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शुक्रवार, 29 मार्च 2013

समकालीन सृजन का समवेत नाद - 'अनहद'



                                                            अनहद का तीसरा अंक         




           ‘अनहद’ पत्रिका का तीसरा अंक प्रकाशित

साहित्य को गतिशील बनाये रखने और उसे समाज के बड़े तबके तक पहुँचाने में लघु पत्रिकाओं कि भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है | हिंदी सहित भारत की  अन्य भाषाओं में इनका स्वर्णिम इतिहास उपरोक्त तथ्य की गवाही देता है , कि इनमें एक तरफ जहाँ साहित्य कि मुख्य विधाएं फली-फूली और विकसित हुयी है , वही उसकी गौड़ विधाओं  को भी पर्याप्त आदर और सम्मान मिला है | इनकी बहसों ने तो सदा ही रचनात्मकता के नए मानदंड और प्रतिमान स्थापित किये हैं | हिंदी में इन लघु पत्रिकाओं का लगभग सौ सालो का इतिहास हमें गर्व करने के बहुत सारे अवसर उपलब्ध करता है |
                  
इन पत्रिकाओं का वर्तमान परिदृश्य दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ा नजर आता है | एक तरफ तो इस पूरे आंदोलन पर प्रश्न-चिन्ह खड़ा किया जा रहा है , वहीँ दूसरी ओर इन पत्रिकाओं की भारी उपस्थिति और उनमे गुड़वत्ता की  दृष्टि से रचे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य को भी स्वीकार्यता मिल रही  है | पत्रिकाएं प्रतिष्ठानों तक ही सीमित नहीं रही, वरन  व्यक्तिगत एवम सामूहिक प्रयासों तक भी फैलती चली गयी हैं | आज हिंदी में सौ से अधिक लघु पत्रिकाएं  निकलती हैं | मासिक, द्वी-मासिक , त्रय-मासिक और अनियतकालीन आवृत्ति के साथ उन्होंने साहित्यिक परिदृश्य की  जीवंतता बरक़रार रखी हैं | अनहद ऐसी ही एक अनियतकालीन साहित्यिक लघु पत्रिका है , जिसका तीसरा अंक हमारे सामने है | पिछले दोनों अंकों की परंपरा और गंभीरता को बरक़रार रखते हुए इसके सम्पादक संतोष चतुर्वेदी ने इस अंक में भी अपनी मेहनत , लगन , दृष्टि और दूरदर्शिता का परिचय दिया है | लगभग एक साल के अंतराल पर छपने वाली इस एकल प्रयास वाली पत्रिका में अपने दौर के कई महत्वपूर्ण और सुपरिचित नामों को तो पढ़ा ही जा सकता है , कुछ नए और बेहद संभावनाशील चेहरों से भी परिचित हुआ जा सकता है | विविधता को बनाए रखते हुए , गंभीरता का निर्वाह करते हुए और अनावश्यक विवादों से अपने आपको बचाते हुए ‘अनहद’ का यह तीसरा अंक न सिर्फ पठनीय है , वरन संग्रहणीय भी |
                          
अंक की शुरुआत हमेशा की तरह ‘ स्मरण में है आज जीवन ’ कालम से हुयी है | इस कालम के अंतर्गत अपने दौर की उन तीन महत्वपूर्ण शख्शियतों - शहरयार , सत्यदेव दुबे और भगवत रावत को याद किया गया है , जो गत दिनों इस दुनिया से हमेशा – हमेशा के लिए रुख्शत हो गयी थीं | ‘अख़लाक़ मुहम्मद खान’ उर्फ़ शहरयार को याद करते हुए वर्तमान साहित्य की संपादक नमिता सिंह ने लिखा है , कि ग़ालिब और फैज की परम्परा से जुड़ने वाले शहरयार साहब का यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा , कि उन्हें हमारा समाज एक फ़िल्मी गीतकार के रूप में ही अधिक जानता है | वहीँ अली अहमद फातमी ने उनकी नज्मों और गजलों के सहारे यह समझाने की कोशिश की है , कि शहरयार ने न सिर्फ आम-अवाम की समस्याओं पर अपना लेखन केन्द्रित किया , वरन भविष्य के लिए रास्ता भी दिखाया | ‘ थियेटर के जीनियस वोहेमियन सत्यदेव दुबे ’ को याद करते हुए सत्यदेव त्रिपाठी ने भी एक बहुत ही मार्मिक संस्मरण लिखा है , जिससे पता चलता है , कि हमारे दौर की इतनी महत्वपूर्ण शख्शियत का दैनिक जीवन कितना सरल और कितना सामान्य था | युवा आलोचक भरत प्रसाद ने ‘सीधी लकीर के साधक’ शीर्षक से ‘भगवत रावत’ को याद किया है , और ‘एमर्सन’ की उक्ति के सहारे अपनी बात कही है , जिसमें उसने कहा था , कि ‘केवल प्रतिभा ही लेखक नहीं बना सकती , कृति के पीछे एक व्यक्तित्व भी होना चाहिए |’ कहना न होगा , कि यह उक्ति भगवत रावत पर बिलकुल सटीक बैठती है |   

जन्मशती वर्ष कालम के अंतर्गत इस बार ‘अनहद’ ने रामविलास शर्मा को याद किया है | हालाकि ‘प्रदीप सक्सेना’ के सम्पादन में उद्भावना ने ‘रामविलास शर्मा’ पर ऐतिहासिक अंक निकाला है , लेकिन ‘अनहद’ का यह प्रयास भी अपने सीमित अर्थों में ही सही , मह्त्वपूर्ण है | हमारे दौर के चार महत्वपूर्ण आलोचकों – शिवकुमार मिश्र , जीवन सिंह , अजय तिवारी और वैभव सिंह – के लेखों के जरिये एक अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है , कि उस इतिहास-पुरुष ने अपने जीवन में कितनी विविधता के साथ , कितनी विपुल मात्रा में लेखन कार्य किया है |

वाम कसमों की रस्में’ कालम में प्रदीप सक्सेना ने पिछली बार का. किशोरी लाल को याद किया था , वहीँ इस बार उन्होंने अपने आपको का. भुवनेश्वरी प्रताप पर केंद्रित किया है | का. भुवनेश्वरी के पत्र कई मायनों में आँख खोलने वाले हैं | वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की कवितायें हमेशा की तरह अपनी पक्षधरता के साथ पढी जा सकती हैं , तो इतिहासकार ‘हरवंश मुखिया’ ने अपने महत्वपूर्ण लेख ‘इंडोलाजी : कुछ रिक्त स्थान’ में इतिहास को पढने और समझने की एक नयी कोशिश की है | पिछले अंक की भांति इस अंक में भी ‘चंद्रकांत देवताले’ की डायरी के महत्वपूर्ण पन्ने छपे हैं , जिसमें अन्य बातों के अलावा , उनके द्वारा ‘महाविद्यालय के शिक्षकों का वर्गीकरण’ देखने लायक है | अर्थशास्त्री ‘सौमेन सरकार’ का लेख यह आह्वान करता है , कि यदि हम अपने समय को बचाना चाहते हैं , तो हमें इतिहास, भूगोल , समाज , संस्कृति सबको मृत्यु से जीवन और जीजिविषा की ओर लौटाने का प्रयास करना होगा | एक और महत्वपूर्ण कालम के अंतर्गत रंगकर्मी अशोक भौमिक पिछली बार चित्रकार ‘जैनुल आबेदीन’ की कला को देखा परखा था , वहीँ इस बार उन्होंने प्रख्यात चित्रकार ‘चित्तप्रसाद’ के ‘मजदूर-किसान सम्बन्धी चित्रों’ के सहारे यह समझने की कोशिश की है , कि एक कलाकार की अपने समाज में क्या भूमिका होनी चाहिए | बसंत त्रिपाठी और राजीव कुमार के दो महत्वपूर्ण लेख भी इस अंक में पढ़े जा सकते हैं , जो उन्होंने रवीन्द्र नाथ ठाकुर को याद करते हुए लिखे हैं |

अनहद’ के इस तीसरे अंक में चार कहानियां है , और चार ही कवियों की कवितायें भी | कुमार अम्बुज , वंदना राग , विमलचंद्र पाण्डेय और वंदना शुक्ल अपनी कहानियों के साथ इस अंक में उपस्थित हैं , तो नीलकमल , ज्योति चावला , प्रदीप जिलवाने और अरविन्द अपनी कविताओं के साथ | इनके बारे में मैं चाहूंगा , कि आप इन्हें पढ़कर ही यह फैसला करें कि ‘अनहद’ का यह प्रयास कितना सार्थक बन पड़ा है | हां ...! कविताओं की संख्या थोड़ी अधिक होनी चाहिए थीं , और यह कमी कुछ खटकती सी है | पहले अंक में ‘अनहद’ में कुल ग्यारह कवियों की कवितायें छपी थीं , जो दूसरे अंक में सिमटकर सात रह गयीं और इस अंक में और सिकुड़ते हुए पांच पर चली गयी हैं | जिस पत्रिका का संपादक स्वयं एक महत्वपूर्ण कवि हो , उसे इस कमी पर थोडा ध्यान देना चाहिए | विमर्श कालम में युवा कथाकार और आलोचक राकेश बिहारी ने एक छोटा किन्तु महत्वपूर्ण लेख लिखा है , कि कहानी में कविता का प्रयोग कितना आवश्यक है और कितना अनावश्यक | इसी कालम में हमारे समय के महत्वपूर्ण आलोचक मधुरेश ने ‘इतिहास में वर्तमान’ शीर्षक से उपन्यास आलोचना पर एक बड़ा लेख लिखा है , जिसमें पांच उपन्यासों के सहारे यह समझने की कोशिश की गयी है , कि ‘अपने समय को परिभाषित करने की प्रक्रिया में इतिहासकार ही नहीं , जब-तब साहित्यकार भी इतिहास की ओर जाते हैं और लोकवृत , तिजंधरी कथाओं तथा चरित नायकों के सहारे इतिहास को रचते हैं |’ कसौटी कालम के अंतर्गत ‘ग्यारह’ पुस्तकों की समीक्षा भी ‘अनहद’ के इस अंक में पढी जा सकती है | समीक्षक हैं – सरयू प्रसाद मिश्र , अमीरचन्द वैश्य , पंकज पराशर, सुमन कुमार सिंह , शैलेय , दिनेश कर्नाटक , विजय गौड़ , अरुण कुमार , प्रेम शंकर , रामजी तिवारी और रमाकांत राय |

तो कुल मिलाकर ‘संतोष चतुर्वेदी’ के इस सार्थक प्रयास का स्वागत किया जाना चाहिए , और साथ यह उम्मीद भी , कि भविष्य में ‘अनहद’ न सिर्फ अपनी गंभीरता को कायम रखेगी , वरन अपने आपको और अधिक आत्मनिर्भर भी बनायेगी |



नोट ......


अनहद की प्रति मंगाने के लिए सम्पादक’ अनहद के बैंक खाते में एक सौ रुपये जमा कर हमारे 

फोन नं- 09450614857 पर सूचित करें. अनहद के बैंक खाते का विवरण इस प्रकार है


Account no- 31481251626

शाखा: स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया, मऊ, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश 

शाखा क्रमांक: 11205, IFSC code: SBIN 0011205 


अनहद

समकालीन सृजन का समवेत नाद

वर्ष-, अंक-: जनवरी २०१३

(इस प्रति का मूल्य रुपये अस्सी मात्र) 





प्रस्तुतकर्ता                        



रामजी तिवारी
बलिया , उ.प्र.
मो. न. – 09450546312
















मंगलवार, 10 जनवरी 2012

अनहद ....समकालीन सृजन का समवेत नाद




साहित्य को गतिशील बनाये रखने और उसे समाज के बड़े तबके तक पहुँचाने में लघु पत्रिकाओं कि भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है | हिंदी सहित भारत की  अन्य भाषाओं में इनका स्वर्णिम इतिहास उपरोक्त तथ्य की गवाही देता है | इन पत्रिकाओं में एक तरफ जहाँ साहित्य कि मुख्य विधाएं फली-फूली और विकसित हुयी है , वही उसकी गौड़ विधाओं  को भी पर्याप्त आदर और सम्मान मिला है | इनकी बहसों ने तो सदा ही रचनात्मकता के नए मानदंड और प्रतिमान स्थापित किये हैं | हिंदी में इन लघु पत्रिकाओं का लगभग सौ सालो का इतिहास हमें गर्व करने के बहुत सारे  अवसर उपलब्ध करता है |

इन पत्रिकाओं का वर्तमान परिदृश्य दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ा नजर आता है | एक तरफ तो इस पूरे आंदोलन पर प्रश्न-चिन्ह खड़ा किया जा रहा है , वहीँ दूसरी ओर इन पत्रिकाओं की भारी उपस्थिति और उनमे गुड़वत्ता की  दृष्टि से रचे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य को भी स्वीकार्यता मिल रही  है | पत्रिकाएं प्रतिष्ठानों तक ही सीमित नहीं रही, वरन  व्यक्तिगत एवम सामूहिक प्रयासों तक भी फैलती चली गयी हैं | आज हिंदी में सौ से अधिक लघु पत्रिकाएं  निकलती हैं | मासिक, द्वी-मासिक , त्रय-मासिक और अनियतकालीन आवृत्ति के साथ उन्होंने साहित्यिक परिदृश्य की  जीवंतता बरक़रार रखी हैं | अनहद ऐसी ही एक साहित्यिक लघु पत्रिका है |

युवा कवि संतोष चतुर्वेदी के संपादन में इलाहाबाद से निकलने वाली इस पत्रिका का दूसरा अंक हमारे सामने है | इस अंक को देखकर यह कहा जा सकता है कि अनहद ने प्रवेशांक की  सफलता को चुनौती के रूप में स्वीकार करते हुए अपने ही प्रतिमानों को और ऊपर उठाया है | लगभग 350 पृष्ठों की इस पत्रिका का यह अंक वैसे तो एक साल के लंबे अंतराल पर प्रकाशित हुआ है , लेकिन उसकी भारी भरकम सामग्री ( गुड़वत्ता और मात्रा दोनों ही स्तरों पर ) और संपादक के व्यक्तिगत प्रयासों को देखते हुए यह तनिक भी अखरता नहीं है |यह पत्रिका हर प्रकार से बहु-आयामी कही जा सकती है |इसमें एक तरफ नए-पुराने साहित्यकारों का संगम है , वही दूसरी ओर साहित्य की  मुख्य और गौड़ विधाओं का विपुल साहित्य भंडार भी|

अनहद पत्रिका की  एक बानगी को यहाँ पर देखना समीचीन होगा | स्मरण स्तंभ में दो महान विभूतियों भीमसेन जोशी और कमला प्रसाद को गहराई के साथ नए-पुराने साथियों ने याद किया है | भीमसेन जोशी पर जहाँ विश्वनाथ त्रिपाठी और मंगलेश डबराल ने लिखा है , वहीँ कमला प्रसाद पर भगवत रावत, कुमार अम्बुज और उमाशंकर चौधरी ने अपनी लेखनी चलायी है| प.किशोरीलाल को याद करते हुए प्रदीप सक्सेना ने अदभुत स्मरण लेख लिखा है | हम चंद्रकांत देवताले की डायरी का आनंद उठाते है |फिर हमारे सामने राजेश जोशी अपनी पांच कविताओं के साथ उपस्थित होते हैं |आगे चलकर हमें भगवत रावत की  झकझोर देने वाली कविता का  दीदार होता है |इसी खंड में परमानन्द श्रीवास्तव ,केशव तिवारी और सुबोध शुक्ल ने भगवत रावत की कविताओं से हमारा बेहतरीन परिचय भी कराया है | हमारे समय के कवि शीर्षक में पांच युवा कवियों देवेन्द्र आर्य , अरुण देव , सुरेश सेन निशांत , अशोक कुमार पाण्डेय और शिरोमणि महतो को स्थान मिला है |

पत्रिका इन महत्वपूर्ण रचनाओं के सहारे तब अपनी ऊँचाई पर पहुंचती है , जब शताब्दी वर्ष शीर्षक के अन्तर्गत नागार्जुन के साहित्य और व्यक्तित्व को विभिन्न कोणों से जांचा-परखा जाता है | शेखर जोशी , शिव कुमार मिश्र , जवरीमल पारेख ,राजेंद्र कुमार , बलराज पाण्डेय, कमलेश दत्त त्रिपाठी , प्रफुल्ल कोलख्यान , कृष्ण मोहन झा , कर्मेंदु शिशिर , बलभद्र, वाचस्पति और उनके पुत्र शोभाकांत ने उस पर इतनी रोशनी डाली है ,कि बाबा का साहित्य और व्यक्तित्व हमारे सामने सम्पूर्णता में चमक उठा है | फिर विशेष लेख शीर्षक के तहत चित्रकार-लेखक अशोक भौमिक ने महान चित्रकार जैनुल आबेदीन को जिस संजीदगी से जांचा-परखा है , वह कमाल का है |पत्रिका में जैनुल के बनाये 35 चित्र भी उकेरे गए है , जो हर तरह से विलक्षण है |इसी ऊँचाई पर संजय जोशी और मनोज सिंह ने प्रतिरोध के सिनेमा की आहटें शीर्षक से एक लेख लिखा है | ज.स.म. की इकाई के रूप में 2005 गठित प्रतिरोध का सिनेमा आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है |

 
पत्रिका में दिनेश कर्नाटक, सुमन कुमार सिंह , विजय गौड़ और कविता की चार कहानियां भी पढ़ी जा सकती हैं | नवलेखन विमर्श में खगेन्द्र ठाकुर ने समकालीन कविता की पड़ताल की है, तो सरयू प्रसाद मिश्र ने नयी पीढ़ी के नए उपन्यासों को जांचा-परखा है | राकेश बिहारी कहानियों में डूबकर सार्थक टटोल रहे हैं, तो भरत प्रसाद आलोचना के प्रतिमानों के बीच खड़े है | यहाँ प्रख्यात आलोचक मधुरेश द्वारा शताब्दी के पहले दशक के उपन्यासों का किया गया मूल्यांकन विशेष महत्व का बन पड़ा है | कसौटी शीर्षक में किताबों की समीक्षा है , जिसमे हरिश्चंद्र पाण्डेय , मधुरेश, वैभव सिंह , अमीर चंद वैश्य , अभिषेक शर्मा, अनामिका , रघुवंश मणि , महेश चंद्र पुनेठा, आत्मरंजन , विमल चंद्र पाण्डेय, अरुण आदित्य , और रामजी तिवारी ने अपने अंदाज में हमारे दौर की 12 महत्वपूर्ण पुस्तकों से हमारा परिचय कराया है |

इस परिचय को पाकर आप स्वयं यह तय कर सकते है कि बिना किसी प्रतिष्ठान से जुड़े संतोष चतुर्वेदी के अनथक प्रयास ने अनहद के दूसरे अंक को किस  ऊँचाई पर स्थापित किया है |अब साहित्य प्रेमी मित्र/पाठक होने के नाते हम सबका यह कर्तव्य बनता है कि हम अनहद के इस गंभीर प्रयास को  मुक्तकंठ से सराहें/स्वागत करें | जाहिर तौर पर लघु-पत्रिकाओ का भविष्य इन व्यक्तिगत प्रयासों को सामूहिक प्रयासों में तब्दील करके ही संवारा जा सकता है

                                प्रस्तुतकर्ता - रामजी तिवारी 
 अनहद                            बलिया , उ.प्र.
वर्ष-2, अंक-2
मूल्य रु-80