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रविवार, 15 सितंबर 2013

ईरान का सिनेमा - दूसरी कड़ी ----जफ़र पनाही

                                  जफ़र पनाही 


ईरानी फिल्मकारों पर चल रही इस श्रृंखला में पिछले सप्ताह हमने माजिद मजीदी पर बात की थी | अपने वादे के मुताबिक़ इस सप्ताह हम ईरानी-नई धारा के एक और महान फिल्मकार ‘जफ़र पनाही’ की फिल्मों को देखने-समझने की कोशिश करने जा रहे हैं | याद रहे कि यह कोशिश कोई अकादमिक कोशिश नहीं है , वरन बतौर दर्शक इन फिल्मों को देखने के दौरान उठने वाले विचारों की साझेदारी है | जाहिर है , आप इसमें अपनी राय को जोड़कर इसे और अधिक समृद्ध बना सकते हैं |

      

        तो सिताब दियारा ब्लॉग पर प्रस्तुत है ईरानी फिल्मकारों की श्रृंखला की दूसरी कड़ी
                                                 
                      

                      जफ़र पनाही

‘जफ़र पनाही’ का जन्म 1960 में हुआ था , और यही वह समय था , जब ईरानी सिनेमा में नई-धारा का पदार्पण भी हो रहा था | सेना की नौकरी से अलग होने के बाद, जब ‘पनाही’ का फिल्मों के साथ जुड़ाव शुरू हुआ , तो उन्हें इस नई-धारा के एक महान फिल्मकार ‘अब्बास किआरुस्तमी’ की शागिर्दी नसीब हुयी | ‘जफ़र’ ने उसे दोनों हाथों से बटोरा , और ‘किआरुस्तमी’ के काव्यात्मक – चित्रात्मक अंदाज को अपनाते हुए , उसमें अपनी खासियतों को भी जोड़ा | और ये खासियतें, मानवीय आधारों पर चलते हुए राजनीतिक सन्देश देने की कोशिश की थी | वे सीधे–सीधे ईरानी समाज के पास गए , और वहीँ से उन्होंने पात्रों को उठाया | न सिर्फ विषय-वस्तु के स्तर पर , वरन अभिनेता-अभिनेत्रियों को चुनने के आधार पर भी | मानवीय और यथार्थवादी आधारों पर अपनी फिल्मों को रखते हुए उन्होंने संवेदनशीलता का वह अद्भुत ताना-बाना बुना , जो आज ईरानी सिनेमा का नया आधार कहलाता है | यह अनायास नहीं है , कि उनकी फिल्मों में कोई खलनायक नहीं होता है , वरन उनकी उस समझ का विस्तार ही है , जिसमें वे मानते हैं कि मनुष्य स्वभावतः अच्छा प्राणी होता है | इसलिए उनकी फिल्मों में विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी अच्छे आदमियों का उपस्थिति , इस उम्मीद के साथ सदा बनी रहती है , कि यह दुनिया एक न दिन जरुर बेहतर होगी | जैसा कि वे खुद कहते हैं कि “हम किसी को रुलाना नहीं चाहते , लेकिन साथ ही साथ हम अपने समाज से मुंह भी नहीं मोड़ सकते |”


1950 से 1979 तक अमेरिकी जकडबंदी और फिर 1979 के बाद धार्मिक दबावों के बीच विकसित होने वाले ईरानी सिनेमा की राह आसान तो कत्तई नहीं थी | लेकिन अच्छी बात यह हुयी , कि फ़िल्में उन दबावों के बीच से ही बनी , और खूब बनी | चूकि ऐसे दबावों और प्रतिबंधों के बीच वह सिने-अभिव्यक्ति के परम्परागत आधारों को नहीं अपना सकता था , इसलिए उसने वहां के जीवन और समाज को दिखाने के लिए वैकल्पिक तरीका अपनाया | विषय-वस्तु के रूप में ईरानी-सामान्य जनजीवन को चुना गया और पात्रों के रूप में बच्चों को | सेंसर बोर्ड से बचने के लिए अपनाए गए इस जरुरी तरीके की सफलता इस बात पर निर्भर करती थी , कि उसे संवेदनशीलता के उच्चतम स्तर पर ले जाया जाए | ईरानी फिल्कारों ने यह काम बखूबी किया | वे इस तथ्य से परिचित थे , कि उनका थोड़ा भी राजनीतिक होना , ईरानी सत्ता-प्रतिष्ठान को नागवार गुजरेगा , और वह उनपर अपना चाबुक चला देगा |


मसलन ‘जफ़र पनाही’ के उदाहारण से हमें यह भान हो सकता है , कि ईरानी सिनेमा ने किन कोनें-अंतरों में रहते हुए यह काम किया है | जब तक ‘जफ़र’ लघु-फ़िल्में बनाते रहे , या ‘THE WHITE BALLOON’ और ‘THE MIRROR’ जैसी गैर-राजनीतिक फ़िल्में , तब तक तो वे सुरक्षित रहे , लेकिन जैसे ही उन्होंने ‘THE CIRCLE’ और ‘OFFSIDE’ जैसी फिल्म बनाने की सोची , वे सत्ता-प्रतिष्ठान की आँखों में चुभने लगे | उनकी फिल्मों को, न सिर्फ ईरान में प्रतिबंधित कर दिया गया , वरन मार्च 2010 में उन्हें गिरफ्तार भी कर लिया गया | उन पर ‘राष्ट्रीय-सुरक्षा के लिए खतरा’ होने का आरोप लगाया गया , और 6 साल के जेल की सजा सुना दी गयी | इतना ही नहीं , उन्हें 20 वर्षों के लिए फिल्म बनाने से प्रतिबंधित भी कर दिया गया | वर्तमान में उनका मुकदमा अपील के स्तर पर है , और किसी भी समय उन्हें अभिव्यक्ति की कीमत चुकानी पड़ सकती है |


इस पृष्ठभूमि को जान लेने के बाद ईरान और ख़ास-तौर पर ‘जफ़र पनाही’ की फिल्मों पर बात करना थोड़ा आसान हो जाता है |

                     
               द व्हाइट बैलून ........   (the white balloon )


‘जफ़र पनाही’ द्वारा निर्देशित इस पहली फिल्म में , एक मजबूत ईरादों वाली छोटी बच्ची ‘रेजिया’ के संघर्ष को दिखाया गया है , जो नए साल पर अपने लिए ‘लकी गोल्ड फिश’ खरीदना चाहती है | इसके लिए वह अपनी माँ से जिद करती है , और पैसे भी ले लेती है | परिथितियाँ कुछ ऐसी बनती हैं , कि उसका 500 तोमर (ईरानी मुद्रा) का वह नोट , एक ऎसी सूखी हुयी नाली में गिर जाता है , जिसके ऊपर से लोहे की ग्रिल चढ़ा हुआ है | हालाकि फिल्म उस पैसे को पाने के लिए किये जाने वाले ‘रेजिया’ के संघर्ष के ‘इर्द-गिर्द’ ही चलती है , लेकिन इसके बीच में वह ईरानी समाज भी आता है , जिसके बीच यह सब घटित हो रहा है | इस फिल्म में कोई खलनायक नहीं है , वरन खलनायक दिख रहे लोगों के बीच से पैदा हुए अच्छे लोगों की श्रृंखला है | दुखों और परेशानियों के बीच हास्य पैदा कर देना , और फिर उसे समाज से जोड़ देना ही ‘जफ़र पनाही’ की ताकत है , और उन्होंने इस फिल्म में यह काम बखूबी किया है | फिल्म पूरी तरह से हमारी सहानुभूति को उस बच्ची के साथ जोड़ देती है , और उसके साथ-साथ हम भी जीवन के खूबसूरत पलों को जीते चलते हैं , जिसने उसे अपने संघर्षो से पैदा किया है |
                        


                   

               ‘ द मिरर ’        ( the mirror )



जफ़र पनाही की यह फिल्म भी फिल्म ईरानी समाज के बिलकुल बीचोबीच से गुजरते हुए आगे बढती है | यह फिल्म एक ऐसी बच्ची को केंद्र में रखकर बनायीं गयी है , जो स्कूल की छुट्टी के बाद अपनी माँ के नहीं पहुँचने के कारण अकेले ही अपने घर की तरफ निकल पड़ती है | हर कोई अपने सामर्थ्य के अनुसार , घर पहुँचने में उसकी मदद भी करता है , लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनती हैं , कि वह लगातार भटकती फिरती है | फिल्म उस समय मोड़ अख्तियार करती है , जब यह पता चलता है , कि उसकी इस भटकन को फिल्मांकित भी किया जा रहा है | अंत में तंग आकर वह बच्ची उस फिल्मांकन से इनकार कर देती है |  इसकी खूबी यह बताने में है , कि जीवन की वास्तविकताएं , उनकी कल्पनाओं से पृथक नहीं होती हैं |



                
                  ‘ द सर्किल ’   ( the circle )



यह फिल्म ईरानी समाज में महिलाओं की स्थिति को छोटी-छोटी अपूर्ण कहानियों के माध्यम से व्यक्त करती है | ये ऐसी कहानियाँ हैं , जिनकी न तो पृष्ठभूमि का खुलासा किया गया है , और न ही जिनका अंत सामने आ पाता है | इन दोनों को सुधि-दर्शकों के विवेक पर छोड़ दिया गया है | इन कहानियों की खासियत यह है , कि ये किसी न किसी स्तर पर एक दूसरे से उसी प्रकार से जुडती दिखाई देती हैं , जिस स्तर पर ईरानी समाज में महिलाओं की परेशानियां और दिक्कतें अलग-अलग होते हुए भी कहीं न कहीं एक साथ जुडी हुयी मिलती हैं | महिलाओं को केंद्र में रखकर बनायी गयी यह फिल्म एक तरह से राजनीतिक सचेतता के साथ अपनी बात को आगे रखती है , जो ईरानी सत्ता-प्रतिष्ठान के चुभने वाला साबित होता है | फिल्म ‘जफ़र पनाही’ की उस समझ को विस्तार देती है , जिसमें वे मानते हैं , कि समाज में अच्छे-भले लोगों की कोई कमी नहीं हैं | यदि यह व्यवस्था उन अच्छे लोगों की मदद करे , तो कुल मिलाकर यह समाज और उसका यह जीवन बहुत खुबसूरत बन सकता है |


                   
                  ‘ आफ साइड ’  ...........    ( offside )



जफ़र पनाही की यह फिल्म ‘OFFSIDE’ ईरान में सबसे अधिक देखी जाने वाली फिल्मों में से एक है , और मेरी दृष्टि में राजनीतिक रूप से सर्वाधिक सचेत भी | फिल्म ईरानी समाज में औरतों की दोयम दर्जे वाली स्थिति को कई तरीकों से प्रश्नांकित करती है , और सामान्य जीवन से उठाये गए पात्रों के सहारे वहां के समाज को मथ देती है | फिल्म में दिखाया गया है , कि ‘ईरान’ विश्व कप फ़ुटबाल के मुख्य चरण में पहुँचने के लिए ‘बहरीन’ के साथ अपनी राजधानी ‘तेहरान’ के ‘आजादी स्टेडियम’ में अपना मैच खेल रहा होता है , और पूरा देश दम साधे उस ओर नजर गड़ाये हुए है | इसमें वहाँ की महिलायें भी शामिल हैं , जिन्हें ईरानी शरीयत क़ानून के तहत स्टेडियम में जाकर मैच देखने की ईजाजत नहीं है | कुछ उत्साही लड़कियाँ पुरुषों के वेश में स्टेडियम में जाने का प्रयास करती हैं , और पकड़ी जाती हैं | उन्हें उसी स्टेडियम के बाहर गिरफ्तार करके रखा जाता है , जिसके भीतर यह मैच चल रहा होता है | जैसे–जैसे परिस्थितियाँ आगे बढती हैं , ईरानी समाज की कलई भी खुलने लगती है | इसमें कुछ दृश्य ऐसे भी हैं , जिनसे धर्म-आधारित समाजों के भीतर जमा होने वाली कुंठा और गंदगी की मात्रा की जानकारी मिलती है | यह फिल्म फ़ुटबाल के मैच में करार दिए जाने वाले ‘OFFSIDE’ को एक रूपक के तौर पर दर्शाती है , और यह रूपक ईरानी समाज में महिलाओं की स्थिति का द्योतक बन जाता है | फिल्म स्त्रियों की उस ईच्छा के साथ समाप्त होती है , जिसमें वे कहती हैं , कि ‘अब हम offside नहीं होना चाहते |’


इन फिल्मों के अलावा ‘CRIMSON GOLD’ , ‘THIS IS NOT A FILM’ और  ‘CLOSED CURTAIN’ जैसी फ़िल्में भी जफ़र पनाही के खाते में हैं , और चाहें तो आप उनका भी आनंद ले सकते हैं | रही बात सच बोलने की कीमत चुकाने की , तो ऎसी कीमत सिर्फ जफ़र पनाही ने ही नहीं चुकायी है , और न ही ईरान वह अकेला देश है , जो इस तरह की कीमत को वसूल रहा है | अपने आपको लोकतांत्रिक और आधुनिक कहे जाने मुल्कों में भी ऐसी कीमते वसूली जाती रही हैं | इसलिए मैं उनकी लम्बी फेहरिश्त देकर आपका समय बर्बाद नहीं करना चाहता , लेकिन इतना जरुर कहना चाहता हूँ , कि मनुष्य के भीतर अपने आपको अभिव्यक्त करने की यही छटपटाहट उसे समाज में रूप में इकठ्ठा करती है , और प्रकारांतर से उसे आदमी भी बनाती है | इतिहास इसका गवाह है , कि प्रतिबंधो के बावजूद भी वही आदमी और वही समाज जिंदा बचा रह जाता है , जो ऐसे खतरों को उठाने की कोशिश करता रहता है | जबकि ऐसी तमाम व्यवस्थाएं उसके कूड़ेदानों में बिला जाती है , जो उन कोशिशों पर तलवार भांजती रहती हैं |


ऐसे विपरीत परिस्थितियों में काम करते हुए ‘जफ़र पनाही’ ने न सिर्फ ईरानी-सिनेमा को नई दिशा प्रदान की है , वरन उनका प्रभाव दुनिया भर में महसूस किया जाता है | अगली कड़ी में हम ईरान के सर्वाधिक महत्वपूर्ण फिल्मकारों में से एक ‘अब्बास किआरुस्तमी’ की फिल्मों के बारे में चर्चा करेंगे |  


तब तक के लिए विदा ...................................




प्रस्तुतकर्ता

रामजी तिवारी
बलिया , उ.प्र.
मो न. - 09450546312   



                                   
     

  

बुधवार, 21 अगस्त 2013

एक दर्शक की निगाह में ईरानी सिनेमा - पहली कड़ी

                   
                                                                      माजिद मजीदी



                एक दर्शक की निगाह में ईरानी सिनेमा 


ईरानी फिल्मों को थोड़ा व्यस्थित तरीके से देखने की कोशिश कर रहा हूँ | सोचता हूँ , इस कोशिश में आप सबको भी भागीदार बनाता चलूँ | खासकर उन लोगों से , जिन्हें इन फिल्मों की थोड़ी-बहुत जानकारी ही है , और जो इस जानकारी और समझ को और विस्तार देना चाहते हैं | कहीं से भी इसे आधिकारिक और विद्वतापूर्ण बनाने का मेरा कोई ईरादा नहीं , क्योंकि उसके लिए फिर अलग से समय और तैयारी की जरूरत पड़ेगी , जो फिलहाल संभव नहीं दिखायी देती | इसलिए चाहता हूँ , कि इस प्रयास को सिर्फ और सिर्फ एक सिने-दर्शक के दिलो-दिमाग से उठने वाली प्रतिक्रियाओं के रूप में ही देखा-पढ़ा जाए |
             
            

        तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर यह पहली कड़ी ........



एशिया में जिन कुछ देशों में ‘सिनेमा’ के क्षेत्र में सार्थक काम हुआ है , उनमे ईरान काफी ऊपर आता है | अलबत्ता एक देश के रूप में उसने लगातार परेशानियाँ झेली हैं | 1950 के दशक में आरम्भ हुआ शाह का कठपुतली शासन रहा हो , या फिर 1979 से लेकर अब तक चल रहा धार्मिक हस्तक्षेप वाला शासन रहा हो , इन दोनों ने ईरानी समाज को जितना दिया है , उससे अधिक छीना  है | और फिर बाहरी दबावों को तो पूछना ही नहीं है | लगभग एक दशक तक अपने पडोसी देश ईराक से लड़ने के बाद ईरान को सांस लेने तक की फुर्सत नहीं मिली थी , कि उसके पश्चिमी और पूर्वी दोनों पड़ोसी देशों – (ईराक और अफगानिस्तान) - में आधुनिक दौर के दोनों बड़े युद्ध लड़े जाने लगे , और जो अभी तक किसी न किसी रूप में जारी हैं | अमेरिकी प्रोपेगंडा द्वारा घोषित ‘AXIS OF EVIL’ वाली छवि के विपरीत ईरानी समाज की स्थिति सम्पूर्ण अरब देशों में अलग और सार्थक तरह की है | न सिर्फ उसने ‘शरणार्थियों’ के सबसे बड़े रेले को झेला है , उन्हें शरण दी है , वरन अपने ‘खित्ते’ में वह अकेला देश भी है , जहाँ पर लोकतंत्र के कुछ चिन्ह दिखाई देते हैं |



इस आलोक में उसकी फिल्मों पर नजर डालते हुए हमारा सामना दो बड़े सुखद आश्चर्यों से होता है | एक - ईरानी समाज की संवेदनशील बुनावट के बारे में और दो – उस देश में सिनेमा के बनने और देखे जाने के बारे में | यह ठीक है कि वहां के सिनेमा में अभिव्यक्तियाँ खुले रूप से सामने नहीं आती , क्योंकि उस पर तमाम तरह की पाबंदियां लगी हुयी हैं | लेकिन वे त्वचा के नीचे जिन शिराओं और धमनियों में बहती हैं , वे हमारे दिलों को सीधे-सीधे उस देश और उसके समाज के साथ जोड़ने में कामयाब रहती हैं | दरअसल ईरान का सिनेमा संवेदनाओं का सिनेमा है , समझ के विस्तार का सिनेमा है , दिलों में लगातार घुमड़ते रहने वाले विचारों का सिनेमा है , हमारे भीतर सिनेमा को देखने की ईच्छा को पैदा करने वाला सिनेमा है और कुल मिलाकर सिनेमा को क्यों और कैसे देखा जाना चाहिए , यह बताने वाला सिनेमा भी है | आने वाले कुछ सप्ताहों में हम वहाँ के चुनिंदा निर्देशकों की चुनिंदा फिल्मों के सहारे अपनी बात को रखने का प्रयास करेंगे |




शुरुआत ‘माजिद मजीदी’ से करते हैं , जिनकी फिल्मों को , न सिर्फ ईरान में वरन दुनिया भर में जाना और सराहा जाता है | दर्जनों फिल्मों को बनाने वाले ‘माजिद मजीदी’ ईरान के उन आधुनिक निर्देशकों में शुमार किये जाते हैं , जिनके सहारे हम वहां के समाज की आतंरिक बुनावट को समझ सकते हैं | उनकी सबसे अधिक चर्चित फिल्म ‘चिल्ड्रेन आफ हैवेन’ है , जिसमें उन्होंने चमकते हुए तेहरान से बाहर के उस ईरानी समाज को दिखाया है , जो अपनी मुफलिसी और परेशानियों के बीच जीने लायक परिस्थितियों के लिए लगातार संघर्षशील है | यह सिर्फ उन दो भाई-बहनों की कहानी नहीं है , जिनके पास स्कूल जाने के लिए जूते नहीं हैं , और जो अपने अभिभावकों की मजबूरियों को समझते हुए उसे आपस में बदल-बदलकर पहनते रहते  हैं , वरन यह उस समाज की भी कहानी है , जिसमें चकाचौंध के पीछे ऐसी आम-सामान्य लोगों की अनगिन कहानिया छिपी हुयी हैं | यह उस समाज की भी कहानी है , जिसके बच्चों में इतनी संवेदनशीलता पायी जाती है , कि अपनी गुम हुयी जूतियों की पहचान हो जाने के बाद भी , वे उन्हें नहीं मांगने का फैसला करते हैं , क्योकि उन्हें पहनने वाली लड़की उनसे भी अधिक जरूरतमंद निकलती है | न कि उस आधुनिक (अमेरिकी) समाज की तरह , जिनके बच्चे स्कूल जाते समय आत्मरक्षा के लिए पिस्तौल रखने के विकल्प की मांग कर रहे हैं |



उनकी एक और फिल्म ‘द सांग आफ स्पैरो’ में भी हमें ईरानी समाज का वही सच दिखाई देता है , जो तेहरान की चमक से दूर किसी गाँव में अपने जीवन को बचाने के लिए और उसे बेहतर बनाने के लिए लगातार संघर्ष कर रहा है | कि , जो प्यास लगने पर भी लोभ और लालच के समन्दर में डुबकी नहीं लगाता , वरन इसके विपरीत अपनी प्यास बुझाने से पहले , अपने पसीने से धरती के होठ को भिगोता है | अभिनेताओं , अभिनेत्रियों और खलनायकों की परिभाषाओं वाली भारतीय फिल्मों के विपरीत , इन ईरानी फिल्मों के नायक-नायिकाएं बिलकुल उस आम ईरानी से तादात्म्य स्थापित करते दिखाई देते हैं , जिससे मिलकर उस समाज का ताना-बाना तैयार होता है | 




उनकी तीसरी फिल्म ‘कलर आफ पैराडाइज’ कलात्मक रूप से थोड़ी और गुथी हुयी फिल्म है , जिसमें एक बाप अपने जन्मांध बेटे को बोझ के रूप में देखता है , और किसी भी तरह से  उससे मुक्त होना चाहता है | उसके भीतर बार-बार यह आवाज उठती है , कि काश ! यह बला मेरे जीवन से टल जाती | कलात्मक दृष्टि से अद्भुत और जादुई असर वाली यह फिल्म कई स्तरों पर चलती हैं , और बताती है , कि समाज में हम जिन्हें अपंग या बोझ समझते हैं , वे दरअसल इस समाज में हमसे अधिक संवेदनशील तरीके से जीते हैं ,या कहें तो जीना चाहते हैं | जिनकी आँखें नहीं हैं , उनके भीतर वह दृष्टि होती है , जिसके सहारे वे ब्रेल लिपि के अक्षरों को  तो कागज़ के टंकित पन्नो पर पढ़ ही लेते हैं , उससे आगे बढ़कर , पक्षियों के कलरव में ,  नदियों की तलछट के पत्थरों में  , गेंहूं की उबड़-खाबड़ बालियों में  और आसपास से गुजरती हवाओं में भी , वे उन अक्षरों को ठीक-ठीक तरीके से चिन्हित कर लेते हैं | ये लोग हमें यह भी बताते हैं कि इस प्रकृति में कुछ भी अनायास नहीं है , और यह हमारी अपनी समझ की सीमा है , जो किसी को आवश्यक , और किसी को बेमतलब करार देती है | फिल्म का वह संवाद , जिसमें अँधा लड़का अपने पिता द्वारा एक कारखाने पर छोड़ दिए जाने के बाद अपने ही जैसे अंधे व्यक्ति से इस दुनिया की शिकायत करता है , न सिर्फ अद्भुत है , वरन दिल को चीरकर रख देने वाला भी है |




अपनी एक और फिल्म ‘द विलो ट्री’ में भी ‘माजिद-मजीदी’ एक अंधे व्यक्ति को ही नायकत्व प्रदान करते हैं , और बताते हैं कि इस दुनिया को देखने के लिए दृष्टि की जरुरत होती है , न कि सिर्फ आँखों की | यह फिल्म भी कई मायनों में अद्भुत फिल्म है | लेकिन मेरी नजर में उनका सबसे बड़ा काम ‘बरान’ फिल्म में दिखाई देता है | आतंरिक और बाह्य युद्ध की विभीषिका झेल रहे अफगानिस्तान से ईरान में लाखों लोगों का शरणार्थी के रूप में आने का सिलसिला हाल-फिलहाल तक जारी है | उन्ही शरणार्थियों के सहारे ‘बरान’ नामक यह फिल्म ईरानी समाज के उस द्वंद्व को उद्घाटित करती है , जिसमे एक तरफ तो उन शरणार्थियों को अपने देश में प्रवेश दिया जाता है , और दूसरी तरफ उनके अपने समाज के दबाव और तनाव इतने मुखर होते जाते हैं , कि इन शरणार्थियों के सामने जीने लायक कोई भी परिस्थतियाँ ,  बचती ही नहीं हैं | और फिर ‘माजिद’ की अन्य फिल्मों की तरह ही इसमें भी कई स्तरों पर चलने वाला जीवन अपनी सम्पूर्णता में मुखरित होता है | मसलन प्रेम को ही लें | अपने लिए किसी तरह से घिसटते हुए जीने की स्थिति को तलाशता हुआ युवक , एक अनकहे और अनबोले प्रेम के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है | यह सचमुच स्तब्धकारी अनुभव ही है ,कि  बिना एक लब्ज बोले ही , इस फिल्म की नायिका ‘बरान’ , की आवाज , फिल्म की समाप्ति पर हमारे भीतर गूंजती सुनाई देती है |





‘माजिद-मजीदी’ के सहारे ईरानी फिल्मों और उसके समाज को समझने का यह मेरा प्रयास है , जिसमें अपनी समझ को विस्तारित करने के लिए , आप चाहें तो उनकी अन्य दो फिल्मों – ‘ baduk’ और ‘the faather’ -  की सूची भी जोड़ सकते हैं |



अगली पोस्ट में हम ईरान के एक अन्य महत्वपूर्ण सिनेकार ‘जफ़र पनाही’ की फिल्मों को जानने – समझने का प्रयास करेंगे |


तो मित्रों ........ जल्दी ही मिलते हैं |



( और हां......... यदि आप अपनी टिप्पड़ियों के सहारे इस प्रयास को और अधिक समृद्ध करेंगे , तो मेरे लिए यह अत्यंत खुशी की बात होगी |  )   
                             




प्रस्तुतकर्ता                            

रामजी तिवारी
बलिया , उ.प्र.
मो.न. 09450546312