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बुधवार, 14 नवंबर 2012

औरंगजेब का मंदिर - केशव तिवारी


                                   केशव तिवारी 


साहित्य, किसी ‘अंधे’ या ‘गए से गए’ दौर में से भी अपने लिए कुछ रोशनियाँ चुन ही लेता है | यहाँ तक कि , उस दौर से भी , जिसमें सभी धारायें – वे चाहें मुख्य हों या गौड़ - विध्वंसकारी दिशा में ही बहती दिखाई देती हों | मसलन , ‘केशव तिवारी’ की इस कविता को देखिये | मुग़ल काल के जिस दौर में अन्य धर्मावलम्बियों के पूजा स्थलों को तोड़ने के ‘फरमान’ और ‘आदेश’ सर्वत्र दिखाई देते हैं , उसी दौर में से यह कविता ( औरंगजेब का मंदिर) , किसी मंदिर के निर्माण और उसे सहायता देने का एक विस्मयकारी ‘फरमान’ ढूंढ लाती है | इसी कविता को केंद्र में रखकर हिंदी के प्रख्यात आलोचक ‘अजय तिवारी’ ने यह लेख लिखा है , जिसमे इस कविता के लिखे जाने की स्थितियों के साथ-साथ , उसके भविष्यकालीन महत्व का रेखांकन भी दर्ज है |

     तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर प्रख्यात आलोचक अजय तिवारी का यह लेख   

                    
                    ‘औरंगजेब का मंदिर’

जी हाँ , यह उलटबांसी नहीं है |

पंद्रह बरस पुरानी बात होगी | तब केदारनाथ अग्रवाल जीवित थे | बांदा में हर साल उनके जन्मदिन पर आयोजन होता था | पहली अप्रैल के उस सम्मान समारोह में मैं शायद एक दशक बाद गया था | सन 1986 में सम्मान :केदारनाथ अग्रवाल  का एक भव्य समारोह हुआ था | उसके बाद कई बरस तक बांदा जाने का सुयोग नहीं हुआ था | लेकिन बांदा-वासियों ने यह सिलसिला टूटने नहीं दिया | आखिर 1997 में आयोजकों की और उससे अधिक केदार की ईच्छा का सम्मान करते हुए वहां जाना अनिवार्य हो गया | दिल्ली से हमारे आत्मीय नीरज कुमार और कवयित्री निर्मला गर्ग ने भी केदार के प्रति अपने सहज आदर भाव के कारण जाने का निर्णय किया था |

केदार पर आयोजन और वह भी बांदा में , उसे सजीव और महत्वपूर्ण होना ही था | उससे ज्यादा महत्वपूर्ण था बांदा वासी कवि-मित्र केशव तिवारी का आग्रह कि चित्रकूट दर्शन कर लीजिये | यह कैफियत जरुरी नहीं है , कि आस्थावान केशव भी नहीं हैं | लेकिन तुलसीदास और बाल्मीकि का रमणीय प्रदेश , सुन्दर प्रकृति और गुप्त गोदावरी की रोमांचक गुफा , सच पूछिए तो एक दिन चित्रकूट के लिए कम पड़ता था | धार्मिक-स्थलों पर पर्यटन के लिए जाना दिलचस्प होता है |

फिर भी इस अत्यल्प समय में भी सार्थकता का विचित्र-बोध हुआ | दिन रामनवमी का था | मंदिरों में काफी भीड़भाड़ थी | एक मंदिर काफी पुराना सा , कुछ अलग-थलग और बिलकुल खाली सा था | अन्दर जाकर देखा तो ‘प्रसाद’ की तैयारी थी , लेकिन प्रसाद ग्रहण करने वाले भक्त नहीं थे | हम सबने तय किया कि यहीं प्रसाद ग्रहण करेंगे |

पुजारियों से बातचीत में पता चला तो आश्चर्य का ठिकाना न रहा , कि यह मंदिर मुग़ल शासक औरंगजेब का बनवाया हुआ है |

एक फ्रेम में औरंगजेब का शाही फरमान मढ़ा हुआ सुरक्षित है , जिस पर अंग्रेजी राज्य में खास कार्यवायी नहीं हुयी | आजादी के बाद कुछ सरकारी सहायता मिली , लेकिन अपर्याप्त | मुग़ल शासन के बाद इस मंदिर के अच्छे दिन नहीं लौटे |

संभवतः हिंदी अकादमी , दिल्ली से प्रकाशित ‘औरंगजेब के फरमान’ (संपादक: डा.विश्वम्भर नाथ पाण्डेय ) में यह दस्तावेज मौजूद हो | मैं इसकी पुष्टि नहीं कर सका हूँ |

जिन्हें पता है , वे जानकार उस ओर जाते नहीं , कि औरंगजेब का (बनवाया) मंदिर है , और प्रान्त या केंद्र की सरकारें विशेष मदद करती नहीं | हमारे लिए यह जानकारी दिलचस्प और विचारोत्तेजक थी | उतना ही विचित्र था यह अनुभव कि चित्रकूट में स्थित एक मंदिर कितना उपेक्षित हो सकता है , उसके पुजारी और महंथ कितने बेचारे हो सकते हैं |

बांदा से चित्रकूट की यात्रा में आते और जाते हुए केशव तिवारी ने कुछ दूसरों की और बहुत सी अपनी कवितायें सुनायी | उन पर चर्चा हुयी | खास तौर पर जो बातें मुझे कम पसंद थीं मैंने केशव को बतायी | उन्हें अच्छा न भी लगा हो , तो भी उन्होंने जाहिर नहीं किया | कविता की प्रवृत्तियों पर बातचीत होती रही | केशव भी तीव्र पसंद-नापसंद वाले व्यक्ति हैं | कविता की उनकी अपनी धारणाएं हैं , जिनसे हमेशा सहमत होना कठिन है | खासकर ‘लोक’ को लेकर कुछ आत्यंतिक आग्रह मुझे नहीं जंचता | ‘लोक’ आज की कविता में बहुत कुछ भावुकता का क्षेत्र बन गया है | फिर भी केशव की धारणाओं से अलग , उनकी कवितायें मुझे पसंद हैं | वे लोक को शरणस्थली कम ही बनाते हैं  - आग्रह चाहे जैसा भी हो |

अभी हाल में उन्होंने फोन पर एक कविता सुनायी -- ‘औरंगजेब का मंदिर’ | इतने दिनों बाद उस यात्रा की स्मृति सजीव हो आयी | अवश्य केशव ने अपने भीतर उस यात्रा की स्मृति को संजो रखा था | इससे एक कवि की मनोरचना का परिचय मिलता है | शुक्ल जी कहते थे , कि केवन के मार्मिक स्थलों की पहचान कवि की शक्ति होती है |

कविता ठीक-ठाक थी | बस , ठीक-ठाक | मैंने कुछ सुझाव दिए | केशव ने कविता फिर से लिखी | उन्हें अपनी कविता से प्रेम तो है , लेकिन मोह नहीं , वरना उनके जैसा जिद्दी आदमी किसी आलोचक के कहने पर कविता सुधारने को राजी हो , यह मुश्किल है | आखिरकार चौथे प्रारूप के बाद उन्होंने हथियार दाल दिए , कि मेरे बस का और नहीं है ; जितना टटोलकर स्मृतियों से निकाल सकता था , वह लिख दिया | यों , इसके बाद कविता में ‘और’ होना आवश्यक था – कम-से-कम केशव की रचना प्रवृत्ति को देखते हुए | बहरहाल कविता इस प्रकार है -------
                            

औरंगजेब का मंदिर

(बाला जी का मंदिर)

मुग़ल बादशाह 'औरंगजेब'
यहाँ नहीं उमड़ती श्रद्धालुओं की भीड़             
जह जुजबी ही भटक आते हैं इधर
जबकि एक रास्ता इधर से भी जाता है

एक बूढा पुजारी कपड़े में
लपेटे आलमगीर का फरमान
संदूकची में समेटे है
बड़े जतन से
इस बात का सबूत –
जिसे तारीख
जालिम कह नजीर देती है
उसका दिया भी कभी-न-कभी
धड़कता था दूसरों के लिए भी

महंथों मठाधीशों के बीच
परित्यक्त यह बूढा
यहाँ आपको बिना जात-पात पूछे
मिल सकता है उपलब्ध भोजन
आप छहाँ सकते हैं
इस पुरनिया पेड़ की छाँह में |

औरंगजेब द्वारा बनवाया मंदिर 
सैकड़ों साल पुरानी                       
मंदिर की दीवारों पर
टिका सकते हैं पीठ

गीता वेद रामायन श्रुतियों के साथ
एक साधु
लिए बैठा है एक बुतशिकन
बादशाह का फरमान

इतिहास की मोटी-मोटी किताबों में
तरह-तरह के मंतव्यों के बीच
यह पंद्रह लाईन का एक
अदना-सा-फरमान
तमाम धार्मिक उद्घोषों
जयकारों के बीच
धर्म और इतिहास के मुहाने से
पुकारती एक आवाज
तमाम ध्वंसावशेषों से क्षमा मांगती...   

कोई सुने तो रूककर     
एक आवाज यह भी है |                        


फरमान दिखाते पुजारी 




बिलकुल सच्चा वर्णन है | तथ्यपूर्ण और भावपूर्ण | मंदिर के भीतरी परिवेश के चित्रण में जरुर कोताही की गयी है | विवरणों को लिखकर रखने की आदत कवियों में जरा कम ही होती है | वे स्मृतियों और प्रभावों से काम चला लेते हैं | इस मंदिर के जो अनुभव थे , यदि उनसे भीतरी वातावरण का चित्र कुछ और समृद्ध होता , तो बेशक , अवसाद थोडा गहरा होता , लेकिन विडंबना का बोध अधिक तीव्र होता | केशव अवसाद से ज्यादे जीवन-उल्लास के कवि हैं | केदार के प्रभाव और केशव की ‘लोक’ चेतना का यह अपना संश्लेष है | फिर भी मुझे संतोष है , कि केशव ने एक नयी दिशा में प्रवेश किया |       

शायद इतनी शिद्दत से विडम्बना के उद्घाटन में केशव पहली बार लगे हैं | विडंबना वर्तमान तथ्य और ऐतिहासिक परंपरा , दोनों स्तरों पर है | ‘एक रास्ता इधर से भी जाता है’ – यह मानो कविता का मूल स्वर है | यह रास्ता अतीत और वर्तमान दोनों सन्दर्भों में एक विकल्प है | मुखर सन्देश के बजाय गहरे विश्वास से केशव को यह स्वर मिला है | इसे ध्यान में रखिये , तब मालूम होगा कि विडंबना कवि की किस करुणा से उपजी है | मंदिर का महंथ घृणा और आलोचना का पात्र होता है ; लेकिन ‘यह बूढा’ अपने मंदिर की ही तरह परित्यक्त है | आलोचना का विषय दयनीयता का विषय बन गया है | दूसरी तरफ इस मंदिर का निर्माण उस शासक ने किया था . जिसकी ख्याति मंदिर तोड़ने के लिए थी | ‘एक बुतशिकन बादशाह’ ! इस प्रकार , दोहरी विडंबना से केशव ने इस कविता का भावनात्मक ढांचा निर्मित किया है |

बद्ध संस्कार केवल वर्तमान के नहीं होते , अतीत के भी होते हैं | केशव दोनों तरह की जड़ता से लड़ते हैं | उत्तर-आधुनिक पदावली में कहें तो वे दोनों प्रकार की जड़ताओं का विखंडन करते हैं | लेकिन उत्तर-आधुनिकों की भाँति विखंडन करके इति नहीं समझ लेते | उनकी दृष्टि गंभीर अर्थ में राजनीतिक है | अच्छी बात यह है कि राजनीति यहाँ सतह पर नहीं है | इससे कविता का आतंरिक ढांचा सुरक्षित रहता है | यह भावावेश का ऐसा विषय भी नहीं है , न ऐसा क्षण ही है , कि कविता के ढाँचे को तोड़ा जाए | विषय यह मांग नहीं करता कि नागार्जुन-केदार जैसी प्रत्यक्ष राजनीतिक शैली अपनाई जाए , और केशव की रचना-प्रवृत्ति भी सीधी राजनीतिक अभिव्यक्ति के अनुरूप नहीं है | फिर भी , ‘एक आवाज यह भी है’ , कवि का यह विनम्र स्वर सांप्रदायिक राजनीति के कोलाहल को ध्वस्त कर डालता है | यह मिथ्या पर आधारित वैमनस्यपूर्ण राजनीति का , साम्प्रदायिक उद्देश्यों के लिए इतिहास के उपयोग की कुटिलता का दृढ प्रतिवाद है |

उल्लेखनीय है कि यह प्रतिवाद अनायास अथवा आरोपित नहीं है | कवि परस्पर-विरोधी तथ्यों को आमने –सामने रखता है | ‘इतिहास की मोटी-मोटी किताबों’ और ‘तरह तरह के मंतव्यों’ के समानांतर सिर्फ ‘पंद्रह लाइनों का एक अदना-सा फरमान’ है , जो पूरी ताकत से डट जाता है | इस फरमान में औरंगजेब का यह ऐलान है कि शाही खजाने से बालाजी के इस मंदिर को हमेशा-हमेशा नियमित मदद की जाती रहेगी | एक विडम्बना यह भी है , कि हमेशा-हमेशा के लिए खुद शहंशाह भी न रह पाए , मदद की बात तो दूर रही !

कवि ही यह योग्यता रखता है , कि बद्ध संस्कारों और आग्रहों से मुक्त रहकर प्रचार से ढकें सत्य को उभारे | औरंगजेब एक जालिम शासक था , लेकिन मनुष्य भी था | केशव देखते हैं कि जालिम कहे गए शख्श का ‘दिल कभी-न-कभी धड़कता था दूसरों के लिए’ | महानायक या खलनायक बनाने की जगह मानुष के रूप में देखना कवि का काम है |

संभव है , अगर यह मंदिर भी दूसरे मंदिरों की तरह मुसलमान शासक से न जुड़ा होता तो , यहाँ भी ‘ बिना जात-पात पूछे’ सबको खाना न मिलता | पुजारी और महंथ अपनी परिचित छवि में नहीं हैं | धार्मिक या सांप्रदायिक अलगाव के साथ-साथ बिरादरी वाद का अलगाव भी है | कविता दोनों प्रश्नों से टकराती है | अतीत और वर्तमान , जाति और धर्म इनके जटिल प्रसंगों को केशव ने साधे हुए संकेतों में व्यक्त कर दिया है | ‘लोक’ चेतना वाली बहुत-सी समकालीन कविता का आंतरिक फलक इतना व्यापक नहीं होता | खुद केशव की बहुत सी कवितायें इतनी संश्लिष्ट अभिव्यक्ति नहीं कर पाती | भावुकता और यथार्थ – दृष्टि में यह अंतर है |

इतिहास में एक सजीव शक्ति है | यह बात अगर विद्वेष का प्रचार देखकर समझा जा सकता है , तो उस प्रचार का प्रतिवाद भी इतिहास के जरिये किया जा सकता है , इस बात को केशव की यह कविता समझा देती है | केशव ने इतिहास को वर्तमान में पकड़ा है | इसलिए कविता में इतिहास एक निरंतरता और विडंबना के रूप में द्वंद्वात्मक रूप में आया है | ‘सैकड़ों साल पुरानी मंदिर की दीवारों पर टिका सकते हैं पीठ’ – यहाँ पुरानापन मृत नहीं है ; बल्कि मरती परिपाटियों का अस्वीकार है | निरंतरता इस बात में कि जाति – धर्म से परे संस्कृत का एक समावेशी रूप है , भले ही वह आज उपेक्षित हो ; विडंबना इस बात में कि बादशाह के रहने पर जो मंदिर धन धन्य और आगंतुकों से भरा रहता , वह आज वीरान है | यह हमारे समय पर एक टिप्पड़ी भी है |


                                                                        'नया ज्ञानोदय' के नवम्बर-2012 अंक से साभार 

                                                  
परिचय और संपर्क

अजय तिवारी 
लेखक अजय तिवारी हिंदी के प्रख्यात आलोचक हैं       
बी- 30 , श्रीराम अपार्टमेंट्स
32 / 4 , द्वारिका , नयी दिल्ली , 110078
मो.न. – 09717170693 














बुधवार, 25 जुलाई 2012

केदारनाथ अग्रवाल को याद करते हुए ...केशव तिवारी



केदारनाथ अग्रवाल 

प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर हिंदी कविता के त्रयी में से एक और वटवृक्ष माने जाने वाले बाबू केदार नाथ अग्रवाल पर लिखा युवा कवि केशव तिवारी का संस्मरण | यह संस्मरण साहित्य अकादमी द्वारा इलाहाबाद में 22 - 23 जुलाई 2012 को आयोजित कार्यशाला में दिए गए उनके वक्तव्य पर आधारित है | 



                            पक्षी जो एक अभी-अभी उड़ा

इसके पहले की मैं अपना यह संस्मरण आरम्भ करू , मुझे एक घटना याद आती है | एक बार जब मैं इलाहाबाद से बांदा अपने घर जाने के लिए निकला था , तभी शिवकुमार सहाय जी को संयोगवश पी.सी.ओ. से फोन मिलाया | उन्होंने पूछा 'तुम कहाँ हो ' | मैंने कहा , कि मैं घर जाने के लिए निकल रहा हूँ ..| उन्होंने कहा , वही रूक जाओ , मैं वहीँ आ रहा हूँ | वे आये , और मुझे अपने घर ले गए ...वहां  बाबा नागर्जुन ठहरे हुए थे | वे मुझे कुछ गुमसुम से बैठे  थे ...| फिर मेरा परिचय पूछा , मैंने कहा " बांदा से आया हूँ , नाम केशव तिवारी है , और कवितायें लिखता हूँ | " वे चौकन्ने हुए ..."तो सुनाओ अपनी कवितायेँ , क्या डायरी लाये हो ?" मैंने कहा 'कवितायें मुझे याद रहती हैं , और मैं डायरी लेकर नहीं चलता | " मैंने उन्हें अपनी कुछ कवितायें सुनाईं , फिर उन्होंने कहा "देखो बांदा में कविता का बटवृक्ष रहता है , जिसकी छाया सम्पूर्ण हिंदी जगत पर पड़ती है , उससे दूर ही रह कर कविता लिखना " फिर बोले , "ये लोग मुझे दिल्ली ले जाना चाहते हैं , तुम मुझे वाचस्पति के यहाँ पहुंचा दो , या फिर मुझे बांदा ले चलो "  | जब रात के साढ़े ग्यारह बजे , तब वे कहने लगे , "उठो कपडे पहनों , मुझे लोकनाथ ले चलो , मैं वहां  रसगुल्ले खाऊंगा और तुम वहां  छोकरी देखना "| 


बाबा नागार्जुन द्वारा घोषित ऐसे वटवृक्ष केदार जी से मेरी मुलाकात 1991 के बारिश के दिनों में हुयी |ये वह समय था जब क्रेमलिन से लाल झंडा उतर रहा था और केदार जी ने मुझे मोरिस कार्मफोर्थ के तीनो वैल्यूम पढने को दिये और व्यवस्था गलत हो सकती है ऐतिहासिक भौतिक द्वन्द वाद नही | इसे पढो और मुझसे बात करो। यूं तो मार्क्सवाद से एक रूमानी लगाव विद्यार्थी काल से ही रहा पर मै अब गंभीर तरह से दिक्षित हो रहा था। यह वक्त तमाम शंकाओं निराशाओं और मार्क्सवाद पर हमले का था। मैं साढ़े तीन बजे से देर शाम तक उनके  पास बैठता और चर्चायें करता, धीरे-धीरे अपनी बन रही समझ में उन्हें भी देखने परखने लगा। केदार जी को पूरी तरह तब नही समझा जा सकता, जब तक आप मार्क्सवाद को नहीं समझते, उनका  पूरा सीराजा, सोच जीवन , उसी पर टिका था। एक मनुष्य के रूप में केदार जी बहुआयामी प्रवृत्ति के थे और एक महाजनी परिवार में जन्म लेने के बावजूद उससे उनका कोई जुड़ाव नहीं हो पाया। वजय यह थी कि पिता वैद्य थे तो बचपन उनके साथ कटनी, जबलपुर में बीता। कानपुर में पढ़े वकालत और बांदा में चाचा के अंडर में वकीली शुरू की, उनके न रहने पर उन्होंने लिखा-‘नेह की छतरी फटी/आलोक बिखरा’ मतलब वो खुद अपने बूते दुनिया को देखने को कितना बेताब थे, इससे साफ होता है।

केदार जी से मिलकर यह बार-बार लगता था कि जीवन के उनके कुछ बंधे मापदंड हैं, उससे डिगना उन्हें मंजूर नहीं था। आपकी सब सुन लेंगे , मुंह पर प्रतिकार भी नहीं करेंगे, पर बाद में ‘ अव्वल आय ’ कहने से भी नहीं चूकंेगे। उन दिनांे तक उन्होंने लगभग बाहर निकलना बंद कर दिया था। शाम की बैठक में आने वाले लोगों में पंडित राम संजीवन एहसान, आवारा कृष्ण मुरारी पहारिया, आर. पी. राय, रामविशाल सिंह, नरेन्द्र थे। केदार जी के सरोकार कविता तक ही नहीं होते, शहर देश में क्या हो रहा है, कचहरी में क्या हो रहा है, नगरों की साहित्यिक हलचलें कैसी हैं। मैं सोचता रहता यह कवि इतनी ऊंचाई पर पहुुंच कर कैसे इस उम्र में एक बच्चे की सी उत्सुकता के साथ जी रहा है, मार्क्सवाद को शायद इसी तरह से उन्होंने जीवन में ग्रहण किया था, परिवेश से लगाव और अपने समय से एक द्वंद्वात्मक रिश्ता कैसे रखा जाए, केदार उसके स्कूल थे। केदार जी से पहली बार मिलकर आपको कभी न लगता कि आप एक शिखर पुरूष से मिल रहे हैं। हो सकता आपको उनके अंदर नागार्जुन सा चुम्बकत्व एक फक्कड़ अंदाज या त्रिलोचन सा पांडित्य और किस्सा गो न मिले, पहली-पहली बार यह भी लगे, उनके कमरे की किताबें देखकर, कि आप एक पढ़े लिखे वकील, कवि से मिल रहे हैं। जो मितभाषी हालचाल पूछ कर चलता करता था। यह था भी, पर आप में कुछ झलक जाए तो फिर आने का न्योता देना नहीं भूलते थे। वो अक्सर एकांत क्षणों में निराला जी के बांदा आने कर जिक्र करते, जवानी में साइकिल से कानपुर से लखनऊ उनसे मिलने जाने का भी , बाबा या त्रिलोचन जी के बांदा आने का।

केदार जी में एक बात जो विशेष थी कि किसी से बात करते हुऐ तुरंत सतर्क हो जाते, मुझे लगता है, उनके जीवन व्यवहार में उनका वकील साथ-साथ ही रहता था केदार के कवि निर्माण में उन छोटी-छोटी बातों का समावेश था, जिसको अक्सर लोग नजर अंदाज कर जाते हैं, वो केवल उप केन को देखकर ही नहीं लौट आते थे, उसके कगार, किनारे पत्थर फसल, मछुूआरे, ये सब मिलकर उनके मन को रमते थे, अक्सर पूंछते नदी हो जाते हो किनारे वाला मन्दिर इस बाढ़ में बचा कि ढह गया, नाव घाट में सुना है, अब मुर्दे फेंके जाते हैं। इन लोगों ने नदी गंदी कर दी है। उम्र में इस कवि के पास इतना धड़कता ह्नदय इतना गहरा लगाव अचंभित कर देने वाला था।

केदार जी को सदा इस बात का मलाल रहा कि नामवरसिंह जैसे आलोचकों ने उनकी गहरी उपेक्षा की और उनको मेरे लेखन में केवल ‘लाल चुनरिया में लहराते अंग रहेंगे’ ही दिखा, हालांकि अंत तक  वो उस कविता के पक्ष में रहेे। उनका कहना था हम लोगों को ठेल ठाल कर पीछे करने और मुक्तिबोध को आगे लाने की साजिश थी, यह एक तरह की । और मुक्तिबोध को लेकर मुझसे कई बार असहज हुये और डांट तक चुके थे। मुझे लगता है, केदार जी ने अपने लोक से जुड़कर जहां तक चेतना का विस्तार कर लिया था, साधारण अभिजात आलोचना वहां तक पहुंच भी नहीं सकती । केदार जी एक बात बार-बार कहते, केशव मुझे कचहरी ने मनुष्य बनाया और यह वकील उनके साथ अंत तक रहा भी। एक ईमानदार वकील, जिसने बांदा जैसे अपराध बहुल जनपद में डी.जी.सी. क्रिमिनल रह कर चार आने हराम के हाथ से नहीं छुए, किसी बेईमान की चाय भी नहीं छुई। केदार जी ने जिन मापदंडों को गढ़ा था, उसको पूरे जीवन जिया, उनका मनुष्य पर गहरा भरोसा था। उनके सेवक बुद्धू नन्ना, जो दरवाजे पर ही जीने तक सोये और केदार जी के काफी पहले चले गए, एक बार अजय तिवारी से बाबू जी की बात हो रही थी, मैं पेशाब के लिए बाहर निकला तो नन्ना ने कहा, ‘‘ तिवारी तुम्हु लिखथियु मैं तो लंठ हो या हरी पत्ती, पीली पत्ती, अजय तिवारी को बता रहे हैं , मोहूं का समझावा । ’’ मैं तेजी से हंस पड़ा बाबू जी बोले बुद्धू ऐसे ही हैं , पढ़े-लिखे नहीं, पर निहायत ईमानदार। मैंने कहा बिना पढ़े ही ठीक हैं,  वो भी हंस पड़े। मुझे यहां पर एक उपनाम रशियन लेखक स्पिरिकिन का एक कथन याद आता है- ‘‘ मनुष्य के कल्चर लेबल को समझने के लिए दो चीजे हैं। पहली वह अपने संबंधों में कितना साफ है। दूसरा उसका प्रकृति से क्या रिश्ता है। ‘‘ इस तरह से देखा जाये तो बाबू जी और उनके प्रकाशक शिवकुमार सहाय के रिश्ते को याद करना चाहिए, रामविलास जी से उनके रिश्ते का स्तर मित्रता का था।

सहाय साहब और परिमल प्रकाशन और बाबू जी एक-दूसरे के पर्याय थे, कहते केशव जब किसी ने नहीं छापा, सहाय ने छापा, अब सब चक्कर लगाते हैं। मैने कह दिया सहाय ही छापेंगे, कभी एक पैसे की बात नहीं, कभी ब्लैक एंड व्हाइट पोर्टेबल टीवी खरीद गए वो भी जबरदस्ती, बस जन्मदिन के आयोजन में इलाहाबाद से लोगों को अपने खर्चे पर लाना, सम्मिलित होना । वो भी सहाय के बाद उन लेखकों को क्या हो गया, यह हिंदी जगत की अकथ कथा है। बार-बार सहाय जी पर आरोप लगता केदार का साहित्य फैला नहीं पा रहे हैं, पर केदार जी को इसका कोई मलाल नहीं रहा। कविता कैसे किसी कवि को बड़ा मनुष्य बनाती है। केदार जी इसके उदाहरण थे, एक बार कहीं जमीन के झगड़े में अदालत से भेजे गये, तो सामंतों ने सर पर लाठी मारी सिर फट गया तो भाग कर जान बचाई, बड़ी कृतज्ञता से कहते ‘एक महिला ने सिर पर कपड़ा बांधा’ और यह भी कि ‘ अभी ये यही करेंगे, जब तक चेतना इन तक नहंी पहुंचती। ’ ये थे केदार ।

एक बात जो वह बड़ी ताकत से कहते कि निराला की ‘ राम की शक्ति पूजा’ में निराला जब शक्ति का आह्नान करते हैं , उससे सहमत नहीं हूं। बात डाइलॉग से निपटनी चाहिए मारकाट से नहीं । वो साफ कहते हैं, मैं झंडा लेकर नहीं चल सकता मैं पूछ बैठता ये ‘काटो, काटो, करबी काटो। हिंसा और अहिंसा क्या है तो आपने ही लिखा था’ तो जवाब आता कि वह एक वक्त था। बांदा की स्थानीय राजनीति से पूरी तरह वाकिफ कौन कवि क्या लिखता है और उनके बारे में क्या दुप्रचार करता है। जानते हुए कभी विचलित नहीं दिखते। डॉ0 रणजीत, जिनसे उनकी बाद में गहरी असहमति हुई , आना-जाना बंद हुआ, पर उनकी स्कूटर उन्हीं के अहाते में खड़ी होती । विधवा बेटी और उसके उद्दंड बेटे से काफी चिंतित रहते। कुछ दिनों के लिए मद्रास जाते तो पत्र आते नवदुर्गा है, इन दिनों कहां की मूर्ति सबसे अच्छी है, मैं स्वयं देखने ना जाने की बात कहता तो कहते एकाध दिन देख आओ, केन के हाल पूछते। अपने बांदा के शिष्य श्री कृष्ण मुरारी पहारिया से काफी आहत रहे, कहते रहे इतनी ऊर्जा के बाद भी यह बरबाद हो गया। अगर कोई सरकारी बड़ा अफसर कभी मिलने आ जाता तो हां-हूं करके टरका देते कहते ये बेईमान है, इन्हें जानता हूं। फिर वह उनके घर की ओर मुंह करता ।

डॉ0 अशोक त्रिपाठी से उनका पुत्रवत स्नेह रहा और उनके हर जन्मदिन में वो आते और कार्यक्रम का संचालन करते। अजय तिवारी की आलोचना से उनकी गहरी सहमति बनती । रामविलास जी के न रहने के बाद एक बहुत उदास शाम में जो आज तक मेरे जेहन में है , उन्होने कहा , ‘ केशव रामविलास हिंदी का बड़ा आदमी था, केवल मित्र नहंी था, बड़ा मनुष्य था। सब खत्म हो गया । ’ एक बात केदार जी राजनीतिक कविताओं को पढ़ कर और उनसे मिलकर जो उठती थी कि वो प्रकट जगत में उससे दूर ही रहते, ये बात सामाजिक भूमिका की एक सीमा बना रखी थी। कभी-कभी कह उठते ‘तार सप्तक’ में मुझे भी निमंत्रण आया । मैने कोई जवाब नहंीं दिया एक कविता का ‘ऑंखों देखा ’ जिक्र करते बताते इलाहाबाद रेडियो स्टेशन कविता पढ़ने जा रहा था, सुमित्रानंदन पंत को संचालित करना था, घबरा रहा था, नामी लोग आ रहें थे। पैंसेंजर से निकला ‘ बहिलपुखा ’ स्टेशन में शाम झुमुक रही थी तो पलाश के पेड़ को देखकर रास्ते में यह कविता लिखी और बहुत तारीफ हुई। अगर कहीं कोई उन पर एक लाइन लिख दे, बार-बार कहते ‘ यार ’ क्या लिखा है, बताओ, अगर कुछ दिन न जाऊं रामस्वरूप हाजिर बाबू जी पूंछ रहे थे और अगर बहाना मारा तो बोले , रामविशाल कह रहे थे चौराहे पर सिगरेट फूंक रहे थे, मुझसे उड़ते हो।

एक फिर अवसाद के क्षणों में उन्होंने कहा, केशव डटे रहो, जो  करो उस पर विश्वास रखो, मैने यही किया है। सब चमकदमक छोड़, बांदा में रहकर केवल ईमानदारी से कविता को साधा है। कोई इसे कविता माने या न मानें । एक बात आवश्य थी, बाबू जी ने एक बार आपके बारे में जो अवधारणा बना ली उसे बदलते नहीं थे। कभी-कभी मुझे यह असहज जरूर करता था। इससे उनके कुछ अति निकट लोग उनसे कहे भी, पर उन्होंने इसकी परवाह नहीं की । मैं कहता तो चुप हो जाते कुछ जवाब न देते । आगे चलकर उनकी बाबा और त्रिलोचन जी से कुछ असहमतियां हुई।

एक वाक्या याद आता है, एक बार हम बाबू जी के साथ इलाहाबाद उन पर आयोजित एक कार्यक्रम में गये, जिसमें श्री अमरकांत , शेखर जोशी, रवीन्द्र कालिया, दूधनाथ सिंह, अजीत पुष्कल तथा इलाहाबाद के युवा  साहित्यकार, बाहर से अजय तिवारी, अशोक त्रिपाठी थे। कुछ लोगों ने प्रश्न उठाया कि केदार निराला से बड़े कवि नहीं हैं । मुझे जाकर इसका प्रतिकार करना पड़ा कि यह प्रवृत्ति ही हिंदी में ठीक नहीं है, इन सब ने अपना समय में कैसे दखल दी , ये देखना चाहिए । केदार जी काफी प्रसन्न दिखे, फिर हम अमृत राय जी के यहां गये, वहां केदार जी ने कहा-‘चम्पा काले अक्षर नहीं चीह्नती है में क्या है। ’ प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा, उस नामुराद की वही कविता और तुम्हारी ‘ गर्रा नाला’ कविता ही सबसे ज्यादा भाती है। मुझे, उन दिनों बाबू जी, शास्त्री जी के किसी बयान से खफा थे और खुलकर बोले, ये थी वह दृढ़ता , जहां लोग सोंट खीच जाते हैं । केदार डट जाते थे । ढंकी खुली असहमति उनकी हरदम त्रिलोचन जी की कविता को लेकर बनी रही । केदार जी पैसे को लेकर काफी सतर्क रहते। पाई-पाई का हिसाद डायरी में लिखते, कहते कवि को रोटी का इंतजाम सबसे पहले करना चाहिए, अपव्यय नहीं । मुझे कुछ अजीब लगता तो कहते बाद में समझोगे। केदार जी के बाद के दिनों में अचानक लगा जैसे वो स्मृतिलोक में चले गए, उसी दौरान उन्होने भगवता, बागी घोड़ा तथा अन्य कविताएं लिखीं, जिनका पहला पाठक भी मैं रहा । डायरी पकड़ा देते पढ़ो, और तख्त पर पालथी मारकर मुग्ध होकर बैठ जाते। मुझसे मेरी राय मांगते, मैं हिचकिचाता तो बोलते, नये आदमी हो नई नजर से देखो।

केदार जी से  मिलकर यह बार-बार महसूस होता इस व्यक्ति को खंड-खं डमें नहीं समझा जा सकता है, इसने अपने व्यक्ति के कई-कई खाने नहीं बना रखे हैं, अपने लिखे के प्रति इतना विश्वास दुर्लभ है। कई-कई बार कह उठते, केशव देखो ये बेला को इतने दिनों से पानी दे रहा हूं। फूलता नहीं । मैं उनका चेहरा देखता रह जाता , क्या-क्या चिंतायें हैं इस कवि की। एक तरफ सामंतों पर बज्र चलाता है, एक तरफ फूल के न खिलने से उदास है। आखिरी वक्त जब उनसे मिला तो डॉ0 भार्गव उनके पैर में प्लास्टर बांध रहे थे, उस पीड़ा में उन्होंने मेरी ओर देखा कहां रहे यार, देखो मेरा पैर टूट गया है। फिर लखनऊ में उनके न रहने की सूचना मिली। सब याद करते उनकी एक कविता जेहन में रह-रह बोलती है-

केशव तिवारी  
‘‘पक्षी जो अभी-अभी उड़ा/और बोलती लकीर सा अभी/नील व्योम वक्ष में समा
गया/ गीत वहां गाने के लिये गया/गायेगा/और लौट आयेगा/पक्षी जो एक अभी-अभी उड़ा।’’


                                      


 केशव तिवारी हिंदी के सुपरिचित कवि हैं 


नाम               - केशव तिवारी
शिक्षा              -  बी0काम0 एम0बी00
जन्म              -   अवध के एक ग्राम जोखू का पुरवा में
प्रकाशन            -    दो कविता संग्रह प्रकाशित  1... “इस मिट्टी से बना”
                                                     2... “आसान नहीं विदा कहना”
सम्प्रति                  -     हिंदुस्तान यू0नी0 लीवर लि0 में कार्यरत्

                  -     कविता के लिये सूत्र सम्मान:      
                  -    सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित |
                  -   कुछ कविताओं का मलयालमबंगलामराठीअंग्रेजी में अनुवाद
संपर्क              -  द्वारा – पाण्डेय जनरल स्टोर , कचहरी चौक , बांदा (उ.प्र.)
मोबाइल न.         – 09918128631 

बुधवार, 13 जून 2012

अपनी जमीन का कवि -- केशव तिवारी


                    
                                    केशव तिवारी 

                                   
हिंदी के जाने पहचाने आलोचक रेवती रमण का युवा कवि केशव तिवारी की रचनाओं पर केन्द्रित यह लेख "आधारशिला" पत्रिका में छपा था  | 'सिताब दियारा' ब्लाग इस महत्वपूर्ण लेख को आपके समक्ष प्रस्तुत करते हुए गर्व का अनुभव  कर रहा है | 

              
                अपनी जमीन की कविताएं

 केशव तिवारी हिन्दी के एक ऐसे युवा कवि है जिनकी कविता का एक जनपद है। उनका आंचलिक वैशिष्ट्य भाषा और संवेदना-दोनो ही स्तरों पर स्पष्ट लक्षित होता है।  प्रगतिशील यथार्थवादी कविता परम्परा का असर उनकी अभिव्यक्ति को अनुकृति या प्रतिकृति सिद्ध नहीं करता। लेकिन समकालीन परिदृश्य में जो नये ढंग का रीतिवाद प्रचलित है, उससे मुक्त वह इस वजह से ही रह सके हैं कि उनकी अपनी एक जमीन है, ग्राम,समाज और जनपद की वेदना और वैभव की पुकार है केशव की कविता। वह भीतर से भरे हुए की शब्दावली है इसीलिए उत्तर आधुनिक प्रेतात्माओं से प्रभाव-ग्रहण किये बिना ही केशव की कविता खुद का संदर्भ रचती है। उसमे अन्तर्वस्तु ग्राम परिवेश है और जो बड़ी तेजी से बदल रहा है। बदलाव इतना त्वरित है कि पहचान का संकट गहराने लगा है। केन नदी से लेकर बेतवा के विस्तार तक केशव की कविता का जनपद उनके कवि-कर्म का स्वानुभूत जीवन-द्रव्य हैं। उन्हें पढ़ते हुए केदार नाथ अग्रवाल और विजेन्द्र का स्मरण संस्मरण जैसा नहीं लगता।  गालिब और त्रिलोचन दोनों का सहयोग है।
           
सच यह भी है कि केशव तिवारी तीन पीढ़ियों के अनुभव-यथार्थ का भार वहन करते हैं-दो समानान्तर विचार-व्यवस्था और विसंगति-बोध के साथ। बावजूद इसके कि मौजूदा यथार्थ कवि के स्मृति -लोक का निषेध है। केशव का मनोवांछित स्मृति-निर्भर है। पर जो चुनौती के रूप में उन्हें चिढ़ा रहा है, वह बाजार और व्यभिचार है, जिसकी आकृति किसी तिलिस्म से कम रहस्यमय नहीं है। तथापि केशव एक प्रतिबद्ध और पक्षपर कवि हैं, उनमें एक खास तरह की विहंगता है, अपने समय की प्रायोजित चिन्ताओं की शल्य-चिकित्सा के युवा-उत्साह के बावजूद मितकथन का संयम है। मानवता के लिए करुणा की एक संक्षिप्त पूंजी भी है उनके पास। इसलिए हम कह सकते हैं कि उनका आरंभ ही अन्त नहीं होगा, आनन्द की साधनावस्था की जो श्रेणी है, केशव उससे ही जुड़ते हैं।
           
केशव के दो संग्रह अब तक प्रकाशित हो चुके हैं,- 1. ‘इस मिट्टी से बना’ (2005) और आसान नहीं विदा कहना’(2010) पहले की भूमिका विजेन्द्र ने लिखी हैं और दूसरे की डॅा0 जीवन सिंह ने। डॅा0 रमाकान्त शर्मा ने भी  बुन्देलखंड जनपद की सजीव प्रस्तुतिके लिए केशव की प्रशंसा की है। विजेन्द्र की मानें तो केशव के  पास अपनी जमीन है और अपना बीज भी ।इन तीन महानुभाओं की सहमति स्वीकृति, यात्रारंभ की बड़ी उपलब्धि मानी जायगी।
           
केशव तिवारी का दूसरा संग्रह आसान नहीं है विदा कहनाउनके पहले संग्रह से बेहतर है। हम दावे से यह नहीं कह सकते। क्योंकि इसमें भी वहीं ताजगी है। जीवन सिंह के शब्दों में कहे तो जीवन के रस में पगी हुई हैं- वे कवितांए जीवन की नदी में नहाकर निकली हैं।, इस संग्रह की कविताओं में भावुकता परम निश्छल है, इतनी बढ़ी हुयी।कि कवि पहाड़ो के लिए भी घर की कामना करता हैं। घर होगा तो यह भी सो सकेंगे।सूरज जेठ में जब सर चढ़ेगा तो उसके तीखे ताप से बच सकेगें, यह कहते हुए कि कुछ चुजों के आंखें खोलने का मौसम है।’ (पृ-23) पहले संग्रह की कविताओं नदी-जल की प्रवहमान निरन्तरता है लेकिन दूसरे में पहाड़ों का पथराया हुआ चेहरा संतप्त है। वक्त का आईना इतना धुंधला गया है कि उसके एक कोने में, अत्यन्त छोटे हिस्से में बचा रह गया है उजाला।
           
बांदाशीर्षक से केशव के दोनों संग्रहों में कविता हैं। पहली में बांदाके मानिक कुइयां, छाबी तालाब, टुनटुनिया पहाड़, केन नदी  और उसमें पाये जाने वाले मूल्यवान पत्थर शजरकी चर्चा है। बांदामें खास कुछ है जो केदार को कहीं और टिकने नहीं देता था।  वे लौट-लौट आते/जानने को इसका हाल। कवि की दृष्टि में किन्तु यह शहर है बोड़े हलवाई, ढुलीचन्द मोची और चमड़े पर उस्तरा देते पीरु मियां का।’ (इस मिट्टी से बना, पृ. 31-32) नये संग्रह में बांदाकविता बड़ी हो चली है। इसमें 1857 के नवाब नायक, कामरेड दुर्जन, प्रहलाद, तुलसी, पद्माकर, केदार को लोग याद क्यों नहीं रखते, इस बात का क्षोभ दर्ज कराया गया है। हकीकत यह भी है कि स्वयं केशव तिवारी को बांदा अपने से अधिक समय दूर नहीं रहने देता। उनके बाहर रहने पर बांदा आकर खड़ा हो जाता है सिरहाने/कहता है घर चलो/महाकौशल टेªन से लौटते हुए वह देखता है भूरागढ़ का दुर्ग। नागार्जुन के बांदा आने परकेदार की बड़ी प्रसिद्ध कविता है। केशव ने गालिब के बांदा आने पर अपने अनोखे अन्दाज में लिखा है। गालिब को उन्होंने देखने का एक फटेहाल परेशान शायर कहा है। बांदा में कभी रहीम भी आये थे, अपने दुर्दिन में जब दिल्ली ने उन्हें देश निकाला दे दिया था। केशव तिवारी बांदा को इसलिए भी महत्व देते हैं कि दिल्ली के दर्प को उसने कभी नहीं कबूला।गालिब के जाने-माने शेर से बांदाकविता का समापन हुआ है-
                                               
                           इब्ने मरियम हुआ करे कोई
                                                मेरे गम की दवा करे कोई।
           
यह गम गालिब का है तो बांदाके कवि केशव तिवारी का भी है जिसे विगत वैभव की स्थिति है लेकिन स्वाभिमान बेचना बिल्कुल नहीं । उत्तर छायावाद के एक अत्यन्त लोकप्रिय कवि थे गोपाल सिंह नेपाली। वह कविता को स्वाभिमान की सुगन्ध कहते थे। सपने और स्वाभिमान के अभाव में कविता जातीय संगीत नहीं अनर्गल प्रलाप ही हो सकती है। गालिब की परेशानी में केशव अपने समय के सबसे संवेदनशील मनुष्य की परेशानी लोकेट करते हैं।
           
केन के पुल पर शामकी नाभि पर कवि की अनुराग बांसुरी बाम्बेसुर पहाड़ी से झांकते चांद की रोशनी में आलोकित हो उठती है। प्रेम करने के लिए जैसे एक खानाबदोश को सब समय नये ठिकाने की तलाश रहती है। इस कविता में नटवीर की समाधि का प्रसंग आता है, जिसने एक बादशाह की बेटी से प्रेम करने की हिम्मत की थी और जिसकी याद में आज भी वहां मकर संक्रान्ति में आशिकों का मेला लगता है। (पृ.-52 ) इसमें एक कविता त्रिलोचन जी के लिएभी है। उनके लिए प्रयुक्त जतीशब्द कितना सटीक और व्यंजक है। भदेस और देसी कहकर जिसे विद्वानों ने दुत्कारा-वह साहित्य के निर्जन में पेंडुकी के स्वर में निरन्तर बोलता रहा। मौनभरी बेईमानी की गांठें खोलता रहा। अपने जनपद का पक्षी वह विश्वगगन को तोल रहा था।’ (पृ.-73 )
           
अवधीके जायसी-तुलसी-त्रिलोचन से केशव तिवारी का अपनाया भाषा की संस्कृति में अपने पूर्वज के प्रति सम्मान से कहीं अधिक सृजन-संवाद हैं। अवध की संस्कृति की शान है बिरहा, कजरी, नकटा, आल्हा, चैती। केशव की कविता की लयात्मक समृद्धि के पीछे लोक संवेदना और लोक संगीत है। जिस कवि की मातृ-भाषा अवधी हो और कर्म-क्षेत्र का विस्तार विशाल बुन्देलखण्ड, उसका अनुभूति क्षेत्र बड़ा होगा ही। केशव गहरी क्षमता से केदार और त्रिलोचन के सृजन-जनपद को मिलाने और आत्मसात करने की कोशिश में हैं। मानों अवध का अनुरागी बुन्देलखण्ड के अन्न-जल से अपनी भूख-प्यास को मिटाने की कोशिश कर रहा हो। इस प्रक्रिया में ही केशव की कविता स्थानिक उपकरणों से लैस होती है।
           
मैं कहना यह चाहता हूं कि केशव तिवारी के काव्य में लोकधर्मिता की समृद्धि का कतई यह अर्थ नहीं है कि, वे कविता में अपने कारणों से नहीं आए हैं। उनकी आरंभिक कविताओं में पारिवारिकता के सधन संदर्भ हैं। मां, पिता, आजी, नानी, को लेकर उनकी अभिव्यक्ति सहज मानवीय है। वह जनपदीय जीवन-व्यापार का प्रस्थान-बिन्दु हैं। व्यक्ति-राग का निश्छल और सघन किन्तु समकालीन संस्करण केशव तिवारी की उपलब्धि है। उनकी एहसासकविता की आरंभिक पंक्तियां हैं।

इसके सिवा/हम कर भी क्या सकते थे
कि जिस फिसलन भरे रास्ते पर हम खड़े हैं
खुद को/फिसलन जाने के भय से मुक्त रखें (पृ.-56)

कोई बड़ा दावा नहीं, दंभ और दहाड़ नहीं। बहुतेरे खाई में गिरकर भी शिखर पर होने का विज्ञापन कर रहे होतें हैं, उन्हें अपना सब बढ़िया-सुन्दर-श्रद्धेय जंचता है, अन्य का हेय और अकार्य। केशव की कविता में आत्म वैभव का विज्ञापन नहीं है। वैसे, संप्रति, फिसलने से बच रहना साधारण तप नहीं है। यह उस साधना का स्थानापन्न है जिसे विजेन्द्र श्रेष्ठ कविता-कर्म की निधि मानते हैं। केशव का विश्वास चैत के घोर निर्जन में खिले पलासका बिम्ब है।
           
मैं मानता हूं कि इस कवि की सामाजिक राजनीतिक चेतना उपेक्षणीय नहंी है पर उसका केन्द्र कवि की प्रेमानुभूति ही है-
                        तुम्हारे पास बैठता और बतियाना
                        जैसे बचपन में रुक-रुककर
                        एक कमल का फूल पाने के लिए
                        थहाना गहरे तालाब को
                        डूबने के भय और पाने की खुशी के साथ-साथ
                        डटे रहना...... जैसे अमरूद के पेड़ से उतरते वक्त
                        खुना गई बांह को/साथ-साथ महसूस करना (पृ.-54)
           
इस कविता की अन्तिम पंक्तियां केशव की कवि-प्रकृति को समझने में सहयोग करती हैं-
                       
              तुम्हारे चेहरे पर उतरती झुर्री
                        मेरे घुटनों में शुरू हो रहा दर्द
                        एक पड़ाव पर ठहरना
                        एक सफर का शुरु होना (पृ.-54)
           
यहां काजी गांव के अन्देशे से दुबला नहीं होता है ।  जिस झुर्री की बात कर रहा है कवि वह उसके हमसफर के चेहरे तक ही सीमित नहीं रहती। यह वह झुर्री है जो प्रेमिका के चेहरे पर ही नहीं, कवि के कुल समय को अपनी गिरफ्त में ले चुकी है । वह केशव के रचना-समय की सबसे बड़ी चुनौती है बाजार।इसलिए पेड़, पहाड़, नदी के चरित्र-चित्र से ही केशव की क्षमता का अन्दाजा लगाना उनकी मुश्किलों को अनदेखा करना होगा।
           
केशव के नये संग्रह में एक कविता बेचैनीहै-
                       
              एक बेचैनी/जिसने रचा इस दुनिया को
                        एक बेचैनी/जिसने कायम है यह दुनिया
                        एक और बेचैनी है/जिसे मैं
                        तुम्हारी आंखों में देखता हूं। (पृ.-44)
           
यहां देखनेका समकाल केशव की वर्णना का वैशिष्ट्य है। राम की शक्ति-पूजामें निराला  के राम, सीता, की आंखों में केवल अपनी छवि देखते हैं। केशव-प्रिया की आंखों में जो बेचैनी है वह सृजन और संरक्षर से ऊपर की बेचैनी है। यह बचाव की मुद्रा है। उत्तर आधुनिक महानगरीय आपाधापी में खुद के लिए एक स्पेस की चाहत है। पर वहां तो पार्को में भी जगह नहीं बची। कभी मयाकोब्स्की ने कहा था-आज हमारे रंग की कूंची हुई सड़कें/और कैनवास हुई पार्क, गलियां, चैराहे।केशव आज के संदर्भ में चुनते हैं तो उनकी सारी उत्सवधारीयता हवा हो जाती है। सही है कि बाजार सभ्यता के जन्म से ही उसके साथ है। लेकिन दादा जी के लिए बाजार का अर्थ था गांव लड्डू बनिया। पिता के लिए वह बाजार जैसा बाजार रहा। आज वह सर्वग्रासी रूप में सामने है। कवि के लिए एक तिलिस्म-जैसा नहीं, एक तिलिस्म बाजार में इज्जत खरीदने की क्षमता से मिलती है। यह क्षमता कविता नहीं देती । केशव की उलझने इस वजय से बढ़ी हैं । लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर। जो पहले सिंह-सा दहाड़ते थे, बिगड़ैल सांड़-सा फुफकारते थे और जिन्हे लगता था कि देश और जाति का स्वाभिमान उन्हीं से है-वे सियार सा हुहुचा रहे हैं, बगलें झांक रहे है। कवि का अनुभव है-
घने कीचड़ में फंसता है गरियार बैल
तब जुआं छोड़ कर बैठ जाता है वहीं
फिर कुसिया से खोदने पर भी उठता नहीं ।
           
केशव भीतर-बाहर शिख से नख तक सह्दय हैं, कवि हैं। उनका अन्तर्घट लबालब है-जो जरा-सा हिल जाने से छलक पड़ता है। इसमें खोने-पाने के खेल में कुछ न पाकर भी किंचित गंवा देने का आभास नहीं है। जैसे मुक्तिबोध के लिए कवि-कर्म सहर्ष स्वीकाराहै। केशव का भी यही सच है। कवि -कर्म कठिन है, अफसोस नहीं । रही बेचैनी की बात तो चैन तो फुटपाथ पर भी  मिल जाता है और बेचैनी महलों को ललकारती है । केशव की काव्य भाषा में खोने-पाने का संदर्भ आम आदमी की दिनचर्या की सादगी और सफाई से प्रतिकृत है। था कुछ और ।
सोचा था कि दादा जी की तरह पेड़ लगाऊंगा
खुले कठं से चैता गाऊंगा
दादा की तरह ही चैपाल पर बैठूंगा
मूंछें ऐंठूंगा
हल्के-हल्के मुस्कराऊंगा।

लेकिन हो रहा कुछ और है। कवि को चाकरी करनी पड़ रही है और वह कैरियर की खोह में फसं कर रह गया है।
रोज तरह-तरह के समझौते
घिसट-घिसट कर निभाना।
           
घर और कार के लिए ऋण लेना और मरते दम तक चुकाना। नये उपनिवेशवाद का सामना पुराने मोंथरे औजारों से, हथियारों से कैसे हो। केशव तिवारी की कविताएं सभ्यता-समीक्षा की नई तहजीब हैं। इसमें खुद को भी जांचते-परखते रहने की तरकीबें हैं।


                                रेवती रमण हिंदी के सुपरिचित और महत्वपूर्ण आलोचक हैं             



नाम               - केशव तिवारी
शिक्षा              -  बी0काम0 एम0बी00
जन्म              -   अवध के एक ग्राम जोखू का पुरवा में
प्रकाशन            -    दो कविता संग्रह प्रकाशित  1... “इस मिट्टी से बना”
                                                     2... “आसान नहीं विदा कहना”
सम्प्रति                  -     हिंदुस्तान यू0नी0 लीवर लि0 में कार्यरत्

                  -     कविता के लिये सूत्र सम्मान:      
                  -    सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित |
                  -   कुछ कविताओं का मलयालमबंगलामराठीअंग्रेजी में अनुवाद
संपर्क              -  द्वारा – पाण्डेय जनरल स्टोर , कचहरी चौक , बांदा (उ.प्र.)
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