श्रद्धांजली लेख – अलविदा ‘रविशंकर
उपाध्याय’
एक तारा टूटने से भी वीरान होता है
आकाश .....
उस शाम, जब ये मनहूस खबर आयी कि तुम नहीं रहे, तो वह महज एक सूचना भर
नहीं थी | वह तुम्हारे दोस्तों, तुम्हारे अनगिनत चाहने वालों के ऊपर एक वज्रपात के
गिरने की खबर थी | ऐसा लगा कि आज इस दुनिया से सिर्फ तुम ही नहीं गए, हमारे लिए
थोड़ी-बहुत यह दुनिया भी चली गयी | हमारे लिए थोड़ा-बहुत यह बी.एच.यू. भी चला गया,
थोड़ा-बहुत यह बनारस भी चला गया | विश्वास से रोज-ब-रोज खाली होती जा रही दुनिया
में तुम्हारा होना, उस भरोसे का होना था, जिसमें तुम्हारे अनगिनत अनुज सथियों ने
तुम्हारे नक़्शे-कदम पर चलने का प्रयास करते हुए अपना मुस्तकबिल सौंपा था | जिसमें
तुम्हारे अग्रज यह भरोसा कर सकते थे, कि तुम उन्हें कठिन से कठिन परिस्थिति से भी
उबार लोगे | यह अनायास नहीं था, कि इतने बड़े विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में तुम
केंद्र की धुरी बनकर उभरे थे | किसी छात्र से उसके अग्रज और अनुज एक साथ इतना
प्यार कर सकते हैं, तुम्हे देखकर यह जाना जा सकता था | बेशक यह दुनिया तुम्हारे
जाने के बाद भी उतनी ही गति से, उतनी ही त्वरा से चल रही है, लेकिन ज्ञानेन्द्रपति
के शब्दों को उधार लेते हुए कहूं, तो तुम्हारे होने जितनी जगह इसमें आज भी खाली
है, और शायद खाली ही रहेगी |
जब यह दुखद सूचना पहुंची, उस समय मैं कार्यालय से निकल रहा था | सूचना
मिलने के साथ ही पलटकर एक फोन बी.एच.यू. में मिला लेना तो जरुरी समझा | सो ‘अमृत
सागर’ को याद किया | ‘भैया, सब कुछ ख़त्म हो गया |’ अमृत की भर्रायी हुयी आवाज ने
खबर की पुष्टि की | कुछ भी समझ में नही आ रहा था कि मैं उन्हें किन शब्दों में
दिलासा दिलाऊं | अक्षरों, शब्दों और वाक्यों की दुनिया में रहने वाला मैं उस समय
उन सबसे बिलकुल ही खाली हो गया था | किसी आदि-मानव की तरह मुझे भी भावों की शरण
में ही पनाह मिली | जैसे-तैसे घर पहुंचा, और वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह द्वारा
उद्धृत की गयी सबसे खतरनाक क्रिया ‘जाना’ को रविशंकर उपाध्याय के साथ जोड़कर पत्नी
के सामने प्रयुक्त किया | वह एक बार रविशंकर से मिली थी | सामने खड़ी पत्नी ने मेरे
भीतर की स्त्री को रास्ता दिखाया | पुरुष होने के ‘सूखेपन’ को ‘नमी’ नसीब हुयी |
मुझे याद नहीं है कि पिछली दफा मैं कब इतना रोया था | मुझे तो यह भी याद नहीं है
कि दुनिया से किसी के ‘जाने’ को लेकर मैंने अपने दुखों की खाई में इससे बड़ा गोता
कब लगाया था | और सच मानिये, यदि यह सिर्फ मेरी कहानी होती, तो मैं इसे कहने के
बजाय भीतर ही भीतर जज्ब कर जाता | जैसे कि दुनिया के तमाम लोग अपने आत्मीयों के
असमय ‘चले जाने’ की पीड़ा को जज्ब कर जाते हैं | लेकिन यह तो ‘रवि’ के उन अनगिनत
मित्रों की दास्तान है, जो शायद इसे कभी लिख नहीं पायेंगे | इसलिए आवश्यक है कि
मैं उनकी भावनाओं को यहाँ शब्द दूं | यहाँ आप चाहें तो मेरी जगह पर उनमे से किसी
का भी नाम लिख सकते हैं |
रविशंकर से मेरी पहली मुलाक़ात वर्ष 2011 में
विश्व-पुस्तक मेले के दौरान दिल्ली में हुयी थी | एक सहमें और अनजान पाठक की
हैसियत से मैं उस मेले में शामिल होने पहुंचा था | ‘रवि’ भी अपने दोस्तों के साथ वहां
पहुंचे थे | मुझे उनके बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी थी, कि उन्होंने गत वर्ष काशी
हिन्दू विश्वविद्यालय में ‘युवा कवि संगम’ का सफल आयोजन किया था | थोड़ा-बहुत वे भी
मुझे जानते थे | मैं उनके साथ हो लिया, की बजाय यह कहना अधिक समीचीन होगा कि ‘रवि’ ने मुझे अपने साथ ले लिया | मैं यह देखकर
दंग रह गया था, कि वे जिस भी बुक स्टाल पर जाते थे, छूट की अधिकतम सीमा के साथ
किताबें उन्हें सायास ही मिल जाती थीं | कहना न होगा कि मुझे भी | जब मैंने आभार
व्यक्त किया, तो वे झेंपते हुए बोले कि, ‘भैया आप मुझे नाहक ही चढ़ा रहे हैं | और
फिर आगे के वर्षों में ‘पुस्तक-मेले’ में जाने से पहले मैं उन्हें जरुर फोन कर
लेता था, कि आप कब जा रहे हैं | वर्ष 2012 और 2013 में मैंने उन्हीं के साथ मेले में खरीददारी की थी
| इस वर्ष वे किसी कारण से नहीं जा सके थे | और इसका मलाल मेरे सहित उनके अनगिनत
दोस्तों को था |
भभुआ, बिहार में जन्में ‘रविशंकर’ की उच्च शिक्षा काशी हिन्दू
विश्वविद्यालय से हुयी थी | इसी महीने की 16 तारीख को उन्होंने
‘कुंवर नारायण के काव्य में वस्तु व्यंजकता’ विषय पर अपना शोध-कार्य दाखिल किया था
| एक बेहद मृदुभाषी, अत्यंत संकोची, कवि-हृदय और मिलनसार व्यक्तित्व के धनी
‘रविशंकर उपाध्याय’ को विश्वविद्यालय में ‘आचार्य’ के नाम से जाना जाता था | संभव
है कि इस उपाधि की शुरुआत किसी व्यंग्य या जुमले की तरह हुयी होगी, लेकिन यह
‘रविशंकर’ के व्यक्तित्व की ताकत ही थी, कि उन्होंने इस उपाधि को ‘आदर और
सम्मानसूचक’ शब्द के रूप में बदल दिया था |
जिस दौर में आदर और सम्मानसूचक शब्दों की आँखें मरी हुयी मछलियों जैसी
पथराई पड़ी हों, उस दौर में उन्होंने ‘व्यंग्य और जुमले’ की तरह इस्तेमाल किये जाने
वाले शब्द में ‘आदर और सम्मान’ का अर्थ भर दिया था | न सिर्फ छात्र-छात्राओं के
मध्य, वरन अपने अध्यापकों के बीच भी वे इसी ‘उपाधि’ से जाने जाते थे | यहाँ तक कि विश्वविद्यालय
के हिंदी विभागाध्यक्ष बलराज पाण्डेय ने गत वर्ष जब विश्वविद्यालय को केंद्र में
रखकर ‘कथादेश’ पत्रिका में एक कहानी लिखी थी, तब उसमें ‘आचार्य’ नाम का यह पात्र
भी आया था |
उनकी छवि एक कुशल संगठनकर्ता, आयोजनकर्ता और नेतृत्वकर्ता की बनी थी |
उन्होंने विश्वविद्यालय में कई बड़े आयोजनो की कड़ियाँ जोड़ी | ‘युवा कवि संगम’ से
लेकर ‘व्याख्यानमालाओं’ तक | दिल्ली से निकलने वाली ‘संवेद’ पत्रिका ने जब
विश्वविद्यालयों में ‘रचनात्मकता की नई पौध’ श्रृंखला अंतर्गत अंक निकालने की
योजना बनाई, तब ये ‘रविशंकर’ ही थे, जिन्होंने अपने संपादन में बी.एच.यू. से उसका
पहला अंक निकालकर शुभारम्भ किया था | लेकिन ये सब वे बातें हैं, जो सामने से दिखती
थीं | इनके सहारे हम ‘रविशंकर’ के बाहरी व्यक्तित्व को ही जान पायेंगे | ‘रविशंकर’
के होने का भीतरी अर्थ वहां से शुरू होता था, जहाँ से सामने दिखती हुयी चीजें समाप्त
होती थीं , कि जहाँ से नेपथ्य की शुरूआत होती थी | इतने बड़े और शानदार आयोजनों के
बाद भी ‘रवि’ ने उसका श्रेय कभी अपने नहीं लिया | उन्होंने उसे एक सामूहिक
कार्यवाई के रूप में अंजाम दिया और उसी रूप में श्रेय का बंटवारा भी | उनका
नेतृत्व इतना सक्षम और बेजोड़ था कि युवा से लेकर अग्रजों तक की पूरी पीढ़ी उसमें
अपने आपको भागीदार पाती थी | यदि आप ‘रवि’ को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते होते,
और उनके द्वारा संचालित किये जा रहे किसी कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए
विश्वविद्यालय पहुँच जाते, तो शायद आपको वहां एक दर्जन ‘रविशंकर’ तैयार खड़े मिलते
| अतिथियों के स्वागत से लेकर मंच-संचालन तक की जिम्मेदारियां इन ‘दर्जनों
रविशंकरों’ में बंटी हुयी देखी जा सकती थी | वे ‘वन मैन शो’ के नायक नहीं थे, वरन
नायकों की फ़ौज के ‘एक साधारण सिपाही’ थे |
जिस दौर में एक काम करने पर दस लिखा जाता हो, उस दौर में दस काम करने
के बाद भी वे अपने खाते में एक लिखते हुए संकोच से भरे होते थे | ‘रविशंकर’ होने
का अर्थ इसी मायने में विशिष्ट है, अनुकरणीय है | उनके जाने के बाद जो लोग ऐसी
आशंकाएं उठा रहे हैं कि उनके बिना हिंदी विभाग की रचनात्मकता रुक जायेगी, या कि
विश्वविद्यालय की गतिविधियाँ थम जायेंगी, वे लोग किन्ही साधारण प्रतिमानों के भीतर
ही सोचने के आदी हैं | ‘रविशंकर’ और उनकी परम्परा की विशिष्टता इसी मायने में अलग हैं
कि वह एक सामूहिक कार्यवाई के रूप में काम करती रही है, और उसके लिए किसी के जाने
का मतलब ‘रिले रेस के बेटन को हस्तांतरित किये जाने’ जैसा ही है | रचनात्मकता की
यह दौड़ लगातार चलती रहेगी, इस विश्वास को ज़िंदा रखने की कोशिश ही ‘रविशंकर’ होने
के मायने तय करती है | उम्मीद की जानी चाहिए कि ‘रविशंकर’ के साथी ठीक उसी उत्साह
और जज्बे को दिखाते हुए आगे बढ़ते रहेंगे, जिसे ‘रवि’ ने अपने जीवन लक्ष्य के रूप
में चुना था |
इतना सब लिखते हुए जब ‘रविशंकर’ की याद आती है, तो दिल में एक ‘हूक’
सी उठती है | कि जैसे जिगर के मध्य कुछ कटता हुआ, कुछ टूटता हुआ महसूस होने लगता
है | बेशक हम उनके जज्बे को जानते हैं, उनकी परम्परा को जानते हैं, उनके होने के
अर्थ को जानते हैं, लेकिन क्या करें कि हम भी एक आदमी हैं, जिसने अपना भाई, अपना
सबसे अजीज, अपना सबसे करीबी दोस्त खो दिया है | उस उम्र में, कि जिस उम्र में हम
अपने दुश्मन के लिए भी इस दुनिया से रुखसती न चाहें, तुम वहां चले गए जहाँ जाने
वाले से अब तो ये भी नहीं पूछा जा सकता है कि “यह भी कोई जाने की उम्र होती है
मेरे दोस्त ...?” हरिवंशराय बच्चन की उन पंक्तियों से हम वाकिफ हैं कि “ टूटे हुए तारों
पर अम्बर शोक नहीं मनाता है” | लेकिन हम तो आज के दिन अग्रज कवि कुमार अम्बुज की
उन पंक्तियों के साथ जाना चाहेंगे, जिसमें वे ‘भगवत रावत’ के लिए कहते हैं कि
“एक तारा टूटने
पर भी वीरान होता है आकाश
अलविदा मेरे भाई
... अलविदा मेरे दोस्त .....अलविदा रविशंकर उपाध्याय ....... |
रामजी तिवारी
बलिया , उ.प्र.
मो. न. 09450546312