कमल जीत चौधरी
कमल जीत चौधरी की कवितायें को ब्लागों पर पढता रहा हूँ ...| अत्यंत साधारण
और बोल-चाल की भाषा में अपनी बात कहने वाले इस युवा कवि के पास अपने समय और समाज
की समझ तो है ही , उसे संवेदनशील तरीके से पकड़ने और कविता में पिरोने का हुनर भी
है | इस अराजक और विध्वंसकारी समय में ऐसे युवा स्वर कविता के साथ-साथ समाज को भी ढाढस
बंधाते हैं ...|
एक ...
वह
वह कला के फूल में है
जीवन की धूल में है
उगता है
पकता है
उनका पीज्ज़ा बनता है
पगडण्डी बन
कुदाल लिए
अनाज और दाल लिए
कपास की डाल लिए
रेत और ढेला
बोझा और ठेला
परिवार का रेला लिए
वह राजमार्गों से मिलता है
मगर कोई राजमार्ग
रोटी कपड़ा ईंटें लिए
पगडण्डी से नहीं मिलता
वह शहर को ढोता है
शहर नहीं हो पाता है
समय के धुएं से
लाल हुई आँखों
अपनी काली चमड़ी
नीले होठों के कारण
छब्बीस जनवरी
पन्द्रह अगस्त के आसपास
वह सुरक्षा एजेंसियों द्वारा
कुरेद कुरेद कर पूछा जाता है
पशुओं की तरह हंकाला जाता है
जब - तब दिल्लियों के चेहरे से
कील - मुहासों की तरह निकाला जाता है
अजब ही ढंग में
पानी से रंग में
वह आज़ाद नगर में रोता है
उधर
अजब ही ढंग में
आसमानी रंग में
जनपथ का स्वामी
खर्राटों की आवाज़ में गुर्राता
गहरी नींद सोता है
भारत निर्माण के
स्वप्न बीज बोता है।
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दो ...
पहाड़
शिखर पर बैठे तुम
नहीं जान सकते
पहाड़ से देखना
पहाड़ को देखने से
बिल्कुल अलग है
जैसे पैरों से खड़ा होना
और पैरों पर खड़ा होना -
पहाड़ पर चढ़ने से अलग है उतरना
उतरने से अलग है खड़े रहना
पहाड़ पर चढ़ना
चलना सीखना है एक बच्चे का
रेंगना चलना गिरना उठना ...
पहाड़ से उतरना
नदी हो जाना है बर्फ का
पिघलना बहना कलकलाना ...
पहाड़ पर खड़े रहना
पत्थर हो जाना है।
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तीन ...
काव्य गुरु
वे कहते हैं
प्रेम कविताएँ लिखने के लिए
प्रेम कविताएँ पढ़ो
वे यह नहीं कहते
प्रेम करो
वे कहते हैं
फूलों तक जाने के लिए
खुशबू और रंग खरीदो
वे यह नहीं कहते
तितलियों का हाथ थामो ...
वे सुनाते हैं
फूल और रंग की कथाएँ
वे नहीं बताते
तितली और मधुमक्खी की व्यथाएँ
वे कहते हैं
बाज़ार चलो
बार चलो
शोपिंग मॉल चलो
पब चलो
क्लब चलो ...
वे कहते हैं
चलो दिल्ली
चलो दिल्ली
पकड़ो डंडा
छोड़ो गिल्ली
मारो बिल्ली
मारो बिल्ली -
वे नहीं कहते
प्रेम करो
प्रेम करो
फिर लिखो।
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चार ...
आम क्यों चुप रहे
चिनार
बोलते रहे
कटने पर
टूटने पर
उनके रुदन के स्वर
दस जनपथ को रुलाते रहे
यू० एन ० ओ ० को हिलाते रहे ...
आम
बौराते रहे
लोग खाते रहे
बने ठूंठ तो चीरकर
आहुतियों में जलाते रहे
बन धुआं
आंसू बहाते रहे ...
बन बारिश
धरती हरियाते रहे -
चिनार बोलते रहे
आम क्यों चुप रहे।
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पांच ...
कंधे
बेटे के कंधे
ढो रहे पढ़ाई का बस्ता
खस्ता खस्ता
कंधे इस भार को
अंक दौड़ सवार को
लौटते ही स्कूल से
बिस्तर पर पटक देते हैं।
बाप के कंधे
ढो रहे आजीविका का भार
गला काट धार
कंधे इस भार को
चाबुक के वार को
दफ्तर से खटते लौटते
सोफे पर झटक देते हैं।
माँ के कंधे
ढो रहे घर परिवार
ऊँट के सवार
कंधे इस भार को
हड्डी छूरते प्यार को
उतार नहीं पाते
साथ टंगे गीले सूखे कपड़ों
राशन सब्जी वाले थैले के साथ -
माँ के कंधे ...
स्याही खत्म बन्दे।
परिचय और सम्पर्क :-
कमल जीत चौधरी
जन्म- १३ अगस्त १९८०
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें
प्रकाशित
सम्प्रति - असिस्टेंट प्रोफेसर के पद
पर कार्यरत।
काली बड़ी , साम्बा ,
जम्मू व कश्मीर { १८४१२१ }
दूरभाष - ०९४१९२७४४०३