कुमार अनुपम
‘कुमार अनुपम’ हिंदी युवा कविता में जाना-पहचाना नाम है |
उनका कविता संग्रह ‘बारिश मेरा घर है’ न सिर्फ पुरस्कृत हुआ है , वरन पर्याप्त रूप
से चर्चित भी हुआ है | यहाँ हम उनकी कुछ नयी कविताओं को प्रस्तुत कर रहे हैं ,
जिनमे ‘अनुपम’ की प्रयोगशीलता अलग से हमारा ध्यान आकृष्ट
कराती है | साथ ही साथ हम प्रख्यात आलोचक ‘विश्वनाथ त्रिपाठी’ की वह टिप्पड़ी भी प्रकाशित कर रहे हैं , जो
उन्होंने ‘अनुपम’ के संग्रह को पढने के बाद की थी |
रामजी तिवारी
कुमार अनुपम की कविताएँ समकालीन दौर की अनेक विसंगतियों के अनुभवों को आधार
बनाकर रची गई हैं। कुमार अनुपम नवयुवक कवि हैं। उनकी वय और उनकी कविताओं को
साथ-साथ देखें तो हम अपने युग की ऐतिहासिक अमानवीयता का संधान पा सकते हैं। अमानवीयता किसी एक व्यक्ति, विचारधारा या संस्थान की नहीं बल्कि पूरे समय
की। यह नहीं कि इस युवक कवि के पास दैनन्दिन जीवन की सम्भावना का स्वप्न नहीं है
---
"बीज को मिले अगर
करुणा-भर जल
नेह-भर खनिज
वात्सल्य-भर धरती
और आकाश
तो फूटती ही है
एक रोज़ शाख
पत्ती आसानी से
हरी होती रहती है
फल रस से भरपूर
होकर टपकते रहते हैं ... "
(जीवन दैनन्दिन, p. 114, 'बारिश मेरा घर है' से )
लेकिन बीज के
लिए न जल है और न नवयुवक पीढ़ी के लिए करुणा। इस नवयुवक कवि की संवेदना में प्रकृति का विशेष महत्त्व है।
यहाँ तक कि वह प्रेमिका की अनुपस्थिति को भी धान की हरी-भरी आभा, महक और मानसून की पहली फुहार की छुवन और रस
रूपायित करता है। उक्त कथन को निम्नांकित दो बिम्ब समर्थित करेंगे ---
"जिस शहर की रगों में
नहीं बहती है
कोई नदी
उस शहर का
दिल से कोई
रिश्ता नहीं होता।"
(शहर के बारे में-1, p.22, 'बारिश मेरा घर है' से )
"धूप में पकती निबौरियों
की मिठास
हवा को सोंधी
स्वस्थ गमक से भर देती
पर, शहर से कहाँ ग़ायब हो गए
नीम के सारे के
सारे दरख़्त ?"
(शहर के बारे में-2, p.22, 'बारिश मेरा घर है' से )
कुमार अनुपम में
हमारे समय की आत्मनिर्वासित और यान्त्रिक ऐसी चेष्टाओं को उदघाटित-चित्रित करने की
सर्जनात्मक क्षमता है जो स्वांग को सहजता के रूप में प्रस्तुत करने का छद्म करती
है,
जैसे ---
"हँसो तो ऐसे जैसे बॉस हँसता है बेवजह
रोओ तो ऐसे जैसे
सौन्दर्य प्रतियोगिता का ताज सर पर
पकड़ती-ठुनकती है
मिस वर्ल्ड ... "
(शहर के बारे में-2, p.23, 'बारिश मेरा घर है' से )
मुझे कुमार अनुपम की सबसे मार्मिक कविताएँ वे लगती हैं जो उन्होंने पूर्वज
पीढ़ी के पात्रों पर लिखी हैं। इन कविताओं की क्षमता यह है की उनमें डिटेल्स इतने
सुसंगत और उपयुक्त हैं कि वे कविता में कथा-कहानी का प्रभाव पैदा कर देते हैं। और
यह कोई मामूली क्षमता नहीं है।
कुमार अनुपम की सम्भावनाशीलता को ध्यानपूर्वक परखने और सतर्क
प्रोत्साहन की ज़रूरत है।
विश्वनाथ
त्रिपाठी
बी-5, एफ़-2
दिलशाद गार्डन, दिल्ली
तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर कुमार
अनुपम की छः कविताएँ
1.कलाकार
मैं रंगों का अनुयायी हूँ अवधूत की ज़िद काफ़िर की कज़ा हूँ. रंगों के शब्द सोचता हूँ इस उम्मीद में कि वे मुझे धोखा दें. एक कसक मेरी अतृप्ति की खुराक़ . अनहोनियाँ मेरी चेरी हैं . मेरी ख्वाहिशों की ग़ुलाम. मेरी इच्छाओं का व्यास तुम्हारी कातर कामनाओं का शिकार है. तुम्हारे व्यास का अधूरा दुगना हूँ तुम्हारी त्रिज्या का छोर हूँ. मैं केन्द्र हूँ. केन्द्र की क्रिया हूँ. कलाकार हूँ जिसका कल्पवास तुम्हें रचता है. तुम्हारा अभागा विधाता कि तुम तक मेरी सम्भावित पहुँच एक अनिर्वचनीय सांत्वना है. तुम्हारा वजूद मुझे पूर्ण करता है. मैं रंगों की साँस हूँ, साँसों का गीति हूँ, गीति का श्रेय हूँ. रंगों के होने का संलाप हूँ. मैं शब्दों के रंगों का विपर्यय कि मैं होने का निरर्थ हूँ. निरर्थ की ज़िद हूँ. अवधूत ज़िद . मैं ज़िद का विलयन हूँ रंगीन और कामाख्या. "हूँ " के अतिरेक का काफ़िर-पन. काफ़िर की कज़ा हूँ .
2... मतलब
बचपन में बाबा ने किसी पौराणिक
कथा में आए पाँच दृश्य दिखाए थे जिनके मतलब मुझे तलाशने थे. पहले में बेनवाहियाँ
ही चरती जा रही थीं खेत . दूसरे में एक कुआँ सात कुओं को अपने जल से भर देता था
डुमोडुम लेकिन फिर सातों मिलकर नहीं भर पाते थे अपने जल से एक अकेला निर्धन कुआँ.
तीसरे दृश्य में एक हाथी पूरा पार हो गया था एक सुई की छेद से मगर अटक गई थी केवल
उसकी पूँछ. चौथे दृश्य में एक जर्जर और बारीक धागे से टँगे थे मनों भार के कई
पहाड़ जो आज भी मेरे सपनों में ढहे आते जब तक कि पसीने का नमक मेरी नींदों को
झिंझोड़कर जगा नहीं देता है. पाँचवे दृश्य में थोड़ी उम्मीद का सम्बल था जिसमें एक
बड़ा - सा घड़ा था जो धीरे - धीरे भरता जाता था कंकड़ों पत्थरों से और धीरे - धीरे
ऊपर आ रहा था तली का जल. छलकने - छलकने का अब कम बच रहा था इंतज़ार.
घर - संसार के इस समय में ऐसे दृश्यों की भरमार जिनका मतलब ढूँढना भी अब तो नहीं रहा कठिन.
घर - संसार के इस समय में ऐसे दृश्यों की भरमार जिनका मतलब ढूँढना भी अब तो नहीं रहा कठिन.
3....शताब्दी के अवसान की एक घटना
परिजन जानते ही थे कि महावीर बाबू उठकर दिशा - मैदान जाएँगे और फिर आज भी कोर्ट की तारीख़ पर हाज़िर होने जाएँगे. लेकिन वे बिना हाथ - मुँह धोए ही खेतों की और निकल गए. सुबह बस हो ही रही थी कुछ स्त्रियाँ उनके खेत से मटर की फलियाँ अभी तोड़ ही रही थीं. वे हड़बड़ा गईं अँचरा सम्हालती भागीं कुछ छुप गईं महुवे की ओट लेकिन उन्होंने कुछ ध्यान ही नहीं दिया. वे चलते ही चले गए खेत की कोन तक और बाहें फैला कर आँखें बंद कर लीं. वे होंठों में कुछ बुदबुदाते थे अचानक ज़ोर ज़ोर से करने लगे विलाप. उनकी बुदबुदाहट अब रुलाई में शामिल थी और अस्पष्ट किसी शब्द में भर गई थी. वे चीख रहे थे लगभग कि बेसाख्ता गाने लगे कोई शोकगीत जिसका सिर्फ सुर सुनाई देता था. क्या सूझा कि लोटने लगे ज़मीन पर खेत भीगे थे उनके आँसुओं में. वे ऐसे उलट पुलट रहे थे जैसे अपने रोम कोषों में भर लेना चाहते हों खेत कि हर साँस. यह सब दृश्य छुपी हुई स्त्रियाँ देख रही थीं. वे चीखती हुई भागीं गाँव की ओर कहती हुईं कि पागल हो गए पंडीजी पंडीजी पगलाय गए...
यह शताब्दी के अवसान की घटना थी जब विछिप्त और पागल में दूरी घटाता ही जा रहा था समय.
4 ... नागरिक
एक आदमी टार्च लेकर उजाले में ढूँढ़ता है और उसे अपना घर नहीं मिलता. उसका नाम सुरेन्द्र विमल है या देवी प्रसाद मिश्र सूरज पाल चौहान है या अनुपम इससे फ़र्क नहीं पड़ता. आप चाहें तो इसे उसका दृष्टिदोष ठहरा सकते हैं लेकिन जब घर न मिले तो उजाला ही निर्दोष नहीं होता फिर भी यह एक प्रार्थित गुंजाइश तो है ही की उसका घर मिलना ही चाहिए. तो आपका इतना सा संवेदी स्वीकार एक समस्या को निमंत्रित करता है और यदि जिद्दी नकार न अपनाएँ तो विश्व के नए मिलेनियम माडल में अब आप अपराधी की हैसियत वाले नागरिक हैं.
5 ... निजामुद्दीन
दिल्ली में अब एक मकाम का नाम है. सँकरी गलियाँ हैं गोश्त की दुकानें और भीड़ है. यहीं उस्ताद ग़ालिब का मजार है जो कई बिल्लियों की रहनवारी बन गया है. चहुँ देस भई रैन में यहीं सोवै है गोरी अपने मुख पर डाले हुए केस. यह अपने घर चलने का वक्त है. अब इससे ज़्यादा कुछ नहीं कहूँगा कि ज़्यादा कहने से गुरेज़ करते थे उस्ताद भी.
5 .... भ्रम
देश और काल के बहुत सारे भ्रमों की तरह यह भी एक भ्रम था कि वह आदमी जो दरअसल बहुत सारे आदमियों की तरह लगता था खुद को कलाविहीन समझता था इस मर्त्यलोक में भार मानता था लेकिन मृग की तरह चरना नहीं चाहता था कि दो हाथ दो पाँव और मृग की तरह ही एक पेट होने के बावजूद यूँ तो लोग उसे विश्वास दिलाने की भरसक चेष्टा करते थे कि तुम जो हल चलाते हो अनाज उगाते हो पत्थर तोड़ते हो नदियाँ खोदते हो घर बनाते और रँगते हो रहने लायक़ बनाते हो मूर्तियाँ गढ़ते हो बनाते हो ईश्वर की तस्वीर फूल पत्तियाँ बलबूते काढ़ते हो यह सब हुनर ही है जो किसी किसी को ही होता है नसीब मगर वह इस सब को पेट का करतब ही मानता था जिसमें हाड़ तोड़ मेहनत निरुपायता पसीने खून और साहस के बावजूद रोज़ जूझने की कवायद उसका मजबूर शगल था और वह किसी विशिस्ट असाधारणता का भ्रम पाल दुनिया के बहुत सारे भ्रमों में इजाफा तो कतई नहीं करना चाहता था.
अब ऐसा साधारण आदमी जो दरअसल बहुत सारे आदमियों की तरह लगता था के भ्रम को निरस्त करने के लिए लोग कौन से भ्रम का आन्दोलन रचें उन्हें भ्रम में मुब्तिला करता था और लोग राजनीतिक संताप में बिलाए जाते थे.
परिचय और संपर्क
कुमार अनुपम
1048 / 22 ब्लाक
, लोधी कॉलोनी
नयी दिल्ली –
3
मो. न .
09873372181
.....anupam hain anupam ki kavitayein
जवाब देंहटाएंकोरी बकवास
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