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गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

कविता में कला जरुरी है, लेकिन कंटेंट के बाद ही - संतोष चतुर्वेदी

               

                             संतोष चतुर्वेदी 




               सिताब दियारा ब्लॉग पर आज प्रस्तुत है
     जाने-माने कवि और अनहद पत्रिका के सम्पादक संतोष चतुर्वेदी से
              युवा कवि नित्यानन्द गायेन की बातचीत .






प्रश्न -1. कवि संतोष चतुर्वेदी की रचना प्रक्रिया क्या है?

उत्तर - मैं जब भी अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में सोचता हूँ तो पाता हूँ कि मेरे लिए यह एक लगभग एक अमूर्त सी प्रक्रिया या पद है। अमूर्त इस मायने में कि मेरे लिए यह अनुमान लगाना कठिन है कि कब कोई घटना, या कब कोई बात या फिर कब कोई दृश्य मेरे मन को कुछ इस तरह बेध गया कि उसे रचना में ढालना जरुरी हो गया। होता यह है कि कई एक घटनाएँ ऐसी होती हैं जिसे हम अपने सुदूर अतीत से देखते, महसूस करते आए हैं। फिर हमें लगता है कि यह तो मेरी कविता का एक विषय हो सकता है। लेकिन किसी वजह से इसे कविता के फॉर्म में तत्काल लिख नहीं पाते। लेकिन जब भी संवेदनाएँ इतनी घनीभूत हो जाती हैं कि अब मेरे लिए लिखे बिना काम तो बिल्कुल नहीं चलने वाला और ऐसा लगने लगता है कि जो सोच मेरे मन में थी वह शब्द में ढलने के लिए के लिए यह उपयुक्त समय है, तभी मैं कविता लिखने बैठ पाता हूँ। अगर मैं उस क्षण नहीं लिखता हूँ तो फिर मेरे लिए दूसरा कोई काम करना दुष्कर हो जाता है। एक सोच, एक विचार हमेशा मन-मष्तिष्क को मथता रहता है। ऐसे में मेरे लिए लिखना बहुत जरुरी हो जाता है। यह समय दो बजे रात का हो सकता है। कहीं सफर करते हुए हो सकता है। बाहर जाते हुए हो सकता है। कभी भी सोच कर किसी ख़ास विषय पर मैं कविता नहीं लिख पाता।    


अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में एक बात और। बचपन से ही मेरे आस पास तमाम ऐसी घटनाएँ होतीं, जो मुझे सालती थीं और बेइंतहा परेशान करती थीं। मैं अपने मन की बात किसी से कह नहीं सकता था। अगर अपने बड़ों से कहता भी तो या तो हमें यह कह कर चुप करा दिया जाता कि अभी तुम बच्चे हो, या फिर किसी भी तरह कोई जवाब नहीं मिल पाता था, तो अपनी उस व्यथा को शब्दों में उतारने की कोशिश करता था। इस समय मैंने कविता को ही अपने अधिक निकट महसूस किया। क्योंकि जब से मैंने होश सम्भाला अपने आस-पास तुलसी, कबीर, रहीम और सूर के पद, दोहों और चौपाईयों को सुना। इन्हें सुनते-पढ़ते हुए मुझे लगा कि अपनी वेदना को व्यक्त करने का मेरे लिए यह उपयुक्त माध्यम है और कुछ टूटे-फूटे अन्दाज में बचपन से ही कविताएँ लिखने लगा। धीरे-धीरे कविता मेरी वह संगिनी बन गयी जिससे मैं अपनी बातें किसी भी समय बेहिचक कह सकता था। आज जब मैं एक उम्र का हो चला हूँ, एक कालेज में प्राध्यापन करता हूँ, जिससे कि एक आर्थिक सुरक्षा महसूस करता हूँ, तब भी कई-एक मामलों पर अपने को उतना ही असहाय पाता हूँ। चाहें वह लगातार चौदह सालों से उपवास कर रहीं इरोम शर्मिला हों, चाहें फिलिस्तीन के संघर्षरत लोग। चाहें वह हमारे यहाँ का आम जन हो, जो रहता तो तथाकथित रूप से दुनिया के सबसे बड़े जनतांत्रिक देश में है लेकिन उसके लिए तो स्थितियां पहले की तरह ही कमोबेश पूरी तरह सामन्ती हैं। एक आम आदमी, एक किसान या एक मजदूर जिस तरह जीवन जीता है, उसे देख कर हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इन सारी स्थितियों में कुछ भी कर पाने में मैं खुद को पूरी तरह अक्षम पाता हूँ। मुझे लगता है कि वह तो कविता है जो मुझे बार-बार बचा लेती है अन्यथा मेरी भी गति या तो विदर्भ के किसानों जैसी होती या फिर पागलों की तरह मैं भी कुछ उल-जुलूल बकते हुए सड़कों पर घूम-फिर रहा होता।

तो यह सब जो मेरे आस-पास का परिवेश है, मेरे आस-पास की स्थितियाँ हैं, मेरे आस-पास के लोग हैं, उनका मेरी रचना-प्रक्रिया में परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से एक बड़ा हाथ है। अगर यह सब न होता तो एक शब्द भी लिख पाना शायद मेरे लिए मुमकिन न हुआ होता।
              

प्रश्न -2. आपके लिए ‘लोक’ क्या है? क्या यह लोकधर्मिता से भिन्न है? और क्या ‘लोक’ और ‘जन’ में कोई फर्क है? इन सबके मद्देनजर लोकतंत्र की जनता से इनका क्या साम्य है?

उत्तर – आपके इस प्रश्न के तंतु एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। मेरे लिए अपने आस-पास का जो भी कुछ सामान्य है वही ‘लोक’ है। इसी तरह जो भी विशिष्ट है या अपने को परिष्कृत दिखाने की लगातार कोशिश करता है वह खुद ही लोक के दायरे से अलग हो जाता है। ‘लोक’ शब्द अपने बनाव में ‘लोग’ शब्द से काफी कुछ मिलता-जुलता दीखता है। ‘लोग’ वही हैं, जिन्हें अब तक इतिहासकारों ने अपने लेखन से उपेक्षित किया है। लोक वही है, जो अत्यन्त न्यूनतम स्थितियों में भी अपने लिए, अपने परिवार के लिए जीवन जैसा बड़ा तत्व गढ़ने में लगातार लगा रहता है। यह वही होता है जिसे जीवन में कुछ भी आसानी से हासिल नहीं होता। लोक, जो रेलवे स्टेशन पर टिकट के लिए टिकट खिड़की पर लाइन लगाये घंटों खड़ा रहता है। लोक, जो अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए, एक छोटी सी नौकरी के सपने देखता है और इस सपने को साकार करने के लिए अपने जीवन तक को दाँव पर लगा देता है। लोक वह, जो अपनी मिट्टी में रचा-बसा है और उससे बेदखल न हो पाने के सरंजाम में जुटा हुआ है। लोक वह, जो शहरों में आ कर मजदूरी करता है या फिर रिक्शा खींचता है और परिवार के जुए को अपने कन्धों पर बिना हारे-थके खींचता रहता है।  

वस्तुतः यह जो लोक है, इसकी संकल्पना हमारे जड़ों से या कह लीजिए सुदूर अतीत से जुड़ी हुई है। हमारे सभी धार्मिक ग्रंथों में ‘त्रिलोक’ की संकल्पना मिलती है। इससे शायद ही कोई भारतीय नावाकिफ हो। स्वर्गलोक, मृत्यु लोक और पाताल लोक। ध्यान से देखिए तो आपके बिल्कुल आस-पास ही मिथकीय संकल्पना के ये लोक बिल्कुल सजीव रूप में दिखाई पड़ेंगे। लोक से जुडा हुआ हमारे यहाँ एक और शब्द है लोकना। इस भोजपुरी शब्द का अर्थ है किसी भी गिरती हुई चीज को पकड़ लेना या ग्रहण कर लेना। यानी यहाँ एक सार्वजनीनता है। शारीरिक रूप से एक दूसरे से अलग होते हुए भी मानसिक रूप से गहरा जुड़ाव है। इस तरह मुझे लगता है कि जीवन के लिए जरुरी न्यूनतम साधनों के लिए जो जद्दोजहद करे और उसे पकड़ कर चले, वही ‘लोक’ हुआ।      

रही बात लोकधर्मिता की तो इसका आशय यही है कि जो ‘लोक’ से उपजे। यानी ‘लोक’ के होने से ही लोकधर्मिता है। सामान्य तौर पर कहें तो जो लोग ‘लोक’ के हित की बातें करतें हैं, लोक के दुःख-दर्द को उजागर करते हैं, लोक की परंपरा को अपनी कलाओं के जरिये सामने रखते हैं, वे लोकधर्मी होते हैं। लोकधर्मी कवि, कहानीकार या कलाकार हो सकते हैं। ये ऐसे लोग होते हैं जो अपने जीवन में खुद कभी न कभी लोक रहे होते हैं, या अतीत में किसी न किसी तरह लोक से उनका गहरा जुडाव रहा होता है। और अब उसकी संवेदनाओं को अपनी कलाओं जैसे कविता, कहानी या पेंटिंग के माध्यम से दुनिया के सामने मजबूती से रख रहे होते हैं।

मुझे तो लगता है कि ‘लोक’ और ‘जन’ एक ही हैं। भेद केवल शब्दों का ही है। हमारे पुरातन ग्रन्थ ऋग्वेद में जो ‘जन’ शब्द आया है, उसका अगर गहराई से अध्ययन किया जाय तो स्पष्ट होता है कि यह ‘लोक’ के लिए प्रयुक्त किया गया है। कबीलों को ‘जन’ कहा गया। ‘जन’ का यह गठन मूलतः जातीय तथा पारिवारिक संबंधों पर आधारित था। तो इन जनों के बीच टकराव हुए और इसी क्रम में भारत का पहला बड़ा राजनीतिक युद्ध ‘दाशराज्ञ युद्ध’ हुआ। इसी ‘जन’ से आगे चल कर शब्द बना ‘जनपद’। कई ‘जन’ मिल कर एक ‘जनपद’ का निर्माण करते थे। छठीं सदी में गौतम बुद्ध के समय ‘षोडश महाजनपदों’ का जिक्र मिलता है। ध्यातव्य है कि यह भारत में द्वितीय नगरीकरण का दौर था। ये जनपद छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्यों की तरह थे जिनके बीच सीमाओं को ले कर निरन्तर आपसी संघर्ष होते रहते थे। काशी, कोसल, अंग, मगध जैसे महाजनपद विशिष्ट थे। आगे चल कर इस इस ‘जन’ शब्द से ही ‘जनता’, ‘जनमत’, और ‘जनतन्त्र’ जैसे शब्दों की उत्पत्ति हुई होगी।

एक बात की तरफ आपका ध्यान फिर आकर्षित करूँगा कि कैसे इस ‘जन’ के ही कुछ लोग विशिष्ट यानी शासक बन गए। ऋग्वेद में ही शासक वर्ग के लिये ‘राजन’ शब्द का प्रयोग किया गया है। यह राजन चूंकि ‘जन’ का नेता बन गया था और कुछ मामलों में सुविधाभोगी हो गया था इस लिए यह धीरे-धीरे ‘जन’ से अलग होता गया। उसकी जिम्मेदारी अब इस ‘जन’ की रक्षा करने की थी। तो उसे आम जिम्मेदारियों से मुक्त कर वह विशिष्ट स्थिति प्रदान की गयी जिससे वह अपने दायित्व का निर्वहन बिना किसी दिक्कत के कर सके। मुझे समझ नहीं आता कि किस बिना पर ‘लोक’ को ‘जन’ से अलगाया जा सकता है। आप लोकतन्त्र और जनतंत्र को एक दूसरे से अलग कर सकते हैं क्या?
                 

प्रश्न -3. किन कवियों से आप खुद को प्रभावित पाते हैं और क्यों?

शायद हमारी पीढ़ी वह आखिरी पीढ़ी होगी जिसने अपने जीवन में आम तौर पर जीवन में सार्वजनीनता को जिया और महसूस किया होगा। इसी का असर था कि मैं कई भक्तिकालीन कवियों से बचपन में ही परिचित हो गया। हमारे यहाँ गाँव में एक परम्परा थी। हमारे दरवाजे पर शाम को रोज रामचरितमानस का सस्वर पाठ किया जाता था। मोहल्ले के लोग जुटते और सुनते। हर चौपाई और दोहे के बाद मेरे दादा जी उसका अर्थ बताते और जीवन से जुडी हुई व्याख्या करते। इस तरह जब मैं थोडा सोचने समझने लायक हुआ तो तुलसी को बिल्कुल अपने पास पाया। जब तक मेरे दादा जी जिन्दा रहे, ‘मानस’ के पढने और समझने का यह सिलसिला अटूट रूप से चलता रहा। तुलसी की जीवन पर जो पकड़ थी, जो विनम्रता थी, जो उनके बिम्ब थे वे तब बहुत समझ में तो नहीं आते थे, लेकिन शायद इनका ही वह आकर्षण था, जिससे कविता की तरफ मेरा झुकाव हुआ। फिर प्राथमिक कक्षाओं की हिन्दी की किताबों में अनिवार्य तौर पर कबीर, सूर, तुलसी, रहीम के दोहे और रसखान के सवैये होते। इन सबकी सादगी भरी साफ़-सफ्फाक भाषा मुझे लाजवाब लगती थी। ऐसी भाषा जिसे सुनते ही यह एहसास हो कि सच तो यही है। फिर आधुनिक कवियों में मैं सोहन लाल द्विवेदी, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, सुभद्रा कुमारी चौहान, मैथिलीशरण गुप्त, श्याम नारायण पाण्डेय ‘पार्षद’, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की कविताओं से परिचित हुआ। इसके बाद जयशंकर प्रसाद और निराला जी जैसे कवियों की कविताओं से परिचित हुआ। पिताजी नंदन, चम्पक, पराग, सुमन सौरभ, बाल भारती जैसी तब की चर्चित बाल पत्रिकाएँ लाकर हमें पढने के लिए दिया करते थे। तो यह एक पृष्ठभूमि थी मेरी कविता की दुनिया से दो-चार होने की।

जहाँ तक प्रभावित होने की बात है, निराला मेरे लिए ऐसे कवि थे, जिन्हें पढ़ कर मेरे भीतर यह विश्वास जगा कि मैं भी कविता लिख सकता हूँ। निराला जी को ही पढ़ कर लगा कि कविता बिना तुकबंदी के भी अपनी भाषा में लिखी जा सकती है। फिर पता चला कि मेरे ही जनपद के एक मशहूर कवि हैं केदार नाथ सिंह। मुझे किसी पत्रिका में उनकी कविताएँ मिल गयीं जिसे मैं पढ़ गया। तो मेरा रचनागत आत्मविश्वास बढ़ा और कविता लेखन की तरफ मुडा। अब मैं अपनी स्नातक की पढाई के सिलसिले में इलाहाबाद आ चुका था जहाँ तब के हिन्दी साहित्य के अनेक महत्वपूर्ण साहित्यकार मार्कंडेय, शेखर जोशी, अमरकान्त, जगदीश गुप्त, लक्ष्मीकांत वर्मा आदि लोग थे। संयोगवश नया कटरा में, जहाँ मैंने कमरा लिया वहीँ पर मेरे ठीक बगल में युवा कवि अनिल कुमार सिंह रहा करते थे। अनिल के संपर्क वाले लोगों धीरेन्द्र नाथ तिवारी और बोधिसत्व से धीरे-धीरे मेरा भी संपर्क होता चला गया। यहीं पर मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार नाथ अग्रवाल जैसे प्रगतिशील कवियों की कविताएँ मुझे पहली बार पढने के लिए मिली। बिल्कुल उसी समय लिखने वाले ख्यात कवियों अरुण कमल, राजेश जोशी, ज्ञानेन्द्रपति और आलोक धन्वा को पढ़ा। इन सब कवियों की अनुभूतियाँ और भाषा जैसे बिल्कुल अपनी सी लगीं। इन सबका मेरे कवि के अवचेतन पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसी समय मैं इलाहाबाद शहर के वरिष्ठ कवि हरीश चन्द्र पाण्डे के संपर्क में आया। उनकी विनम्रता के हम कायल थे। वे हमें लगातार लिखने के लिए प्रोत्साहित करते। हमारी किसी भी नयी कविता को बड़े ध्यान से सुनते और उस पर अपनी राय व्यक्त कर हमारी हौंसला-आफजाई करते। तो मेरे कवि मन पर इन सारे कवियों का एक बड़ा असर पड़ा। और आज मैं जो भी हूँ इन सारे कवियों के कविताई के सान्निध्य की वजह से ही हूँ।
             

प्रश्न -4. कविता में कंटेंट महत्वपूर्ण है या सम्पूर्ण कविता का गठन?

मेरे ख्याल से कविता में कंटेंट ही अधिक महत्वपूर्ण होता है और होना भी चाहिए। इस क्रम में कविता का गठन अगर थोड़ा ढीला-ढाला भी होता है तो उसकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। कंटेंट उसे संभाल ले जाता है। लेकिन मान लीजिए कवि अगर कविता के गठन पर ही अधिक जोर दे और उसकी कविता से कंटेंट पूरी तरह नदारद रहे तो वह कविता किसी काम की नहीं होगी बल्कि अर्थहीन साबित होगी। आज जब हमारे सामने चुनौतियाँ अधिक हैं तो हमें कंटेंट पर बल देना ही होगा। कंटेंट को ले कर चलना ही होगा। इसके इतर कविता के गठाव के चक्कर में पड़ने पर हम कलावाद के शिकार हो सकते हैं। कलावाद, जिसमें शाब्दिक चमत्कार तो जरुर होता है लेकिन जिसमें जीवन अंततः धीरे-धीरे कम से कमतर होता चला जाता है।


प्रश्न -5. समकालीन कवि और कविता के बारे में आपकी क्या राय है?

यह हमारे लिए सुखद है कि हिन्दी कविता का परिदृश्य आज भी काफी उम्मीदें जगाने वाला है। समकालीन कवि अपने समय के सन्दर्भों और संकटों से भलीभाँति वाकिफ हैं और जीवन से परिपूर्ण वैविध्यता से भरी हुई कविताएँ लिख रहे हैं। हमारा यह समय जिसमें हम जी रहे हैं कवियों की एक साथ लगभग पांच-छः पीढ़ियाँ सक्रिय हैं। केदार नाथ सिंह, कुंवर नारायण, विजेंद्र, विनोद कुमार शुक्ल, नरेश सक्सेना, राजेश जोशी, अरुण कमल, ज्ञानेन्द्रपति, लीलाधर जगूड़ी, लीलाधर मंडलोई, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल, स्वप्निल श्रीवास्तव, एकांत श्रीवास्तव, कुमार अम्बुज, हरीश चन्द्र पाण्डे, अनामिका, नीलेश रघुवंशी, केशव तिवारी, महेश पुनेठा से ले कर अनुज लुगुन तक की पीढ़ी से लगभग सभी परिचित हैं।

ऐसा नहीं है कि हमारे इस समय में सब अच्छा ही अच्छा है बल्कि काफी कुछ खराब भी है। समय बड़ी तेजी से बदला है। विकास ने इस सुन्दर सी दुनिया और इसे संचालित करने वाली प्रकृति का बहुत कुछ विनाश भी किया है। रोजी-रोटी के चक्कर में कवियों का अपनी जमीन से विस्थापन भी बढ़ा है। कवि अब बड़ी तेजी से नगरों और महानगरों की तरफ भाग रहे हैं। गाँव, जहाँ वे जन्मे, पले और बढे से स्वाभाविक तौर पर एक मानसिक जुड़ाव होता है। लेकिन गाँव से जब यह अलगाव एक लम्बे समय तक चलता है तब उनकी कविताओं में यह गाँव एक फैशन की तरह आने लगता है। ऐसे में कविता कृत्रिमता की शिकार हो जाती है। कहना न होगा कि आज कवियों के लिए ‘पद’, प्रतिष्ठा और पुरस्कार अहम् हो गए हैं और इसे पाने के लिए वे अपना जमीर तक बेचने के लिए तैयार खड़े रहते हैं। लेकिन यह आज भी एक सच्चाई है कि हम बेहतर कविता तभी लिख पाएँगे जब अपने समय के सरोकारों और जीवन सन्दर्भों से खुद दो-चार होंगे और तब उसे कविता में उकेरने की कोशिश करेंगे। इससे कट कर कर जो भी लेखन किया जाएगा वह छद्म आवरण ओढ़े हुए होगा। स्वाभाविक सी बात है कि ऐसी स्थिति में किया गया लेखन बिल्कुल प्रभावहीन और निष्प्रभ होगा। सौभाग्यवश हमारे बीच ऐसे भी कवि हैं जो किसी भी तरह की चूहादौड़ से बाहर हैं और निरंतर बेहतर लेखन कर रहे हैं। उनके लिए रचना जीवन से जुडी चीज है जिससे वे प्रायः समझौता नहीं करते। यह हम सबके लिए खासकर हिन्दी कविता के लिए आश्वस्तिदायक है।
                      

प्रश्न -6. कवि बड़ा होता है या कविता?


आपका यह सवाल बड़ा पेचीदा है। बड़ा कवि का आशय क्या है? क्या वह, जिसके लिए मानव और मानवता महत्वपूर्ण है और जो उसके लिए ही निरंतर जद्दोजहद करता रहता है। या फिर वह जो येन केन प्रकारेण अपना जीवन जीता है और उसके लिए किसी भी तरह के समझौते करने से गुरेज नहीं करता और कविता गढ़ने के चमत्कार में आजीवन लगा रहता है। तमाम तरकीबों से ऐसा कवि अपने तमाम कविता संग्रह छपवा लेता है और खुद लग कर अपने संग्रहों की समीक्षाएँ भी लिखवा-छपवा लेता है। लेकिन इस तरह का लेखन महज चमत्कारिक और क्षणिक ही साबित होता है।

मेरी समझ से कवि का बड़प्पन ही उसकी कविता को बड़ा बनाती है। इस अर्थ में देखने पर निराला और मुक्तिबोध बड़े कवि दिखाई पड़ते हैं। इसीलिए इन कवियों की कविताएँ भी बड़ी हैं। इसीलिए उनकी कविता हमारे अंतर्मन को एक लम्बे अरसे से गहरे तौर पर प्रभावित करती रही है। गोरख पाण्डेय, धूमिल और पाश जैसे कवियों की कविता आज भी इसीलिए हमें बढ़िया और प्रभावकारी लगती है कि उनके जीवन और सिद्धांत में ऐक्य था। और इसी ऐक्य को वे अपनी कविता में लिखने की कोशिश करते थे। दुर्भाग्यवश आज के हमारे समय के अधिकाँश कवियों के जीवन और लेखन में बड़ा फांक आ गया है। इस फांक की वजह से इस तरह की कविता कमजोर होती है। जिससे कि वह दूर तक और देर तक लोगों के दिलों पर अपना असर नहीं छोड़ पाती। आज सौभाग्यवश हमारे शहर इलाहाबाद में हरीश चन्द्र पांडे जैसे कवि हैं जो किसी भी तरह के प्रचार-प्रसार, आत्म-मुग्धता और विज्ञापन से दूर रहते हुए लगातार बढियां कविताएँ लिख रहे हैं। हम खुशनसीब हैं कि हमें उनका स्नेह हमें प्राप्त है। और भी कई एक कवि मित्र हैं जो अपने लेखन से किसी भी तरह का समझौता न करने के प्रति आज भी कृतसंकल्प हैं। मूल्यों में इतनी गिरावट आ गयी है कि अब कृतसंकल्प होना भी संदेह के घेरे में आ गया है।    

मेरे लिए उस कवि की कविता के कोई मायने नहीं जो अपने जीवन के प्रति ही सच्चाई नहीं बरतता। फरेब और उचाक्कागिरी ही उनका जीवन है। इस तरह के जोड़-तोड़ में लगे हुए कवियों को मैं दूर से ही प्रणाम करता हूँ।     
              

प्रश्न -7. क्या साहित्य से विशेषकर कविता से सामाजिक परिवर्तन संभव है?

सीधे और तात्कालिक तौर पर अगर आप यह प्रभाव देखना चाहेंगे तो आपको नाउम्मीदी ही मिलेगी।   प्रेमचंद ने 1936 में जब रचना को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहा था तो इसका एक सीधा सा मतलब था कि साहित्य वही जो समाज को एक दिशा दे सके। आखिर उस साहित्य या उस कविता का भी क्या मतलब जो खुद में ही दिशाहीन हो। तुलसी ने भले ही रामचरितमानस को ‘स्वान्तःसुखाय’ लिखा हो लेकिन उसका फलक इतना बड़ा है कि हम उससे आज भी गहरा आत्मीय जुडाव महसूस करते हैं। कबीर ने धर्म के ढकोसलेपन को जिस साहस के साथ उजागर किया उसने कई पीढ़ियों के मन पर सीधा असर डाला। कुम्भनदास की पंक्ति ‘संतन को कहाँ सीकरी सो काम’ से तो आज भी मुझे प्रेरणा मिलती है। नेपोलियन महान ने एक बार कहा था कि ‘अगर रूसो न हुआ होता तो फ्रांसीसी क्रान्ति नहीं हुई होती।‘ वृहद् परिप्रेक्ष्य में देखिए तो यह होता है साहित्य का समाज पर असर। जो राजनीतिक व्यवस्था को ही बदलने में एक बड़ी भूमिका निभा देता है। 

परिवर्तन या बदलाव वह सतत प्रक्रिया होती है, जो निरंतर चलती रहती है। तात्कालिक तौर पर अगर आप यह प्रभाव देखने की कोशिश करेंगे तो शायद यह न दिखाई पड़े। परिवर्तन देखने के लिए हमें समय और दूरी के एक अंतराल पर खड़ा होना होता है। हर जमाने में इस परिवर्तन को प्रभावित करने वाले कई-कई तत्व एक साथ सक्रिय रहते हैं। साहित्य भी उन अनेक तत्वों में से एक होता है। साहित्य का असर दूरगामी और देरगामी जरुर होता है। लेकिन उसका असर समग्रता में होता है। कोई भी रचना कब आपको झंकृत कर दे और आपका जीवन ही बदल जाए, कहा नहीं जा सकता। वैसे यह एक कड़वा सच है कि कोई भी रचनाकार इस उद्देश्य से कभी नहीं लिखता कि उससे समाज में कोई बड़ा बदलाव आ जाएगा। बड़ी रचनाएँ अपने-आप ही अवसर आने पर प्रभावी स्थिति में आ जाती है और अपना कमाल-धमाल दिखा जाती हैं।
           

प्रश्न -8. नए संचार माध्यम के आने से साहित्यिक परिदृश्य पर क्या फ़र्क पड़ा है?

नए संचार माध्यमों ने हिन्दी साहित्य को और समृद्ध करने में बड़ी भूमिकाएं निभायी हैं। सोशल मीडिया और ब्लाग्स इस दिशा में लगातार बेहतर काम कर रहे हैं। इससे दूर-दराज ही नहीं विदेशों में बैठा हुआ नया से नया रचनाकार भी अपनी रचनाएँ बिना किसी हिचक के सार्वजनिक कर सकता है। यही नहीं इस तरह की रचनाओं पर उसे त्वरित गति से दुनिया भर से प्रतिक्रियाएँ भी मिल जाती हैं। इस तरह उसे अपनी रचना पर तात्कालिक रूप से ‘फीडबैक’ मिल जाता है। इसका एक परिणाम यह हुआ है कि इससे प्रिंट मीडिया पर निर्भरता समाप्त हुई है। अब आज के कवि किसी संपादक की कृपा के मोहताज नहीं हैं। नए रचनाकार अब संपादकों की परवाह भी नहीं करते। इनमें से अधिकाँश फेसबुक पर अपनी कविताएँ प्रकाशित कर देते हैं। अधिकाँश युवा कवियों ने अपने ब्लॉग खोल कर उस पर अपनी कविताएँ प्रकाशित करनी शुरू कर दी हैं। इसी का असर है कि कुछ महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ तो नियमित रूप से अपने अंकों में नेट पर छपी रचनाओं को साभार प्रस्तुत करने लगी हैं।
अब नेट पर कविता कोश और गद्य कोष जैसी समृद्ध साईट्स हैं जिन पर हम बेहिसाब साहित्य पढ़ और प्राप्त कर सकते हैं। इसे पाने में कोई झमेला भी नहीं। बस एक क्लिक कर इन्हें पाया और पढ़ा जा सकता है। तो इस तरह पाठकों को दुकानों पर जा कर किताबें और पत्रिकाएँ खरीदने की जहमत से मुक्ति मिली है। तमाम बढियां पत्रिकाएँ अब अपने वेब संस्करण भी नियमित तौर पर निकालने लगी हैं। इससे दुनिया के किसी भी हिस्से में बैठा पाठक अपनी मर्जी के अनुसार इसे डाउनलोड कर प्राप्त कर सकता है और जब चाहे तब पढ़ सकता है। इस तरह आज के नए संचार माध्यमों ने समूचे साहित्यिक परिदृश्य को ही क्रांतिकारी तरीके से बदल डाला है। इस समय में आप तभी बने रह सकते हैं, जब आप इनसे परिचित हों अन्यथा की स्थिति में आप अपने समय और परिवेश से लगातार कटते चले जाएँगे। सोशल साईट ‘फेसबुक’ पर आज का लगभग हर युवा कवि सक्रिय है। अपने समय की रोजमर्रा की राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय घटनाओं पर लगभग हर कवि अपने विचार खुल कर व्यक्त करता है। इनमें से अधिकाँश कवियों की रचनाएँ आपको किसी न किसी ब्लॉग पर पढने को अवश्य ही नए मिल जाएँगी। इस तरह इन संचार माध्यमों ने कुल मिला कर हमारे समय के साहित्य को समृद्ध ही किया है। अब जब दुनिया ‘पेपरलेस’ युग की तरफ बढ़ रही है ऐसे में इन संचार माध्यमों की भूमिका और अहम हो जाती है।     
           

प्रश्न -9. साहित्य का प्रतिपक्ष क्या है? जब आप लिख रहे होते हैं तो आप 'किसी' के पक्ष में होते हैं या प्रतिपक्ष में?

जब भी हम लिखने के लिए बैठते हैं तो सहज ही एक सवाल मन में कौंधता है कि हम ‘किसके लिए और क्यों?’ लिख रहे हैंऔर जब भी यह सवाल उठता है तो हमें इसका जवाब जरुरी तौर पर तलाशना होता है। इसी क्रम में हर कवि ‘कविता’ के उपर भी कविता लिखता है। जिसमें वह अपने को स्पष्ट करता है। मैं जब भी लिख रहा होता हूँ तो मेरे जेहन में पंक्ति में सबसे पीछे खड़ा वह वह आम आदमी जेहन में होता है जो अपने जीने तक के लिए लगातार कठिन संघर्ष कर रहा होता है। मेरे मन में हमेशा वह जन होता है जिसके नाम पर यह जनतंत्र सक्रिय है लेकिन जब भी जन अपने को इसमें खोजता है अपने आपको कहीं भी नहीं पाता। लगातार प्रभावी होता हुआ बाजार भी मुझे बराबर कचोटता है। जिसमें हम अपने को ठगा हुआ पाते हैं। इधर साम्राज्यवाद ने अपनी जड़ें लगातार मजबूत की हैं। अमरीका जैसे शक्तिशाली देश की मनमानी निरन्तर बढ़ी है। फ़ासीवादी शक्तियाँ निरंतर मजबूत हुई हैं। कट्टरतावाद अपना फन हर जगह लगातार फैला रहा है। आतंकवाद एक बड़ी समस्या के रूप में वैश्विक रूप से उभर कर सामने आया है। इन सबका शिकार सबसे निचले पायदान पर बैठा आम आदमी ही होता है। प्रतिरोध की संस्कृति को इन तत्वों ने एक साजिश के तहत समाप्त करने की कोशिश की है। अब क्या कहिएगा जब ‘विकास’ जैसे शब्द को इस तरह इस्तेमाल किया गया है कि उसका मायने ही हास्यास्पद बन कर रह गया है।

इन विकट परिस्थितियों में हम आज अपने को अनेकानेक प्रतिपक्षों से घिरा हुआ पाते हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से जब भी लिखने बैठता हूं तो ये सब मेरे जेहन में होते हैं। और जब चीजें आपके सामने स्पष्ट हों तो फिर आप आसानी से अपने पक्ष और प्रतिपक्ष की पहचान कर सकते हैं। मुक्तिबोध के ही शब्दों में कहें तो आपको अपनी पालिटिक्स तो तय करनी ही होगी। इसके बिना काम बिल्कुल ही नहीं चलने वाला। एक ही समय आप गाल फुलाने और ठठाने जैसा चमत्कार नहीं कर सकते। आप चाहें जितना भी छुपाने की कोशिश करें, आपकी रचना में आपकी सोच और आपके विचार आ ही जाते हैं जिन्हें प्रत्यक्ष या फिर परोक्ष रुप से लक्षित किया जा सकता है।
                 
प्रश्न -10. साहित्य का समाजशास्त्र बदल रहा है, इस बदलते परिदृश्य पर आपकी राय क्या है?

इसमें कोई दो राय नहीं कि समय बदलने के साथ-साथ साहित्य का समाजशास्त्र भी लगातार बदला है। साहित्य अब महज मनोरंजन की चीज न हो कर गंभीर विमर्श का माध्यम बन गया है। मीडिया ने जब से सत्ता की चापलूसी चालू कर दी है तब से साहित्य के कन्धों पर और अधिक जिम्मेदारियां आ पड़ी हैं। ऐसे में साहित्य का समाजशास्त्र भी लगातार बदला है। इसके प्रतिमान बदले हैं। हाशिये पर रहने वाले लोगों की बातें साहित्य में अब प्रमुखता से की जाने लगी हैं। दलित, वंचित, पिछड़े, आदिवासियों और महिलाओं का वह तबका जिसकी हिस्सेदारी साहित्य में पहले बहुत कम थी या न के बराबर थी, निरंतर ही बढ़ी है। अब ये लोग मुखर हो कर अपने वर्ग की दिक्कतों और परेशानियों को अपनी रचनाओं में लिख रहे हैं। चूकि अपने तबके के साथ सीधे तौर पर इनका जुडाव होता है इसलिए इनकी रचनाओं में वह जीवनानुभव संघनित हो कर आता है और स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। इससे रचनाओं में यथार्थ के अंकन की प्रवृति बढ़ी है। यह साहित्य के लिए सुखद स्थिति है। इससे हमारे समय के साहित्य का दायरा और व्यापक हुआ है। ऐसे विषयों, समस्याओं, परिवेशों और परिदृश्यों से अक्सर ही हमारा सामना होता है, जिसके बारे में हमें कुछ भी पता नहीं रहता है। जो साहित्य अपने समाजशास्त्रीय दायरे को लगातार बढ़ाता है वह उतना ही दीर्घजीवी साबित होता है। जो अपने को एक खोल में सीमित करने का प्रयास करता है, वह एक समय के बाद खुद ही सिमटने लगता है। साहित्य इसी मायने में पुनर्नवा होता है कि वह समय के साथ कदम से कदम मिला कर चलने का माद्दा रखता है और उसे अपने में रेखांकित करने का प्रयास करता है। यही साहित्य की विशिष्टता भी है और और लोगों में लोकप्रिय होने का कारण भी। इसीलिए साहित्य को अपने झूठे पड़ने का डर नहीं होता। अन्य विषयों से बिल्कुल अलग वह इसकी कभी परवाह भी नहीं करता। वह तो अपने समय के झूठ को भी सच बनाने की कोशिशों में लगातार जुटा रहता है। इसीलिए वह समानता की बात कहने से नहीं हिचकता। इसीलिए वह अत्यंत साहस से साम्प्रदायिक और फासीवादी तत्वों के विरोध में उठ खड़ा होता है और प्रतिरोध जताता है। जरुरत पड़ने पर यही साहित्य अपने बूते पर अपने समय के अपराजित से लगने-दिखने वाले शासकों की भी बखिया उधेड़ने का दम-खम रखता है और यही दम-ख़म उसे औरों से बिल्कुल अलहदा और अनूठा बनाता है। 



                                                     ( साहित्यिक पत्रिका 'कविता प्रसंग' से साभार )


साक्षात्कार-कर्ता

नित्यानंद गायेन

युवा कवि और प्रखर समीक्षक 

आजकल दिल्ली में रहते हैं  


  














                       

शनिवार, 29 जून 2013

नित्यानंद गायेन की कवितायें

                                 नित्यानंद गायेन

नित्यानंद गायेन की कविताओं में एक ईमानदारी दिखाई देती है | ऐसा लगता है , जैसे इनमें हम अपने समय के चेहरे को साफ़-साफ़ पढ़ रहे हों | ये कवितायें बेशक उतने करीने से नहीं सजायी गयी हैं , लेकिन ये ड्राइंगरूम में रखने के लिए लिखी भी नहीं गयी हैं | दरअसल जिनके लिए इन्हें लिखा गया है , वह समाज भी तो थोडा खुरदुरा ही है |

         तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर नित्यानंद गायेन की कवितायें


1.... ये किस पक्ष के लोग हैं...?

कठिन वक्त पर खामोश रहना 
मासूमियत नही 
कायरता है 
और 
वे सब खामोश रहें 
अपने -अपने बचाव में 
और वक्त को बनाया ढाल 
खामोशी के पक्ष में 


जब बोलना था 
तब कुछ न बोले 
जब भी बोले
अपने बचाव में बोले

ये किस पक्ष के लोग हैं ...?

2. तुम्हारे पक्ष में...


हाँ यही गुनाह है 
कि मैं खड़ा हूँ तुम्हारे पक्ष में 
यह गुनाह राजद्रोह से कम तो नही 
यह उचित नही 
कि कोई खड़ा हो
उन हाथों के साथ जिनकी पकड़ में
कुदाल ,संभल , हथौड़ी ,छेनी हो
खुली आँखों से गिन सकते जिनकी हड्डियां हम
जो तर है पसीने से
पर नही तैयार झुकने को
वे जो करते हैं
क्रांति और विद्रोह की बात
उनके पक्ष में खड़ा होना
सबसे बड़ा जुर्म है ....

और मैंने पूरी चेतना में
किया है यह जुर्म बार -बार ..


3....  क्रांति के लिए


अपने आवारा दिनों में 


मैं भी नंगे पैर घास पर चलता रहा 


महाकवि 'वॉल्ट व्हिटमॅन' की तरह 


मैं सोचता रहा 


अपने मन में पल रहे विद्रोह के बारे में


मैंने 'नजरुल' को पढ़ा


गौर से देखता रहा मेरे आसपास की हर घटना को


मैं सुनता रहा


तुम सबकी बातें


मेरे आस -पडोस में लोगों ने


जमकर मेरी आलोचना की



मैंने 'कबीर' को सोचा उस वक्त


तभी मुझे याद आई


'सुकरात' की कहानी


फिर अचानक


मेरे मस्तिक में उभरने लगा क्रांति में शहीद हुए


क्रांतिकारियों का रक्तिम चेहरे


शासन के हाथों घायल होते हुए भी


बंद मुट्ठी लिए


क्रांति के लिए


उठे हुए लाखों हाथ



मैंने अपने कांपते तन -मन को


संभालने की नाकाम कोशिश की


अचानक मैंने भी मुट्ठी बनाकर


इन्कलाब कहकर


आकाश की ओर उठा दिया अपना हाथ

 

4. गांवों का देश भारत   


नर्मदा से होकर 
कोसी के किनारे से लेकर 
हुगली नदी के तट तक 
रेतीले धूल से पंकिल किनारे तक 
भारत को देखा 
गेंहुआ रंग , पसीने में भीगा हुआ तन 
धूल से सना हुआ चेहरे
घुटनों तक गीली मिटटी का लेप
काले -पीले कुछ कत्थई दांत
पेड़ पर बैठे नीलकंठ
इनमें देखा मैंने साहित्य और किताबों से गायब होते
गांवों का देश भारत

दिल्ली से कहाँ दीखती है ये तस्वीर ...?
फिर भी तमाम राजधानी निवासी लेखक
आंक रहे हैं ग्रामीण भारत की तस्वीर
योजना आयोग की तरह ....



*मध्य प्रदेश से होकर बिहार,बंगाल की यात्रा के बाद लिखी गई एक कविता 
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5. जो निर्गुट थे   

यह दौर 
गुटबाजी का है 
निर्गुट रहना 
कठिन हो गया है

दुनिया भर में 
बन रही हैं 
गटबंधन की सरकारें 
टिका कर अपना भविष्य 
औरों के कंधें पर 
खुद के कंधे अब कमजोर होने लगे हैं 
गणमान्य लोग जो गाते थे 
निष्पक्षता का गीत 
बंट गये वे भी अवसर -अवसर देखकर
इस आंधी ने अब रुख किया है 
अपने प्रांत की ओर

जो निर्गुट थे 
मारे गए 
या कहिये 
लुप्त हो रहे हैं दिन --दिन 
आज निर्गुट रहना भी 
सबसे बड़ा गुनाह है ..................??


6. डायमंड हार्बर 

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उस पार हल्दिया 
इस पार मैं 
बीच हमारे डायमंड हार्बर नदी 
तीव्र लहरें 
लहरों पर नाचती नौकाएं 
बेचैन मन की भावनाओं की तरह |

वाम शासन के पतन के बाद 
तानाशाह के उदय के साथ 
परिवर्तन के नाम पर 
बंग सागर में 
डूबते देखा आज सूरज को 
उदास मन के साथ 
भूख की आग में जलती 
देह व्यापर में लिप्त 
किशोरी की आवाज़ घुट कर रह जाती है 
डायमंड हार्बर के होटलों में |

माँ , माटी के साथ 
ममता भी दफ़न है किसी कब्र में 
या शायद ....
शामिल है आई .पी .एल जश्न में 
बस यही पोरीबर्तन’*है 
सोनार बांग्ला में ....? 

रबिन्द्र , नज़रुल के नाम पर 
स्टेशन का नाम करने से 
होता नही परिवर्तन 
राममोहन राय , विद्यासागर की याद से भी 
नही होता परिवर्तन 
कार्टून पर प्रतिबंध से भी नहीं होता 
परिवर्तन .....
दीदी बन जाने से नही होता कुछ 
लाल रंग से घृणा से 
नहीं होता कुछ 
समझ जाओ जिस दिन ज़मीनी हकीकत 
शायद हो जाये कुछ परिवर्तन .....



परिचय और संपर्क    

नित्यानंद गायेन  

कमरा न. – २०२
हॉउस न. - 4-38/2/B
आर.पी.दुबे कालोनी
लिंगाम्पल्ली , हैदराबाद
आँध्रप्रदेश  - 500019.

मो.न. - 09642249030