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रविवार, 10 जुलाई 2016

जयप्रकाश 'फ़क़ीर' की प्रेम कवितायें ....

 

प्रतिष्ठित पत्रिका 'अनहद' में जयप्रकाश 'फ़क़ीर' की इन कविताओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया ... अरसे बाद प्रेम की ऎसी उद्दात्त अनुभूतियों से गुजरने का अवसर मिला ... सोचा कि 'सिताब-दियारा ' के पाठकों के लिए भी इन्हे प्रस्तुत किया जाए ....

                                           तो प्रस्तुत है जयप्रकाश 'फ़क़ीर' की ये प्रेम कवितायें ....
 
 
1. मा-शीन (ma-chine)

उनके आँखों में नहीं ,
शब्दों में
आंसू थे बेशुमार .
कारखाने थे आंसू के उनके पास .
'
माँ '
कहते और जार जार रोते
भाषा के भीतर पानी पानी होते हुए !
यह अफ्रीका नहीं था .
वे
'
माँ ' माँ माँ
कहते और क्लिटेक्टोमी करते
चाकू की याद दिलाते .
भाषा से धार का काम लेते
और
वे जार जार रोते
मा मा मा कहते हुए
 
2. करेजा *,

कैसी हो –
पूछना चाहता हूँ ,
और अपने नर्वस वीकनेस के कारण रो पड़ता हूँ।
36
की उम्र में रोना शोभा नहीं देता
तो तुम्हारी यादो की सरगोशी से घबराकर
कविताएँ लिखता हूँ ।
जब पीछा करता है माजी
तो शब्दों के ओट हो लेता हूँ ,
भागना चाहता हूँ और पकड़ लिया जाता हूँ
कि तुम्हारी याद को थामे
तुम्हारे नाम का पहला अक्षर मेरे की रिंग में ही नहीं ,
हर उस भाषा है जिसे मै जानता हूँ !
तुम्हारी मीठी आवाज़ कही नहीं है अब ,
जबकि सुनने की कोशिश करता हूँ कली के चटकने का स्वर भी ।
रक्त में शर्करा कम है ,जीवन में भी ।
पैथोलॉजी सेंटर का लैब बॉय
जब उंगली में सुई चुभोता है
भक से खून निकल आता है
ध्यान से देखता हूँ ,वह सुई ही है कांटा नहीं ,
फिर भी याद आ जाता है कांटा ,
जो चुभ गया था
तुम्हारा दुपट्टा छुडाते हुए ।
फूल लेने गयीं थीं
गेसू ए दराज़ के वास्ते
तुम देऊ दूबे की फुलवारी ,
वह कांटा अब उंगली में नहीं दिल में चुभता है ।
मेरे खून से भींगा तुम्हारा दुपट्टा अब भी लाल है या .....सोचता हूँ बारहाँ...
तुम से भागता हुआ तुम्ही तक आ पहुंचता हूँ ।
पृथ्वी ही नहीं दुःख भी गोल है ।
''
नबी की याद है सरमाया गम के मारो का''
नआत सुनता हूँ दिन रात
फर्ज़ सुन्नत के जुज़ नफ्ल नमाज़ भी पढता हूँ दो रकात
मगर नहीं कटता ..नहीं ही कटता ..
गम ए फुरकत ए बदमिजाज !


(tadpole
फिल्म में नायिका नायक को दिल की जगह जिगर कह के पुकारने को कहती है .करेजा भोजपुरी और पुरबिया बोली में जिगर को कहते है और अत्यंत प्रिय को करेजा बुलाते हैं -loosely translated -dearest )
(नफ्ल नमाज़नमाजे जिन्हें पढना इतना जरुरी नहीं है मगर अतिरिक्त सबाब के सबब पढ़ी जाती है .बहुत धार्मिक होने की निशानी)

3. आज के नाम ,आज के गम के नाम

यह जो उफ़क पर चाँद है ,
कभी उस समद्विबाहु त्रिभुजाकार झंडे में था
जो मुहर्रम पर
मेरे लिए इदरीश मियां ने सिल दिया था ,
इदरीश अंसारी दर्जी
जो मुज़फ्फरनगर के बाद
होंठो को सी लेने के बाद कुछ नहीं सिलते !
अब
मेरे हाथ में वह लम्बा डंडा नहीं है
डंडे में वह झन्डा नहीं है
झंडे में महताब नहीं है
मुज्ज़फरनगर के बाद
चाँद आसमान में है !
लव जेहाद के तानो से उकता
इस्लाम उस चाँद में मुकीम है जो खुर्शीद के गुरूब
के ऐन बाद
अपने आप उग आया है
आसमान में
चाँद जो किसी के महबूबा का चेहरा नहीं है ,
चाँद जो जली रोटी नहीं है ,
चाँद जो टेढ़ा नहीं है !
चाँद जिसे
रात को चुपके से डरते हुए हरे कपड़े की जगह
नीले आसमान में टांक दिया है
इदरीश चचा ने
वह चाँद में दाग नहीं है
दहशत जदा हाथो की थरथराहट है
जो सिलाई /तुरपई में नमूदार है .
जोश मलीहाबादी पाकिस्तान चले गए
पाकिस्तान से उर्दू लुगत में
फिर जन्नत और जहन्नुम के
नोमैंसलैंड पुल -ए- सिरात में
कि वे खुदा की तरह मुन्तकिम नहीं थे .
उनके जाने के बाद कुछ नहीं बचा ,सिवा एक सवाल के !
कौन आयेगा कमर का नाज उठाने के लिए ?
चांदनी रातो को जानू पर सुलाने के लिए ?*
फ़िलहाल
आसमान में चाँद है
चाँद में इस्लाम है
इस्लाम में इदरीश मिया की जिन्दा देह और मरी रूह है
मरी रूह में ढही मस्जिद है
जिसका नाम बाबरी है
ढही मस्जिद में एक जिद है
जिद का नाम फ़क़ीर है .
फ़क़ीर का नाम मोमिन है
मोमिन का नाम मुज्जफरनगर है
मुज्ज़फरनगर में खतौली है
खतौली का नाम भारत है
भारत किसका नाम है ?
(*जोश मलीहाबादी की गजल की सतरें )
4. नहीं दीखता हूँ मै


जैसे
छोटे फॉण्ट में
माँ
के ऊपर चंद्रबिंदु
नहीं दीखता !
मगर मै
अब भी
कब भी
तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ ।
हूँ !




5. आंख का पसीना

कई दिन बाद
तुझे देख कर लगा
मै भी रो सकता हूँ
रो ही सकता हूँ ।

कार की स्टीयरिंग पर टिका
तुम्हारा गोल थका माथा
देखता हूँ
7860
किलोमीटर दूर से ,
और रो पड़ता हूँ ।
तुम्हारा प्यार याद है
तुम्हारे बुडबक चेहरे में ढंका हुआ ,
तुम प्रेमिका नहीं भी होतीं
तो बहिन होतीं।
जुदाई तो हर हाल में झेलनी थी,
आंसू आने थे हर हाल में
थक गई हैं आँखे ,
आंसू मेरे,
मेरी ,
जो तेरी है ,आंख का पसीना हैं .

6. सबसे बड़ा सत्य

रात,सितम्बर ,तूफान सब आ के
चले गए
नींद
तुम्हारी याद की तरह न आई न गई
इतना नाकिस हूँ
कि सिर्फ प्रेम कवितायेँ लिखने को जी
चाहता है
तुम्हारी तस्वीर में
तुम्हारे काले बाल देखता हूँ
पनीले होंठ भी
और कुछ देर उदास होकर
स्ट्रेचर पर दुःख की तरह पसर जाता हूँ !
लौट जाना चाहता हूँ,जहाँ से आया था
धर्म ,इस्लाम ,मार्क्सवाद
प्रेम ,न्याय ,तक़वा
दलित ,पिछड़ा ,ईसा ,शून्यवाद
........
से भी बड़ा सत्य है
क्रांति के फेर
में तुझे खो देना !
क्यों कि
तुझे खोने के बाद
पता चला तुम्हारी आंखे
बहुत हसीन हैं !
और तुम्हारा जेहन भी !


खतौली का नाम भारत है
भारत किसका नाम है ???


परिचय
जयप्रकाश ‘’फकीर ‘’
शिक्षा –बी टेक (आई आई टी ) , एम ए (इग्नू)
सम्प्रति –भारत सरकार में कार्यरत और  पटकथा लेखन


शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

जीवन का डायलसिस - 'जीने के लिए' --- फ़क़ीर जय





फेसबुक’ पर मिले मित्रों में ‘फ़क़ीर जय’ एक विशिष्ट उपलब्द्धि की तरह हैं | सिर्फ इसलिए नहीं कि उनका अध्ययन व्यापक है, या कि वे ज्ञान, तर्क और विवेक के चलते-फिरते ‘इनसाइक्लोपीडिया’ हैं | वरन इसलिए कि ऐसा होते हुए भी उनके पास अथाह सहजता है, और मनुष्य बने रहने की अप्रतिम चाहत भी | जिस दौर में एक लिखकर दस पढने का चलन अश्लीलता की हद तक आम हो गया हो, उस दौर वे दस लिखकर भी अलक्षित रह जाने की औदार्य रखते हैं |
सिताब दियारा ब्लॉग’ इस मामले में खुशकिस्मत है कि उसे उनके जीवन के कुछ पन्ने प्रकाशित करने का अवसर मिला था | एक बार पुनः उनके प्रति आभार को दिखाते हुए हम ‘सरिता शर्मा’ के आत्मकथात्मक उपन्यास ‘जीने के लिए’ पर लिखी उनकी यह समीक्षा प्रकाशित कर रहे हैं | इस समीक्षा में आप देखेंगे कि वे इस उपन्यास को परखते समय, हमारा परिचय दुनिया के कालजयी लेखन से भी कराते चलते हैं |   

 
  प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर सरिता शर्मा के आत्मकथात्मक उपन्यास    
           जीने के लिए पर ‘फ़क़ीर जय’ की यह समीक्षा  



जीवन का डायलिसिस : ‘’जीने के लिए ‘’



शिल्प के स्तर पर सरल होते हुए भी ‘जीने के लिए ‘ एक जटिल संरचना वाला उपन्यास है .संरचना से यहाँ मेरा मतलब deep structure से है जिसे ल्योतार्ड आदि उत्तराधुनिक चिंतको ने सत्ता और उसकी संरचना के पुनरुत्पादन से जोड़ के देखा है .सरिता जी का निजी यहाँ साधारणीकरण की प्रक्रिया द्वारा हर उसकी पीड़ा बन जाता है जिसने रूमानी और यथार्थ का द्वंद्व अपने बाहर ही नहीं भीतर भी झेला है .उपन्यास जटिल हालातो के बारीक़ विवरण से भरा हुआ है जो इन्सान को एक नियति के रूप में reduce कर देते हैं .इस नियति के विरुद्ध संघर्ष भी मानो एक दूसरी नियति हैं .किडनी के लिए पाकिस्तान का दौरा कहानी में एक नया आयाम जोड़ता है .यहाँ mundane और विचारधारा की दुनिया का फर्क स्पष्ट होकर उभरता है .भारत पाकिस्तान के बीच का वैमनस्य और तद्जनित संघर्ष एक ठोस राजनीतिक सत्य है मगर दैनंदिन जीवन किस तरह इसके बावजूद हस्ब मामूल अपनी ही गतिकी से चलता रहता है, उपन्यासकार ने इसे बखूबी उभारा है .बिना किसी सद्भावी लाग- लपेट और आंसू बहाऊ भावुकता के वह पारदर्शी ढंग से इसको कथा में पिरोता है .


उपन्यास की प्रोटागनिष्ट नमिता को जो आत्मीय व्यवहार पाकिस्तानी डॉक्टर और अवाम से मिलता है ,वह इस राजनितिक सत्य को अप्रासंगिक बना देता है .इस निजी संघर्ष के गाथा के भीतर भी सत्ता संघर्ष के कई सन्दर्भ उपन्यास में दिखलाये गए हैं .उपन्यास प्रेम संबंधो के स्वार्थ संबंधो में बदलते जाने को भी शिद्दत से दर्ज करता है .एक पैसे वाली लड़की को अपने स्वार्थी मंसूबे के लिए शिकार बनाने वाली लघु आत्मा के द्वारा प्रेम के तहस नहस किये जाने को भी नोट करता है .जिंदगी को जब शुरू हुआ माना जाता है –यानी शादी के बाद –तभी जिंदगी खत्म हो जाती है .जिंदगी को जहाँ खतम मान लिया जाता है –यानी शादी टूटने के बाद –वहीँ जिंदगी शुरू होती है .जिंदगी के सही मायने तभी नमिता पर खुलते हैं .स्त्री विमर्श किताबो से निकलकर जिंदगी की सच्चाई बन जाता है .अकेली तलाकशुदा औरत को जिन विकट परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है ,उसका इतना यथार्थपरक वर्णन है कि सहसा यशपाल की याद आ जाती है .उनका उपन्यास ‘’झूठा सच ‘’ स्मृति में कही कौंधता है. कुंवर नारायण जैसो ने इसमें काव्यत्मकता की कमी की शिकायत की थी .अव्वल तो यह उपन्यास में काव्य खोजना गैर जरुरी सामन्ती दृष्टि है .फिर मेरे अनुसार काव्यात्मकता का यह अभाव उपन्यास का बहुत बड़ा गुण है न की कमी .यह उपन्यास को यथार्थवादी ऊचाई देता है जो इसे मैक्सिम गोर्की की परम्परा में खड़ा कर देती है .


मृत्यु ,किडनी फेलियर जैसी आत्यंतिक स्थितियों में मनुष्य के जिन्दा होने और जूझने का जिक्र उपन्यास में है , वह  मिशेल फूको वर्णित limit experience की कोटि का है ,यहाँ जीवन के चरम सत्य इन्सान साफ़ साफ़ देख सकता है .सरिता जी ने भी देखा है जिसका जिक्र उन्होंने उपन्यास की भूमिका में किया भी है .यहाँ आकर limit अनुभव के वे मरहले दीखते हैं जहाँ आम नैतिक मर्यादाएं दम तोड़ देती हैं और जीवन-समाज के  छुपे हुए संरचना तंतु नंगे हो जाते हैं , उनकी कार्य-प्रणालियाँ स्पष्ट हो जाती हैं .रिश्तो की बुनावट बिखर जाती है और जिन रेशो से वे रिश्ते बने हैं उनका स्वरुप प्रकट हो जाता है .जीवन की ऐसी ही आत्यंतिक घटना ने दोस्तोवोस्की के लेखक को लेखक बनाया. असफलताएं और उनके बीच मनुष्य का जूझना कथा को तात्कालिकता के साथ शाश्वतता का  आयाम देते हैं जो पृथ्वी पर मनुष्य के होने और बचे रहने मात्र से जुडा  हुआ है. पुरुष ने भी इस लड़ाई को अपनी कथा में दर्ज किया है .जैसे –एर्न्स्ट हेमिंग्वे का उपन्यास –ओल्ड मैन एंड सी तथा जैक लंडन की तमाम कहानियां !मगर वहां लड़ाई प्रकृति के विरुद्ध है .वहां युद्ध जीवन के लिए नहीं है ,प्रकृति को जीतने के लिए है .यह जिजीविषा नहीं है ,प्रकृति के विरुद्ध युयुत्सा है .या कह सकते हैं जिजीविषा है भी तो प्रकट युयुत्सा के रूप में ही हुई है और उसके प्रभाव युयुत्सा वाले ही हैं .पुरुष की कथा अहंकार की तुष्टि ,जिसे वह प्रकृति पर विजय कहता है , में तुष्टि पाती है .इसके बरक्स ‘’जीवन के लिए ‘’ में जो स्त्री-कथा दर्ज है ,उसमे स्त्री की लड़ाई ( हालाँकि इसे लड़ाई कहना उचित नहीं .क्यूंकि यहाँ चीजों को युद्ध के रूप में देखा ही नहीं गया है .मगर किसी ऐसे  उपयुक्त शब्द के अभाव में इसे लड़ाई कहना पड़ रहा है .पुरुषो की भाषा में स्त्री के व्यवहार के लिए शब्दों का अभाव है ) उस रूप में नहीं है ,यहाँ लड़ाई ‘जीने के लिए ‘ है और कई बार जीने देने के लिए भी .


नमिता में  धीरे धीरे अपने पति के प्रति वैमनस्य का लोप हो जाना इसी ‘जीने देने के लिए ‘ का स्वीकार है .सिन्धु ताई ने भी अपने पति को माफ़ कर दिया था .यह स्त्री की भाषा है .यह सहकार की भाषा है ,संहार की नहीं .यहाँ दूसरो को मार देने की अपेक्षा खुद को बचाए रखना वरेण्य है. जीवन के प्रति आकर्षण उपन्यास को जीवन से भर देता है .मृत्यु की अनुगूंजो के बीच जीवन का यह राग मालकौंस बहुत मधुर है .इसलिए यहाँ जीवन के संकट के साथ उससे लड़ने और उत्तीर्ण होने प्रसंग भी है. अन्ततः पति से अलग होने का फैसला ऐसा ही एक इन्तेहाँ था जिसमे नमिता पूरे प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होती है .जीवन में आस्था बचाए रखना और इसके सहारे उसे एक सर्जनात्मक मोड़ देना इसे समकालीन लेखन से अलग करता है .समकालीन लेखन का अधिकांश शिल्प के नाम पर कृत्रिम मूल्यों और हालातो को बाजारू रोचकता के साथ प्रस्तुत करता है .गीताश्री और जयश्री  इसके ज्वलंत उद्धाहरण हैं .’जीने के लिए ‘ में मसीहाई सादगी है .औदात्य –ऊचाई भी है .देह का जो अकुंठ उल्लेख उपन्यास में है वह इसे देह को स्तानादि से पहचानने वाले समकालीन विमर्श से स्वतःसिद्ध रूप से श्रेष्ठ ठहराता है .किडनी भी देह का अंग है .बल्कि यहाँ किडनी ही देह बन गयी है, जिसके लिए देह  के तमाम अंग -उपांग, यहाँ तक दिल ओ दिमाग भी बस प्रयोजन मात्र  हैं .बाकी अंगो का काम है किडनी को बचाना .उपन्यास ने इस बात को बखूबी उकेरा है .देह विमर्श को इस तरह यह उपन्यास एक मौलिक विस्तार देता है . किडनी-विमर्श. यहाँ उपन्यासकार ने स्वयं को अभिव्यक्त होने दिया है और बाहरी यथार्थ पर भी पकड़ बनाये रखी है .इस तरह यह अनावश्यक रूप से रूमानी नहीं होता तो दूसरी तरफ इतिहास की किताब या अख़बार की रिपोर्ट होने से भी बच जाता है .
           

अगर उपन्यास में सुधार की गुंजायश है तो मेरे हिसाब से (मै गलत भी हो सकता हूँ ) वह है ,उपन्यासकार की उपस्थिति .कथा के बीच में यह प्रेमचंद की तरह intervene करना कथा प्रवाह को बाधित करता है .नाटक में यही चीज़ अच्छी है वहां यह ब्रेख्त वाला  प्रभाव उत्पन्न करती  है .मगर उपन्यास में इससे बचने से स्वाभाविकता आती है .उपन्यास को जो भी कहना है कथा के माध्यम से कहना चाहिए .हद से हद संवाद के रूप में विचार रखे जा सकते हैं .उपन्यास अंततः विचार नहीं ,कहानी है .
           

उपन्यास में ससुर द्वारा हनीमून में भी साथ साथ जाना, एक असफल जीवन को ससुर द्वारा पुत्र और पुत्रवधू के माध्यम से सफल बनाने या कुंठा की तुष्टि करना बहुत सशक्त प्रसंग है .ससुर के चरित्र से तो प्रसिद्ध फिल्म ‘एक दिन अचानक ‘ के प्रोफेसर की याद आ जाती है .सरिता जी ने चरित्र को उकेरने में कोई कसर नहीं छोड़ी है .दृश्यों का भी खुबसूरत चित्रण करती है .लगता है इन्हें तो स्क्रप्ट-राइटर होना था .गजब की मंजर निगारी है .मोहल्ले वालो से लड़ाई का चित्र हो या कोर्ट में पति का लुकाछिपी ,बहुत संयत बारीक़ जुबान में अयाँ हुआ है .कहा जा सकता है जहाँ दूसरे उपन्यासकार जीवन का एनालिसिस करने में लगे है इसलिए विचार और शिल्प का भारी बोझ वहां है ,वही सरिता जी ने यहाँ जीवन की एनालिसिस के बरक्स डायलिसिस की है .कथा-रक्त को छान कर एक शुद्ध कहानी हमे दी है जो  कविता नहीं है ,शिल्प नहीं है ,कथ्य नहीं है ,कहानी है –उपन्यास की शुद्ध कहानी !



परिचय और संपर्क

फ़क़ीर जय

कोलकाता में रहनवारी


सोमवार, 10 मार्च 2014

संघर्षरत सहयात्री की कहानी - दूसरा भाग -- 'फकीर जय'



कल हमने ‘संघर्षरत सहयात्री की कहानी’ का पहला हिस्सा पढ़ा था | आज उस कहानी के दूसरे हिस्से के साथ ‘फकीर जय’ एक बार फिर हमसे मुखातिब हैं |              

               संघर्षरत सहयात्री की कहानी – फकीर जय की जुबानी

                          दूसरा भाग

                        गंताक से आगे.........


मैट्रिक में मानविकी विषयों के कारण मुझे मात्र 77 फीसदी अंक मिले .मै बहुत उदास हो गया .पढाई से मन उचट गया .बदमाश लडको का साथ हो गया .मै ग्रुप का लीडर था .हम दिन भर मारपीट की बाते करते .मारपीट भी करते .मजमा मेरे घर लगता क्यूँ कि माँ के न होने से मेरे घर खाली रहता .अब्बू ड्यूटी चले जाते .बाकी साथियों के घरो में माएं डांटती .तभी आरक्षण विवाद फैला .चारो तरफ जातीय तनाव था .पटना का बिहार नेशनल कालेज आरक्षण विरोधी हंगामे का गढ़ था .भूमिहार नामक जाति के वर्चस्व वाला यह कालेज तथाकथित राष्ट्रीय स्वदेशी आन्दोलन की देन था .यह राष्ट्रीय’’ का क्या अर्थ भारत में होता है ,इस बात का ठोस रूप था .इस कालेज को भूमिहार नारायण कालेज भी कहा जाता .यहाँ संघी लोगो का जमावड़ा था प्रशासन में . इसलिए लडकियों का प्रवेश नहीं होता था .इसलिए इसे बिन नारी कालेज या बालिका नदारद कालेज भी कहा जाता .मै साइंस कालेज पटना में पढता था .वह बिहार का सबसे प्रतिष्ठित कालेज समझा जाता था .रास्ता अशोक राजपथ होते हुए साइंस कालेज जाता था .बीच रास्ते बी एन कालेज था .एक दिन कालेज जाते हुए मेरी सायकल बी एन कालेज के लडको ने रोक ली. मेरी जाति पूछी .मै तब बड़ा आदर्शवादी था .अब्बू ने जो सिखाया था ,बोल दिया –‘इन्सान’ .तभी एक लडके ने जोर से मेरे प्रजास्थान पर एक लात मारी.गाली देते हुए बोला छोटजतियन सब (छोटे जाति वाले लोग ) बड़ा ज्ञान छांटने लगा है ‘’. मै बिलबिला उठा .मैंने सायकल के लॉक से उनपर वार किया .मगर वे संख्या में ज्यादा थे .मुझे काबू में कर लिया गया .मेरी सायकल छीन ली गयी . मुझे सर गणेश दत्त की जय बोलने को कहा गया ,वे भूमिहार जाति के लीडर समझे जाते थे .मैंने इनकार कर दिया .इसपर मुझ पर लात जूतों की बारिश कर दी गयी .उन्हें लगा मै डर गया .उन्होंने कहा -कम से कम श्री बाबू (वे भी भूमिहार जाति के लीडर और बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री थे ) या स्वामी सहजानद ( ये भी भूमिहार जाति और किसानो के लीडर समझे जाते थे थे कि नहीं ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता इनका सम्पूर्ण वांग्मय भूमिहार जाति के एक कुलपति ने म.गा.अ.हि.विवि. की वेबसाइट पर डलवा रखा है ) की जय बोल दूँ .मैंने आहत जरुर था मगर डरा नहीं था .मेरे ताऊ जो लोरिकायन बहुत अच्छा गाते थे ,उन्होंने मुझे लोरिक की तरह अभय होना सिखलाया था .मरने से नहीं डरना चाहिए क्यूंकि हमारी जिंदगी में रखा ही क्या है जो इतना मोह रखा जाए .मैंने जय नहीं बोला . तब वे छोटी जाति के नेताओ को गाली देते हुए मुझे कोड़े से मारने लगे .सबसे ज्यादा आंबेडकर और कर्पूरी ठाकुर को गाली दे रहे थे .मुझे भगत सिंह पर बनी एक फिल्म की याद हो आई जिसमे अंग्रेज भगत सिंह को इसी बेरहमी से पिटते हैं .भगत सिंह जी का ध्यान आते ही मन और मजबूत हो गया .मैंने यथासंभव प्रतिरोध किया .उनके चंगुल से भागने का प्रयास किया .वे मुझे पिटते पिटते थक गए थे .मगर मै अड़ा रहा .अंत में हारकर गाली देते हुए उन्होंने कहा—‘कम से कम गाँधी जी की जय बोल दो तो छोड़ देंगे ‘.मैंने साफ़ इंकार कर दिया .जाने कहाँ से मुझमे ताकत और दृढ़ता आ गयी थी .तभी हमारे दोस्त पीछे से आ गए रंजीत दुसाध और मोहसिन खान .तीनो गुंडे छात्रो से लड़ने लगे और उसके चंगुल से भागने में सफल रहे .


मुझे रात भर नींद नहीं आई .मुझे सायकल का अफ़सोस न था .वह मैंने स्कालरशिप के पैसे से खरीदी थी .यह स्कॉलरशिप मुझे राष्ट्रीय प्रतिभा खोज परीक्षा में राज्य में प्रथम स्थान लाने पर मिलती थी . अफ़सोस मुझे सिर्फ अब्बू के पैसो के लिए होता था .वह हाड़तोड़ परिश्रम करते ताकि परिवार चल सके .वे अपने दोनों भाइयो के परिवारों की भी देखभाल करते .मैंने इस जातीय अपमान का बदला लेने के लिए कट्टे का इन्तेजाम किया .अब्बू की वजह से मैंने उसी उम्र में फ्रान्त्ज़ फैनन की किताब ‘’रेच्ड ऑफ़ द अर्थ’’ पढ़ रखी थी .इस किताब में पीडितो मजलूमों के वास्ते हिंसा की अनिवार्यता को बड़े तर्कसंगत ढंग से समझाया गया था .इस किताब से मै शदीद तौर पर मुतासिर हुआ था .मैंने मौका देखकर एक दिन सायकल छिनने वाले गिरोह के सरगना अरविन्द शर्मा ,सवर्ण छात्र नेता जो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुडा था, पर घात लगाया .मैंने उसे सायकल लौटाने को कहा .उसने बदले में माँ-बहिन की गाली दी .मैंने उसे सीधे गोली मार दी .बीच में मेरी क्लासमेट जयबुनिस्सा आ गई .निशाना गडबडा गया और गोली शर्मा की बांह छिलती हुई चली गई .पुलिस ने रिमांड में कुछ दिन रखा .मुझे साइंस कालेज से expelled कर दिया गया .मगर जुवेनाइल होने और शर्मा के बाल बाल बच जाने के कारण मुझे छोड़ दिया गया .अब्बू इस बीच बहुत परेशान रहे .वे हताश निराश थे .मुझे इस आफत से बचाने में उनके पसीने छुट गये .अब्बू जब पटना आये थे ,बिहार की शिक्षा मंत्री रह चुकी उमा पाण्डेय के मायके वाले मकान में किरायेदार के रूप में रहते थे और उनके छोटे भाई बहनों को मुफ्त में पढ़ा दिया करते .उमा पाण्डेय के हस्तक्षेप से मामला सुलझा .इस घटना के बाद मै बहुत गुमसुम रहता .एक दिन अब्बू ने बुलाया .देखा, रो रहे हैं .मै भी रोने लगा .मुझे निहारते रहे दम भर. फिर बस इतना बोले –‘मुझपर दया नहीं आती?’ मुझे बहुत धक्का लगा .मै अब्बू को बहुत प्यार करता था .जब भी जूता या जरुरत की कोई और चीज़ खरीदवाने बाजार ले जाते ,सबसे कम दाम वाली चीज़ पसंद करता ताकि उनके कम से कम पैसे खर्च हों .एकदिन अब्बू को मेरी यह चालाकी पता चल गयी तो बहुत रोते थे .बहरहाल अब्बू की बात के बाद मै बहुत संजीदा रहने लगा .सवेरे पांच बजे जग जाता .बर्तन साफ़ करता .फिर मुह हाथ धो कर पढने बैठ जाता .अब्बू को रोटियां बनाने में मदद करता .घर के सामने एक ब्राह्मण लडकी रहती थी .वह मुझे बर्तन मांजते हुए देख कर उपहास करती और अभद्र टिप्पणी करती .जैसे –‘’छोटजतिया पढ़ के तुम तो कुछ नहीं बनेगा ,तुम लोग का दिमाग घुटने में होता है, मगर होटल में बर्तन मांजने का नौकरी मिल जायेगा ,अच्छा pratice हो रहा है सवेरे सवेरे .या –‘’ मांज ले ,मांज ले .तुमलोग में मरदाना और जनाना में कउनो फरक नहीं है .मरदाना को जनाना का काम करना पड़ता है ‘’. किशोर उमर थी .मेरे मन को चोट लगती . मैने चार बजे जगना शुरू कर दिया .वह बहुत दुष्ट थी .उसने भी ताने कसने के लिए चार बजे उठना शुरू कर दिया .एक होड़ सी लग गई .जीता मै ही. मैने 3 बजे जगना शुरू कर दिया .दरअसल यह काम मेरी छोटी बहन किया करती .जिसपर आवारागर्दी के कारण मैंने ध्यान ही नहीं दिया था .मगर अब्बू के उस बात के बाद मेरा मिजाज ही बदल गया था .एक दिन उस नन्ही जान को झाड़ू देते देखा तो मेरी रुलाई छुट गई .उस दिन उसके हाथ से झाड़ू छीनी तो फिर पकड़ने न दिया .अब घर के काम-काज मै करता था .इससे मेरे अंदर परिश्रम की आदत पड़ गई. इससे मुझे पढाई में बहुत फायदा हुआ .मै नियमित 3 बजे जग जाता .बर्तन मांज देता ,झाड़ू दे देता, पानी भर देता ,घर को ठीक से सजा देता .फिर आटा गूँथ कर पढने बैठ जाता .मुझे रोटी पकाना नहीं आता था, अब्बू पकाते थे .छोटी बहन को पढाता. हम भाई बहन में कभी लड़ाई नहीं हुई .मेरे उच्चवर्णी दोस्त ऐसी लड़ाइयो के किस्से सुनाते तो मुझे समझ में नहीं आता.हमारे यहाँ तो इस लिए लड़ाई होती कि मै त्याग करूँगा तुम दुध पी लो.जीतते अब्बू.खुद न खाकर कभी कभी सब कुछ हम सबको खिला देते.इसलिए हमे दोपहर का भोजननाम की अमरकांत की कहानी कभी समझ में ना आई.वैसे छद्म की तो हम कल्पना ही नहीं कर सकते थे .गरीबी उनके लिए दुर्लभ दुःख था जिससे कहानियां जन्म लेती थी कभी परदातो कभी कहानी का प्लाट’.हमारे लिए यह एक स्वाभाविक तथ्य थी.इसलिए उनका साहित्य कभी हमारे काम का नहीं हो सकता.ईसा ने जो कहा कि सबको अपनी सलीब खुद उठानी होती है बहुत सही कहा .हमे अपना सत्य खुद रचना होगा.


शाम को अब्बू अक्सर पुस्तकालय से किताब ले आते . उनकी आंखे कमजोर हो गयीं थी .उन्हें पढ़कर सुनाता .उनके पैर दबा देता .मक्सिम गोर्की की माँऔर दानको का जलता हुआ हृदय मुझे पसंद आये .अब्बू के एक दोस्त थे इलाहाबाद के बाबा प्रसाद .वे मुझे बहुत मानते और होनहार समझते .उन्होंने मुझे सरिता प्रकाशन की पुस्तक हिन्दू समाज के पथभ्रष्टक-तुलसीदास पढने को दी .साथ ही अर्जक समाज की तमाम किताबे मुझे लाकर पढने को देते .जैसे ललई यादव द्वारा अनूदित परियार की किताब गडबड रामायण, रामस्वरूप वर्मा जी द्वारा लिखित मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक ‘’, आंबेडकर की जीवनी जिसे धनंजय कीर ने लिखा था .इस सबका मुझपर बहुत प्रभाव पड़ा.बाबा चचा से बहुत स्नेह था मुझे . वे खिचड़ी बहुत अच्छा पकाते थे .मेरी फरमाइश होने पर जरुर पकाते .मुझे आंबेडकर ,ज्योति फुले के किस्से सुनाते .जब मेरा इंटर का रिजल्ट बहुत अच्छा हुआ ,वे बहुत खुश हुए .सूबे में चौथा स्थान था .विज्ञान विषयों के आधार पर पहला .विज्ञान का विद्यार्थी होने पर भी हमे बिहार विद्यालय समिति के पाठ्यक्रमानुसार हिंदी,अंग्रेजी और उर्दू लेना पड़ता.उसी साल मेरा दाखिला भारत से सर्वप्रतिष्ठित तकनीकी संस्थान में हो गया .अब्बू बहुत खुश हुए .दफ्तर में उनकी इज्ज़त बढ़ गई थी .उनके सवर्ण बॉस ,जो हमेशा अब्बू का मजाक उड़ाते , का बेटा तीसरे प्रयत्न में भी प्रवेश परीक्षा में असफल रहा था .बाबा चचा ने खुश होकर ज्योति बा फुले की किताब गुलामगिरीभेंट की .मुझे बहुत अच्छा लगा .मेरे लिए बाबा चचा ही ज्योति बा थे .कैम्पस से ही नौकरी लग गई .हालाँकि वहां भी दबंग जाति के शिक्षको छात्रो ने बहुत परेशान किया .हालाँकि बाद में मेरी राय बनी कि अभियंत्रण संस्थानों की अपेक्षा मेडिकल कालेज के उच्च जाति छात्र ज्यादा दकियानूसी,रट्टूछाप , भोंदू तथा सामंती होते हैं .मेरे उच्चजाति सहपाठियो में राजपूत और कायस्थ जाति के लोगो ने मेरे साथ सबसे अच्छा व्यवहार किया .मेरे गहरे मित्र भी बने .नौकरी लगने के कारण आर्थिक कष्ट दूर हो गये .मगर सामाजिक कष्ट बढ़ गये .सभ्य समाज में मुझे अवांछित गवार ,पिछड़ा और भोंदू समझा जाता.इस पर आश्चर्य व्यक्त किया जाता कि मैंने मैकेनिकल फेलियर के नए सिद्धांत कैसे निकाल दिए .जर्मनी से आया कंसलटेंट मुझसे प्रभावित क्यों है और मुझे मेधावी क्यों समझता है जबकि मै तथाकथित छोटी जाति का होने के कारण भोंकू हूँ, जिसे ढंग से शर्ट पहनने नहीं आता. जबकि मुझे लगता शिल्पी जाति से होने के कारण मेरा यहाँ excel करना स्वाभाविक है .मुझे लगता मै उनसे ज्यादा आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला हूँ .मेरा हाल दोस्तोवोस्की के पात्र बोझोरोव जैसा था .मेरे लिए थोडा शकून का विषय मेरे महिला सहकर्मियों की राय थी .वे मुझे बहुत आधुनिक और तार्किक समझती .मुझे उनके ड्रेस से कोई मतलब नहीं था .इस बात की वे तारीफ करती .मेरा आत्मविश्वास इससे कुछ दृढ हुआ .यह एक तवील किस्सा है और मुस्तकबिल में कभी तफसील से इसपर लिखूंगा .


फ़िलहाल किस्सा कोताह यह कि प्रतिक्रियावादी संघी तो मुझसे घृणा करते ही ,उदारवादी उच्चवर्णी लोग मुझसे उनसे भी ज्यादा घृणा करते .वे चाहते थे मै हमेशा दयनीय बना रहूँ .हममें से जो दयनीय थे ,उनपर वे उदारवादी गाँधीवादी तथाकथित उच्चवर्णी जान छिडकते .मगर हममे से जो स्वतंत्रचेता थे, उनकी आंख की किरकिरी थे .मेरा भी यह स्वतंत्र दुस्साहसी व्यक्तित्व इन्हें पसंद न था .उन्हें रैदास पसंद था जबकि मै कबीर था .फ्रायड ने गहरी घृणा के फलस्वरुप उपजने वाले जिस घोर प्यार की चर्चा अपने Interpretation of Dream में की है ,वैसा ही आत्यंतिक गांधीवादी प्रेम वे हमे करते .हमारे अपने लोग उसी जहालत में पड़े थे .गैर ज्यादा कलावंत और विकसित था .मगर गैर मुझे शरणागत होने की शर्त पर , निषाद सा रीढ़हीन भक्त होकर चरण धोने की शर्त पर ही अपनाने को तैयार था .मैंने इस फ्रायडीय प्रेम से इंकार कर दिया .फलतः मै खिलवतनशी हो रहा .


अब्बू देखते कि मै किताबो में ही डूबा रहता हूँ .उन्होंने जहालत में पड़े अपनों के लिए कुछ करने की सलाह दी .कहा कि तुम्हारा पढ़ाने में जी लगता है ,कोई संस्थान हो खोल लो .मै सुधारवाद के खिलाफ था .मै रेडिकल इन्कलाब चाहता था .अब्बू से तीखी झडपे हुई.तभी नारीवादी जर्मन ग्रेएर का इंटरव्यू पढ़ा जिसमे उन्होंने सुधारवाद की वकालत इस बिना पर की थी कि सुधारवाद ही रेडिकल चेंज की जमीन तैयार करता है .कुछ जर्मन ग्रेएर की तासीर, कुछ ज्योति बा फुले का जीवन और सबसे ज्यादा अब्बू की उल्फत ने मेरा मन बदल दिया .मैंने मरहूमा मा के नाम पर एक ट्रस्ट खोला. इधर कुछ फ्रेंच और रुसी लोगो को शौकिया उर्दू और हिंदी पढाता था .उनमे से दो ने मेरी बहुत मदद की निको रईस और लौरेंट पोपोव .गणित ,हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी विषयों को लेकर पढाना शुरू किया ugc-NET परीक्षा के लिए .ज्योति बा फुले को फॉलो करते हुए मैंने सबके लिए दरवाजे खुले रखे ,मगर आये ज्यादातर अपने ही लोग .वस्तुतः इसे मुफ्त कोचिंग जान इसे इन्होने दोयम तियम दर्जे का समझा गया. हतोत्साहित न हो मैंने सीमित साधनों के साथ अपना काम निको के साथ मिलकर शुरू कर दिया .मै उस समय दंग रह गया जब मेरे दर्ज़न भर विद्यार्थियों में सारे के सारे UGC-NET परीक्षा में क्वालीफाई कर गये .बड़ी मसर्रत हुई .हम चार फैकल्टी को आत्मिक तोष मिला .इस बाबत एक स्टेटस फेसबुक पर डाला .सबसे उर्जस्वित भावोद्विग्न सन्देश अनीता भारती का मिला .मन भींग गया .बार बार पुष्पा केरकेट्टा का ध्यान आता जो एक दातून बेचने वाली आदिवासी की लड़की थी जिसके प्रति मेरा विशेष स्नेह था .उसने हिंदी से परीक्षा देकर बहुत अच्छे अंको से सामान्य श्रेणी में JRF के लिए क्वालीफाई किया था .हिंदी उसके लिए लगभग पराई भाषा थी .उसकी मातृभाषा खड़िया थी .वह उदास उदास सी रहती थी . मगर जब रिजल्ट आया बहुत खुश थी .वह बाद में रांची चली गई.फिर एक दिन उसका फोन आयामै कोलकाता आपसे मिलने आ रही हूँ .वह मेरे काम में सहयोग करना चाहती थी .बहुत कम बोलने वाली वह लडकी उस दिन जब मुझसे मिलनी आई ,तब दामोदर नदी सी क्षिप्र धारा उसकी भाषा में प्रविष्ट हो गई थी .वह खड़िया मिश्रित हिंदी में बोलती जा रही थी .उसके शब्द लोरी से लगे ,मुझे .नींद आ गई .नींद खुली तो वह मेरे लिए जामुन ले आई थी तोड़कर अपने गाँव से ,वह लिए बैठी थी .उसने जामुन चखे नहीं थे ,यह पता करने के लिए कि खट्टे हैं कि मीठे ? उसे एतबार था खट्टे भी हों तो प्यार से ही खाऊंगा इसलिए कि मै भी उसी का गोतिया दयाद हूँ .हमारे लिए जिंदगी का इतना नखरा नहीं है .हम आदिवासी हैं .


दुनिया में केरकेट्टाएं हैं कि जिंदगी भली लगती है .


                              ..... जय प्रकाश फकीर (फकीर जय)


               “वी आल आर स्टार्स’ के फेसबुक वाल से साभार