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बुधवार, 6 मार्च 2013

बहुत उदास है गुरुदत्त इन दिनों - अक्षय पाण्डेय





अक्षय’ से मेरा भी यह पहला ही परिचय है , और मुझे यकीन है कि आपमें से भी अधिकाँश पाठकों का उनसे यह पहला ही परिचय होगा | उनकी ये कवितायें गाजीपुर से निकलने वाली पत्रिका ‘समकालीन सोच’ के इस अंक में में छपी हैं |  इन कविताओं वह ताजगी और बात नजर आती है , जिसकी समकालीन कविता को आज सख्त जरुरत है , और यही सोचकर मैं इन्हें ‘सिताब दियारा’ के पाठकों तक ले आया हूँ |

           तो प्रस्तुत है प्रतिभाशाली युवा कवि अक्षय पाण्डेय की कवितायें



एक .....

वह बालिग लड़की

यह
कविता में ईमानदारी पर
बहस शुरू करने का समय नहीं
न ही यह पूछने का
कि हत्या किसने की
किसने मिटाए
शिनाख्त के सारे साक्ष्य
किसने जलाया उस गरीब का घर
क्यों  गई नसीमन गाँव छोड़कर
कैसे पागल हुई सलोनी

कुछ दिनों के लिए
तहकर रख दो
संदूक में  
सारे देदीप्यमान चेहरे
ऊॅंचे आदर्श
रंगीन आर्षवाक्य

यह वक्त है
खूंटियों पर नंगा यथार्थ टांगने का
कि हॅंस रहे हैं भींगे हुए लोग
और भींग गए हैं रोते-रोते लोग
कि चूल्हे की मीठी दवॅंक
एक गमकती नेह-पाती
सुबह की सुथरी हवा
बीमार जिन्दगी की अचूक दवा
नहीं रही कविता

वे दिन लद गये
लाल टोपी
आसमानी स्वेटर वाला ,
थेथर अंधेरा सामने खड़ा है
सीना ताने

यह खून में सना हुआ सच है
कि
वह: बालिग लड़की-
कल तक कविता के पक्ष में थी
आज बलात्कारियों के पक्ष में है,               
अब नहीं मानती
सिन्दूर को सिन्दूर
मेंहदी को मेंहदी
फूल को फूल
नदी को नदी

वह, दिल को दीवार
समय को बाजार कहने लगी है ,
तुलसी को बाम्हन
कबीर को जोलहा
और रैदास को चमारकहने लगी है।


दो ....

अब गाँव वैसा नहीं रहा      

जिन्दा हैं जो लोग
अपनी सफेद मूंछो की मालगुजारी पर ,
सो रहे हैं
पसारकर धूप में आईना

मैं तुम्हारी आत्मा की दहलीज पर
एक साबुत कंदील जलाना चाहता हूँ
मिन्टू !
उर्वर नहीं रही पुरखों के ईमान की मिट्टी
चिड़िया गाती थी बसंत कभी
हरे पत्ते काम आते थे बुरे वक्त में
हर किसी के भीतर थी एक मुरमुरी थिरकन
हर किसी के भीतर था एक मीठा ताल
अब गाँव वैसा नहीं रहा
मिन्टू !

नहीं रहा अब गाँव वैसा
कि दिन के सारे दुःख-दर्द भुला
रात में हरखू ढोल बजाये
चैता गाये
नहीं रहे लोग
कबूतर की गुटरगू
चींटियों की भाषा समझने वाले
नोनछहीं ईटों की तरह
भसक गया है सबकुछ
सत्य सनेह साहस सुघराई जिद जिजीविषा
रोशनी की झीनी चादर से
ढके हुए था कभी
पूरे गाँव को
एक शालीन मुहावरा
अब गाँव वैसा नहीं रहा
मिन्टू !

बजने लगा है बाजार
खून में
वायलिन बनकर,
सड़क की तरह सपाट
काली हो गई जिन्दगी
ऊपर चढ़ता जा रहा है
आचरण का नंगापन
बदबू ढोने लगी है हवा
लूट ले गये लुटेरे
फूलों की खुशबू
फलों की मिठास
रोशनी की आखिरी किश्त
बची हुई आग
बचा क्या है ,
थूक गया है समय
हमारी हद में
सम्पूर्ण अंधेरा
अब गाँव वैसा नहीं रहा
मिन्टू !

ध्यान से सुनो
मैं तुम्हीं से पूछ रहा हूँ
कब मरेगी
तुम्हारे खून में खड़ी अभंग मुद्रा
कब हॅंसेगी
तुम्हारे भीतर की रुआंसी नदी
कब चुभेगा
तुम्हारी आँखों में  
थके हुए पानी का उदास रंग
मैं तुम्हीं से पूछ रहा हूँ
कब चुभेगा
आखिर कब चुभेगा
मिन्टू !
                       

तीन

बहुत उदास है गुरुदत्त इन दिनों   

बूढ़ी लोकोक्तियां थककर सो गईं हैं
सूरज के पैताने
बेजार हवा थपथपा रही है पीठ
एक युवा-कंधा उतरता है
भीड़ की गहरी उदासी में
चार सीढ़ियां
और पूछता है
बीती तिथियों का हाल-चाल
मरे हुए सपनों को जिन्दा करने की जुगत
बहुत उदास है गुरुदत्त इन दिनों |

जलते मौसम में
रीत गए हैं मंगल-कलश,
मानने लगा है अब
यह संभव नहीं
कि किसी की हत्या न हो
कोई भी भूखा न सोए
सबके हाथों में कारतूस की जगह
वह कविता हो
जो साबुत रखती थी खून में बसंत
जंगल नदी सागर पहाड़
कोयल की कूक
शेर की दहाड़
यह संभव नहीं

मानने लगा है
बौनी हो गई है
आँख , नाक और पानी की परिभाषा
अब
नहीं उतरेंगे गिद्ध धरती पर
सड़ेगा समय
मरे हुए ढोर की तरह
बहुत उदास है गुरुदत्त इन दिनों

बीच बाजार में
जी रहा है
लाभ और शुभ का वजन
गिरे हुए ईमान की ऊॅंचाई
घटे हुए भाव की बौखलाहट
टूटे हुए शब्दों का दर्द
सार्थक संवादों की खुदकुशी

कविता को
छत के मुहावरे से कूदकर मरी हुई
काली कुतिया कहता है अब
सुर्ख रंग में सफेद मिला
नहीं रंगता
खिड़की रोशनदान दरो-दीवार
बहुत उदास है गुरुदत्त इन दिनों

उदास कुछ इस तरह
कि ऊॅंची इमारतों में टंगे
दिन के उजाले में
हॅंसते संभ्रान्त चेहरे,
रात के अंधेरे में
बेहद खूंखार नजर आते हैं

उदास कुछ इस तरह
कि चमन के सारे गुलाब
रंगों के दलाल
और
हरे पत्ते कटार नजर आते हैं ।

                  
चार

कैसे हैं वे लोग 

उन्हें अच्छा नहीं लगता
मेरा
ऐसे समाचार पूछना
कि हवा कैसी है
पानी कितना बचा है
कितना बचा है कलकत्ता
कोलकाता में
कैसा है हावड़ा पुल
सभी लोहे सलामत तो हैं
चिटके तो नहीं
आदमकद आईने
जो मंदिरों में लगे थे
शहर के दांत और नाखून का स्वास्थ्य कैसा है
घर के बूढों का चश्मा बना कि नहीं
फटे कि नहीं
खूंटियों पर टंगे रंगीन उदास चेहरे

कैसे हैं वे लोग
जो भूख के लिए
भाषा और भुजा को नहीं
भाग्य और भूगोल को दोषी ठहराते थे ,
जो फुटपाथों पर बैठकर
बची हुई उम्र चबाते थे?
                       

 नोट -- 'पेंटिंग - 'वान गाग' की है                                               


परिचय और संपर्क         

अक्षय कुमार पाण्डेय

रेवतीपुर (रंजीत मुहल्ला)
गाजीपुर-232328 (0प्र0)
मो0- 09450720229
             





                                           अक्षय पाण्डेय