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शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014

रवीन्द्र के दास की कवितायें







रवीन्द्र के दास की कवितायें हमें अपने भीतर उतरने के लिए प्रेरित करती हैं | वहां, जहाँ से हम अपने आपको परखते हैं कि समाज में निगाह में अच्छा आदमी होने वाला मैं, क्या अपनी निगाह में भी वैसा ही दिखाई देता हूँ | मुझे लगता है कि किसी भी कविता की सबसे बड़ी सार्थकता यही होती है कि वह पाठक को अपने भीतर के आदमी से मिला दे |

                         
                           तो आईये पढ़ते हैं      


          आज सिताब दियारा ब्लॉग पर रवीन्द्र के दास की कवितायें
                                                     


बनाओ मुझसे नए खिलौने 


मिट्टी और मेरा रिश्ता 
वही नहीं है
जो कुम्हार का है
वह तो मिट्टी का सच 
जान गया है
वह कच्ची मिट्टी से बने बरतनों को 
हर बार कोशिश करता था 
पक्का करने का 
और हर बार यही कहता 
मिट्टी की किस्मत ! 

और मैं डरता था मिट्टी में मिलने से 
सो जरा सी मिट्टी छूते ही 
नहाता हूं खूब रगड रगड के 
गोया मैं नफ़रत करना चाहता हूं
मिट्टी से 
लेकिन न जाने क्या बात है
मिट्टी की उस गंध में 
कि मैं बेसुध खिंचा जाता हूं
उसकी ओर 

और तन्द्रा भंग होने पर सोचता हूं
राग ही मृत्यु है 
एक चक्र कि जीवन है तो राग है 
राग है तो मृत्यु 
और मृत्यु है ... नहीं, 
भय है तो तुम्हारी जरूरत है 
वही मेरे हिस्से का प्रेम है 

मिट्टी से अपना रिश्ता तोडूं तो 
जोडूं तो 
तुम बीच में रहना जरूर 
मैं मिट्टी से खेलने वाले कुम्हार को 
नहीं बनाना चाहता हूं साक्षी 
मैं साक्षी बनाना चाहता हूं तुम्हें 
कि गूंद कर मुझे 
बनाओ मुझसे नए खिलौने 
सुन्दर ... 
और उसे रखो कच्चा
आग में झुलसा पका कर 
मत करो पक्का 
पक्के रिश्ते दुःख देते है


विद्रूपता का कथन करना


विद्रूपता का कथन करना
खत्म कर देना

या विरोध करना नहीं है
विद्रूपता का ...
जरूरी है कि कुछ संभावना रहे
इनसे निजात पाने की
वरना खत्म हो जाएगा
जीने का अर्थ
खत्म हो जाएगी कविता

बची रहे कविता
और बचा रहे
जीने का अर्थ
कहीं से खोज लाओ उम्मीद
बेहतरी की
कि जी उठें होकर उम्मीदपरस्त



कवि की भाषा 


कवि की कोई भाषा अपनी नहीं होती
तो भी, कविता की होती है 
असहज और अनोखी 
जिसे सभी समझते हैं अपने बोध 
और अपनी सुविधा में कसकर समझता है 
इस तरह कविता हो जाती है 
बडबोली 
और कवि पराजित !

कवि हर बार सोचता है 
नहीं लिखूंगा इस बार कविता 
शब्दों में
नहीं बनाऊंगा शिकार अपनी कविताओं को 
शब्दाचारियों की हवस का 
किन्तु ऐसा हो नहीं पाता है 

धीरे धीरे उन कविताओं की बेजान जिस्मों को 
किया जाता है इकट्ठा 
जिन्हें समय समय पर किया गया था 
बेआबरू, शब्दकारोबारियों ने 
लगाया जाता है करीने से 
और तय की जाती है कवि की भाषा 

इस तरह,
जमाने में नहीं रह जाती है कोई कविता 
रह जाते हैं
कुछ जुमले
जिन्हें कवि की भाषा कहते हैं


जागते का कोई दुःस्वप्न


रास्ते पर उसने आडी तिरछी लकीरें खीचीं
वह लकीरें बना नहीं रहा था
फिर भी बनाईं
और अचानक चौंक उठा कि कहां से रिस रहा है खून
उसने हाथ पीछे झटक लिया
वैसे ही जैसे
मौत से बचने के लिए भागेगा 
कोई बेतहाशा

किसी अपराधी का दोस्त नहीं है वह
दुश्मन भी नहीं
पर कई अपराधों के किस्से जानता है वह
और मानता है कि कोई न कोई
एक कमरा रहता है 
सबके दिमाग में अपराध का
जब तक बन्द रहे, बन्द रहे
कमरे को पूरी तरह बन्द कर देने के बाद भी
आप आवाज़ों को बन्द नहीं कर सकते हैं
घुटी ही सही पर निकलेगी ज़रूर
कि आ जाती है तभी उसकी प्रेयसी
जिसकी प्रतीक्षा ने उससे खिंचवाई है 
आडी तिरछी लकीरें

उसे वह उसी नज़र से देखता है कि जैसे
उसीने वह बन्द कमरा
बिना उससे पूछे ही खोल दिया हो
चल पडता है उठकर,
जैसे अभी वह कमरा बन्द करने जा रहा हो
प्रेयसी का मनुहारी मुस्कुराना
चिढाने जैसा लगता है
तभी बज उठता है उसका फोन
हलो, भैया ! मेरा टेक्स्ट बुक लाना मत भूलना

बन्द हो जाता है वह कमरा अनायास
और पास खडी प्रेयसी
दिखती है प्रेयसी
गोया अभी टूटा हो जागते का कोई दुःस्वप्न


देह विदेह

दिखती रही देह
झुलसती रही देह
लडती रही देह
सडती रही देह
जीती रही देह
मरती रही देह ...
और हम 
उलझते रहते हैं
आत्मा की मुक्ति के 
सवाल पर


तुम्हारी बातें


तुम्हारी बातें
तब से हैं जब 
पैदा भी नहीं हुआ था सच
तुम्हारी बातें बेहतर है 
किसी भी सच से 
मंत्र से 
संविधान से 
मैंने सबको बेअसर होते देखा है 
नहीं होती बेअसर
तो तुम्हारी बातें ..


यह एक मुक्तिशाप था 


उफ़ान बहुत तेजी आता है 
सैलाब की तरह
जो भी देखता, 
उसीमें डूबने उतराने लगता 
मुझे यह कृत्रिम सा लगता है
मैं जब नहीं डूब पाता उसमें
साथ के लोग 
मुझे शक की निगाह से देखते
मुझपर शक करना 
खुद को सही साबित करने का इकलौता तर्क होता 
उनके पास
वे अपनी नज़र में गिरने से बचने के लिए 
मुझपर फ़ब्तियां कसते 
मुझे बडबोला, अहंकारी, आत्मश्लाघी आदि 
कहकर हांफ़ते थे ज़रूर
दरअसल वे मुझे नहीं 
वे अपनी व्यथा कथा कहते 
तो भी नतीजा मेरे हक में नहीं होता 

यह एक मुक्तिशाप था


सर्वनाम


कोई
खटखटाए जा रहा है
साँकल
खोल देता हूँ
दरवाज़ा
क्या हुआ
जो तुम न हुए
सर्वनाम को
बदलते
देर ही कितनी लगती है


अच्छे लोगों की जमात होती है 


अच्छे लोगों की जमात होती है 
एक पक्की जमात 
भीड में भी अच्छे लोग 
छांट लेते है अच्छे लोगों को 
ये लोग उन लोगों से, जो अच्छे लोग नहीं होते हैं
मिलते तो हैं
पर पानी पर तेल की सतह की मानिंद 
मिलते नहीं है 
तैरते रहते हैं ऊपर ही ऊपर 

अच्छे लोग 
बहुधा गोलबन्द होते हैं 
जब भी कोई अच्छा नहीं व्यक्ति 
उठाता है कोई सवाल 
सभी अच्छे लोग 
उस अच्छे नहीं को इतना बुरा कहते हैं
इतना बुरा कहते है 
कि अच्छे लोगों का 
अच्छा होना अक्षुण्ण रहता है 

अगर अच्छे लोग आपसे घुले मिले हैं
तो मुझे शक है
कि आप भी 
उन्हीं अच्छे लोगों में से एक हैं 
जिन अच्छे लोगों की जमात होती है



परिचय और संपर्क

नाम:      रवीन्द्र के दास

शिक्षा:     पी.एच.डी.
संप्रति:     अध्यापन 
जन्म तिथि: २८-४-१९६८
प्रकाशन:   'जब उठ जाता हूँ सतह से'[कविता-संकलन]
'सुनो समय जो कहता है' [संपादन, कविता संकलन]
'सुनो मेघ तुम' [मेघदूत का हिंदी काव्य रूपांतरण] और
'शंकराचार्य का समाज दर्शन'
जयपुर से निकलने वाली साहित्यिक मासिक पत्रिका उत्पल  के लिए सब्दहि सबद भया उजियारा नाम से कविता आलोचना विषय पर कॉलम लेखन.   
पत्रिकाओं आदि में कतिपय प्रकाशन.
                 
संपर्क: 77 डी, डीडीए फ्लैट्स, पॉकेट-1,
सैक्टर-10, द्वारका, नई दिल्ली- 110075

मोबाईल: 08447545320      
ई-मेल : dasravindrak@gmail.com