चुपचाप और अपने में गुमसुम रहने
वाले शेषनारायण मिश्र की ये कवितायें मुझे कवि-मित्र संतोष चतुर्वेदी के माध्यम से
प्राप्त हुयी हैं | बेशक इनमे अनगढ़पन है लेकिन उससे कहीं अधिक संभावनाएं , और
यहीं से उनके प्रति हमारी उम्मीद का दरवाजा भी खुल जाता है |
प्रस्तुत है सिताब
दियारा ब्लॉग पर शेषनारायण मिश्र की कवितायें
एक ....
सुर भी
खराब लय भी बुरी ताल भी बकवास।
दूकान
बहुत दूर उधर माल भी बकवास।
हाँ, तेरी शराफत से अदावत सी
है मुझको,
बेहाल है
तू भी तो मेरा हाल भी बकवास।
कट्टा जो
लिया तुझसे तो घाटा बहुत हुआ,
ढाँचे
में कोई दम भी नहीं नाल भी बकवास।
आंसू की जुबाँ
में ये बहुत शोर किये था,
कर ही
चुका आखिर दिले-पामाल भी बकवास।
पक्षी भी
बेशऊर शिकारी भी बेवकूफ,
बेदम हैं
उड़ानें भी इधर जाल भी बकवास।
बस वक्त
गुजरता है, बदलता
नहीं कुछ भी,
वो साल
भी बकवास था, ये
साल भी बकवास।
दो .....
गुपचुप-गुपचुप
बादल बनकर झील चली सागर के पास।
नदियों
जैसी नियति नहीं है, नदियों सी रफ्तार नहीं।
पर
मुझमें भी कुछ है जिसने, मानी अब तक हार नहीं।
अपने अनुभूत
अनुभव को, सत्य कहूँ या बस आभास ?
गुपचुप......................
लगता था मैं सार्थकता से, पा सकती सत्कार नहीं।
सागर से मिलने की सोचूँ, मुझको यह अधिकार नहीं।
दिन बीते
तो जाने कैसे, जागी
नई-नवेली प्यास।
गुपचुप............................
तब लगता था मुझे हवाएँ सागर क्यों
पहुँचाएँगी ?
बंजर में बरसा देंगी या फिर यूँ ही
भटकाएँगी।
लघु न कहीं हो जाय अभीप्सा का असीम विस्तृत
आकाश।
गुपचुप............................
सोच रही थी उड़ी अगर, तो खुद से कट ही जाऊँगी।
दुनिया में क्या खाक जुड़ेगा, मैं तो घट ही जाऊँगी।
नहीं पता था बढ़ने के पहले है घटने का
अभ्यास।
गुपचुप............................
फिर मैं छोटी झील बंजरों पर बरसी, कुछ झाड़ उगे।
ज्यों असीम से बातें करती सीमा वाली बाड़
उगे।
जरा घटी तो बहुत बढ़ी मैं, नित्ययुगल है ह्रास-विकास।
गुपचुप............................
पेड़-पहाड़-नदी-बंजर हूँ, मैं हूँ एक, कई हूँ मैं।
दशों दिशाओं से सागर तक आखिर पहुँच गई हूँ
मैं।
मेरा यह विन्यास कर्म का, यहाँ कहाँ कोरा संन्यास।
गुपचुप............................
तीन
रघुपति
राघव राजा राम। सुबह अँधेरी फीकी शाम।
हिन्दू-मुस्लिम सिक्ख-इसाई, सबका हाहाकार सुनो।
जनता की निर्बलता देखो, सत्ता की हुंकार सुनो।
घोर कुशासन ने कर डाला उम्मीदों का काम
तमाम।
रघुपति.....................
भ्रष्ट व्यवस्था के दीमक ने, लोकतन्त्र को खा डाला।
तपते शासन ने जनसुख का जिन्दा पेड़ सुखा
डाला।
कौन तुम्हारा नाम जपे, हम भूल गये अपना ही नाम।
रघुपति.....................
फाइल में फरियाद हमारी पड़ी-पड़ी मुरझाती
है।
हक के लिये उठे जो वो आवाज कुचल दी जाती है।
ऐसा है आगा़ज़ वक्त का, जाने कैसा हो अंजाम!
रघुपति.....................
तुम्हें समझ आत्मीय वेदना का नासूर दिखाते
हैं।
हाथ नहीं फैलाते केवल अपनी व्यथा सुनाते
हैं।
तुम्हीं सरीखे स्वयं बनायें, हम अपने सब बिगड़े काम।
रघुपति.....................
जिले-जिले में गुन्डे बैठे, थानेदार मवाली है।
देश चलाती जो, वह नेतागीरी नहीं दलाली है।
भूखी जनता के पैसों से छलक रहे पेरिस के
जाम।
रघुपति.....................
यदि कुछ दो, तो यह देना, निज भुजबल पर
विश्वास रहे।
बाहर अन्ध तमस हो तो भी, भीतर दिव्य प्रकाश रहे।
युद्ध आमरण, या कि आविजय, यहाँ अभी कैसा
विश्राम ?
रघुपति.....................
मूर्ति मौन पर हृदय मुखर है, ज्यों प्रभु का आदेश
मिला।
एक पंक्ति में वर्तमान का कार्यक्रम निश्षेस
मिला।
गिरता रुपया छोड़ अभी, पहले गिरते मूल्यों को
थाम।
रघुपति.....................
प्रस्तुति और संपर्क
शेषनारायण मिश्र
ग्राम+पोस्ट- मऊ
जिला – चित्रकूट , उ.प्र.
मो.न. - 08924918938