बीच जूते ने अपनी हैसियत दिखाने का औज़ार बनकर उभरे थे.
मनीष रीबॉक के जूते खरीद कर लाया था और पूरी कक्षा में चर्चा का विषय बना था. वह सबको अपने जूते दिखा रहा था और जूते की कीमत बढ़ा चढ़ा कर बता रहा था.
ढाई हजार ?” दोस्तों ने आश्चर्य व्यक्त किया था.
और क्या ? दो हजार से तो रेंज शुरू थी जूते की. मेरा बहुत महंगा वाला नहीं है. पापा दिलवाये नहीं. हमको तो साढ़े तीन हजार वाला पसंद आया था.“
“दूसरा कलर क्यों नहीं लिये ?” दिनेश ने पूछा जिसने लखानी के जूते छह सौ में खरीदे थे और किसी ने उन्हें देखने में रुचि नहीं दिखायी थी.
“यही कलर सबसे मस्त है. तुम्हारा कितने का है गुरू ? किस कंपनी का है ?” मनीष ने कक्षा में प्रवेश करते विश्वनाथ से पूछा था. विश्वनाथ ने जूता पैर समेत ऊपर उठाया तो सब हैरान रह गये. वह नाइकी का जूता था और देखने में ही खासा महंगा लग रहा था.
“चार हजार. ठीक है ?” उसने सामान्य भाव से पूछा और ग्रुप में सब फुसफुसाने लगे कि अब तक का कक्षा का सबसे महंगा जूता यही है. अचानक मनीष पतले की ओर पलटा और उसे कहा, “तुम भी लखानी का क्यों नहीं खरीद लेते ? दो जोड़ी खरीदोगे तो डिस्काउंट भी हो जायेगा.” उसने एक नज़र गोरे की ओर डाली और फिर मुस्कराने लगा. पतला भी बदले में मुस्कराया. गोरा उग्र होकर कुछ कहने वाला था लेकिन अपने पैरों की ओर देखकर और पतले की मुस्कान देखकर काफी कुछ सीखता था. पतला अपनी उम्र से काफी अधिक संतुलित रहता था नहीं तो गोरे का बस चलता तो हर रोज़ दो तीन झगड़े वह मोल लेता.
गोरे को मालूम है कि वुडलैंड का यह मॉडल बाज़ार में ढाई हज़ार का है लेकिन यह उसका पाइरेटेड वर्जन है. पाइरेसी के इस दौर में इंसानों के पाइरेटेड वर्जन मिलना कोई आश्चर्य की बात नहीं तो जूते फूते किस खेत की मूली हैं. इस डुप्लीकेट जूते की नाप लेने और उसे अपने लिये सही पाने के बाद गोरा इस मुद्रा में आ जाता है कि अब इसे खरीदने के लिये एक लंबी लड़ाई लड़नी है. यह प्रक्रिया और इसके पैंतरे वे लोग कतई नहीं समझ सकते जो मॉल या शोरूम में जाकर प्राइस टैग देखकर एक बार में कपड़े या जूते खरीद लेते हैं. यह एक ऐसा जटिल आनंद है जिसका भोग ‘एक दाम लिखी हुयी दुकानों पर जाने वाले लोग कभी नहीं कर सकते.
पतला फिर से दाम पूछता है. “कितने का है ?”
दुकानदार बेफिक्री से बाहर की ओर देखता है जहां से एक ओवरलोडेड रिक्शा जा रहा है जिसपर एक मोटी महिला और एक मोटा आदमी बैठे हैं. उन दोनों के बीच में चैदह पंद्रह साल का एक लड़का खड़ा है जो संभवतः उन दोनों का लड़का है और मां बाप के मोटेपन की वजह से उसे बैठने का स्पेस नहीं मिल पाया है. वह बेनिया की सड़क पर लगे जाम से झल्ला रहा है और उसके शरीर की बनावट बता रही है कि वह भी अगले पांच सात सालों में अच्छा खासा मोटा हो जायेगा. इस दृश्य को संपूर्णता में देखता हुआ दुकानदार बेफिक्री से जूते का प्राइस टैग मुंह से उछालता है, आठ सौ.”
गोरा हंसने लगता है गोया उसने कोई चुटकुला सुन लिया हो. पतला मुस्करा कर अपनी हंसी को थोड़ी देर बाद के लिये स्थगित कर देता है. दुकानदार ऐसी नज़र से दोनों को देखता है जैसे वे अभी-अभी चिडि़याघर से छूट कर आये हों और उन्हें जूते पहनने तो क्या उनकी कीमतों के बारे में अंदाज़ा लगाने का भी हक नहीं.
आवारागर्दी में गोरा और पतला दोनों अव्वल रहना चाहते थे लेकिन प्रतिस्पर्धा बहुत कड़ी थी. इसके लिये आर्थिक दृष्टि से मज़बूत होना बहुत ज़रूरी था और दोनों यहां थोड़े कमज़ोर पड़ते थे लेकिन उनका कमाल यह था कि उनका मनोबल पूरी दुनिया से अधिक रहता था. वे दो होकर मुकम्मल थे और छठवीं कक्षा से, जहां उनकी दोस्ती हुयी थी, लेकर आज तक उन्हें किसी तीसरे की ज़रूरत नहीं पड़ी थी. पतला गोरे के प्रति दोस्ती के साथ वात्सल्य भाव से भरा रहता था तो गोरा उसे दोस्त के साथ फिलॉसफर और गाइड भी मानता था. पतले का कहना था कि दुनिया दो भागों में बंटी है और कक्षा के ज़्यादातर छात्र, अध्यापक और यहां तक कि प्रिंसिपल भी दूसरी तरफ वाले हिस्से में हैं. उन्होंने हमें हमेशा पीछे रखने की कोशिश की है और अब भी उन्हें हमारा उनकी बराबरी में खड़े होना मंज़ूर नहीं है. गोरा अपने लिये अपमानजनक बातें सुनकर, जो कि कक्षा में सहज उपलब्ध थीं, तुंरत हाथ छोड़ देता था और बाद में दुश्मनों की संख्या अधिक होने के कारण पिटता था. पहले हाथ छोड़ने के कारण अध्यापक भी उसके खिलाफ खड़े होते जो दरअसल उन्हें वैसे भी होना ही था. पतले की सलाहों से अब गोरा पहले से बहुत संयमित हो गया था. पतला कहता था कि वे हमें भड़काने और उकसाने के लिये ही ये सब करते हैं. अगर हम उन्हें भाव ही न दें और उनके सवालों के हिसाब से जवाब दें तो ही उनका मुकाबला कर सकते हैं. गालियों के बदले गालियां और कहावतों के बदले कहावतें मारकर गोरे ने महसूस किया था कि आपा न खोकर उन्हीं के तरीके से उनका विरोध करने में अद्भुत शक्ति है. गोरे ने महसूस किया था जब से वह उनके मज़ाकों पर सहज रहता है और उनके तरीकों से ही उनके जवाब देता है, कक्षा के कई लड़के जो पहले किसी पक्ष में नहीं रहते थे, धीरे-धीरे उनका पक्ष लेने लगे हैं. जूतों को लेकर चल रहे मज़ाकों में भी गोरे ने तानों को हँस कर उड़ा दिया था. उनके सभी बड़बोले दोस्तों ने महंगे जूते खरीद लिये थे और इस बात पर उनकी खिंचाई कर रहे थे कि उनके पास जूते खरीदने के पैसे नहीं हैं तो वे कुछ पुराने जूते उधार ले सकते हैं.
“बोलो कै जूता चाहिये ?” मनोज ने कहा था और खूब हंसा था.
“तू बता तोके कै चप्पल चाही ? तोरे जूतवा से हमार चप्पलवा बरियार हौ. गोरे ने कहा था और कोई धीरे से फुसफुसाया था, “बाऊ से बनवइले हौ का ?” गोरे ने उस दिन आपा खो दिया था और हाथ छोड़ दिया था. धीरे-धीरे अच्छी खासी संख्या में लड़के लड़ने लगे थे और प्रिंसिपल ने आकर हस्तक्षेप किया था. हस्तक्षेप करने का अर्थ बिना पूरी बात सुने गोरे को पीट देना था. पतले ने बाद में समझाया था कि ऐसे हर समय उग्र रहकर वह अपने ऊपर लोगों को हावी होने का मौका देता है. गोरे ने मन ही मन निश्चय किया कि अब वह अधिक से अधिक पतले के रास्ते को अपनाएगा. हालांकि उसे छेड़ने और उसका मज़ाक उड़ाने वाले लड़के यही चाहते थे कि वह हाथ उठाए ताकि उन सबको मिलकर उसे पीटने का मौका मिल जाए.
“क्या हुआ ?” दुकानदार गंभीर मुद्रा बना कर ग्राहक से पूछता है ताकि दोनों ग्राहकों को अपनी गलती का एहसास हो. ये ग्राहक ऐसी दुकानों पर कोई पहली बार नहीं आये. इस बार गोरा दुकानदार से भी अधिक गंभीर मुद्रा बना कर कहता है, “देने वाला बताओ गुरू.”
अब दुकानदार भी गंभीर हो जाता है. उसे पता है कि उसकी यह कीमत नहीं मानी गयी है. वह अब कीमत कम करने के लिये तैयार हो गया है. खेल अपने दूसरे चरण में पहुंच चुका है. लेकिन वह गेंद ग्राहकों के पाले में डाल कर अंदाज़ा लगाना चाहता है कि ये ग्राहक वाकई जूते खरीदेंगे भी या फिर उसका वक्त बर्बाद करने की नीयत से आये हैं.
आप अपना बताइये.” वह ग्राहक से कहता है. ग्राहक कोई कच्चा खिलाड़ी नहीं है. वह गेंद वापस उसके पाले में लौटा देता है.
क्या बताएं अइसा बोल दिये हो तुम कि......सही बताओ, दो ठो लेना है. एक दाम बताओ.” गोरा इतना बोल कर पतले की ओर देखता है. पतला आंखों से हामी भरता है कि उसे भी लेना है लेकिन वह पहले गोरे वाले को दिलवा रहा है. उसके चेहरे पर सीनियर होने का भाव है. दुकानदार के लिये मौका अब बहुत नाज़ुक है. उसे ऐसी कीमत बोलनी है कि ग्राहक भड़क कर उठ न जाए और न ही एकदम हल्के में ले ले.
“ले लीजिये आपके लिये सौ रुपया कम कर दे रहे हैं.” दुकानदार अहसान जताने वाली मुद्रा में कहता है.
गोरे के चेहरे पर अब पहले से भी अधिक गंभीरता आ गयी है. वह एक पल को सोचता है फिर ठंडी सांस भर कर कहता है, “दो सौ देंगे.” यह बोलते हुये उसके मन के भीतर एक डर सा उठता है कि दुकानदार क्या प्रतिक्रिया देगा लेकिन उसे पता है कि यहां मोलभाव ऐसे ही होता है.
अब हंसने की बारी दुकानदार की है. अरे भइया, चार सौ तो खरीद है हमारी.” दुकानदार के यह कहने से यह तय हो गया है कि जूता चार सौ से कम में जायेगा. वह कहता है.
“अरे हम सब जान रहे हैं खरीद ओरीद. ढाई सौ देंगे, बोलो.”
“चलिये न आपका न मेरा, पांच सौ.”
“नहीं गुरू, जादा है.” अब पतला मोर्चा संभालता है. उसके बोलने में दुकानदार के लिये एक आश्वस्ति होती है और वह समझ जाता है कि यह ग्राहक जूते खरीदेगा तो ज़रूर लेकिन अभी थोड़ी और हुज्जत करनी पड़ेगी.
“अपना बताइये फाइनल, सुबह-सुबह का समय है.” दुकानदार यह दोनों आपस में पूरी तरह से संबंद्ध बातें कह कर ठंडी सांस लेकर बैठ जाता है और चुपचाप ग्राहक की आंखों में देखता रहता है. अब वह आरपार की लड़ाई के मूड में है.
“क्या बताएं यार, इतना बोल रहे हो तुम.” इतना कह कर पतला कुछ सोचने का अभिनय करता है जैसे उसे जूतों की सारी वेराइटियों के बारे में पता है और वह अंदाज़ा लगाना चाहता है कि इसकी वाजि़ब कीमत क्या होनी चाहिये.
“चलो तीन सौ ले लेना.” वह कहता है और जूते अपनी ओर खींच लेता है. दुकानदार जूते उसके हाथों से लगभग खींचता हुआ कहता है, “अरे भइया, मॉडल देखिये. यही चीज वुडलैंड में लेने जाएंगे तो दू ढाई हजार से कम का नहीं मिलेगा.”
अरे वुडलैंड वुडलैंड है यार.” ग्राहक ब्रांड की महत्ता स्थापित कर उसके ब्रांड को एहसास-ए-कमतरी कराना चाहता है जिसे दुकानदार सिरे से नकार देता है.
अरे कुछ नहीं है खाली एक ठो नाम चिपका दिया है. हमारा उससे कम मजबूत है क्या, चल के देखिये.” वह ग्राहक को पहन कर चलने की सलाह देता है जिसकी ओर ग्राहक ध्यान नहीं देता. चलिये साढ़े तीन सौ दे दीजिये, अंतिम दाम.” दुकानदार की भंगिमा से ज़ाहिर है कि अब इससे कम वह नहीं करेगा.
पतला सवा तीन सौ कह कर अपनी तरह से अंतिम बोली लगाना चाहता है लेकिन अचानक गोरे को लगता है कि वे लोग पहले ही काफी छूट दे चुके हैं और तीन सौ की बोली से ज़्यादा एक पैसा कीमत नहीं होनी चाहिये. वह पतले की कलाई दबा देता है और आगे बढ़कर फिर से कमान अपने हाथ में ले लेता है.
“जाये दा गुरू, हमहने के पल्ले एतना पइसा ना हौ. तीन-तीन सौ इस्टीमेट सोचल गयल रहल.” गोरा इस हरकत से दो काम करना चाहता है. एक तो अपने पुराने शहरी होने की धौंस देना चाहता है और दूसरे उठने की भंगिमा से दुकानदार को ज़ाहिर करना चाहता है कि अब वह कीमत नहीं बढ़ायेगा.
चल बे, दूसरे दुकान में देखते हैं.” उसने उठते हुये पतले से इतनी धीमी आवाज़ में कहा है कि दुकानदार भी सुन सके. वह समझ गया है कि ग्राहकों ने तीन सौ से अधिक न देने का मन बना लिया है. फिर भी वह एक आखिरी कोशिश करता है.
तीन-तीन सौ है तो ये वाला ले लीजिये, ये भी बहुत मजबूत है.” वह बगल में पड़ा एक जूता उठाता है जो इस जूते के थोड़ी देर पहले ग्राहकों ने नापा था और उन्हें पसंद भी आया था लेकिन चमड़ा बहुत कड़े होने की बात कह कर उसे खारिज़ कर दिया गया था.
नहीं गुरू, ये तो दू सौ से ज्यादे का नहीं है.” गोरा दुकान के बाहर आ चुका है. पतला चुपचाप मुस्करा रहा है. दोनों दुकान से निकल कर दो कदम चल चुके हैं और अगली दुकान के सामने पहुंचने वाले हैं. अब दुकानदार ऊंची आवाज़ में कहता है, “अच्छा आइये, तीन सौ दस दे के ले जाइये, बोहनी का टाइम है.” गोरा मुस्कराया है, उसे अपने सही अंदाज़े पर गर्व होता है. वह पलटता है और उसी गर्व से बोलता है, “एक दाम.” दुकानदार जूते को उठाकर हवा में फेंक कर कैच करता है और हथियार डाल चुकने वाले अंदाज़ में कहता है, “आइये.”
दोनों फिर से उसी मुद्रा में बेंच पर बैठे हैं और गोरे ने एक बार फिर से जूते को पहन कर देखा है. उसे नाप सही आयी है. अचानक उसकी नज़र जूते की कंपनी के नाम पर पड़ने लगती है. वह हंसने लगता है.
“नोकिया कब से जूता बनाने लगी ?” पतला भी उठा कर कंपनी का नाम पढ़ता है और हंसने लगता है. दुकानदार मुस्कराता हुआ पतले के पांवों के साइज़ के जूते निकालने में लगा है. लोकल कंपनी के जूतों के नाम अजीब होते हैं, नोकिया, सैमसंग, पारले, गोदरेज, ओनिडा इत्यादि.
पतले के जूतों के लिये अधिक मोलभाव नहीं करना पड़ता क्योंकि दुकानदार ग्राहकों के बारे में समझ चुका है. पतला भी अपने लिये जूते पसंद कर लेता है. कंपनी का नाम पढ़कर दोनों फिर एक बार हंसते हैं.
दोनों जब दो पीरियड खत्म होने के बाद स्कूल पहुंचते हैं तो पता चलता है कि तीसरा पीरीयड खाली है और रणवीर ने अपने लिये एक जूता लिया है, सभी उसके आसपास घेरा बनाये उसके जूते की विशेषता देख रहे हैं.
“ये फुटबॉल खेलने वाले लोग खरीदते हैं. खिलाडि़यों के लिये बना जूता है, इसलिये इतना महंगा है.” रणवीर बता रहा है. दोनों चुपचाप उछल कर बगल वाली डेस्क पर बैठ जाते हैं. उनके पैर लटके हुये हैं और दोनों के पैरों में नये जूते सुशोभित हो रहे हैं. बगल वाली डेस्क पर रणवीर बैठा है और उसके सामने वाली बेंच पर बाकी लोग बैठे उसके जूते को मंत्रमुग्ध भाव से निहार रहे हैं. अचानक उनकी नज़र इन दोनों पर पड़ती है. मनीष मुस्करा उठता है. वह इन दोनों की खिंचाई का कोई मौका नहीं छोड़ता. दोनों के पांवों में जूते देखकर वह खुश हो जाता है कि आज बहुत अच्छा मनोरंजन होगा. वह पास आकर झुकता है और गोरे के जूते का ब्रांड पढ़ता है, “नोकिया.....वाह क्या बात है. और तुम्हारा कौन सा है बे ?” वह पतले के सामने झुकता है और उसके जूते का ब्राण्डनेम पढ़ता है, “कैडबरी....हाहहाहाह, क्या शानदार जूता खरीदे तुम लोग गुरू.” वह हंसने लगा है. बाकी लोग भी रणवीर की तरफ से उठ कर उनके सामने वाली बेंच पर इकट्ठा हो रहे हैं. उन दोनों ने जूते खरीद लिये हैं, ये बड़ी खबर हैं. चप्पल पहन कर आने की वजह से कक्षा में से प्रिंसिपल द्वारा सबसे ज़्यादा बार यही दोनों बाहर निकाले गये हैं.
गोरे ने मुस्करा कर पतले की ओर देखा है. उनके घर में पैसों की कमी है, उनके भीतर जीवन की कमी नहीं है. रणवीर भीड़ अपने पास से हट जाने की वजह से नाराज़ सा है. वह आकर अपने हाथ से गोरे का जूते समेत एक पांव उठाता है और झटके से छोड़ देता है.
“नोकिया कब से जूता बनाने लगी बे ?” वह अट्टहास करता है. दोनों चुप रहते हैं. बाकी लोग भी हंसने लगते हैं. गोरे को थोड़ा गुस्सा आ रहा है लेकिन वह पतले का इंतज़ार कर रहा है. रणवीर हंस कर चुप होता है तो पतला मुस्कराता हुआ कहता है, “अबे ये सामान्य जूता नहीं है, इससे और भी कई काम हो सकता है.” सब थोड़ी देर के लिये चुप हो जाते हैं. जूते से भला और कौन सा काम हो सकता है. तब तक गोरा अपनी एक टांग ऊपर उठा चुका है. वह अपनी टांग मनीष के कंधे के ऊपर से उठाता है और जूता उसके कान से सटा देता है, “अबे ये नोकिया का जूता है, जब तक मन करे पहिनो और जब मन करे कान से लगा कर घर पर बात कर लो.” मनीष हड़बड़ा गया है और उसके जूते को ज़ोर से झटका है. गोरे का संतुलन थोड़ा बिगड़ा तो है लेकिन उसने खुद को संभाल लिया है. वह हंस रहा है. तभी पतले ने रणवीर के मुंह के सामने जूता लहराते हुये अपने जूते की विशेषता बतायी है, “ये कैडबरी का जूता है, पहिने हो तो पहिने रहो और भूख लगे तो निकाल कर खा लो.” रणवीर अपने मुंह के सामने से जूते को हटाता है. मनीष और रणवीर के साथ हंस रहे सब लड़के अब उन दोनों के ऊपर हंसने लगे हैं. गोरा अट्टहास करता हुआ हंस रहा है और पतले की हंसी में मुस्कराहट ज़्यादा है.
इतनी हंसी सुनकर दूसरी कक्षा के बच्चे भी आ जाते हैं और पूरी बात जानकर मनीष और रणवीर के ऊपर हंसने लगते हैं. पूरा कमरा हंसी से गूंज रहा है. मनीष और रणवीर भी थोड़ी देर खिसियानी हंसी हंसने के बाद कमरे से चुपचाप बाहर जा रहे हैं.
हंसी की आवाज़ें धीरे-धीरे बढ़ती जा रही हैं. थोड़ी देर में लगने लगता है कि पूरा स्कूल हंस रहा है.

परिचय और संपर्क

विमल चन्द्र पाण्डेय
प्लाट नं. १३०-१३१, मिसिरपुरा, लहरतारा
वाराणसी- २२१००२ (उ. प्र.)
फोन & 9820813904
ईमेल – vimalpandey1981@gmail.com              


रविवार, 11 अगस्त 2013

विमलचंद्र पाण्डेय की कवितायें



                              विमल चन्द्र पाण्डेय 





बतौर कथाकार विमल चन्द्र पाण्डेय को हम सब जानते हैं | अपने पहले कहानी संग्रह ‘डर’ के बाद पिछले साल ही उनका दूसरा कहानी-संग्रह ‘मस्तूलों के इर्द-गिर्द’ भी आया है , और ख़ासा चर्चित भी हुआ है | वैसे चर्चित तो उनका संस्मरण ‘ई इलाहब्बाद है भईया’ भी हुआ है , जिसमें उनकी किस्सागोई और उस शहर के बहाने अपने भीतर और बाहर देखने की कोशिश मुखरित हुयी है | वे उपन्यास भी लिख रहे हैं , और संभवतः वह जल्दी ही प्रकाशित भी होने वाला है | लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कवितायें भी लिखते हैं , और इतनी मारक तथा  संवेदनशील तरीके से लिखते हैं | सिताब दियारा ब्लॉग उनकी ऐसी ही चार कविताओं को आपके सामने रख रहा है | अब आप सुधि पाठक ही तय करेंगे , कि ये कैसी हैं |

         
        तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर विमलचंद्र पाण्डेय की कवितायें  



एक

बार-बार लौटता हूं बनारस                       

जैसे छेदी की गायें पूरे लहरतारा की घास चरने के बाद लौटती हैं अपनी खटाल में
शिव गंगा कोहरे में छत्तीस घंटे भी विलम्ब होकर आती है वाशिंग लाइन के यार्ड में
जैसे सांस छूटने के बाद फिर से वापस आती है जीवित व्यक्ति की नासिकाओं में
मैं बार-बार लौटता हूं बनारस जैसे अब नहीं जाउंगा कहीं भी

जम जाता हूं जब यहां आता हूं
जैसे जमती है काई घाट की सीढ़ीयों पर
पर हर बार सफ़ाई होती है
रोज़ी कमाने या सपनों को बचाने के लिये विस्थापित होता हूं किसी और शहर

मेरे बहुत सारे मित्र हैं जो कमाते हैं धन
मैं राजेन्द्र प्रसाद घाट पर पतंगें लूटता हूं खिचड़ी में
सब अर्जित करते हैं प्रसिद्धियां और अखबारों में साक्षात्कार देते हैं
मैं अचार डालता हूं खुद को मिले मौकों का और खिलाता हूं मुट्ठी भर अज़ीज़ मित्रों को
मणिकर्णिका पर खड़ा होकर चिता की आग से सुलगाता हूं सिगरेट
और सोचता हूं कि चाय पहले पीउं या ठंडाई
जैसे हर अंतिम काम पूरा होने से पहले भस्म होता है हरिश्चन्द्र घाट पर
बार-बार लौटता हूं बनारस जैसे यहीं मर जाउंगा इस बार

इस पुरातन शहर की आत्मा में हुये छेदों को भरने की कोशिश करता हूं
सड़क पर टहलता हूं अकेला रात-रात भर
इसकी सांस अवरुद्ध होती है फेफड़ों में जमे धुंए की वजह से
मैं इसके सीने पर गरम तेल और अजवाइन मिलाकर मलता हूं

वे सब इसे छोड़ कर चले जाते हैं कहीं न कहीं
जो इससे सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं
मैं उनकी मजबूरियों को इसे समझाने आता हूं यहां बिना कारण
जैसे डूबता तैराक बचने की कोशिश करता है आखिरी बार एक लंबी सांस लेकर
लौटता हूं बनारस और जीने की एक और कोशिश करता हूं

बनारस को प्यार करते हैं सब अपने बूढ़े बाप की तरह
इसकी पुरानी यादों से मुस्कराते तो हैं लेकिन दूर रहते हैं इससे
कभी आते हैं यहां तो इसका हालचाल भी नहीं पूछते

जैसे बूढ़ी मां को सहेजने के लिये नहीं दी जाती कोई थाती
इसे बहलाते हैं सब बातों से और घर खरीदते हैं दिल्ली और मुंबई में
यह कभी कोई शिकायत नहीं करता किसी से
सिर्फ धूल भरी आंधियां चलती हैं यहां भरी दोपहरी में अचानक
इस मामले में यह मेरे जैसा है
हममें इसीलिये बनती है इतनी कि एक दूसरे का हाथ थामे हम बैठे रह सकते हैं
कई दिन कई रात कई जन्म
कुछ हासिल करता हूं या खो देता हूं कुछ
तो लौटता हूं बनारस यह समझने कि पाना और खो देना दरअसल दो शब्द हैं
जिन्हें चबाकर ज़िंदगी को बनाना होता है थोड़ा मीठा, थोड़ा नमकीन
न न न, मुझे आध्यात्मिक न कहें श्रीमान !
खोना और पाना की जगह आप अपनी सहूलियत से दूसरे शब्द रख सकते हैं
जैसे नौकरी या बेरोज़गारी
प्रेम और विश्वासघात
जीवन और बनारस के बाहर की ज़मीन

बनारस में जीवन मंथर गति से चलता है
उसी तरह यहां कारें, स्कूटर और प्रेम भी चला करते हैं
तेज़ गति से चलती है गोलियां, कटती हैं गर्दनें, बचाये जाते हैं पुरखों के सम्मान
धर्म का बहुत सुन्दर सजीव प्रदर्शन होता है यहां
उसे अधिक पास से न देखियेगा यदि अश्लीलता को पचाने की आदत न हो आपकी

यह देखता है सब कुछ एक उदासीन दर्शक की तरह
मैं इसके कंधे पर हाथ रखे चुपचाप बैठा रहता हूं
हम दोनों एक दूसरे जैसे हैं
खामोश, उदास और अकेले
मेरी बात छोड़िये और इसके बारे में यह जान लीजिये साहेबान !
यह वैसा बिल्कुल नहीं है
जैसा बना दिया गया है इसे
जैसा फिल्में दिखाती रही हैं इसको
जैसा आप समझते हैं इसे


दो .....

तुम अलग थी अपने प्रेम से


तुम्हारा प्रेम मुझे अमर करना चाहता था
तुम हर पल मुझे मारने पर उतारू थी
तुम्हारी प्रलय की हद तक जाती शंकाएं
मेरी चमड़ी के नीचे की परत देखना चाहती थीं
तुम्हारा प्रेम मेरी अदृश्य चोटों पर भी होंठों के मरहम रखता था

किसी को कैसे एक साथ देखा जाये उसके प्रेम से
जबकि दोनों अलग अलग वजूद हैं समय के
तुम्हारा प्रेम इतना बड़ा कि समा नहीं पाता मेरे हृदय में पूरा का पूरा
तुम्हारे आरोप इतने छोटे कि कहां चुभते हैं मेरे बदन में
खोज तक नहीं पाता

मैं भी कहां था अपने प्रेम जैसा
जो तुम्हें आकाश में उड़ता और नदियों में अठखेलियां करता देखना चाहता था
मैं चाहता था तुम्हें बाहों में भर कर चूमूं और हमेशा के लिये बंद कर लूं अपने हृदय में
इसमें मेरे प्रेम से अधिक यह भावना थी कि तुम्हें देखूं हमेशा मैं ही
तुम्हें चूमूं हमेशा मैं ही
तुम्हें हमेशा सिर्फ मैं ही प्यार करूं
मेरा प्रेम बहुत विराट था तुम्हारे प्रेम जैसा ही
लेकिन हम वही थे टुच्ची कमज़ोरियों से भरे
छोटी कामनाओं वाले मनुष्य

न तुम कुछ खास थी न मुझमें कोई बात थी
हमारे प्रेम ने हमें बदल कर कुछ वैसा बनाना चाहा
जैसा किताबों में और पुरानी कहानियों में होते हैं किरदार
हमने वैसा बनने का अभिनय किया और अपने प्रेम को सम्मान दिया
जितनी हमारी क्षमता थी

हमारी क्षमता के हिसाब से ही हमें मिलता है प्रेम

प्रेम हमसे बदले में कुछ नहीं चाहता था
सिर्फ इतना कि हम अपनी बांहें बिल्कुल छोटी कर लें और बढ़ा लें अपने हृदय का विस्तार सागर सा
प्रेम में दुनिया से लेंगे भी तो क्या लेंगे गुड़िया ?
कौन सी चीज़ प्रेम में सुकून पहुंचाती है
सिवाय प्रेम के ?

तुमने मुझे हमेशा छीलना चाहा अपने आकार में लाने के लिये
मैंने तुम्हें दबा कर तुम्हारी उंचाई कम करने की कोशिश की
हम एक दूसरे को सबसे अच्छे से जानते थे इसलिये हम सबसे अच्छे दुश्मन थे
और हमसे अच्छे दोस्त कहां मिल सकते थे
प्रेम ने हमें बड़ी मिसालें दीं तो हमने उन्हें कविता में प्रयोग कर लिया
जीवन में हमने उन्हीं चीज़ों का प्रयोग किया जो हमें बिना मेहनत के मिलीं
हमारे तकिये पर और हमारे पुश्तैनी घर की आलमारी में

तुम मेरी आत्मा पर अपने नाखूनों के निशान छोड़ती रही
मैं तुम्हारे शरीर को सजाता रहा
सताता रहा
हमने एक दूसरे से प्यार करके भी
अलग-अलग चीज़ों से प्यार किया
जिसे संभालना कठिन साबित हुआ
खुद हमारे लिये भी



तीन

प्रेम विवाहों के खलनायक


वे उस समय दिखायी देते हैं दुनिया के क्रूरतम चेहरे
लेकिन उसके पहले और उसके बाद वे हमेशा प्यार से पेश आते हैं
प्रेम विवाहों में जो खलनायक होते हैं वे हमारे घरों में ही रहते हैं
और हमारी तरह ही खाते हैं रोटी सब्ज़ी
कभी-कभी खीर भी

प्रेम विवाहों के खलनायकों की कोई सोची समझी योजना नहीं होती     
उसे करने की जो वह करते हैं
उम्र और लिंग की सीमाओं से परे जाकर जब वह कर रहे होते हैं किसी विवाह का पुरज़ोर विरोध
दरअसल उसके पीछे की ठोस वजह उन्हें पता नहीं होती

वे इसीलिये नहीं करते ऐसा करने के कारणों पर बात
घूमते हैं सिर्फ रह-रह कर इसी बात के इर्दगिर्द कि यह शादी होगी तो वे छोड़ देंगे ये दुनिया
गोया यह दुनिया चल रही है सिर्फ उनकी ही उपस्थिति से
जाति, धर्म, गोत्र, रिश्ता, पैसा और कभी-कभी तो हास्यास्पद ढंग से
वे संभावित वर-वधू की त्वचा का रंग और लम्बाई तक को अपने ऐतराज़ की वजह बनाते हैं
प्रेम विवाह उन्हें अपना महत्व दिखाने का एकमात्र बड़ा मौका प्रदान करता है

‘‘हमारे ज़माने में इतनी हिम्मत नहीं थी’’ या ‘‘हमारे समय में....’’ जैसी उपमाओं से वे खोलते हैं अपनी ज़िद का पिटारा
उम्मीद करते हैं कि उनकी इस धमकी से कोई भुला दे अपने साथ जीने मरने के वादे
उनकी खोखली ज़िदों पर कोई फैसला नहीं लिया जायेगा
अक्सर उन्हें यह पता होता है और जब ऐसा होता है
वे अपनी ज़िदों के साथ एक खोल में बंद दिखायी देते हैं

प्रेम विवाहों में जो खलनायक होते हंै
वे भी हमारी तरह देश में हो रहे अपराधों पर दुखी होते हैं
सिलिंडर और पेट्रोल के बढ़ते जा रहे दामों पर कोसते हैं सरकार को
गंभीरता को तोड़ने के लिये सुनाते हैं कोई चुटकुला
सिलसिला के गीत उन्हें बहुत पसंद होते हैं
रेखा उनकी पसंदीदा अभिनेत्री होती है अक्सर

वे नहीं जानते अपने दुख का असली कारण
अकेले में जब वह याद करते हैं अपने बेटे या बेटी की रोती हुयी सिसकी
अपने मनपसंद जीवनसाथी से विवाह करने की अनुमति मांगता उनका गिड़गिड़ाता चेहरा
उन्हें याद आता है एक ठहरा हुआ वक्त
अपनी पुरानी बेड़ियां और बंदिशें उनके सामने साकार होने लगती हैं
वे रोते हैं और उनके सामने घूम जाता है एक पुराना सीलन लगा चेहरा
जो एक खास वक्त में रुक गया होता है
उन्हें और तेज़ रुलाई आती है
उन्हें पूरी तरह विश्वास नहीं होता अपनी ही बात पर मगर फिर भी
वे फिर से एक नये सिरे से यह कहते हुये बाहर निकलते हैं
कि यह शादी करके वे नहीं लगवा सकते अपने खानदान की इज़्ज़त पर कोई दाग

प्रेम विवाहों में जो खलनायक होते हैं
उन्होंने अक्सर विवाहों के नायक नायिकाओं की उंगलियां थामी होती हैं उन्हें चलना सिखाने के लिये
उनके मलमूत्र सहे होते हैं अपने कपड़ों में
वे अचानक बर्दाश्त नहीं कर पाते अपने बच्चों का इतना बड़ा होना
इतना बड़ा होना कि वे जीने की ज़िद करें किसी और के साथ
उन्हें अपना अस्तित्व अचानक ख़तरे में दिखायी देता है
उनके अवचेतन मन में बनने लगते हैं अंधेरे गहरे कुंए
वे गिरने लगते हैं उस कुंएं में तेज़ गति से
गिरते-गिरते ही उन्हें एक युग बदल जाने का बोध होता है
एक पीढ़ी बीत जाने की बात उन्हें एक टीस देती है
उन्हें अचानक लगता है कि वे न रहे इस दुनिया में तो भी यह चलती रही उतनी ही रवानी से
उनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला दुनिया के कारोबार पर
उन्हें एकाएक महसूस होता है कि यह ज़िंदगी एक फिल्म है
और उनकी भूमिका ख़त्म होने का वक़्त आने ही वाला है
उन्हें पता चलता है कि उनकी जगह पर नये कलाकार आ चुके हैं
उन्हें मंच छोड़ देना है जल्दी ही
वे सिहरते हैं और चीख उठते हैं तेज़ आवाज़ में
यह शादी नहीं हो सकती।


चार

इतने अधिक अपराध, इतने कम प्रायश्चित

दुख लटका है हमारी कमीजों की जेबों से
कई रंगों में, कई डिज़ाइनों में
वह हम पर आक्रमण करता है अचानक
हम लिख डालते हैं अपने बच निकलने की दास्तान
और जी जाते हैं
मरने की बस एक सूरत होती है
कि ऐन वक़्त पर चलती ही नहीं कलम

विरोधाभासों और विरोधियों से घिरे रहे मेरे तीनों काल
विरोधियों में कोई विरोधाभास नहीं था
वह था मित्रों में, प्रेमिकाओं में और संबंधियों में
रात और दिन
काला और सफ़ेद
सुख और प्यार
मौत और मां
मैं विरोधाभासों में जीने का आदी हो चुका हूं

जब तक खोलता हूं सफ़र के लिये अपनी कश्ती
सूरज डूबने का वक़्त हो चुका होता है
कई कश्तियां हैं जो बंधी ही रहती हैं उम्र भर किनारे से
उनकी अधूरी यात्राओं का कब्रिस्तान मेरी आंखों में है

मेरे चाहने से नहीं चलती दुनिया
नहीं होता दिन, रात, मौत, प्यार
जैसी चीजे सिर्फ़ हवा में हैं
हम नहीं पकड़ पाते उन्हें और जब हम अवसाद में होते हैं
तो सोचते हैं न पकड़ सकने वाली चीज़ों के बारे में

किसी नियम से बंधी है उसकी हंसी, उसकी नींद
हम तोड़ते हैं नियमों को और पाप करते हुये यह भूल जाते हैं
कि कानूनों के न तोड़े जाने से कहीं ज़रूरी है उसकी नींद का न तोड़ा जाना
हम कभी कोई प्रायश्चित नहीं करते जबकि दुनिया में रोज़ होती हैं लाखों मौतें
हर पल टूटते हैं हज़ारों दिल और सपने
कितनी हंसियां खो जाती हैं
कितनी ही नींदें अनिद्रा की अतल गहराइयों से चीखने लगती हैं

इतने सारे लोग हैं हर तरफ और इतने कम कंधे
इतनी सारी आवाज़ें और उसकी एक भी नहीं
इतनी आंखें घूरती हैं हर रोज़ मेरी उदासी
मगर एक भी आंख नहीं जो थाम ले मेरे हारे आंसू
इतने अधिक अपराध पर इतने कम प्रायश्चित हैं
कि हर पल डरावनी होती जाती है दुनिया

दुनिया को कविता से अधिक प्रायश्चित की ज़रूरत है
कवियों हमारा अपराध यह है
कि हमने इसलिये नहीं किये प्रायश्चित
कि हम यह कह कर छूटे
कि हमने तो नहीं किया कोई भी अपराध




परिचय और संपर्क

विमलचंद्र पाण्डेय

प्लाट न. 130 – 131
मिसिरपुरा , लहरतारा , वाराणसी
221002 , उ.प्र ...
मो. न.  9451887246 , 9820813904