भरत तिवारी 'शजर'
मुक्त छंद वाले कविता के इस दौर में गजलों की अहमियत काफी बढ़
गयी है | इसका एक कारण तो इनकी लयात्मकता और रिदम है , जिसके कारण आधुनिक कविता के
बरक्स ये पाठक से सीधे-सीधे जुड़ती हैं , लेकिन दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह
है , कि इन्होने अपने आपको हाला और प्रेमिका की जुल्फों से निकालकर दुष्यंत कुमार
और अदम गौंडवी के साथ , कविता की जनवादी परम्परा से जोड़ लिया है | भरत तिवारी ‘शजर’
की ये गजलें भी उसी गौरवशाली परंपरा का निर्वाह करती हैं , जिसने हिंदी में इस
विधा को इतना चमकदार और महत्वपूर्ण बनाया है |
तो प्रस्तुत है
सिताब दियारा ब्लाग पर युवा गजलकार भरत तिवारी ‘शजर’ की पांच गजलें
एक....
ये कैसा मौसम बना रहे हो
गुलों में दहशत उगा रहे हो
धरम को पासा बना रहे हो
ये खेल कैसा खिला रहे हो
खुद तो घुटनों पे चल रहे हो
सम्हलना हमको सिखा रहे हो
ज़मीर जाहिल बना हुआ है
ये इल्म कैसा सिखा रहे हो
हक़ तो ये है तुम आज नाहक़
गुलों पे ये हक़ जमा रहे हो
खुली हैं आँखें ‘शजर’ है जिंदा
क्यों अपनी शामत बुला रहे हो
दो ....
चमकते चाँद को गरहन लगाना काम है उसका
दुकानें रौशनी की फ़िर सजाना काम है उसका
शहर की आग गाँवों में लगाना काम है उसका
हमारे खेतों को बंजर बनाना काम है उसका
सरे महफ़िल कहेगा दाल रोटी के भी लाले हैं
मगर चुपचाप मुर्गे को उड़ाना काम है उसका
गुसलखाने कि दीवारें तिज़ोरी से नहीं कमतर
वहाँ भी ईंट सोने की लगाना काम है उसका
नहीं पहचान पाओगे शक्ल-ओ सूरत करो कोशिश
लगाना आग पहले फ़िर बुझाना काम है उसका
रहीम-ओ-राम इनके वास्ते सत्ता की हैं कुँजी
धरम के नाम पर सबको लड़ाना काम है उसका
हमें अपना बना कर फायदा वो खुब उठाता है
लगी बाज़ी नहीं के भूल जाना काम है उसका
बना कर कागजों पर खेत कहता है करो खेती
नदी की घार पर कब्ज़ा जमाना काम है उसका
‘शजर’ दिखता नहीं अपने सिवा उसको
जहाँ में कुछ
हमारे हक़ कि रोटी लूट खाना काम है उसका
तीन ....
किस को नज़र करें अपनी नज़र यहाँ
इक ख्वाब जो सजाया बरपा कहर यहाँ
कुछ तो सवाब के तू भी काम कर यहाँ
दो - चार दिनों की है सबकी बसर यहाँ
हमने मकान की इक ईंट थी रखी
बदला तिरा इरादा, छूटा शहर यहाँ
मजबूत है अकीदा रब इश्क में मिला
मजबूरि-ओ चालाकी है बे-असर यहाँ
हर शय चला रहा जो आता नहीं नज़र
किसको दिखा रहा तू अपना हुनर यहाँ
वो दोस्ती न करना जो ना निभा सको
आसां नहीं परखना सबका जिगर यहाँ
तुम खेल खूब खेलो वाकिफ़ रहो मगर
आशिक नहीं रहा अब तेरा ‘शजर’ यहाँ
चार ....
उसे ही तलाशा जो छुपता नहीं
मगर ना मिला वो जो छुपता नहीं
कहानी मुहब्बत ना बनती मिरी
अगर वो ज़माने सा बनता नहीं
खतों में मिरे जिसकी जाँ थी बसी
मिरा नाम भी अब वो लिखता नहीं
जो देता था नींदों को मेरी सुकूं
वही आज कल सोने देता नहीं
नये है कहानी के किरदार अब
मगर लिखने वाला बदलता नहीं
मुलाक़ात कैसे हो उससे भला
मिरी बात भी अब जो सुनता नहीं
पांच ....
थकते नहीं ग़म रोज़ चले आते हैं
खुशी के पल डर से छुपे जाते हैं
न करें जो सलाम चढ़ते सूरज को
आज के दौर में पीछे रहे जाते हैं
अब ना कर और दावा-ए-मुहब्बत
ये झूठे वादे न और सुने जाते हैं
बस कुचलते हो रास्ते को पैरों तले
ये भूल कर मंज़िल वही ले जाते हैं
घर ये होते हैं सिर्फ छलावे जैसे
वो नहीं देख सकते जो चले जाते हैं
परिचय और संपर्क
भरत तिवारी ‘शजर’
फैजाबाद में जन्म
दिल्ली में रहते हैं
युवा गजलकार
ब्लाग – http://www.fargudia.com/ नामक ब्लाग
का संचालन भी
मो.न.- 09811664796