अशोक कुमार पाण्डेय
कविता ,
कहानी , उपन्यास और आलोचना जैसी मुख्य विधाओं के अलावा भी साहित्य में इतना
कुछ लिखा
और रचा जाता है , जिस पर गर्व किया जा सकता है | कभी-कभी तो यही गौण विधाएं
हमारे
दौर को समय के ‘स्केल’ पर बचाए रखने का काम करती हैं | साहित्य की एक ऐसी ही गौण
विधा
है – ‘साक्षात्कार’ | इस विधा के माध्यम से हम लेखक के विचारों से तो परिचित होते
हैं ,
उसकी मानसिक बुनावट और उसके भीतर चलने वाली ‘रचना-प्रक्रिया’ से भी अवगत
होते हैं | फिर
यदि लेखक का नाता ‘सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों’ से जुड़ता हो , तब तो
कहने और जानने के
लिए बहुत कुछ होता ही है | युवा लेखक ‘अशोक
कुमार पाण्डेय’ के साथ ‘प्रमोद धिताल ’ का
यह
साक्षात्कार नेपाल की एक पत्रिका ‘जनसंस्कृति’ में छपा है
| सिताब दियारा ब्लॉग पर इसे प्रस्तुत
करते हुए हमें गर्व का अनुभव हो रहा है |
प्रस्तुत है अशोक कुमार
पाण्डेय के साथ प्रमोद धिताल का यह
साक्षात्कार
प्रमोद धिताल - अशोक जी, हमारे पाठको को यह बता दीजिए
कि आप इन दिनों क्या कर रहे हैं?
अशोक कुमार पाण्डेय - इन दिनों मैं दखल प्रकाशन की योजना पर
काम कर रहा हूँ. आप जानते हैं कि इस प्रकाशन की योजना हिंदी में जनपक्षधर लेखन को
बढ़ावा देने के लिए हमने बहुत अल्प साधनों के साथ शुरू की है और जल्द ही तीन
किताबों के पहले सेट के साथ हम उपस्थित होंगे. इसके अलावा अपने समूह ‘दखल विचार
मंच’ के साथ हम ग्वालियर के भीतर और बाहर विभिन्न गतिविधियाँ संचालित कर रहे हैं.
व्यक्तिगत तौर पर इन दिनों मैं आलोचना की एक किताब तैयार कर रहा हूँ तथा हिंदी के
एक बेहद महत्वपूर्ण लेकिन संस्थागत आलोचना द्वारा उपेक्षित रचनाकार रांगेय राघव पर
एक पुस्तक लिखने की कोशिश कर रहा हूँ. मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांत शीर्षक से एक
लेखमाला लिख रहा हूँ जो दिल्ली से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘युवा संवाद’ तथा
‘जनपक्ष’ ब्लॉग पर नियमित प्रकाशित हो रही है.
इसके अलावा भी कई योजनायें हैं...देखिये क्या-क्या पूरा हो पाता है..
प्रमोद धिताल -
आप लम्बे अरसे से राजनीतिक, सामाजिक और साँस्कृतिक
आन्दोलन से जुडे
हुये है इस दौरानमे आपको प्राप्त सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धी क्या है
?
अशोक - देखिये, भौतिक उपलब्धि
तो कोई है नहीं, पुरस्कार, सम्मान, पद जैसी कोई चीज़ मेरे
हिस्से में नहीं आई है.
कोई अगर सबसे बड़ी उपलब्धि है तो इस लम्बे सफ़र में मिले दोस्त, साथी
और कामरेड
हैं. तमाम राजनीतिक समूहों और प्रलेसं जैसे लेखक संगठनों से पहले जुड़ाव और फिर
मतभेदों
के बाद अलगाव के दौर में अगर निराश होके घर बैठने से खुद को रोक पाया तो उसके
पीछे
इन दोस्तों की ताकत ही है. पिछले सात सालों से ग्वालियर में दखल विचार मंच बनाकर
काम कर रहा हूँ. कुल तीन लोगों के साथ यह सफ़र शुरू हुआ था, आज अपनी सीमित ताक़त
के
बावजूद हमने ग्वालियर के भीतर और बाहर अपने तरीके से हस्तक्षेप किया है और अब
उम्मीद है
कि कुछ और जगहों पर भी जल्द ही हमारा यह समूह काम करना शुरू करेगा.
साहित्य में ‘कविता-
समय’ के सफल आयोजनों को मैं अपनी उपलब्धियों में गिनता हूँ,
जिसमें हमने बिना किसी
कारपोरेट मदद और बड़ी स्पांसरशिप के पहले ग्वालियर और फिर
जयपुर में (जहाँ के गिरिराज
किराडू हमारी संस्थापक संयोजन समिति के सदस्य हैं)
हिंदी के पचास से अधिक कवियों को एक
मंच पर लाकर उनके बीच एक खुली और स्वस्थ बहस
कराने में सफलता हासिल की. यह पूरा
आयोजन सहभागिता पर आधारित था और आगे भी इसी रूप
में चलेगा. आलोचना भी हुई, कुछ
लोगों ने तो झूठ और दुष्प्रचार की सारी सीमाएं तोड़
दीं, लेकिन इस सबसे हमने सबक लिए हैं और
पाठकों तथा सभी पीढ़ियों के कवियों के
अपार तथा बिला-शर्त समर्थन ने हमें वह आवश्यक ऊर्जा
दी है जिसके सहारे हम इसे और
बेहतर बनाने की कोशिशों में लगे हुए हैं.
प्रमोद धिताल - वर्तमान मे हमारा समाज विकृत पूँजीवादी संस्कृति का
जबर्दस्त प्रवाह और
उपभोक्तवाद का शिकार होता जारहा है इस अवस्थामे हमारा सचेत
प्रयत्न क्या हो सकता है और
वह प्रयत्न उस प्रवाहको रोकने मे कैसे समर्थ होगा ?
अशोक – ज़ाहिर तौर पर आज
पूंजीवाद ने शायद पहली बार समाज, संस्कृति तथा राजनीति के
लगभग हर परिक्षेत्र में
वर्चस्व स्थापित कर लिया है. थियोडोर एडर्नो जिस सांस्कृतिक साम्राज्यवाद
की बात
कर रहे थे वह आज पूरी तौर से एक हकीक़त बन कर हमारे सामने उपस्थित है. उसके
विस्तार
में जाने की कोई ज़रुरत नहीं. आज साहित्य की भूमिका इसी सांस्कृतिक वर्चस्व से
मुकाबिले की है. यह एक सचेत प्रयत्न ही नहीं एक सचेत और प्रतिबद्ध राजनीतिक
कार्यवाही भी है.
इस पूंजीवादी व्यवस्था ने अपने जिन सहजबोधों (कामनसेंस) को
स्थापित किया है, हमें निरंतर
उसका प्रतिवाद प्रस्तुत करना होगा. आप देखिये,
पूंजीवाद की इस पूरी परियोजना में साहित्य और
खासकर कविता की जगह लगातार सिमटती
गयी है. हमारे यहाँ आम आदमी कविता मंचों और
टेलीविजन चैनलों में अश्लील
तुकबन्दियाँ करने वाले हास्य कवियों की अपसंस्कृति फैलाने वाली
रचनाओं को समझता है
और खिन्न होता है. मुख्यधारा की पत्रिकाओं और अखबारों में प्रतिरोधी
साहित्य की
जगह लगातार सिमटती जा रही है. अमेरिका जैसे देश में भी कविताओं का प्रकाशन
एक
दुष्कर कार्य है. ऐसे में हमारी भूमिका प्रतिरोध के साहित्य को रचने मात्र से आगे
जाकर उसके
प्रकाशन, वितरण, प्रचार-प्रसार और उसे एक राजनीतिक आन्दोलन से जोड़ने तक
की है. यह समय
विशेषग्यता से अधिक विभिन्न काम अपने हाथ में लेने का है. ऐसे
सामूहिक प्रयत्नों से ही हम
साहित्य और उसके माध्यम से मनुष्यता की जगह बचा सकते
हैं. हमें एक ऐसे युद्ध में अपनी पूरी
ताक़त झोंकनी है जहां हमारा शत्रु
सर्वशक्तिमान है और ऐसे में हमारी शक्ति केवल जनता हो
सकती है. आज हमारी भूमिका पूंजीवादी वर्चस्व के बरक्स
सांस्कृतिक क्षेत्र में समाजवादी
विचारधारा के वर्चस्व की स्थापना की ही हो सकती है.
प्रमोद धिताल - एक तरफ बुद्धिजीवी और साहित्यकारोंका एक
हिस्सा पूँजीवाद,
उत्तरआधुनिकतावाद और वित्तीय
पूँजीवादको ही सभी समस्याओंका अचूक अस्त्रके रुपमे पेश कर
रहे है । दुसरी ओर इसको
विरोध करने वाले भी है । इस दौरमे हमारा ठोस कदम क्या होना चाहिये
?
अशोक : मुझे
लगता है कि इसके एक हिस्से का जवाब पिछले सवाल में ही था. उत्तर आधुनिकता अपने मूल
में ग्रैंड नैरेशन का निषेध है. वह चीजों को टुकड़े-टुकड़े में देखने की बात करती
है और पूरी व्यवस्था के खिलाफ किसी एक संगठित और आमूलचूल परिवर्तन की भावना से
संचालित प्रतिरोध की जगह छोटे-छोटे आन्दोलनों की बात करती है. हमारे देश में
साहित्य के भीतर इसकी सबसे बड़ी अभिव्यक्ति अस्मिता विमर्शों के रूप में और
सामाजिक-राजनीतिक परिक्षेत्र में शायद ‘इश्यू बेस्ड’ एन जी ओज के रूप में. कहा गया
कि ग्रैंड नैरेशन में इन वास्तविकताओं को जगह नहीं मिल पा रही. अब हर समय में कई लेयर्स विद्यमान होते हैं. यह एक सच है. रियल्टी कभी
मोनोलिथ नहीं होती. क्लास हैं तो क्लास रियल्टी भी होगी. लेकिन हर दौर में एक
प्रमुख अंतर्विरोध तो होता ही है. जैसे हमारे दौर में जाति और जेंडर बेहद ज़रूरी
सवाल हैं लेकिन प्रमुख अन्तर्विरोध तो साम्राज्यवाद और सर्वहारा के बीच का ही है.
इस प्रमुख युद्ध के परिक्षेत्र में जो पूरा देश है उसमें तमाम लेयर्स हैं. हमारे
एक प्रमुख युवा कवि बद्रीनारायण ने लांग नाइंटीज का सिद्धांत देते हुए जो यह कहा
है कि किसी भी एक समय में कई-कई परतें होती हैं, कई समय एक साथ चलते हैं तो मेरा
मानना है कि यह बिलकुल ठीक बात है कि प्रतिरोध की किसी भी आवाज़ को पालीफोनिक होना
ही चाहिए लेकिन तथ्य यह है उस प्रमुख अंतर्विरोध के परिप्रेक्ष्य में ही इन तमाम
लेयर्स पर कोई मुकम्मल बात की जा सकती है.
आप कोई भी ग्रैंड नैरेशन उठा के देखिये उसमें उन लेयर्स की पहचान दिखाई देती है. आप देखिये
मार्क्सिस्ट कहे जाने वाले लेखकों/कवियों में सिर्फ मजदूर नहीं
आते..दलित/अल्पसंख्यक/ बर्बाद जमींदार/स्त्रियाँ...सब आते हैं, लेकिन इसका उलट
देखिये. जो विमर्श आये. स्त्री विमर्श से दलित/मजदूर गायब, दलित
विमर्श से स्त्री/मजदूर गायब. इन विमर्शों की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि ये बड़े
दुश्मन पूंजीवाद के खिलाफ चुप्पी लगा जाते हैं. इसे राजनीति में रिड्यूस कीजिए तो
एक आमूलचूल परिवर्तन की, उत्पादन समबन्धों की, वर्ग संघर्ष की बात करना जैसे कोई
पुरानी चीज़ माने जाने लगी है और सारा जोर है इस तरह के मुद्दों पर छोटे-छोटे
प्रतिरोधों का जो खुद भी पूंजी के अधीन आपरेट करते हैं और उनके प्राप्य भी इसके
लिए कोई असुविधा पैदा नहीं करते.
जिस पूंजीवाद ने सारी
दुनिया को संकट में डाल दिया है, वह किसी समस्या को दूर कैसे करेगा? इस आस्मां विकास
और मुनाफे की हवस ने हमारी प्रकृति, हमारे समाज और हमारी दुनिया को युद्ध और
विनाशों के एक ऐसे ज्वालामुखी के दहाने पर खड़ा कर दिया है कि अब इससे निजात पाने
के लिए कोई वैकल्पिक जनपक्षधर व्यवस्था चाहिए ही. साहित्य पूंजीवाद की इन
विसंगतियों के पर्दाफ़ाश में साथ-साथ उस वैकल्पिक समाज के स्वप्न को लोगों तक
पहुंचाने में एक सार्थक भूमिका निभा सकता है.
-
प्रमोद धिताल - अभी भारत मे जनपक्षीय राजनीतिक, साँस्कृतिक और साहित्यिक आन्दोलन कैसे
आगे बढ रहा है ?
अशोक – सच कहूं तो भारत में
राजनीतिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक आन्दोलनों की स्थिति बेहद
चिंताजनक है. वैसे भी ये
तीनों अन्योन्याश्रित हैं. औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ संघर्ष में जिस
तरह इप्टा और
प्रगतिशील लेखक संघ ने भूमिका निभाई थी और उसके बाद भी लम्बे समय तक
एक समाजवादी
वैचारिक आन्दोलन पूरे दम-ख़म के साथ उपस्थित था वह पिछले कुछ दशकों से
लगातार कमजोर
होता जा रहा है. आज हिंदी में अस्मिता विमर्शों की बहुत बात की जा रही है.
राजनीतिक क्षेत्र में भी वाम आन्दोलन लगातार पिछड़ता जा रहा है. माओवादी आन्दोलन
लगातार
सक्रिय है लेकिन वह भारतीय समाज की गलत समझ के कारण लगातार अधिक पिछड़े
क्षेत्रों में
सिमटता जा रहा है और आम जनता के बीच उसकी कोई मजबूत पकड़ नहीं बन पा
रही. तो चीजें
आगे बढती दिखाई नहीं दे रही हैं. एक विपर्यय की स्थिति दिख रही है.
प्रमोद धिताल - साहित्य मे विचार और कला के स्थान के
बारेमे आप क्या कहना चाहेंगे ?
अशोक – देखिये साहित्य बिना
विचार के तो होता ही नहीं. जिसे गैर-प्रतिबद्ध या कलावादी साहित्य
कहते हैं, उसकी
भी एक सुसंगत विचारधारा होती ही है. कला का अपने आप में कोई हासिल तो
होता नहीं.
एक वर्ग विभक्त समाज में कोई वर्ग-मुक्त कला हो भी नहीं सकती. उसकी वर्गीय
पक्षधरता होगी ही, होती ही है.
लेकिन कला का होना और कलावादी होना दो अलग-अलग चीजें
हैं. कई बार दिक्कत यह होती है
कि लोग प्रतिबद्धता के नाम पर कलाहीन, फूहड़ और
अनगढ़ चीजों को प्रतिबद्धता के नाम पर
जबरदस्ती स्थापित करना चाहते हैं. जबकि मेरी
नज़र में प्रतिबद्ध साहित्य का अर्थ कला को अपनी
विचारधारा के पक्ष में उपयोग करना
है. अब विचार कोई मसाले तो हैं नहीं जो अलग से डाले
जायेंगे. वह रचना-प्रक्रिया
में अपने आप घुल-मिल जाते हैं और कला के तमाम उपादानों का कुशल
प्रयोग करते हुए अपनी
बात कहते हैं. इसे आप ऐसे भी कह सकते हैं कि प्रतिबद्ध साहित्य को
साहित्य तो होना
ही पडेगा. आप देखिये नेरुदा हों कि ब्रेख्त, मुक्तिबोध हों कि शमशेर, मार्खेज हों
कि हेराल्ड पिंटर..सबका साहित्य अपने समय में कला के उत्कृष्ट प्रतिमान रचने वाला
है. तो...कला
और विचार के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं, लेकिन जैसा कि हिंदी के बेहद
महत्वपूर्ण कवि रघुवीर
सहाय कहते हैं – जहाँ बहुत कला होगी वहां कविता नहीं होगी!
प्रमोद धिताल - जनपक्षीय कला और साहित्य के क्षेत्र मे क्रियाशील
लेखकों का शब्द और कर्म के
बीच मे भी अक्सर विरोधाभास पाया जाता है इसको कैसे हल
किया जासकता है ?
अशोक – यह तो है. आदर्श स्थिति तो यही होगी कि
लेखक के लिखे और जिए में साम्य हो. लेकिन ऐसा हमेशा संभव नहीं होता. आप जिन
आदर्शों को सचेतन में स्वीकार करते हैं, कई बार उसके विरोधी विचार अवचेतन में होते
हैं और इनके बीच के मुसलसल जद्दोजेहद चलती रहती है. जब तक वह जद्दोजेहद है तब तक
दोनों में बेहतरी की उम्मीद है, लेकिन जब समझौते कर उस जद्दोजेहद से मुक्ति पा ली
जाती है, तब मुश्किल होती है. फिर भी मेरा मानना है कि लिखे हुए का अपना महत्व है.
संभव है उस क्षण जब वह लेखक लिख रहा है तो उसके भीतर का बेहतर मनुष्य सक्रिय हो और
उसका रचा मनुष्यता के लिए महत्वपूर्ण है. फिर लेखक की आयु तो सीमित होती है. उसका
लिखा अनंत काल तक उपस्थित रहता है. तो उस लेखक के व्यक्ति का अच्छा-बुरा तो उसके
साथ ख़त्म हो जाएगा, लेकिन उसका लिखा हमेशा रहेगा...वह अधिक महत्वपूर्ण है.
प्रमोद धिताल - नेपाली समाज, जनता और यहाँके राजनीतिक
परिवेशको आप एक सचेत भारतीय
लेखकके ओरसे कैसे देखरहे हैं ?
अशोक - ईमानदारी से कहूं तो नेपाल के बारे में
जो भी जानकारी है वह पढ़-लिख के ही है. जब वहां राजा का शासन गया था और माओवादी सफल
हुए थे तब यहाँ भी काफी बहस-मुबाहिसा हुआ था. तब हमारे जैसे लोग यह कह रहे थे कि
नेपाल ने अपने तरीके से यह लड़ाई लड़ी है और उसे आगे का रास्ता भी खुद तय करना
चाहिए, यहाँ से बैठ के वहां के लिए फतवे देना उचित नहीं. हम बहुत गौर से प्रचंड पथ
को देख रहे थे और उम्मीदें भी पाल रहे थे. लेकिन उसके बाद सब उस गति से हुआ नहीं
जिसकी उम्मीद थी. फिर भी मेरा मानना है कि नेपाल जैसे एक देश में जिसके दोनों ओर
दो विस्तारवादी शक्तियाँ हैं, जो आर्थिक रूप से अभी बहुत पिछड़ा है, जहाँ उत्मादन
संबंधों में भी पर्याप्त पिछडापन है, बदलाव की प्रक्रिया में ऐसे प्रतिकूल दौर
आयेंगे ही. मैं अब भी वहां के माओवादी दल को उम्मीद से देख रहा हूँ कि व्यक्तिगत
अहम् के टकरावों, सत्ता के लोभ-लालच या दबाव से वे उस शानदार जीत को यूं ही हाथ से
नहीं जाने देंगे जो राजशाही के खिलाफ अपने गौरवशाली संघर्ष में उन्होंने हासिल की
है.
प्रमोद धिताल - भारतमे राज्यसत्ताके भ्रष्ट चरित्रके
खिलाफ अन्ना हजारे के आन्दोलनके प्रति
जनसमर्थन बढ्ता जारहा है । और इस काममे
भारतीय मिडियाका भी अपेक्षित सहयोग है । दुसरी
ओर भा.क.पा.(मार्क्सवादी) टाइपकी
चुनावी कम्युनिष्ट और नक्सलपन्थी कम्युनिष्ट जनताके समर्थन
प्राप्त करनेमे लगातार
असफल होरहे हैं । इस परिप्रेक्ष मे अन्नाकी जनलोकपाल बिल की
आन्दोलनको कैसे देखते
है? क्या यह कम्युनिष्ट और प्रगतिशील शक्तियोंकी
राज्यसत्ताउपर सार्थक
हस्तक्षेपमे विफलताकी नतीजा हैं ?
अशोक - देखिये अन्ना के आन्दोलन पर मैंने बहुत
आरम्भ से नज़र रखी है. उसके बेहद आरम्भ में एक लेख लिखा था और अब उसके बिखरने के
बाद भी. पहले लेख में मैंने सवाल उठाया था कि – “अण्णा
के मंच के पीछे बिल्कुल आर एस एस की तर्ज़ पर किसी हिंदू देवी सी छवि वाली भारत माता
थीं तो मंच पर आर एस एस के राम माधव, हिन्दू पुनरुत्थान के नये
प्रवक्ता रामदेव और नवधनिक वर्ग के पंचसितारा ‘संत’ रविशंकर लगातार रहे। उच्चमध्यवर्गीय युवाओं की जो टोलियां आईं थीं उनमें बड़ी
संख्या ‘यूथ फार इक्वेलिटी’ जैसे
‘आंदोलनों’ में भागीदारी करने वालों की थी। आश्चर्यजनक
नहीं है कि एक तरफ आरक्षण का विरोध करने वाले रविशंकर मंच पर थे तो दूसरी तरफ़ तमाम
युवाओं की पीठ पर ‘आरक्षण और भ्रष्टाचार लोकतंत्र के दुश्मन हैं’
जैसे पोस्टर लगाये हुए थे। साफ़ है कि नव उदारवादी नैतिकता और सामाजिक-राजनीतिक मूल्यों के युवा पैरोकारों को मोमबत्तियों वाला यह ‘काज़’ वाली नौटंकी बहुत सुहाती है। पूंजीपति वर्ग के लिये
भी सरकारी तंत्र केन्द्रित यह भ्रष्टाचार विरोध बहुत भाता है। यह उनके व्यापार के लिये
नियंत्रणो को और कम करने में सहायक होता है और साथ ही उनके अनैतिक कर्मों से ध्यान
हटाये रखता है। बाराबंकी के किसान अमिताभ बच्चन, आई पी एल के
'संत' ललित मोदी तमाम मल्टीनेशनल्स के
कर्ता-धर्ता सहित तमाम 'जनपक्षधर' लोग
थे। आश्चर्य है कि इन लोगों
को इतने कड़े क़ानून से डर क्यूं नहीं लगता? “ और दुसरे लेख में मेरा निष्कर्ष था कि – ‘‘भ्रष्टाचार’ जैसे मुद्दे पर,
जिस पर व्यापक समर्थन स्पष्ट है, खड़ा यह आन्दोलन इतनी जल्दी कहीं पहुंचे बिना
ख़त्म कैसे हो गया? इसका एक कारण अन्ना तथा उनकी ‘टीम’ की अति-महात्वाकांक्षा,
बड़बोलापन, आपसी टकराहट आदि है तो दूसरा और बड़ा कारण इस ‘आन्दोलन’ की वर्गीय
प्रकृति में है. मीडिया के भरपूर समर्थन से ‘राष्ट्रीय’ दिखने वाला आन्दोलन, असल
में शहरी मध्यवर्गीय वर्ग के ड्राइंगरूम तक सीमित रहा. ‘भ्रष्टाचार’ जैसे
भावनात्मक और नैतिक अपील वाले मुद्दे को लेकर यह आन्दोलन गाँव तो छोडिये शहरी
निम्न वर्ग तक भी नहीं पहुँच सका. कारण साफ़ था – तब इसे नई आर्थिक नीतियों के कोख
से उपजी भूख, गरीबी, बेरोजगारी या किसानों की तबाही जैसे मुद्दे उठाने पड़ते जिसका
इलाज लोकपाल को बताया जाना सिर्फ हास्यास्पद बन कर रह जाता. मजदूर बस्ती में जाने
पर फैक्ट्रियों में जारी नारकीय शोषण की बात करनी होती जिससे मालिक पूंजीपति का
समर्थन खो जाता, उन एन जी ओज की काली करतूतों पर बात करनी होती जिन्होंने कारपोरेट
से प्राप्त लाखों-करोड़ों की रकम डकार ली है और फिर लोकपाल में दायरे में वे क्यों
नहीं? का जवाब देना पड़ता. दलित बस्तियों में आरक्षण का सवाल उठता और अल्पसंख्यक
समाज मोदी पर सवाले खड़े करता. ज़ाहिर है यह टीम इस ‘खेल’ के लिए नहीं बनी थी. इसकी
वर्गीय तथा सामजिक संरचना ही ऐसी थी कि वह अपने सीमित दायरे में सिमटे रहने को
अभिशप्त था. अब जब यह टीम चुनाव के मैदान में उतरेगी तो उसके पास इन सवालों के
जवाब से बचने का कोई अवसर न होगा और ऐसे में उसका हश्र जगजाहिर है. हालांकि इन
तथ्यों के सामने रखे जाने पर शुरुआत के अनशन तोड़ने के लिए दलित/अल्पसंख्यक
बच्चियों के हाथों जूस पीने के उपक्रम हुए लेकिन अंतिम अनशन में राजनीतिक विकल्प
देने की घोषणा के तुरत बाद उनकी जगह राष्ट्रवादी नारों के बीच एक पूर्व सेनाध्यक्ष
के हाथों इस आधुनिक ‘गांधी’ का जूस पीना इस आन्दोलन की अंतिम परिणिति की व्यंजना
रचता है.’
रहा सवाल सी पी आई एम एल तथा दूसरी वाम
शक्तियों का तो जैसी भी हैं, साम्राज्यवादी हितों के खिलाफ बात करने वाली यही
ताकतें हैं. तो साम्राज्यवादी मीडिया पर इन्हें जगह नहीं मिलती. वामपंथी दलों की
दो-दो लाख लोगों की रैली भी यहाँ मुख्यधारा की मीडिया में खबर नहीं बनती. आपको
बताऊँ की पूरे अन्ना आन्दोलन में सिर्फ एक बार लाठी चलाई, जब एम एल के छात्र संगठन
आइसा के छात्र चिदम्बरम से लोकपाल की मांग कर रहे थे. मीडिया ने न्यूज तो दिखाया,
पर आइसा का नाम तक न लिया. हालांकि मेरा मानना है की लोकपाल आन्दोलन में शामिल
होना उनकी रणनीतिक चूक थी.
प्रमोद धिताल -
भारत एक ओर दक्षिण यशियामे क्षेत्रीय महाशक्ति के रुपमे विकास कर रहा है,
दुसरी ओर नेपाल लगायत दक्षिण एशियाई
जनतामे एन्टि इण्डियन सेन्टिमेन्ट बढ्ता जारहा है ।
इस परिस्थितिको भारतीय
प्रगतिशील बुद्धिजीवी किस नजरियासे देखते हैं ? क्या इस
सेन्टिमेन्टको
दोनो देशोंकी जनता बिचकी एकता और शासक वर्गके खिलाफमे विकसित किया
जा सकता है ?
अशोक – देखिये, यह तो स्वाभाविक ही है. महाशक्ति बनने की होड़ में जैसे-जैसे भारतीय शासक वर्ग अमेरिका के करीब होता जाएगा, दक्षिण एशिया के दुसरे देशों ही नहीं बल्कि खुद भारत का सर्वहारा उससे दूर होता जाएगा. लेकिन राष्ट्रवादी बंटवारे के आधार पर सिर्फ नफरत फैलाई जा सकती है. जनता के पक्ष में फतह तो शासक वर्गों की एकता बनाम जनता की एकता से ही हासिल की जा सकती है. मेरा मानना है की यह दक्षिण एशियाई देशों के जनपक्षधर बुद्धिजीवियों के कुछ साझे मंचों के निर्माण के लिए बेहद उपयुक्त समय है.
प्रमोद धिताल -
भारतीय अर्थतन्त्रको विश्वमे एक उदीयमान अर्थतन्त्र के रुप मे परिभाषित किया
जारहा
है । इसके साथ ही सञ्चार प्रौद्योगिकी एवं महानगरीय सभ्यता और उससे बञ्चित ग्रामीण
लोगोंके बिच तीव्र अन्तर्विरोध बढ्ता जारहा है । इस विभाजनको भारतीय साहित्य खास
करके
प्रगतिशील साहित्य कैसे प्रतिविम्वित कररहा है ?
अशोक – समकालीन साहित्य में यह विभाजन बहुत
प्रभावी रूप से सामने आ रहा है. इधर की
कवितायें, कहानियाँ आप देखेंगे, या
उपन्यास तो बाज़ार केन्द्रित अर्थव्यवस्था के दुष्परिणामों के खिलाफ लेखकों ने बहुत
तलखी से लिखा है. पिछले साल मनोज रूपड़ा का एक कहानी संकलन आया था – ‘द टावर आफ
साइलेंस’ उसे इस प्रतिरोध के प्रतिनिधि की तरह पढ़ा जा सकता है. साहित्य के बाहर
भी लोग लगातार इन चीजों को सामने ला रहे हैं. अभी प्रोफ़ेसर गिरीश मिश्र की हिन्दी
में बाज़ार के विकास और वर्तमान स्वरूप पर बहुत अच्छी किताब आई है. कथन, समयांतर,
फिलहाल, युवा संवाद जैसी पत्रिकाओं ने लगातार इन मुद्दों पर साहित्येतर सामग्री
प्रकाशित की है.
प्रमोद धिताल - अभी नेपालमे उत्तरआधुनिकताका विमर्श
पहलेसे अधिक स्थान ग्रहण कररहा है ।
बुद्धिजिवियोंका एक खेमा इसको आधुनिकताका ही
निरन्तरता मानते हैं, कोहि आधुनिकताका भी
विकल्प और कुछ
लोग स्थापित सभी मूल्य–मान्यताओंका विकल्प अब
उत्तरआधुनिकतावादको ही
मानने लगे हैं । भारतीय वुद्धिजीवीयोंके बीचमे इसका स्थान
कहाँ हैं ?
अशोक – देखिये भारत में,
खासकर हिन्दी में आज भी उत्तर-आधुनिकता कोई बहुत पवित्र शब्द
नहीं है. देखें तो
मनोहर श्याम जोशी के अलावा एक कम महत्वपूर्ण प्रोफ़ेसर आलोचक सुधीश पचौरी
ही इसका
खुला समर्थन करते नजर आते हैं. लेकिन यह हमारे यहाँ अस्मिता विमर्श के पिछले
दरवाजे
से आया है जिस पर मैंने एक सवाल के जवाब में पहले चर्चा की है. इसके अलावा ग्रैंड
नैरेशन और मार्क्सवाद के विरोध के रूप में कुछ युवा कवियों के यहाँ इसका व्यापक
प्रभाव दिखता
है.
प्रमोद धिताल - राजनीतिक और साँस्कृतिक आन्दोलन के बीचमे क्या अन्तर्सम्बन्ध रहता हैं ?
अशोक – राजनीतिक आन्दोलन
किसी भी समय में समाज के अन्य सभी आन्दोलनों के बीज होते
हैं. आखिर सांस्कृतिक
आन्दोलन क्या करता है? वह एक तरह की मूल्य-मान्यताओं के वर्चस्व के
खिलाफ दूसरे
तरह के मूल्य-मान्यताओं का वर्चस्व स्थापित करता है. अपने वर्ग की सेवा करता है.
वह माहौल निर्मित करता है जिससे राजनीतिक आन्दोलन के लिए लोग तैयार हो सकें. तो
दोनों
एक दुसरे पर अन्योन्याश्रित हैं. जिस समय राजनीतिक आन्दोलन कमज़ोर पड़ते हैं
उस समय
सांस्कृतिक आन्दोलनों का महत्व और अधिक बढ़ जाता है.
प्रमोद धिताल - प्रगतिशील और प्रगतिवादी लेखकोंको
प्रतिधु्रवीय पक्षसे क्या सिखना चाहिये और
क्या सुधारना चाहिये ?
अशोक – शायद न्यूनतम एकता बनाए रखना.
प्रमोद धिताल - लेखनके उत्कृष्टताके सवालमे आप प्रतिभा
और साधनामे किस चिजकी भूमिका
मुख्य मानते हैं ?
अशोक – प्रतिभा मेहनत का विकल्प नहीं हो सकती. एक लेखक
के लिए मेहनत बेहद ज़रूरी चीज
है. मैं किसी जन्मजात प्रतिभा पर बहुत विश्वास नहीं
करता. मेहनत (जिसे आपने साधना कहा है)
और प्रतिबद्धता से ही उत्कृष्ट लेखन किया जा
सकता है.
प्रमोद धिताल - हमारे प्रगतिशील युवा लेखक जो कलाके माध्यमसे
सामाजिक, आर्थिक,
राजनीतिक और
साँस्कृतिक कुरुपताओंके उपर सार्थक हस्तक्षेप करना चाहते है, उनको आपकी
ओरसे क्या सुझाव देना चाहते हैं ?
अशोक – मुझे नहीं लगता की मैं अभी सलाह देने की स्थिति में हूँ. मैं तो अभी खुद युवा हूँ और रास्तों की तलाश में हूँ. हाँ इतना ज़रूर कहूंगा कि आर्थिक-राजनीतिक हक़ीक़तों को सीखने के लिए दो ज़रूरी रास्ते हैं. पहला किताबें और दूसरा समाज. इन दोनों में से केवल किसी एक के भरोसे सच के करीब पहुंचना मुश्किल है. बनी-बनाई लीकों, पार्टी-लाइनों पर लिखने वाला अक्सर सच के करीब नहीं पहुँच पाता.लेखक और प्रचारक की भूमिका में अलग है. असहमति का अधिकार किसी कीमत पर भी नहीं खोना चाहिए और प्रतिबद्धता का अर्थ भेडचाल कभी भी नहीं हो सकता.
अशोक – मुझे नहीं लगता की मैं अभी सलाह देने की स्थिति में हूँ. मैं तो अभी खुद युवा हूँ और रास्तों की तलाश में हूँ. हाँ इतना ज़रूर कहूंगा कि आर्थिक-राजनीतिक हक़ीक़तों को सीखने के लिए दो ज़रूरी रास्ते हैं. पहला किताबें और दूसरा समाज. इन दोनों में से केवल किसी एक के भरोसे सच के करीब पहुंचना मुश्किल है. बनी-बनाई लीकों, पार्टी-लाइनों पर लिखने वाला अक्सर सच के करीब नहीं पहुँच पाता.लेखक और प्रचारक की भूमिका में अलग है. असहमति का अधिकार किसी कीमत पर भी नहीं खोना चाहिए और प्रतिबद्धता का अर्थ भेडचाल कभी भी नहीं हो सकता.
प्रमोद धिताल – अन्त मे कुछ जो आप कहना चाहेंगे ?
अशोक - बस शुक्रिया.
परिचय
और संपर्क
अशोक कुमार पाण्डेय सुपरिचित युवा कवि हैं |
राजनीतिक , सामाजिक और सांस्कृतिक वाम
जन-आन्दोलनों में
आप छात्र जीवन से ही सक्रिय भागीदारी निभाते रहे
हैं |
कई पुस्तकों के लेखक अशोक कुमार पाण्डेय का कविता संकलन
‘लगभग अनामंत्रित’ गत वर्ष शिल्पायन प्रकाशन
से छपा है
और काफी चर्चित भी हुआ है |
जैसे महत्वपूर्ण ब्लॉगों का
संचालन भी करते हैं |
प्रमोद धिताल नेपाल के युवा
राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता एवं जनसंस्कृति पत्रिका के संपादक हैं
यह साक्षात्कार नेपाल की प्रसिद्द पत्रिका ‘जनसंस्कृति’ में छपा है
प्रमोद धीतल
बहुत मूल्यवान ,उपयोगी साक्षात्कार ! वर्त्तमान साहित्यिक,सामाजिक और राजनैतिक परिदृश्य पर ज्वलंत प्रश्नों के सारगर्भित और संतुलित उत्तर अशोक की जानिब से आये ! विशेषकर समय का विभीन्न परतों में विभाजन और हर स्तर के विमर्शों का एकांगी होना और उत्तर- आधुनिकता पर उनके विचार उनके अचूक आकलन की बढ़िया मिसाल प्रस्तुत करते हैं !
जवाब देंहटाएंविचार संपन्नता और सक्रिय आकांक्षा से भरा हुआ है यह।
जवाब देंहटाएं