शेषनाथ पाण्डेय
संवेदनशील
युवाओं के सपने इस दौर में किस तरह से बिखर रहे हैं और किस तरह से वे अनायास ही टूटते जा रहे हैं , शेषनाथ की यह
लम्बी गद्य-कविता बताती है | हालाकि यह कविता प्रेम और उम्मीद की बुनियाद पर
रची-बसी है , लेकिन अफ़सोस है कि इस दौर में ऐसे पवित्र शब्द एक सीमा के बाद इस
व्यवस्था द्वारा ‘लील’ लिए जाते हैं | ‘शेषनाथ’ पहली बार सिताब दियारा ब्लॉग पर आ
रहे हैं , इस नाते उनका स्वागत तो बनता ही है |
प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर शेषनाथ
पाण्डेय की यह लम्बी गद्य-कविता
उम्र की ख़बर और आसमान का रंग.
1.
(एक
हिंदी कवि को सताइस का होने के दिन नींद उचटती है तो
उसे छब्बीस वर्ष ग्यारह महीने उन्तीस दिन तक की कोई चीज याद नहीं रहती.)
वह अपनी उचटती नींद को
खोलता है
ज़िंदगी ढहने से ठीक पहले
भरकने जैसी लगती है
(उसे
याद आती है हिंदी कहानीकार कालिया की कहानी जिसके नायक ने सत्ताइस की उम्र तक न
तो समुद्र देखा है ना लड़की.)
इस बात पर कवि मुस्कराता, हँसता फिर खुश हो जाता है
उसने तो जोड़ ली है गाँठे
लड़की के रोएं-रोएं से
समुद्र देखने की बात पर
आकाश देखता है
सारा आसमान नौकरियों से
भरा है
आसमान उसके मुँह पर औंधे
गिरा है
लड़की उसके आँखों पर
हौले-हौले फूँक मार चली जाती है रसोई में
कवि को कुछ ठीक लगता है
जमीन पर अपनी नजर गड़ाता
नजर में गाँठे पड़ती
गाँठे गड्ढों में बदल
जाती
इतनी बड़ी थाली से एक भी
नौकरी नहीं गिरती
सताइस का होने के दिन
हिंदी कवि गीले पोछे की तरह टंग जाता है रेंगनी पर
2.
गीले पोछे में कवि घुलकर
दर्द में कीचड़ हो जाता है
बिलबिला कर समुद्र देखने
के लिए निकलता है
बिलबिलाते पैर संभलते हुए
भी सिलाई मशीन से टकरा जाते हैं
पैबंद अलमीरा से किताबों
के गट्ठर बिखर जाते हैं
सताइस का होने के दिन
हिंदी का कवि
बिखरी हुई किताबों में
हांसिए का पात्र सा हँसता है.
3.
(सताइस
का होने के दिन कवि बिखरी किताबें, अधूरी कविताएँ, आसमान की नौकरियों की पुख्ता
तैयारियाँ, फटे पर्स की सिहरन और समुद्र देखने की चाहत से पश्त हो जाता है.)
वह पश्त हो बचपन में
लौटता
देह की किसी सिरे पर
बचपने की कोई रेखाएँ नहीं उभरती
उसके जीभ तक पर
बुर्जुगाना जिम्मेदारी की परछाइयाँ और उसकी हार खुदी है
अपने प्रिय खेल दोल्हा
पाती का खेल में भी
साथी डंडा फेक कर पेड़ की
और ऊँची डालियों पर चढ़ जाते
वह डंडे के पीछे भागता रह
जाता
थकने के बाद उसे पता चलता
कि हारने के बाद थकान में शुद्ध कमजोरी ही होती है
(तभी
लड़की रसोई से निकल कर उसके आँखों पर हौले-हौले फूँक मारती उसकी आत्मा पर बैठ जाती. वह
सोचता कि शुद्ध कमजोरी क्या शुद्ध सोने की तरह है जिसमें सुहागा मिला देने से बात
और ही बन जाती होगी. वह अपनी शुद्ध कमजोरी में समुद्र देखने की चाहत मिलाता है,
तभी धरती नौकरियों से भरे आसमान को उसके सामने लिए नाचने लगती, उसके सामने अँधेरा
भर जाता. वह बिना आँख के समुद्र और लड़की देखे तो देखे कैसे ? कवि की आत्मा पर बैठी
लड़की कवि को चिकोटी काटती है.)
सताइस का होने के दिन कवि
बिना आँख के समुद्र और लड़की देखने की चाहत को खोज करना चाहता है.
4.
(सताइस
का होने के दिन कवि की उचटती नींद खुलती है तो
उसे छब्बीस वर्ष ग्यारह महीने उन्तीस दिन तक की कोई चीज याद नहीं रहती.)
तीसवें दिन उसकी खूबसूरत
बहन
कर दी जाती है रिजेक्ट
वहीं बहन जिसकी खूबसूरती
कवि की खूबसूरत प्रेमिका
की खूबसूरती को फिका कर देती
जिसकी खूबसूरती मुहल्ले
की लार बनी थी
कवि की आत्मा पर पसंद का
काँटा गड़ता है
(उसकी
चुभन छब्बीस वर्ष, ग्यारह महीने, उन्नतीस दिन के हर वक्फ़े को चीर कर निकल जाती. तीस
पर धरती आसमान से मिले थाली में नमक परोस कर रख देती.)
हिंदी का कवि सताइस का
होने के दिन चीरे पर नमक का स्वाद चखता है
कवि की आत्मा पर बैठी
लड़की हाय-हाय करती अपनी आत्मा पीटती है
कवि मुस्कराता, दिलासा
देता है
आसमान को कतरने की चाहत
हो तो बुरा नहीं है
चीरे पर नमक का स्वाद.
5.
चीरे पर नमक का स्वाद लिए
सताइस का होने के दिन
कवि बस का किराया देने
में बोलता है झूठ कि खुदरा नहीं है
पाँच की जगह देता है चार
एक रूपया बक्से में
सिक्का डालकर
करना चाहता है साथी कवि
सुनील को फोन
उन्सठ सेकेंड में हिंदी
कवि को अद्भुत तरीके से
दुनिया भोली और मासूम
लगती है
उन्सठ सेकेंड बाद कवि का
भीतर
जार-जार रोता है आसमान की
क्रूरता पर
6.
घर से वर्खास्त हुआ कवि
सताइस का होने के दिन
घर लौटते हुए सोचता है
कहीं आँख उसकी मिल गई
फिर कैसे, कहाँ खरचेगा
रुपया
कितना प्यार मिलेगा घर
में
हिंदी का कवि इत्ती सी
बात सोचकर दुनिया को मिठाई खिलाना चाहता है
और घर आकर कविता में
प्रेम लिखता है.
7...
सताइस का होने के दिन कवि
कविता में लड़की को प्रेम करता
उसे रसोई से बाहर निकाल
कर अपनी रूमाल से पसीना पोछता
जुड़ा खोलता हुआ अपने सूखे
होंठों से उसके बालों को सुखाता
उसे साथ लेकर घर से बाहर
निकलते हुए पत्थरों को ठोकरे मारते चलता है
हवाओं से फूल, तितली,
सुग्गा, मोर, बाघ बना कर खुश होता है
हवाओं के सहारे पत्तिया
जलाकर भूट्टे पकाता
सूखी पत्तियों और कच्चे
दाने को अपनी हथेली पर रख मोतीचूर के लड्डू और चूड़ा बना कर प्रेमिका को खिलाते हुए
आसमान के हर अंग से अपनी अंग को मिलाता है तभी आसमान गुर्रा उठता है -
(ये
दण्डकारण्य है आसमान का रंगकोष. यहाँ प्यार करने, जंगल के छायों में सहेजी हुई
मिट्टी को छूने और हवाओं की चूमने की आजादी नहीं है. यह जगह आदमी की नहीं आसमान की
है. हजारों सालों से हम इस नए आसमान को बनाने में लगे है. उन्नीस सौ सैतालीस के
बाद तो पुख्ता दस्तावेज भी है हमारे पास. जिसे तुम ठोकर मारते हुए बढ़े जा रहे हो,
तुम्हें नहीं पता धरती इसे दर दर की ठोकरे खाना कहती है. पागल हो जाओगे निराला की
तरह, टूट कर खत्म हो जाओगे मुक्तिबोध की तरह, गायब हो जाओगे स्वदेश दीपक की तरह.
वर्दी पहनो, हम तुम्हें बंदूक उठाने का लाइसेंस देंगे और रंगकोष से तनख्वाह. गुमान
करना छोड़ दो, आसमान के रंगो को छेड़ना छोड़ दो. ये मामूली रंग से नहीं संसद के रंग
से बना है. यह कविताओं का नहीं संसदो का समय है. तुम मरोगे तो हम तुम्हारे घर को
तुम्हारी कीमत के रूपए देंगे और तुम्हें तोंपो की सलामी. कभी गंगा, यमुना, नर्मदा
में उतरने की बात मत सोचना. हम पानी के भूत है. लाल भूत. लाल-लाल झंडा नहीं लाल
लाल भूत. डूबो दिए जाओगे, तुम्हारी लाश हमारा आहार बनेगी. हम दुनिया के सबसे बड़े
तंत्र के आदमखोर है. हमारा पाचनतंत्र आदमी की सुपाच्यता के हिसाब से ही बना है.)
हिंदी का कवि
सताइस का होने के दिन प्रेम करते हुए
आसमान की बात पर बहुत कुछ
कहना चाहता है
(और
हिंदी कवि दुष्यंत कुमार से मिले पत्थरों को तबीयत से आसमान की तरफ उछालने लगता
है)
पत्थर उछालते-उछालते कवि
के सताइस का होने की रात हो जाती है
उसी रात आसामन हत्या का
बील पास कर अट्टहास करता है
कवि को यह रात आखिरी रात
लगती है
(कवि
हिंदी गीतकार पीयूष मिश्रा से आखिरी नींद के तरीके को सीखता है और अपनी आखिरी रात
में हत्या को सपने में होने वाली हत्या समझ कर सो जाता है )
सुबह कवि की नींद खुलती
है तो सताइस का हुआ कवि इक्कतीस का हो चुका है
कवि हिसाब लगा रहा है
अपनी उम्र का
जस का तस ठहरा हुआ उसका
समय उसे उलझा रहा है
धरती इतनी सख्त, आसमान
इतना खाकी कैसे होता जा रहा
यह उलझन ऐसी है कि कवि
समुद्र किनारे बैठा हुआ
समुद्र की जगह आसमान देख
रहा है.
परिचय
और संपर्क
शेषनाथ
पाण्डेय
जन्म
तिथि – 1982
मो.
न. – 09594282918
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baar baar parhi jane wali rachna..
जवाब देंहटाएंbohot khoob..
अपने सातईस के होने के बहाने शेषनाथ ने अपने समय की तमाम विद्रूपताओं को चित्रित किया है .अच्छी कविताये प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद .
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