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रविवार, 11 मई 2014

'अमृत सागर' की कवितायें

                          अमृत सागर 


‘अमृत सागर’ की कवितायें आप पहले भी ‘सिताब दियारा’ ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं | बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी इस होनहार युवा से आपकी ही तरह हमें भी काफी उम्मीदें हैं | कारण यह कि एक तो उनके विचारों का दायरा काफी व्यापक है, और दूसरे उन विचारों को कविताओं में पिरोने का हुनर भी | वे अपने दौर से वाकिफ है कि इस शहर के सामने आज कौन सी जिम्मेदारियां आन पड़ी हैं | वे अपने परिवेश के उस रास्ते से भी वाकिफ हैं, जिसमें इस शहर के लोग बस जाते ही हैं, उनमे से लौटता कोई नहीं | और उन संवेदनाओं से समृद्ध भी, जो भावुकतापूर्ण अतिरेकों से बढ़कर प्यार की सच्ची अनुभूतियों को जीती हैं | आभार सहित ........



  प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर युवा कवि ‘अमृत सागर’ की कवितायें



( प्रेमचंद, मुक्तिबोध, आलोक धन्वा, रसूल हमजातोव
और उस रात की बहस को याद करते हुए
जो शायद कभी खत्म नहीं होगी ! )

 
एक ....

मेरा शहर: कभी न खत्म होने वाली बहस!
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पार्टनर! चुप्प रहो!
मुझे आलोक है..
कि हर बहसों का अंत हत्याओं में होता है!

मैं जानता हूँ!
तुम्हे मरी मछलियों से प्रेम है
इसके सिवा तुमने किया ही क्या है!
लेकिन क्या कभी तुमने सोचा है उनके बारे में
जिन्होंने दुर्गंधों की कसमें खायीं!

शायद! तुमने अपनी कलम में
केसरिया स्याही भर ली है
और मुठ्ठियों में छुपा रखी है
पंजों की अंतड़ियाँ!
क्या वाकई! तुमने मुखौटों के पीछे मुखौटा लगा रखा है!

कभी तुमने सोचा!
कि तेजाबी बारिश होगी तो क्या होगा ? उन सिंहासनो का
जिसे रेत से भींची मुठ्ठियों ने
डूबते सूरज की गवाही पर कराया था खाली !

क्या, हिमालय से उड़ी टीटीहरी के पंख
कंकडों के सहारे करेंगे मुकाबला
'काशी की अस्सी' पर बोई जा रही सफ़ेद फसलों
और मुंह में दबे लाल रंग का

क्या आसान नहीं है आज
कर्ण के बजाये युधिष्ठिर बन जाना!
कोई है जो अर्जुन नही कर्ण बनना चाहता हो ?
जो इन्द्र को कवच कुंडल देने के बाद
मरते वक्त अंजुरियों में डाल सकता हो, सोने का दांत!

शायद!
मैं जवाब जानता हूँ!
क्योंकि यह सवाल खुद के लिए भी तो है!
और यह भी जानता हूँ कि
शायद! मेरी बिना शर्त रिहाई कर दी जाये...
जिसके बाद छोड़ दी जाए
मेरी पीठ पर एक जोड़ी सुर्ख लोहे की आँखें!
 
फिर भी लथपथ सवाल!
घिसटता रहेगा!
कि क्या तुम्हारा रंगभूमि से सम्बन्ध
सूरदास की मड़ई जैसा है ?

क्योंकि ऐ रसूल
ये मेरा दागिस्तान है!
और मेरा शहर..
कभी न खत्म होने वाली बहस!

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​​
-----------------------------------------------

दो ...

बनबनाता बनारस
-------------------------------


कलम के बजाये
स्याही की बात करिए !
ढोलक के बजाये
मुनादी की बात करिए !

कान खोल कर
जरा ध्यान से सुनिए!
उसके आने की थाप
अब तो..सीढी के बजाये
सांड की बात करिए !

क्योंकि गंगा के उस पार खड़ा व्यक्ति
उतना खतरनाक नहीं
जितना इस पार खड़ा व्यक्ति है
जो न गंगा के साथ है
और न किसी किनारे के साथ है
वह तो असल में
उस झक्क रेती के साथ है
जो पसर रही है हमारे रगों में
जिससे सिकुड़ रही है यह अविरल धारा!
सुख गये अंतड़ियों की हद तक !

जिसपर लगातार भनभनाती मधुमक्खियां
और गंगा में गिरती
रूढ़िगत दुर्गन्धों से बजबजाती सामंती नालियां
दम घोंट रही हैं घंटियों, घाटों और अजान का

धारदार सपनो और चाशनीदार वादों
में बुझे हथियारों से रेता जा रहा है गला
तहजीब और आदमजात का

आसमानी जहाजों से उड़ाई जा रही धूल से
सराबोर हैं चौरासी घाटों की सीढियां
और जबान की किरकिराहट श्वासनलियों से होते हुए
फेफड़ों में बनती जा रही है गाद

फिर भी सिर उठाये
किनारे के कीचड़ में अकड़े पड़े हैं
मुखौटों से लदे सफ़ेद सारस
यही है बनबनाता बनारस!




तीन

पलायन जारी है!

डूबते सूरज के साथ घर से निकलना
और पगडंडियों को छोड़ मिल जाना
निरंतर चौड़ी होती सड़कों में

रंगों का भी हल्का हो जाना
मानो पुते चेहरों की दूसरी सुबह ही
आँखें, रंगों को पहचानने से इनकार कर रही हों!

कुछ आँखों का ठहरे हुए
रास्तों की ओर टकटकी लगाये
देर तक निहारते रहना
जैसे सड़क कुछ देर में
समा जाएगी अपने अंतिम बिंदु में

तने कंधों और पीठ पर उग आये
चेहरों से डर कर भागते
खेत, खलिहान, पेड़ और क्यारियां
नदी, नहर, नाले, कुँए और नालियां

कुछ साल पहले सारंडा के जंगलों के बीच से
सिकोह:णम भी निकला था इसी तरह..
पर वो हमेशा लौट आता है!
खेतों की मेढ बनाने, नाचने और पिट्ठु खेलने

आखिर तुम क्यों नहीं आते!
जबकि तुम्हारी कलम ने लिखा था कि
जाना हिंदी की सबसे खौफ़नाक क्रिया है!

क्या गेहूं की बाली, धान की लड़ी
अरहर की फसल और मटर की फली..
लिसलिसी और दलदली शहरी जमीन ही हो सकती है ?

आखिर क्यों कपास के फूल मजबूर हैं
रस्सियाँ बट्टने के लिए और व्यस्त हैं हल
खोदने को दो गज जमीन
और जिसका अंत...
उन्हीं रस्सियों पर हलों का लटक जाना!

चाक और उसर तहखानों में बदल गये खेतों पर लटके हैं
भेड़िये शहर से लाये गये सरकारी आंकड़ों के ताले
जिसमें बंद है एक-दुसरे में सिमट गये
थरथरथराते रोटी, कपड़ा और मकान

जबकि पुरानी घड़ियों पर
अब नया समय भारी है!
पलायन जारी है, पलायन जारी है!

गांव का कस्बों की ओर
कस्बों का शहरों की ओर
शहरों का महानगरों की ओर
महानगरों का...?

अभी ये सवाल ठहरा हुआ है!
कुछ पल के लिए
जिसका जवाब बस पृथ्वी जानती है
पर वो भी भाग रही हम सब के साथ
रेतघड़ी की दरकती रेत को
अपनी मुठ्ठी में भींचे
न जाने कहाँ ?

बस शेष है..
पलायन अपनी जड़ों से
पलायन जारी है, पलायन जारी है!

-----------------------------------------------------------------------------------------
चार .....
​​
माँ ......... ‘अब लौट आ ना​’

------------------------

माँ
​ !  तू हमें पहचान क्यों नहीं पाती​
 ​ !
क्यों तू अपनी रसोई की गर्म कढ़ाई सी हो गई है
जिसमें हमारा उजास अहसास भी
चेहरे पर कालिख पोत लेता है​
​!

माँ !  तू जानती है ?
पिता जी भी गर्म तवे से हो गयें हैं !
और गुड़िया-सोना गीले आटे से
माँ ! अब मुझसे आस की रोटियां नहीं बनती
हाथों के फफोले अब मेरी सांसों तक फैलने लगे हैं !

माँ ! मैं अब रोज ही दुनिया की अँधेरी दीवारों से टकराता हूँ !
कि दिल के दर्द से मेरे तन का दर्द बढ़ जाये
पर तेरी याद मेरे ज़ेहन में पत्थर सी बंध जाती है ​
और मैं दर्द की तलहटी में तड़पता सा बैठ जाता हूँ

माँ ! तू बुत सी क्यों बन गयी है?
जिसके आगे आरती की थाल लिए
मैं कपूर सा पिघल रहा हूँ
और जुबां, कभी न खत्म होने वाली
प्रार्थना में उलझी चली जा रही है !

माँ ! मैं  अब रोज बनाता हूँ तेरी यादों की क्यारियां
पर उग आती हैं दर्द की घनी बंसवारियां
जहाँ से रोज ही मेरी नींद गुजरने में
होती है पसीने-पसीने
और थरथराती रहती है, घंटों खुली आँखों में !

माँ ! अब लौट आओ ना
तेरे न होने से हमारा रिक्त होना
अब निर्वात गढ़ने लगा है
जिसमें न जाने कितने सौरमंडल
और आकाश-गंगाएं समा जायें !

माँ ! मैं जानता हूँ ऐसा क्यों है
माँ तूने अपने हाथों में
अपनी माँ को सात आसमानों के ऊपर
रूई के फाहों की दुनिया में जाते देखा था !
पर इसमें हमारी गलती क्या है !
क्यों तू अटकी है दो दुनिया के बीच !

माँ! मैं अब कभी न करूँगा ज़िद्द
तीन रोटी की, मोम रंग की
नये स्कूल ड्रेस की
और नहीं उड़ाउंगा पतंग !
माँ ! मन अब सब में हूँ रजामंद !

माँ ! अब लौट आओ ना !
अब लौट आओ ना, लौट आओ ना !


( उस दौर को याद करते हुए,
जब माँ को मानसिक बीमारी हो गयी थी,
जब आँखों के सामने अँधेरा छाया रहता था
और वक्त काटे नहीं कटता था )



परिचय और संपर्क

अमृत सागर

जन्म स्थान – बलिया
शिक्षा – बलिया और वाराणसी में
पत्रकारिता में गहरी रूचि
‘बागी बिगुल’ ब्लॉग का सञ्चालन
मो. न. - 09415659631


शनिवार, 19 अक्टूबर 2013

अमृत सागर’ की कवितायें





उत्साह और जज्बे से लबरेज युवा लेखक ‘अमृत सागर’ पहली बार ‘सिताब दियारा’ ब्लॉग पर  उपस्थित हो रहे हैं | अपने जिले के इस होनहार युवा लेखक में मुझे बहुत संभावनाएं दिखाई देती हैं | खासकर पत्रकारिता के उनके अपने पेशे में , जिससे वे आते हैं , और जिसकी जमीन आज सालने वाले स्तर तक बंजर बनती जा रही है | ‘अमृत’ इस जिले के उन कुछ गिने-चुने युवाओं में शामिल हैं , जो अपने ब्लॉग के सहारे आम-अवाम की चिंताओं को मुखरित करते रहते हैं | हमारे लिए यह दोहरी ख़ुशी का बात है , कि आज उनका जन्मदिन भी है | सिताब दियारा ब्लॉग इस अवसर पर उन्हें ढेर सारी शुभकामनाएं प्रेषित करता है , और साथ ही साथ यह उम्मीद भी कि वे आगे भी ‘सिताब दियारा’ के साथ अपना सहयोग बनाए रखेंगे | 

          प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर ‘अमृत सागर’ की कवितायें  


एक ....
                    
कई जोड़ी आँखें !

अल सुबह तोड़ देती हैं नींद का फरमान
कदम निकल पड़ते हैं सड़कों पर रास्ता बनाते

ये आँखें सूरज पर रोज ही टिकती हैं
इस आस में कि निवाला जुटा सके
हाथों को पीट कर ,पीठों पर चढ़ कर

शहर के लेबर चौराहे गवाह हैं
इन आँखों के उठने और झुकने के
सूखने और अनंत में खो जाने के

ये मजदूरी आँखे आज भी
आस का पानी लिए निहारेंगी
उन्हें नहीं पता मार्क्स और एंगल की
किताबों और घोषणापत्रों का
मजदूर दिवस के नारों का
कैलेण्डर में हर साल आने वाले एक मई का

क्रांतियों के इतिहास और आसरों से बेखबर
इन कई जोड़ी आँखों पर आज कई कसीदे पढ़े जायेंगे
कई नामों के पीछे 'वाद' सटा कर आग उगले जायेंगे
फिर भी कई जोड़ी आँखें लेबर चौराहों पर
सूरज को निहारते सूख जायेंगी
और जारी रहेगी मजदूरों के हक़ और हुकुक की लड़ाई

दो ...

अकुलाहटें!

अकुलाहटों का आकार बढ़ता ही जाता है
कि दशकों ने धकेला है विचारों को

सब क्रांतियों कि साजिश हैं..
मंद हो तोड़ती हैं दम  जानें कितनी कोशिशें
कि करिश्मा है..चलन की सामाजिकता का

हुक्मरानों कि दैवीयता लांघती है
हाब्स लाक रूसो की चुनौतियों को
अब जाने कितने लुई रौंदते हैं इन हिंदी पट्टियों को

फिर भी एक आसरा था चौथे खम्भे का
जो कि 'आजकलताज में ही सोचना मुफीद करता हैं

तीन ....

हो सकता है!


हो सकता है!

मान लूँ तेरी सभी शर्तें !

कस दूँ सभी अरमानों के गिरेबां

जमीं के हवाले कर दूँ नजरों के तीरों-निशां

फाड़ दूँ आस्तीनों में बनी सपनों की जेबें

अपनी जिद्द को चढ़ा दूँ सूली पे

बना लूँ तुझसे कई प्रकाशवर्षों की दूरी


ग़र दिला दो भरोसा!!

कि आसुओँ मेँ डूबेगा नहीं कोई मंजर

माथे पर चमकेगी कोई शिकन 

सुनी जाएगी अन्तःकरण की 

हर गमकती सरसराहट 

छुटेगा तड़प-तड़प के दम

और ही इस्तेमाल होगा कोई 'तरीका'


हो सकता है!

ढाल लूँ खुद को तेरे अक्श में!

वही माथे पर चुहचुहाता पसीना

हर चौखट खटखटाती 

पुरवाई सी सांसें

तालुओं से चिपकती साफ़गोई

विभाजित रेखाओं को मिटाती बेफ़िक्री


ग़र मिटा दो मेरी यादों से 

वो गुनगुनाती खुशनुमाँ रात

तुझसे सब बोल देने की बेकरारी

मेरे जेहन में तैरते तेरे लिखे हजारों शब्द

तेरी ओर देखने की कसमसाहट

मेरी नजरों में कहीं छिप कर बैठी 

तेरी निश्छल मुस्कराहट...


चार ...

दोस्ती
--------
आज भी हतप्रभ सा सोचता हूँ
कैसे तू रचता था अपना संसार
आखिर इतने भारी कैसे थे
तेरी बातों की पोटलियाँ और चुटकुलों के संदूक
-
कैसे बना लेता था तू अपने अड्डे
जो होते थे शांत पर समेटे सारा अद्भुत संसार
घंटों उसमें पैठना और तैरते रहना
फिर सूखे ही निकल आना
-
कितनी पहेलियाँ थी तुम्हारे पिटारे में
कंचे, रंगीन चुडियां, ऊन के गुच्छे
पेन के ढक्कन, छोटे-बड़े बटन....
जिससे तू अचानक ही खड़ा कर लेता एक नई दुनिया
-
उस घड़ी क्यों?
दो बूंद पड़ते ही मिट्टी की सोंधी महक
शरीर में करंट उतार देती थी
और नंगे पांव पंख बन जाते थे
-
क्यों छत का सीलन भरा कमरा
सारा आकाश था
घर के पीछे वाली दीवाल में
क्या मोहपाश था
-
जहां बतियाते-गप्पियाते थे हम
'
नीली' और 'सफ़ेद' बातें
जिसे सुन मेरे शरीर में झुरझुरी सी उठती थी
और तू लाल हो लोटने लगता था
-
छोटी गली के ओट में
सुर्ख दोपहरी बिताना
बहबियानो में दुनिया से बेखबर
अपनी तिलंगी उड़ाना
-
कभी असमय तेरा मेरे पास आना
और घंटों चुप्पी को तकिया बनाना
पीछे के बगीचे को मेरे छत से
देर शाम तक निहारना
-
बिजली बनाती आँखों के तटबंधों को
अचानक खोल देना
निश्छल सैलाब को बहा देना
फिर दोस्ती के मांझे को पैना करना
--
अब, जब दोस्ती सुनता हूँ!
याद आते हैं तेरे कहकहे!
जब-जब तुझे ढूंढता हूँ!
याद आते हैं तेरे बतकहे!
.....................................
                    

पांच ...

यादे !

अब अक्सर ही
लम्बी और स्याह रातों में
जला लेता हूँ
तेरी दस्तावेजी यादों की
अधजली मोमबत्तियां

अपने गीले बिस्तर में
सिकुड़ जाता हूँ
इस डर से कि
कहीं चुटकीभर उजाला भी
सरक जाये
मेरी आगोश से

जिसे देख गम के बादल
उमड़ पड़े बेसाख्ता
लेने को आलिंगन
और देर तक
उस दरिया में
डूबता-उतरता रहूँ मैं

फिर तान लेता हूँ
तेरे शब्दों की चादर
और बिखेर देता हूँ
तेरी मुस्कुराहटों की खुशबु
तब बंद आँखों में
चलाता हूँ कल्पना की कुंची

तराशता हूँ
तेरे सारे अक्श
और रख लेता हूँ
साझा सपनो के बीच
पलकों के बंद तहखानों में


परिचय और संपर्क

अमृत सागर

बलिया में जन्म 
शिक्षा – बलिया और वाराणसी से
पत्रकारिता में गहरी रूचि
ब्लॉग – ‘बागी बिगुल’ का सञ्चालन
मो.न. - 09415659631