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सोमवार, 13 अक्टूबर 2014

“ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर” - आठवीं क़िस्त - अशोक आज़मी’







इस संस्मरण के बहाने अशोक आज़मी अपने अतीत के दिनों को याद कर रहे हैं । उन दिनों को, जिसमें किसी भी मनुष्य के बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है | पिछली क़िस्त में उन्होंने एक किशोर बालक और एक अनुशासन प्रिय पिता के बीच के उस द्वन्द्व को पकड़ने की कोशिश की थी, जो शायद इस समाज के साथ ही शुरू हुयी थी, और इस समाज के रहने तक बनी भी रहेगी । इस क़िस्त में वे अपने ननिहाल और ददिहाल के उन दिनों को याद कर रहे हैं, जिसमे एक बालक के पास आजादी भी होती है, और समाज से सीधे जुड़ने का अवसर भी ।

      
                  

             तो आईये पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग पर अशोक आज़मी के
                                संस्मरण                    
          
                        

                                  ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैरकी आठवीं क़िस्त
                                   
                                    

                  ऊ गरीब ह त ओके अइसे बोलइबs?


परीक्षा जितनी दारुण होती है, गर्मी की छुट्टियाँ उतनी ही शानदार. अब तो गर्मियों की छुट्टियों में भी माँ बाप दुनिया भर का कोर्स कराते हैं और स्कूल उसे कम से कम करने की कोशिश में लगे रहते हैं. इन दोनों का चले तो बच्चों को पंद्रह साल का होते होते एम बी ए करा दें. अगल बगल की कान्वेंट शिक्षित माताओं को बच्चों के होमवर्क और प्रोजेक्ट में इस क़दर उलझे देखता हूँ तो डर जाता हूँ. डागी देखो बेटा, मिल्क पी लो प्लीज़, चलो चलो बाथ करेंगे...के ज़रिये जो प्रशिक्षण शुरू होता है वह मैथ्स, सोशल स्टडीज, साइंस के होमवर्क से होता हुआ जाने कहाँ तक जाता है. हमारे ज़माने में तो माँ की चिंता बस यही थी कि भूख न लगने पाए. घंटा बीता नहीं कि, क्या खाओगे बाबू?. गर्मी की छुट्टियाँ तो मौज मस्ती के लिए ही बनी थीं. हाँ अगले साल की किताबें ज़रूर ले ली जातीं और पापा शाम को घंटे दो घंटे पढ़ाते कि प्रेक्टिस न छूट जाए. इंटर के बाद वाली छुट्टी पहली ऐसी छुट्टी थी जिसमें सब इतना शानदार नहीं था. आगे की चिंता थी. इस चिंता में यह भी शामिल था कि बड़ी मुश्किल से हाथ में आया लड़का कहीं फिर हाथ से न चला जाए. तो न बनारस का फ़ार्म भरने दिया गया न इलाहाबाद का. दिल्ली तो खैर बहुत दूर थी. ले दे के एक एम एन आर का फ़ार्म भरा गया और दूसरा गोरखपुर विश्वविद्यालय का. बी एस सी पापा ने भरवाया, बी ए हमने भर दिया और ननिहाल चला गया.


असल में मेरी कोई स्मृति ननिहाल और ददिहाल के बिना पूरी हो ही नहीं सकती. माँ-पिता आ घर मुझे सफल नागरिक बनाने का प्रयोग स्थल था तो ये दोनों जगहें मुझे पूरी आज़ादी से बिगड़ने की सुविधा देने वाली. ननिहाल था भी मेरे घर से कोई दो किलोमीटर भर. साइकल से दस मिनट में पहुँच जाओ पीपरपांती. देवरिया के भूगोल से परिचित लोग भीखमपुर रोड पर बसे इस गाँव के बारे में जानते होंगे. एक नहर इसे शहर से अलग करती है. बहुतायत ब्राह्मणों और दलितों की है, लेकिन यादव सहित अन्य जातियों की संख्या भी पर्याप्त है. मेरे नाना का घर शिक्षित घरों में से गिना जाता था. शायद शिक्षा के अलावा थोड़ी ज़मीन जायदाद वालों के पास कोई चारा भी नहीं था उस बदलते दौर में. नाना ने इंटर पास किया था और पढाई के दौरान आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो गए थे. गांधी और जयप्रकाश से बेहद प्रभावित नाना 1942 के आन्दोलन में गोरखपुर जेल में बंद हुए थे. देश आज़ाद हुआ तो घर के हालात पर नज़र गयी. सबसे बड़े थे तीन सगे और एक चचेरे भाइयों तथा चार बहनों में. किसी रिश्तेदार ने गोरखपुर रेलवे का पता दिया. पहुँचे तो वहां क्लर्क की नौकरी मिल गयी. घर चलने लगा. खद्दर जो तब अपनाई थी जीवन भर साथ रही. धोती, कुर्ता, गमछा, रुमाल ही नहीं घर की चद्दरें और दीगर कपड़े भी खद्दर के ही होते. रोज़ सुबह 7.30 की ट्रेन से गोरखपुर जाते और रात 8.30 पर लौटते. सुबह चार बजे उठकर तीन चार किलोमीटर घूम कर खेत-बारी का मुआयना कर लेते. बारी में कुछ आम और जामुन के पेड़ उनके भी थे लेकिन हमारे लिए पूरी बारी अपनी थी. पूरा गाँव नाना-नानी-मौसी-मामा था. इस अतिशय प्रेम की एक और वजह थी. कुछ ऐसा संयोग था कि नाना के तीनों भाइयों में से किसी को पुत्र नहीं हुए. घर में माँ सहित 9 बेटियां थीं. माँ सबसे बड़ी थीं तो मैं पहला नाती. ज़ाहिर है एक नहीं तीन नाना-नानियों और तमाम मौसियों के प्यार-दुलार पर इकलौता अधिकार कम से कम चार बरस तो रहा ही मेरा. हालांकि एक मौसी लगभग मेरी उम्र की थीं और तीन छोटी थीं. पुत्र की लालसा में अंतिम दम तक कोशिशें ज़ारी थीं. माँ की सगी दो बहने थीं जिनमें बड़ी मौसी की शादी मेरे होश संभालने से पहले हो गयी थी और छोटी मौसी जहाँ तक मुझे याद है उस समय नाना की सारी कोशिशों के बाद किसी तरह बारहवीं का सर्टिफिकेट हासिल कर दो तीन सालों से शादी की प्रतीक्षा कर रही थीं. माँ का भी वहां विशेष सम्मान था, न केवल सबसे बड़ी दिदिया होने के कारण बल्कि घर ही नहीं गाँव की पहली ग्रेजुएट होने के कारण. जिन्होंने मेरी माँ की डिग्रियाँ कविता पढ़ी है वे जानते हैं कि किस तरह अनपढ़ नानी ने अपने पिता से किया वादा निभाने के लिए सारे गाँव से बैर मोल लेके माँ को पढ़ाया था. एक बार रास्ता खुल गया तो सबने पढ़ाई की.


तो ननिहाल हमारा आज़ाद देश था. वहां बारी के पीछे धूस के मैदान की क्रिकेट टीम के स्टार थे हम. वहाँ रिश्ते में मामा और दरहकीक़त दोस्तों की एक टोली थी जिसके रहते हमें शहर में किसी से डरने की ज़रुरत नहीं थी. वहां आम और जामुन के पेड़ थे जिनसे फल तोड़ते हुए हमें किसी के आदेश की परवाह नहीं करनी थी. वहां बिना मांगे पकौड़ी-फुलौरी खिलाने वाली नानियाँ थीं. वहाँ गुल्ली डंडा खेलने में साथ देने वाली मौसियाँ थीं. वहाँ गोली (कंचे) के दांव सिखाने वाले लोग थे. और वहाँ नाना के सिवा कोई नहीं था जो हमें डांटे. नाना तो रात को लौटते थे. तो दिन भर की धमाचौकड़ी में नानी की चिंता बस यह रहती थी कि सोनुआ अबहिन ले खइले नइखे. अरे! इतना किस्सा सुना गया और बचपन का वह नाम बताना भूल गया जिसके बिना देवरिया में ननिहाल और अपने मोहल्ले में तो कोई नहीं ही पहचानेगा – सोनू!  तो सोनू बाबू का साम्राज्य था वह गाँव!


शाम को नाना लौटते तो लकठा लेकर आते थे और साथ में अक्सर गीताप्रेस की किताबें. पर मैं तो लाइब्रेरी से लाई वे किताबें पढता जो वह अपने लिए लाते थे. संस्कृत का बड़ा स्वाध्याय था उनका तो सिखाने की कोशिश करते..काश सीख लिया होता! ऐसे ही नानी इलहाबाद की थीं और उनके पास कहावतों का अथाह भण्डार था. बिना कहावत उनकी बात पूरी ही नहीं होती. घर में दही ख़त्म होने को है और कोई मांगने आ गया तो उसे देने के बाद तोर नौज बिकाए मोके घलुआ दे. किसी ने बात न सुनी तो कहले धोबिया गदहा पर नाही चढ़ी, मौसी ने ज्यादा नखरे तो कईलीं न धइलीं, धिया ओठ बिदोरलीं’ और ऐसे ही न जाने कितनी कहावतें. अब लगता है काश उन्हें एक जगह नोट कर लिया होता! माँ से पूछ पूछ के काफी इकठ्ठा की हैं, लेकिन फिर भी उनके साथ ही चला गया इस धरोहर की एक बड़ा हिस्सा. कभी एक कविता में लिखा था, हर औरत के साथ चली जाती हैं कुछ कहावतें.  रात में नाना खाना खाने के बाद बैठते समझाने सिखाने. संस्कृत के श्लोक. फिर उनका अर्थ. गीता के श्लोक. राम चरित मानस का पाठ. ऊंघती आँखों से सुनने के बाद हम सुबह की डांट के लिए तैयार होते. सुबह चार बजे उनकी उठाने की कोशिश और हमारी आठ से पहले न हिलने की जिद बहुत बाद तक चली. अगर दिन में नाना की छुट्टी हुई तो दिनचर्या बदल जाती. वह अपने साथ कहीं न कहीं घुमाने ले जाते. कभी पास के किसी गाँव के रिश्तेदार के यहाँ, कभी गाँव में ही किसी के यहाँ. रास्ते में किस्से सुनाते. धार्मिक भी और राजनीतिक भी. एक आप भी सुनिए, एक जनी रहलं राजनरायन. सोसलिस्ट नेता. एक बार देवुरिया अइलं त फलाने के यहाँ डेरा पडल. फलाने कहलन अपनी मेहरारू से कि नेताजी तानि ढेर खालें, त रोटी ढेर बनइह. बइठलं राजनरायन खाए. रोटी आवत जाए. राजनरायन खात जाएँ. आटा ओराइल त अउर सनाइल. फिर सुख्ख्ल आटा ओरा गइल त बाज़ार से आइल. जब पचास गो हो गइल त कहलन बस अब रहे द. फलाना कहलं मन से नाही खईलिं हं का नेताजी. त भीत्तर से उनकर मेहरारू कहलीं, नाहीं अबहिन त खाली किलो से खईलीं ह नेताजी. उसी दौरान की एक घटना है- नानी के गाँव के फेकू रेलवे क्रासिंग के पास जूते बनाते थे. एक बार मैंने नानी के यहाँ जाने से ठीक पहले फट गयी चप्पल सिलवाई और पैसे नहीं थे तो कहा बाद में दे देंगे. वह कभी मांगते ही नहीं थे. मैं नानी के यहाँ पहुँचा तो नानी से बोला, ए नानी, फेकुआ के दू गो रुपिया दे दीह. नाना वहीँ आँगन में थे, बुलाया. बोले – केहू हमरा के सरदवा कही त कइसन लागी तोहके? मैं सन्न. ऊ गरीब ह त ओके अइसे बोलइबs? तोहरी अम्मा के दीदी कहेला न? त मामा कहत जीभ काहें अईन्ठात बा? फिर रात को उस दिन उन्होंने देर तक लोहिया के बारे में बताया. जाने उस उम्र में कितना समझ में आया लेकिन वर्षों बाद जब वेरा को घर में सहायिकाओं को आंटी बोलते सुनता हूँ, तो लगता है उनका कहा कुछ तो समझ में आया होगा. एक आदत ग़ज़ब थी उनकी. घर में कुछ बनता रहे राह चलते किसी को बुला के खिला देंगे. नानी कुडमुडाती थीं. पर उन्हें कहाँ चैन, कहेंगे- अरे ओ कुलीन के कहाँ मिली पकौड़ी. खिया दs. अक्सर फिर नानी के लिए नहीं बचता था. उसकी फ़िक्र किसे थी? बहुत बाद में समझ में आया. जाति और धर्म भेद मिटाना फिर भी आसान है, जेंडर के बारे में बराबरी की सोच बेहद मुश्किल है. लोहिया के वह शिष्य तो कभी न सीख पाए. नानी की मौत के बाद कलपते थे. पूरी दिनचर्या अस्त-व्यस्त हो गयी. खैर...


इसके उलट बाबा अलमस्त आदमी थे. बीड़ी पीने-सुरती खाने वाले, मांसाहार के ऐसे शौकीन कि डाक्टर ने फालिज के अटैक के बाद जब नमक बंद करवा दिया तो बिना नमक के मीट खाते. उर्दू सीखी थी. शेरो-शायरी के शौकीन. नौकरी बिजली विभाग में छोटी सी थी. बड़ा परिवार था. तंगी ऐसी कि कंजूसी मज़बूरी थी, पर तबियत अलमस्त. आजमगढ़ (अब मऊ) के मधुबन थाने से कोई पांच किलोमीटर दूर सुग्गीचौरी गाँव. नदी किनारे के उस गाँव में मछुआरों का बाहुल्य स्वाभाविक था. बाबा ने गाँव से बाहर मकान बनवाया था. सामने बड़ा सा मैदान जिसमें नीम का एक छाँहदार पेड़ था. बगल में धोबी लोग थे और एक बँसवारी जिसकी कइन तोड़कर हम धनुष बाण खेलते थे. सामने यादव लोगों का घर जिसके दुआर पर जामुन और नीम के पेड़ थे. हम गर्मी की छुट्टियों में घर जाते. मधुबन तक बस से. फिर वहां से इक्के से. बाबा साइकल से साथ साथ चलते. रास्ते भर लोग मिलते जुलते. गाँव पर हमारे आने से पहले मछलियाँ पहुँच जाती थीं. रसे वाली अलग बनती और भूनने वाली बाहर भूनी जातीं. आम और जामुन से घर मह मह महकता. दादी महिया और राब बचा के रखतीं. गन्ने की तो खैर कोई कमी थी ही नहीं. यहाँ जैसे विशिष्ट मेहमान वाला भाव आता. माँ-पापा तो पारिवारिक मसलों में उलझ जाते. पर मैं चाचाओं के साथ पूरा लुत्फ़ लेता. हमारी जामुन बटोरने का आनन्द खरीद के खाने वाले कभी नहीं जान सकते. गन्ने चूसते हुए गलफड़ फाड़ लेने का आनंद दस रूपये में एक गिलास जूस पीने वाले क्या समझेंगे? धान की रोपिया होती तो हम आगे आगे रहते. खेत पटाया जाता तो हेंगा पर चढ़ जाते. ट्यूबवेल चलता तो सब शहरातीपना छोड़कर नहाने लगते. बुआ गोइंठे पर गर्म गर्म रोटियां सेकतीं तो उन मोटी रोटियों पर घर के सरसों के तेल और सिल पर पिसे नमक पोत कर खाने में जो आनंद मिलता वह वर्णन नहीं किया जा सकता. पढाई वगैरह का तो खैर सवाल ही नहीं उठता लेकिन एक मजेदार चीज़ थी. एक चाचा को गुलशन नंदा, कुशवाहा कान्त वगैरह पढने का बड़ा शौक था. बाहर बनी दो कोठरियों में से एक में वे सब रखी थीं. उन्हें पढने (जाहिर है चुराकर) का चस्का वहीँ से लगा जो काफी दिनों तक रहा. साथ में बाबा के लिए बीड़ी सुलगाते हुए एक कश मार लेने का चस्का भी. यही शायद आगे चलकर सिगरेट की पूर्वपीठिका बना. नाना के गाँव से उलट यहाँ ब्राह्मणों का बस एक घर था. इस अलग माहौल में अलग तरह के दोस्त बने. अलग चीज़ें सीखीं. शहर से दूर यह एकदम असली वाला गाँव था जहां लाईट शायद नब्बे के दशक में पहुँची और पहला टायलेट हमारे घर में बना शायद 95 के आसपास. गाँव में प्राइमरी स्कूल भी नहीं था. बस थे तो डीह बाबा जो सभी जातियों के देवता थे और बंगाली डाक्टर जिनके पास हर रोग का एक इलाज था. 


बाबा पढाई को लेकर बहुत कड़े थे. बीच में ज्यादा कुछ नहीं कहते लेकिन रिजल्ट को लेकर एकदम सख्त रहते थे. एक किस्सा सुनाये बिना बात पूरी नहीं होगी. उस साल हाईस्कूल की परीक्षा देकर हम गाँव चले आये थे. रिजल्ट की व्यवस्था यह हुई थी कि रिश्ते के एक मामा जिन्हें किसी काम से आना था उसे लेकर आयेंगे. वह आये. बाबा ने पूछा तो बोले, रोल नंबर भुला गइलीं त जी आई सी के जेतना लइका फर्स्ट डिविजन आइल बान स कुलहीन क रोलनंबर लिख ले आइल बानी. बाबा बोले, ठीक कइलs हs. सेकण्ड आयें चाहें फेल होखें एम्मे कौन अंतर बा? सुनकर हाथ पाँव फूल गए. जाके छत पर छुप गया और सुनने लगा. जब पापा की आवाज़ आई, हाँ, यही है सोनू का रोल नंबर. तब शान से विजेता भाव लिए नीचे उतरा. बाबा किसी को जलेबी लाने भेज चुके थे.



तो ये थीं दो ऐसी दुनियाएं जो पापा के अनुशासन के बीच गढ़ रही थीं मुझे...गोरखपुर पहुँचा तो वह था जो इन सबसे बना था.       
     
                                                             ....................जारी है .....
                                      

परिचय और संपर्क

अशोक आज़मी .... (अशोक कुमार पाण्डेय)

वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कविआलोचकब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी      

     

शनिवार, 27 सितंबर 2014

“ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर” - सातवीं क़िस्त -अशोक आज़मी









इस संस्मरण के बहाने अशोक आज़मीअपने अतीत के उन दिनों को याद कर रहे हैं, जिसमें किसी भी मनुष्य के बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है | पिछली दो किस्तों में उन्होने मंडल आन्दोलन के बहाने उस दौर की मानसिकता को समझने की कोशिश की थी | इस सातवी क़िस्त में वे एक किशोर बालक और एक अनुशासन प्रिय पिता के बीच के द्वन्द्व को पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं, जो शायद इस समाज के साथ ही शुरू हुयी थी, और इस समाज के रहने तक बनी भी रहेगी ।

       
    
  

         तो आईये पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग पर अशोक आज़मी के 
                          संस्मरण                     
              

                    
                          ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैरकी सातवीं क़िस्त



तब उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद् की बारहवीं की बोर्ड की परीक्षा आल्पस की चढ़ाई से कम नहीं होती थी जिसमें बीच बीच में आपके शिक्षक आपके शब्दकोष में असंभव नामक शब्द घुसाते रहते थे. चौधरी साहब पापा के कालेज में गणित पढ़ाते थे. घर पर ग्यारहवीं-बारहवीं का ट्यूशन. सिद्ध वाक्य था उनका गदहा कहीं के, हो चुके पास बोर्ड में तुम. अब गणित के छह पेपर. छहों की अलग अलग किताबें. कैलकुलस संभालो तो स्टैटिक्स डायनामिक हो जाता था, अलजेब्रा साधो तो ट्रिगनोमेट्री रूठ जाती थी. फिर इनार्गेनिक केमिस्ट्री! उफ़! दसवीं में जीव विज्ञान का पर्चा दे कर आया तो पापा के पूछने पर कहा, अच्छा हुआ और माँ से कहा कि मुक्ति मिली. तो डाक्टर बनने का सपना तो टूट ही चुका था अब इंजीनियर बनने के पापा के सपने का बाद में जो करते सो करते उस समय तो इंटर पास करना ही था. इन सबके बीच किन्हीं विषयों पर पूरा भरोसा था तो वे थे हिंदी और अंग्रेज़ी. हिंदी प्रेमशीला शुक्ला आंटी से पढ़ता था, जिनका ज़िक्र मैं पहले कर चुका हूँ. बोर्ड में दो तरह की हिंदी थी. एक साहित्यिक हिंदी और दूसरी सामान्य हिंदी. किताब एक ही थी, लेकिन सामान्य वाले छात्रों को कुछ अध्याय नहीं पढने होते थे. मैं सारे पढ़ता था. भूषण थे, शायद सेनापति भी. याद नहीं मुक्तिबोध सामान्य में थे या साहित्यिक में, लेकिन पहला परिचय वहीँ हुआ. आंटी ने कभी नहीं कहा कि यह कोर्स में नहीं है. उन्हें मेरी साहित्यिक अभिरुचि का पता था. जो पूछता बड़े प्यार से समझातीं. महीने में दो तीन दिन जाया करता. उस दौर में आंटी ने उन कविताओं में डूबना न सिखाया होता तो शायद मैं कवि तो नहीं ही हो पाता.


अंग्रेज़ी का क़िस्सा मजेदार है. छोटे कस्बों में अंग्रेज़ी का अपना ही जलवा होता है. पापा को अंग्रेज़ी ठीकठाक आती थी. बोलते पूरबिहा अंदाज़ में ही थे, यानी ओनली नहीं वनली. हम दोनों भाइयों को बचपन से अंग्रेज़ी के अखबार और पत्रिकाएं पढने को दी जाती थीं. मुझे हाईस्कूल की गर्मी की छुट्टियों में इंटर के किताब की कीट्स की ला बेल दां सां मसी पढ़ के अंग्रेज़ी कविता का जो चस्का लगा था वह बड़ी मुश्किल से पूरा हो पाता था. कालेज में सुदामा सिंह जी पढ़ाते थे. शुरू के दो तीन क्लासेज में उन्होंने शुरुआत की आई लाइक टू टीच इन इंग्लिश, बट यू विल नाट अंडरस्टैंड फिर हमने एक दिन कहा, सर आप अन्ग्रेजिये में पढ़ाइये, हम समझ लेंगे. तो डांट पड़ी जो हम जैसों के लिए मामूली चीज़ थी और हमने अंग्रेज़ी हिंदी मीडियम में पढ़ी. बोर्ड का अंग्रेज़ी का कोर्स भी कोई कम नहीं था. गद्य पद्य के अलावा जूलियस सीजर भी था. एक तरफ़ शेक्सपीरियन इंग्लिश में, दूसरी तरफ़ आज की अंग्रेज़ी में. इंटर कालेज के भरोसे न इस तरफ़ का समझ आता था न उस तरफ़ का. इसी बीच किसी ने डी पी सिंह सर का नाम सुझाया. हम झुण्ड बनाकर वहाँ पढ़ने पहुँच गए.


डी पी सिंह सर बनारस के रहने वाले थे, देवरिया के बी आर डी इंटर कालेज में शिक्षक हो कर आये और फिर प्रिसिंपल होकर रिटायर हुए तो यहीं बस गए. मेरे नाना उनके पहले बैच के छात्र रह चुके थे. कलेक्ट्रेट के सामने उनका सरकारी घर था. एक बेटी साथ में रहतीं थीं बाक़ी शायद बेटा विदेश में था और बाक़ी लोग बनारस में. गोरा रंग, दरमियाना क़द और आँखों पर काला चश्मा. तब उम्र रही होगी कोई सत्तर साल से ऊपर ही, लेकी सधी हुई आवाज़ थी और सधी हुई चाल. एक विदेशी साइकल थी उनके पास, उससे ही चलते थे. पुराने ढब के सोफे और एक आराम कुर्सी के अलावा ड्राइंग रूम में यहाँ से वहाँ तक बस किताबें ही किताबें.  शेक्सपियर, बायरन, शैली, कीट्स, यीट्स, इलियट..कौन कौन नहीं थे उन आलमारियों में. मेज के बीचोबीच एक हाथीदांत का एश ट्रे. सर डिनर के बाद एक सिगरेट पीते थे.


उन्होंने जूलियस सीज़र और पोएट्री पढ़ाना शुरू किया. सीजर शेक्सपीरियन अंग्रेज़ी में पढ़ाते. आरामकुर्सी पर तिरछे लेटे हुए. किताब सीने पर रखी, आँखें हमारी आँखों पर जमी और आइडेस आफ मार्फ़ हैथ कम. बट येट नाट गान कहते नाटकीयता से भर जाने वाला उनका खूबसूरत चेहरा आज भी मेरी आँखों के सामने है. एक Tampst (तूफ़ान) का दृश्य उन्होंने कोई हफ्ते भर में समझाया था. एक एक पात्र के भीतर जाकर जैसे पूरा महाकाव्य सामने ला देते. मैं मंत्रमुग्ध हो सुनता रहता. बीच बीच में सवाल करता, वह बच्चों सा चहक पड़ते. इस तरह देवरिया की उस धरती पर 1991 के किसी महीने में जूलियस सीजर फिर से ज़िंदा हो गया था, ब्रूटस फिर से नैतिकता और फ़र्ज़ की मंझधार में झूल रहा था, कैसियस फिर से षड्यंत्र रच रहा था...लेकिन बाक़ी छात्रों को परीक्षा भी देनी थी. सीजर पढने का मतलब परीक्षा के लिहाज से कुछ महत्त्वपूर्ण पात्रों का चरित्र चित्रण और कुछ एक महत्तवपूर्ण हिस्सों का सन्दर्भ सहित अर्थ भर होता था इंटर के साइंस साइड के विद्यार्थियों के लिए. तो महीना बीतते-बीतते मेरे अलावा सभी लोग डा आलोक सत्यदेव के यहाँ चले गए. यही हाल शायद मेरे बाद वाले लड़कियों के बैच का भी हुआ होगा. तो सर ने उस बैच की इकलौती बची लड़की और मुझे एक साथ पढ़ाना शुरू किया. यह मेरी पहली को-एड थी. शाम चार बजे हम पहुँचते. डी पी सिंह सर के चाय का वक़्त था वह तो हमें भी चाय मिलती. फिर वह पढ़ाना शुरू करते. अचानक रुकते और कहते, अशोक वो उस रैक में तीसरे नंबर के खाने में फलां की एक किताब रखी है. किताब हाथ में आती तो बीच से कोई पन्ना खोलते और कहते, लो पढ़ो इसे. इस तरह कभी आधे घंटे तो कभी दो-दो घंटे हम उनके सान्निध्य में रहते और अंग्रेज़ी साहित्य के उन गलियारों में घूमते जहाँ देवरिया जैसे क़सबे से यों जा पाना नामुमकिन था.


वह पक्के नेहरूवादी थे. उन्हीं की तरह लिबरल डेमोक्रेट. जब मैं आरक्षण विरोधी आन्दोलन में सक्रिय हुआ तो अक्सर समझाते, रुक कर गौर से देखो. कौन से लोग हैं ये जो तुम्हारे आगे पीछे हैं. क्या तुम इनकी तरह जातिवादी बनना चाहते हो? क्या तुम नहीं चाहते कि हजार बरसों से जो अन्याय हुआ है जाति के नाम पर, उसके दाग़ से हमें मुक्ति मिले? अपनी जाति और अपने धर्म से ऊपर उठकर जिस समाज में लोग नहीं सोचते वह समाज कभी आगे नहीं बढ़ सकता. तब न उनकी बातें समझ आती थीं न सहमति बनती थी. मुझे तो बस साहित्य का वह रस खींच कर ले जाता था उनके पास जो कहीं और न था. दोस्त कहते, अबे स्साले. तीन महीना में सीजर पढोगे बीस नंबर के लिए तो हो चुके अंग्रेज़ी में पास. मैं कहता, अबे पास तो गधे भी हो जाते हैं. पर जो मजा मिलता है न उनके यहाँ वह कहीं नहीं मिलेगा. ज़ाहिर है मज़े का मतलब भाई लोग हमारी उस सहपाठी से लगाते जिससे उन सात-आठ महीनों में नाम तक पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी थी मेरी.


खैर, गाँव से लौटने के बाद पापा एकदम बदल गए थे. मेरा पूरा टाइम टेबल तैयार था. अनसाल्वड पेपर्स के गहरे रिसर्च के बाद दसियों माडल पेपर्स बने रखे थे. सुबह चार बजे उठते. चाय बनाकर मुझे जगाते. फिर नौ बजे तक लगातार पढ़ना. फिर नहा धो के ग्यारह बजे नाश्ता करके बैठ जाता तो माँ को हिदायत दे के कालेज निकलते. दिन भर के सवाल और अध्याय तैयार रहते. दिन में तीन बजे खा के दो घंटे का सोना. फिर छः बजे से रात नौ बजे तक पढ़ाई, फिर खाना और अगले दिन के टार्गेट के बारे में बातचीत. दस बजे हर हाल में सो जाना. घर पर न किसी के आने की इजाज़त थी न हमें गेट से बाहर निकलने की. हद से हद बाहर पापा के लगाये कैक्ट्स और गुलाब के बीच टहल लो या पीछे अमरुद और आम के पेड़ों के दर्शन कर लो या फिर छत पर टहल लो. अखबार सिर्फ पापा पढ़ते थे और फिर कहीं छुपा कर रख दिया जाता. टीवी का तो खैर सवाल ही नहीं उठता था. और तो और ननिहाल जाना भी बंद करा दिया गया. और इन सबके लिए न मार न डांट. बस एक धमकी, निकले तो फिर तुम जानो और तुम्हारा काम. बोर्ड के इक्जाम्स में मैं कोई मदद नहीं कर पाऊंगा. मुझे पता था कि वे कितने जिद्दी थे और यह भी कि उनके बिना अपनी नैया पार नहीं होनी. तो सब बर्दाश्त किया.


मुझे सबसे ज़्यादा दिक्कत स्थैतिकी (statics) के पेपर में होती थी. दिन में तीन बजे से पेपर होता था. सुबह उठा तो पापा तीन सवालों की एक लिस्ट लेकर आये. कहा, जरा इन्हें देखो. चार पांच साल से नहीं आये हैं. मैंने कहा, जब चार पांच साल से नहीं आये तो अब क्या आयेंगे. वह बोले, करके तो देखो साल्व. मैं भुनभुनाते हुए भिड़ा. तीनों में से एक भी साल्व नहीं हुआ. वह मुस्कुराए और एक एक कर तीनों साल्व कराया. पेपर मिला तो वे तीनों सवाल आये थे. 33 में से 17 नंबर के सवाल!


बहुत बाद में माँ ने बताया कि उन दिनों सारी सारी रात जागते थे पापा. उद्विग्न होकर छत पर टहलते थे. वह भौतिकी के शिक्षक थे, लेकिन हिंदी, अंग्रेज़ी, गणित, रसायन सब पढ़ डाला था उन्होंने. डांट मार सब भूल गए थे. दो ढाई महीनों में खुद को घुला दिया था. परीक्षाओं में भी छोड़ने जाते सेंटर तक. लौट के आने पर बस पेपर हाथ में लेकर देखते और कहते अगले के लिए भिड़ जाओ.


आज उनके न रहने पर जो कुछ संतोष हैं उनमें से एक यह कि कम से कम उस परीक्षा में उनकी मेहनत बेकार नहीं गयी. भौतिक, गणित, रसायन..तीनों में 80 से अधिक नंबर आये. अंग्रेज़ी और हिंदी में भी साठ से ऊपर. कुल प्रतिशत 74 बना, जो उन दिनों के हिसाब से बहुत अच्छा था. वह रिजल्ट मेरा नहीं, पापा का था. तब समझ नहीं आता था. वह कहते, बाप बनबs तब बुझबs बाबू. वह ग़लत कहते थे, मैं तब समझ पाया जब उन्हें खो दिया. विकट ग़रीबी और अभावों में पढ़कर वहां तक पहुंचे पिता बस इतना चाहते थे कि हम दोनों भाई अपनी ज़िन्दगी में उन मुश्किलात से कभी रु ब रु न हों. शिक्षा के अलावा क्या था जो हमें यह सब दे सकता था. तो जो उचित लगा उन्हें वह किया. मेरी शरारतों से डरते थे कि कहीं मैं अपना जीवन नष्ट न कर लूं. उसका इलाज पिटाई और डांट लगता था उन्हें. था नहीं पर उन्हें कुछ और कैसे लग सकता था? जिस समय की पैदाइश थे वह उनसे इससे अधिक की उम्मीद कैसे की जा सकती थी?    


उन दिनों और आज भी छोटे कस्बों में डाक्टर और इंजीनियर बनना ही पढ़ाकू और सफल होने की निशानी माना जाता है. इनसे चूक गए तो फिर पी सी एस या आई ए एस. पापा चाहते थे मैं इंजीनियर बनूँ और फिर आई ए एस तथा भाई डाक्टर बने. भाई तो खैर बना भी. उन दिनों यह इतना आसान भी नहीं था. इंजीनियर कालेज इस तरह गली गली नहीं खुले थे. सबसे आसान एम एल एन आर, फिर रुड़की और आई आई टी. मेडिकल और मुश्किल था. अब तो यह हाल है कि कोई छात्र बहुत दिनों बाद मिलता तो पापा कहते, इंजीनियरिंग कर रहे हो?


पापा का अपना भी एक दर्द था. उस ज़माने में वह खुद इंजीनियर बनना चाहते थे. लेकिन आर्थिक स्थितियाँ ऐसी नहीं थीं कि बड़े सपने देख पाते. पाँच छोटे भाई बहन, बाबा की मामूली नौकरी, रेहन पड़े खेत और गहने. उन्नीस साल की उम्र में एम एस सी पास की तो जो पहला कालेज मिला, ज्वाइन कर लिया. पी एच डी भी बहुत बाद में कर पाए. बताते थे कि तब तीन सौ कुछ रुपये मिलते थे और दो सौ घर भेज दिया करते थे. पापा गाँव के पहले ग्रेजुएट थे तो गाँव वालों को भी बहुत उम्मीदें थीं. हमारे गाँव में एक बुजुर्ग थे चिरकुट बाबा. पापा के बाबा के संगतिया थे. जब पापा नौकरी ज्वाइन करके लौटे तो उनसे मिलने गए. सलाम दुआ के बाद वह पूछे, सुनलीं ह नोकरी लाग गइल तोहार? पापा बोले हाँ चाचा. का बन गइलs पापा ने दो मिनट सोचा और कहा, मास्टर बन गइलीं चाचा. वह उदास हो गए, का ए बाबू, एतना पढलs लिखलs, नदी पार क के गइलs. अ बनलs मास्टर. सिपहिये बन गईल रहतs कम से कम. नाहीं त देउरिया रहले क का फायदा? एसे नीक कि गंउए के स्कूलिया में पढ़वतs.     


तो हर युग के अपने सपने होते हैं. पापा के सपने उनके युग के ही हो सकते थे. यह अलग बात कि मेरी आँखों के सपने बदल चुके थे. ज़ाहिर है इन सब को लेकर और बाद में मेरी नौकरी को लेकर वह बहुत दुखी रहते. वे किस्से आगे. बहुत बाद में जब मैं नियमित पत्रिकाओं में छपने लगा, किताब आई तो उन्हें लगा कि सब कुछ निरर्थक नहीं. अक्सर पूछते थे, तुम्हें अवार्ड कब मिलेगा? मैं हंसकर उड़ा देता. जब भी फोन करते तो पूछते, क्या लिख रहे हो? आते तो कविताएँ सुनते, छपे हुए लेख पढ़ते. ग्वालियर में पवन करण, महेश कटारे, महेश अनघ (अब स्वर्गीय) और ज़हीर कुरैशी जी से कई मुलाकातें थीं उनकी. एक बार अमर उजाला में कविता छपी तो सुबह सुबह उनका फोन आया, बेहद खुश थे. मैंने कहा कि पापा यह तो छोटी बात है. वह बोले, अरे देवरिया में हंस से ज्यादा बड़ी बात है. तब समझ आया कि वह जो चाहते थे कोई पद या पैसा नहीं प्रतिष्ठा थी. खैर यह सब तो बाद की बातें हैं उस वक़्त तो इंटर में अच्छे नंबर आते ही नई मुसीबतें शुरू हो गईं थीं मेरे लिए.


                                                                             ....................जारी है .....
                                      

परिचय और संपर्क

अशोक आज़मी .... (अशोक कुमार पाण्डेय)

वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी