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शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

'फाँस' उपन्यास एक सामूहिक सुसाइड नोट है .... विवेक मिश्र






कथाकार संजीव अपने शोधपूर्ण लेखन के लिए हिंदी साहित्य में विख्यात रहे हैं | ‘सूत्रधार’, ‘जंगल जहाँ से शुरू होता है’ और ‘रह गई दिशाएं इसी पार’ जैसी अन्य कृतियां इस बात की गवाह हैं कि उनके लिए लिखना महज कागजों पर स्याही रंगना या कि टंकण करना मात्र नहीं है | वरन लिखना एक सामाजिक जिम्मेदारी भी है, जिसमें न सिर्फ लेखक का पक्ष ही दिखाई देता है, वरन उसकी शोधपूर्ण तैयारी भी दिखाई देती है |

किसानों की आत्महत्या को केंद्र में रखते हुए गत वर्ष उन्होंने हिंदी साहित्य को ‘फ़ांस’ उपन्यास के रूप में एक और बड़ी कृति दी है | इसी उपन्यास की पड़ताल कर रहे हैं, युवा कथाकार विवेक मिश्र |
                               

                                 ‘फाँस’ उपन्यास
                     आत्महत्या करने वाले किसानों का
                       व्यवस्था के नाम लिखा गया
                       एक सामूहिक सुसाइड नोट है
                                                 ...................विवेक मिश्र  


    ‘‘ऐसा क्यों होता है साहेब राव?
     ऐसा क्यों होता है?
     क्यों मेरे हाथ मुझे बाघ के पंजों जैसे दिखाई देते है?
     तुमने आत्महत्या नहीं की!
     हमने ही तुम्हारा खून किया...
     तुम्हारा और तुम्हारे बीबी बच्चों का...
     .....तुम हमें माफ़ न करना
     कभी न माफ़ करना साहेब राव....’’

मराठी के सुविख्यात कवि विट्ठल बाघ की ये पंक्तियाँ विदर्भ के सुखाड़ से देश के संसद तक गूजंनी चाहिए थीं पर फांसी लगाकर पेड़ से झूलते शेतकारी की घुटी हुई चीख की तरह ये पंक्तियाँ भी वीरान खेतों के बियावान में कहीं बिला गईं.किसानों की आत्महत्याओं पर उठीं तमाम तरह की आवाजें, रुदन, शोर, नारे सब कहीं किसी खोह में, किसी अंधेरी गुफा में समा गए और वे कभी वापस न आ सकें इसके लिए उन गुफाओं, खोहों के मुँह पर कभी न हिलाई जा सकने वाली बड़ी-बड़ी योजनाओं और आयोगों की चट्टानें धर दी गईं.
  
आज जबकि खेती-किसानी एक डर, एक बीमारी, एक मजबूरी और एक संभावित मौत का नाम है. अब जबकि ये एक ऐसा रास्ता बन चुका है जिसपर कोई विकल्पहीनता की स्थिति में चले तो चले,पर स्वेक्षा से कोई इस पर चलना नहीं चाहता. तब भी इस देश में विकल्पहीन किसानों की कमी नहीं. अभी भी ऐसे बहुत से लोग हैं जिनके पास इस दर के सिवा और कोई दर नहीं. वे ऐसी जगह खड़े हैं जहाँ न तो हालात ही बदलते हैं, न उनसे खेती ही छूटती है, न सरकारों की नींद ही टूटती है और न हीइन आत्महत्याओं का सिलसिला ही रुकता है. आज सूचना क्रांतिके इस समय में जहाँ चीजें कुछ ही क्षणों में वायरल होकर कहाँ से कहा पहुँच जाती हैं. जब देश का मीडिया चौबीसों घंटे चीख चीखकर लोगों तक दुनियाभर के समाचार पहुंचाने का दम भरता है. वहाँ इन आत्महत्याओं पर कोई शोधपरक, सिलसिलेवार, कायदे से इनकी पड़ताल करती हुई रिपोर्ट तो छोडिए, सही-सही आंकड़ों के साथ इनकी खबर भी प्राइम टाइमऔर मुख्यपृष्ट से नदारद दिखती है. उसेआपको अखबार के सातवें-आठवें पन्ने के किसी हाशिए पर, या आधी रात के बाद के न बिकने वाले टाइम स्लॉट में कहीं खोजना होगा. ऐसे में कथाकार संजीव पाँच साल के गहन शोध और अपनी तमाम निजी समस्याओं और सीमाओं से पार पाते हुए, अपने अथक परिश्रम से सच्चे सरोकारों और संवेदनाओं की आंच में तपा, देश के किसानों की समस्याओं पर, आत्महत्याओं की इस सतत त्रासदी पर ‘फाँस’ जैसा उपन्यास लेकर हमारे सामने आते हैं.

‘फाँस’ को पढ़ना आज के समय में देश की सबसे अवसादपूर्ण घटना से, हादसों की एक लम्बी श्रंखला से गुजरना, उससे रूबरू होना है. ये एक ऐसे विषय को हमारे सामने ला खडा करता है जिससे हम लगातार मुँह छुपाते आए हैं और वह लगातार किसी प्रेतछाया सा हमारे अतीत-वर्तमान और भविष्य पर मंडराता रहा है.‘फाँस’ किसी एक किसान, किसी एक खेतीहर परिवार, किसी एक गाँव याफिर किसी एक प्रांत की खेती और किसानी की समस्याओं की कथाभर नहीं है, बल्कि यह उस घाव के नासूर बनने की कथा है जिसमें कई दशकों से, कहें की आज़ादी के बहुत पहले से- धर्म, अंधविश्वास, जटिलजातीय संरचना, शोषण के सामंती सामाजिक ढांचे के कीड़े बिलबिला रहे हैं और अब उसमें राजनैतिक उपेक्षा और भ्रष्टाचार का संक्रमण भी बुरी तरह फैल गया है.येखेती(जिसे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहा जाता था)के कैंसर जैसे असाध्य रोग से पीड़ित हो जाने की कथा है.

विदर्भ के यवतमाल जिले के बनगाँव के एक शेतकारी(किसान) शिबू और शकुन और उनकी दो मुल्गियों(बेटियों)–छोटी(कलावती) और बड़ी(सरस्वती) के तमाम मुश्किलों, दुख-तकलीफों के बीच भी अपनी दुनिया, अपने सपनों में रमे परिवार के जीवन के किसी एक आम दिन से शुरू होने वाली यह कथा धीरे-धीरे किसानों के जीवन के कई अँधेरे-उजाले कोनों में झांकती हुई आगे बढ़ती है. और एक किसान, एक घर, एक खेत, एक दुस्वप्न, एक आत्महत्या से शुरू होने वाली कहानी में कई किसान, कई घर, कई खेत, अनगिनत नष्ट फसलें और अनगिनत टूटे सपने, अनगिनत आत्महत्याओं की कहानियां जुड़ते-जुड़ते यह देश भर के लिए अन्न उपजाने वाले किसानों की हत्याओं और उनके साथ की जाने वाली साजिशों कीमहागाथा बन जाती है. छोटी-छोटी दिखने वाली समस्याएँ धीरे-धीरे जटिल  होकर देशभर के किसानों के सामने उसे और उसके परिवार को लील जाने को तैयार खड़ी वर्तमान समय की बड़ी त्रासदी में बदल जाती है. इसे पढ़ते हुए‘भारत एक कृषि प्रधान देश है/था’ आज का सबसे त्रासद, विद्रूप पैदाकरने वाला और विडंबनाओं से भरा हुआ वाक्य लगने लगता है. यह उपन्यास शुरू से लेकर अंत तक हमें किसान जीवन की दुश्वारियों से, त्रासदियों से, विद्रूपताओं और विडंबनाओं से रूबरू कराता है.‘इतनी मुश्किल है तोखेती छोड़ क्यों नहीं देते’ जैसे जुमलों के जवाब में यह बताता है कि आज भी भारत में खेती-किसानी मात्रएक जीविका का साधन नहीं है बल्कि एक जीवन पद्धति है जिससे अधिसंख्य किसान चाहकर भी मुँह नहीं मोड़ सकते. यह किसान परिवार का बच्चा-बच्चा जानता है. कथा की शुरुआत में ही छोटी शिबू को आगाह करती है, ‘शेती(खेती) कोई धंधा नहीं, बल्कि एक लाइफ स्टाइल है-जीने का तरीका, जिसे किसान अन्य किसी भी धंधे के चलते नहीं छोड़ सकता. सो तुम बाबा लाख कहो की शेती छोड़ दोगे, नहीं छोड़ सकते. किसानी तुम्हारे खून में है.’

उपन्यास का विषय और उससे जुड़ा कथानक, उसके उपजीव्य और उसमें जीते, जागते, सांस लेते, बोलते-बतियाते, हरदिन जिंदगी से दो दो हाथ करते पात्र यथार्थ की जिस कठोर ज़मीन से उठकरजिस सहजता से कथामें प्रवेश करते हैं, कि वे बिना किसी बड़े आख्यान के खुद अपनी बोली वाणी से अपना वातावरण निर्मित करते हुए, न केवल विश्वसनीयता के साथ खुद अपने सुख-दुःख पाठक के सामने रखते हैं बल्कि अपनी कथा का एक अलग ही,बहुत खुरदुरा सा शिल्प भी गढ़ने लगते हैं. उन्हें पढ़ते हुए साहित्यालोचना में की जानेवाली भाषा, शिल्प और कलात्मकता की बातें बेमानी लगने लगती हैं. और शायदयही कारण है कि संजीव जैसे एक सिद्धहस्त कथाकार ने एक कड़वे,कठोर और झुलसा देनेवाले सच को पाठकों के सामने रखने के लिए भाषा और शिल्प भी सीधा, मारक और भेद के रख देने वाला चुना है. उपन्यास में बहुतायत में प्रयुक्त मराठी शब्द जैसे- मुलगा, मुलगी, बड़ील, आई, नवरा, बायको, कणीक, लुगड़ा, पोला, हल्या जैसे शब्द अंत तक आते आते हिन्दी के साथ हिलमिलकर आपके अपने हो चुके होते हैं.

इधर के कुछ वर्षों मेंहिन्दी ही क्या अन्य भारतीय भाषाओं में भी इस तरह के शोधपरक यथार्थवादी उपन्यास कम ही पढ़ने में आए हैं. कथाकार संजीव हिन्दी साहित्यमें पहले से ही अपने शोधपरक एवं वैज्ञानिकदृष्टि सपन्न लेखन केलिए जाने जाते हैं. ‘सूत्रधार’ से लेकर यहाँ उनके पिछले सालों में आए उपन्यास ‘आकाशचंपा’, ‘रह गई दिशाएं इसी पार’ आदि उनके गहन शोध और सत्य के अपने तरह के अन्वेषण के कारण ही विशिष्ट हैं. इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया के दौरान भी वे खुद प्रभावित क्षेत्रों में गए, वहाँ रुके और कई ऐसे परिवारोंसे मिलेजिनके परिजन ने आत्महत्या की थी. इसी कारण जितने भी पात्र मिलकर इस कथा मेंकिसानों की समस्याओं का कोलाज बनाकर सामने रखते हैं, उनमे से अधिकाँश पात्रों की शिनाख्त कथा से बाहर अभी भीजारी संघर्ष में मौके पर जाकर की जा सकतीहै. हम कह सकते हैं कि वे मात्र लेखक की कल्पनाओं के पुतले नहीं हैं वे जीते, जागते, संघर्ष करते चरित्र हैं जो एक लेखक की उंगली पकड़कर अपनी कथा कहनेके लिए उपन्यास में चले आए हैं.

इसमें जहाँ एकओर सीमित साधनों में अपनी लड़ाई लड़ता शिबू है, तो व्यवस्था से लोहा लेता सबके सामने एक आदर्श स्थापित करता सुनील भी है, एक बैल के साथ खुद को जोतकर हल खींचते हुए मानुस के साथ मानुस और बैल के साथ बैल बन जाने वाले मोहन दादा हैं,तो समय को ठेंगा दिखाता नाना भी है जो चारों तरफ मंडराती मौत को भांपकर भी खिलंदड़े अंदाज़ में ज़िदगी जी रहा है. पर हैं सब कठिन समय की भंवर में उससे बाहर कोई नहीं.
 
सबसे पहले बात अशिक्षा, अंधविश्वास, सामन्ती कहर, सरकारीतंत्र और व्यवस्था के शोषण के बीच अपनी ज़मीन, अपनी खेती बचाए रखते हुए अपनी लड़कियों को पढ़ा लिखाकर अच्छे घर में व्याह देने के सपनों के साथ तमामतरह के द्वंद्वों और दबावों में फंसे शिबूकी, जो लाख जतनकर अपनी बायको(पत्नी) की मदद से गले में पड़े कर्जे के फंदे को निकाल फेंकने के बाद भी समय की मार के आगे एक दिन घुटने टेक देता है, औरकुँए में कूदकर जान दे देता है. जिसके पीछे रह जाती हैं दो जवान बेटियाँ और रोती बिलखती पत्नी जिसने गले की हंसुली निकाल कर बेची और बैंक के बढते ब्याज को रोककर कर्जे की रकम पूरी कर दी - “कहता था-‘रानी, ये कर्ज़ गले की फाँस है, निकाल फेंको’और जिस दिन मैंने निकाल फेका वह निहाल हो गया, गाँव भर में लड्डू बटे, गीतगाते हुए बरसात में भीगते हुए नाचता रहा.’’ परयहाँ एक बार कर्ज़ा चुकाना ही दुखों से पार पाना नहीं है.

दूसरा सुनील,आस-पास के इलाकों में सबका सलाहकार, सबका आदर्श पर बड़ी खेती तो बड़ा नुकसान.बड़ी महत्वाकांक्षी योजनातो असफल होने पर बड़ी निराशा. पीछे कोई बीमा नहीं. कोई सुरक्षा नहीं.‘बुत बन गया सुनील- इन सबका दोषी मैं हूँ, सबकी हिम्मत बंधाने वाला खुद ही हिम्मत हार बैठा. हवा में फिकरे उड़ रहे थे-कभी कर्ज, कभी मर्ज, कभी सूखा, कभीडूब. दूसरा फिकरा- भूत से शादी करोगे तो अपना घर चिता पर ही बनाना पड़ेगा. सो, सुनील आज भूत बन चुका था. जो खुद भी डूबा औरों को भी ले डूबा.’’ पीछे छोड़ गया पत्नी, बेटियाँ, बेटा विजयेन्द्र अपनी पढ़ाई जोअपना काम, पढ़ाई सब छोड़ के लौट आया उसी चक्की में पिसने, उससे जूझने.

तीसरे मोहनदास इगतदास बाघमारे (मोहन दादा) जिन्होंने कर्जा लेलेके बेटों को पढ़ाया और बेटों ने शहर जाकर माँ-बाप से मुँह मोड़ लिया. निचाट बियाबान में एक ही साथी है, उनका बैल जिसे भाई कहके बुलाते हैं. अपने दुःख दर्द उसी से कहते हैं. एक दिन हाट में उसी भाई को बेच आए किसी कसाई को. पर घर लौट कर अपराधबोध ने पलभर चैन से बैठने नहीं दिया. पंडित के कहने पर गले में बैल की घंटी बांधकर घों घों करते भाई की हत्या का प्रायश्चित करने निकले तो खुद को ही खो दिया. पाप-पुन्य के बियाबान में ऐसे बिला गए कि फिर किसी को मिले ही नहीं.पीछे छूट गए खाली खेत, पत्नी सिंधू ताई और एक बैल की हत्या का कभी न धुलने वाला कलंक.
  
एक नहीं, दो नहीं ऐसी कई मौतों के अनगिन किस्से. सबके मरने के अलग अलग तरीके पर अंत एक. उसके बाद शुरु होती हैं पात्र-अपात्र की बहसें. मरने वाला किसान था, या नहीं था, मरने का कारण खेती,उससे जुड़ा कर्ज था या नहीं था, मरने वाला अपनी पात्रता कैसेसिद्ध करे कि वह खेती के इस भंवर मेंफंस के मरा या किसी और कारण से. लाश मुआबजे के लिए पात्र है या अपात्र. ये सारी बहसें बड़े ध्यान से देखती हैं प्राणहीन आँखें.पर न बहसें ख़त्म होती हैं, न समस्याएँ, एक से निकले तो दूसरी समस्यामुंह बाए खडी है. किसी को नौकरी के लिए लाखों की घूस देनी है, तो किसीको बेटियोंके ब्याह में लाखों का दहेज और चमकती मोटर साइकिल देने के लिए फिर से कर्जा लेना है, किसी को बीज का चुकता करना है, तो किसीको छप्पर चढ़वाना है,तो किसी कर्ज़ में डूबकर आत्महत्या करने वाले कीआत्मा की शांति के लिए तेरहवीं पर ब्राहमणभोज कराने के लिए फिर से कर्ज लेना है.कदम कदम पर जाल बिछा है. इधर बचे तो उधर फंसे. किसी की मजबूरी किसीके लिए कमाने का मौका है. दूर दूर से सूदखोर साहूकार, छोटी-मोटी फाइनेंस कम्पनियों के दलाल ज्यादा ब्याज पर कर्जादेने के लिए गाँवों के चारों तरफ चील-कौवों से मंडरा रहे हैं. उसी में धर्म अपना शिकंजा कस रहा है तो राजनीति अपने दाव खेल रही है. रहनुमा एअरकंडीशनड कमरों में बैठकर विदेशी आकड़ों और शोधों पर किसानों कीमदद की योजनाएं बना रहे हैं. किसी तक मदद पहुंचे न पहुचे वे आंकड़ों में अपनी पीठ थपथपा रहे हैं.ऐसे कांईयां समयमें कौन बच सकता है, कोई नहीं जानता, कोई नहीं जानता.
 
पर यहाँ आकर,‘फाँस’ किसानोंकी आत्महत्याओं के भयावह दृश्य दिखाकर,समाप्त नहीं होता बल्कि यह खेती-किसानी और उससे जुड़े समाज के आर्थिक, सामाजिक तथा वैज्ञानिक पहलुओं का,क्षेत्र विशेष में प्रयुक्त फसलों की विभिन्न किस्मों का, खेती कीविधियों का, प्रयुक्त बीजों का, कीटनाशकों के प्रयोग आदि का गहन विश्लेषण करते हुए किसानों की समस्याओं के राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक कारणों की पड़ताल भी करता है और समाधान भी खोजता है. और यही कारण है कि उपन्यास दो भागों में बटा दिखाई देता है. पहलाकिसानोंके दुःख-दर्द, उनके संघर्षों, असफलताओं और उनकी आत्महत्याओं की केस स्टडी की तरह सामने आता है जो समस्याओं के कारणों की शिनाख्त करता है जिससे यह विदर्भ से शुरू होकर पूरे देश के किसानों की समस्याओं को समेटता हुआ उन सबकी करुनगाथा बनकरउभरता है.

तो वहीं दूसरा हिस्सा वो है जो समस्याओं के समाधान की खोज में आगे बढ़ता है. इसमें वे पात्र प्रमुखता पाते हैं जो मृतकों के जाने के बाद समय और समस्याओं से जूझने केलिए बचे रह गए हैं जो जान गए हैं कि जान देने से कुछ बदलने वाला नहीं. बदलना है तोजीना होगा, लड़ना होगा. सुनील का बेटाविजयेन्द्र, शिबू और शकुन की बेटी कलावती (छोटी), बड़ी बेटी सरस्वती, खुद शकुन, सिंधु ताई, कलावती का बचपन का साथी अशोक, मंगल मिशन पर जाने वाला मल्लेश, इन सबको एक सूत्र में पिरोने वाला, कुछ कुछ कथा का सूत्रधार फक्कड़ नाना और किसानों के लिए आदर्श दादाजी खोबरागड़े. ये सभी पात्र निराशा और टूटन के वातावरण के बीच कथा का प्रतिपक्ष रचते हैं. ये विचार के लिए ‘मंथन’ जैसा मंच खड़ाकर किसानों को और उनकी मदद करने वालों को एक जगह एकजुट करते हैं. उन्हें खेती करते हुए भी पैसे जुटाने, फसलों के अच्छे परिणाम प्राप्त करने के वैकल्पिक रास्ते सुझाते हैं. वे बतातेहैं किजहाँ हालात के आगे घुटने टेकते, आत्महत्या करते किसान हैं वहीँ हालात से जूझने वाले, धान की नई किस्में विकसित करने वाले, समाज में एक विशेष स्थान रखने वाले होने वाले, बड़े से बड़े दुख के आगे घुटने न टेकने वाले दादाजी खोबरागाड़े भी हैं. वे बताते हैं की यदि विदर्भ में ‘बनगाँव’ है तो आदर्श गाँव ‘मेडालेखा’ भी है.इस तरह ‘फाँस’ अपनी कथा में तो संतुलन और सामंजस्य पा लेता है पर ‘मंथन’ में उठने वाले प्रश्न कथा से बाहर शून्य में टंगे रह जाते हैं. पेड़ों से झूलती लाशें केवल देश की व्यवस्था से, सरकारों से सवाल नहीं करतीं बल्कि वह हम सबकों सवालों के घेरे में खींच के खडा कर देती हैं.  
 
‘फाँस’ तमाम जरूरी सवालों के साथ हमें सोचने पर विवश कर देता है कि आज एक तरफ जहाँ एक बड़ा नव धनाड्य औरखुद को प्रबुद्ध तथा शहरी समझने वाला वर्ग जोलगभग पूरे देश की रूचि-अरुचि को तयकर रहा है, जो बाज़ार में आए हर उत्पाद का पहला संभावित उपभोक्ता है, जिसकी जरूरतों के लिए निरंतर बाज़ार विस्तार पारहा है, वही उपभोक्ताकिसी उत्पाद की यात्रा के उस सिरे कोजहाँ से वह उपजता है, लगभग पूरी तरह बिसरा चुका है. आज कसबों, शहरों, महानगरों में एक ऐसी पीढ़ी हमारे सामने है जिसने अपने जीवन में खेत, किसान, हल या कृषि के उपकरण तो क्या गेहूँ, ज्वार, बाजरा, धान, तिलहन या दाल आदि के दानों को न कभी देखा है, न छुआ. वे इन सबको  रंगीनडिब्बों, पैकिटों उनके ब्रांड के नामों से जानते हैं.वे जिस देश-दुनिया में रह रहे हैं वहाँ किसानों की समस्याएँ, उनके संघर्ष, उनकी मौतें कोई मुद्दा नहीं. उनकी सोच, उनके चिंतन, उनकी दृष्टि से खेत और किसान सिरे से गायब है. उसका दर्द, उसकी चीखें सब नेपथ्य में धकेल कर.देश के विशाल रंगमंच पर प्रगति और विकास का उत्सव चल रहा है.ऐसे में निश्चय ही संजीव का यह उपन्यास उन तमाम आत्महत्याओं का हल्फिया बयान है, एक मौत के बाद पीछे छूटे परिजनों का खेती से तौबा करता हुआ इकरारनामा है और साथ ही भविष्य में होनेवाली आत्महत्याओं की चेतावनी भी है. इस चेतावानी में अप्रत्यक्ष रूप से यह भी ध्वनित हो रहा है कि यदि हालात न बदले तो ऐसा समय भीआएगा जब दुनिया का हर आदमी उपभोक्ता होगा, वहअपने मनपसन्द उत्पाद कोखरीदाने की कोई भी कीमत देने को तैयार होगा पर पैदा करने, उपजाने वाला कोई न होगा.


समीक्षित पुस्तक – फाँस (उपन्यास)
लेखक – संजीव
प्रकाशक – वाणी प्रकाशन
पृष्ठ संख्या – 255 (हार्ड बाउंड)
मूल्य- 395     
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समीक्षक ........

परिचय और संपर्क

विवेक मिश्र

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मंगलवार, 14 अगस्त 2012

विवेक मिश्र की कहानी - गुब्बारा


                                    विवेक मिश्र                       

हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा कथाकार विवेक मिश्र का जन्मदिन इसी 15 अगस्त को है | इस अवसर पर हम सब उन्हें ढेर सारी शुभकामनाये प्रदान करते हैं , और उम्मीद व्यक्त करते हैं , कि वे रचनात्मकता के उच्च मानदंडों को स्थापित करते हुए लगातार आगे बढ़ते रहेंगे | इस अवसर पर पढ़ते हैं उनकी वागर्थ के अगस्त-2012 अंक में प्रकाशित हुई कहानी  ' गुब्बारा '  | 

                          गुब्बारा .....


अगस्त का आख़िरी हफ़ता था। बारिश बहुत कम हुई थी। बादल आसमान पर ठहरे थे। बरसने के लिए उन्हें किसी ख़ास चीज़ की तलाश थी, जो शायद ज़मीन पर नहीं थी। हम उन्हें बरसने पर मजबूर नहीं कर सके थे। हाँ, उन्हीं बादलों से होती हुई कोई सूचना हमारे मोबाईल तक पहुँच सकती थी। मैं दिल्ली में था। मोबाईल की घण्टी बजी। झाँसी से भईया का फोन था। पिताजी को दिल का दौरा पड़ा था। भईया ने बताया था पिताजी कराह रहे थे, छाती पर कई मन बोझ बता रहे थे। उनके फेफड़ों में हवा नहीं जा रही थी और रह-रहकर आँखें फैल रहीं थीं। छाती फट पड़ने को थी जब उन्होंने मुझे ख़बर करने को कहा था। इतने दर्द में भी उनकी स्मृति में, मैं था।

ख़बर सुनकर मेरा शरीर सूखे पत्ते-सा हवा में तैरने लगा था। शरीर का भार जाता रहा था। ज़मीन मुझे अपनी ओर नहीं खींच पा रही थी। मेरे भीतर का तरल पलभर में सूख गया था। पिताजी की गर्म लाल हथेलियाँ स्मृति से निकलकर मुझे पकड़ने को बढ़ीं , पर मुझे न छू सकीं। मेरे फेफड़ों में भी हवा नहीं घुस रही थी।
      
मैं उसी दिन जान सका था, मेरे भीतर कितने भार में पिताजी थे, जो मेरे शरीर से निकल कर स्मृति में घुल रहे थे। मैं ख़ाली हो रहा था। बहुत हल्का, पर मैं अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पा रहा था। अनायास ही, दूर घर की चैखट से बँधी डोर टूटती-सी लग रही थी। मैं कटी पतंग-सा आसमान में गोते खा रहा था, डूब रहा था। पिताजी डोर समेट कर जा रहे थे। मुश्किल से खींची साँसों में, सफ़ेद बाँहदार बनियान से उठती पिताजी के पसीने की गन्ध घुल रही थी, कभी पत्थर के कोयले की अँगीठी पर, लोहे की कढ़ाई में पकता कटहल महकने लगता था, पिताजी कटहल बहुत अच्छा बनाते थे। वे कभी तादान पर रखा तबला उतार कर झाड़ते और बजाने लगते। कभी बाँसरी बजाते। कभी आफ़िस से लाया हुआ काम, लालटेन की रोशनी में करने लगते। कभी किसी पेपर के पीछे बालपेन से राम का स्कैच बना देते। रामायण के राम। बिलकुल सजीव। कभी छत पर बैठे गमलों की गुड़ाई करते, घण्टों। पता नहीं वे पौधों के बहुत क़रीब थे या ऐसा सिर्फ़ लोगों से दूर रहने के लिए करते। पर हर समय अपने में डूबे। बाहर की दुनिया से कटे, पिताजी।
      
पिताजी नास्तिक नहीं थे, पर पूरे आस्तिक भी नहीं थे। गाँधी जी की कई बातें बताते थे, पर काँग्रेसी नहीं थे। हिन्दू उत्थान की बातें करते, पर जन-संघी नहीं थे। दुर्गा पूजा में शामिल होते थे, पर प्याज और अण्डे खा लिया करते थे। समाज के सभी वर्गों में समानता को बढ़ावा देता । किसी भी गरीब की मदद
को तैयार रहते, पर कम्यूनिस्टों से चिढ़ते थे। ब्राह्मणों में जन्म लेकर भी चतुर, चालाक और पैने नहीं थे, पिताजी। सदा ब्राह्मण विमर्श से दूर अपनी रिक्तता में मुस्कराते। अपनी सत्तासी साल की माँ की मौत पर फूट-फूट कर रोने वाले एक भावुक इन्सान, इस घनघोर सदी में बहुत, मिसफ़िट। पर अपने में मस्त।
      
असहनीय पीड़ा झेलते नर्सिंग होम पहुँचे पिताजी के मन में क्या रहा होगा? ज़रूर उनके मन में, माँ रहीं होंगीं...या फिर दफ़तर जाते समय, साथ ले जाने वाला चमड़े का चेन लगा थैला, जिसे वह हमेशा अपने पास रखते थे, जिसमें रखी डायरी में कभी-कभी कुछ लिख लिया करते थे। हो सकता है उन्हें अपने पिताजी की याद आई हो, जो उनके बचपन में ही दिल का दौरा पड़ने से गुज़र गए थे। उनकी मौत महोबा में हुई थी, सन् पचास में उन्होंने रेलवे अस्पताल में दम तोड़ा था। उससे पहले पिताजी की तरह उन्हें भी कभी दिल का दौरा नहीं पड़ा था। उस समय छोटे शहरों के सरकारी अस्पतालों में सुविधाएँ नहीं थी। तिरेपन साल बाद आज पिताजी को दिल का दौरा पड़ा था, झाँसी में। आज भी, बुंदेलखण्ड की राजधानी बनने का सपना संजोने वाले, पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक शहर में एंजियोग्राफी, एंजियोप्लास्टी और हार्ट सर्जरी के लिए कोई जगह नहीं थी। शहर के हर मोड़, चौराहे पर नर्सिंग होम कुकुरमुत्तों की तरह उग आए थे, पर उनमें बैठे डाक्टर-नर्सें और स्टाफ़ किसी की जान बचाने को तत्पर स्वास्थ्य कर्मचारी कम और मुसीबत में फसे किसी मरीज़ और उसके परिवार को हलाल करने की फ़िराक में बैठे कसाई ज़्यादा लगते थे।
      
मैं रात ट्रेन से उतरकर सीधा थ्री व्हीलर में बैठकर नर्सिंग होम की ओर चल पड़ा। दिल्ली से झाँसी छः घण्टे का सफ़र बहुत बेचैनी से कटा था। अब जबकि मैं झाँसी पहुँच चुका था और थ्री-व्हीलर पैनी चुभने वाली आवाज़ के साथ मुझे स्टेशन से इलाहाबाद बैंक होता हुआ, कानपुर रोड पर बने डा. मिश्रा के नर्सिंग होम की ओर ले जा रहा था। मैं वहाँ पहुँचना नहीं चाहता था। इसी बीच कई बार मैंने उनका हाल फ़ोन पर पूछा था। उनकी स्थिति गम्भीर थी...अभी कुछ कहा नहीं जा सकता था। जो प्राथमिक उपचार सम्भव था, दे दिया गया था। मैं उन्हें दर्द में असहाय, तड़पता हुआ देखना नहीं चाहता था। मेजर हार्ट अटैक था।
      
मैं नर्सिंग होम पहुँचकर अपने को संयत करता हुआ आई. सी. यू. की ओर बढ़ रहा था। आई. सी. यू. के दरवाजे पर पहुँचकर मैं ठिठक गया था। अब उनके और मेरे बीच में शीशे का दरवाज़ा था। जिसके खुलते ही उस बच्चे के मन की वह दीवार ढह जाने वाली थी, जो पिताजी की लाल हथेलियों से बनी थी, जिसे तोड़कर कोई उस निश्चिन्त सोते बच्चे को सपनों में भी डरा नहीं सकता था। वह हथेलियाँ बहुत मज़बूत थीं। उनकी उँगलियों में दिशा थी, और मेरे मन के किसी कोने में पिताजी के अजेय होने का बचकाना विश्वास। आई. सी. यू. के बाहर बैन्च पर माँ बैठी थीं। वह सुबह ग्यारह बजे पिताजी की छाती मलती हुईं, बदहवास भईया के साथ नर्सिंग होम में दाखिल हुई थीं। अब अन्धेरा हो गया था। कोरीडोर में लटके पीले बल्ब अन्धेरे से लड़ रहे थे। इन्हीं आठ-नौ घण्टों में माँ कई साल बूढ़ी हो गईं थीं। चेहरा दिनभर में दुख और मौत के भय से तपकर काला हो गया था। आँखें किसी गहरे कुएँ में डूबी थीं। मुझे देख कर उनके होंठ कुछ कहने को हिले थे। पर शब्द गले में घुँट गए थे। होंठो से एक फुसफुसाहट के साथ हवा निकली थी। जिससे दर्द निकलकर पीले बल्बों की रोशनी के साथ, कौरीडोर में तैरने लगा था। अगस्त की नमी हवा में घुलकर दुख को और भारी कर रही थी। मैं कुछ कहना चाहता था, उन्हें ढाँढस बँधाना चाहता था, पर मैं उनके गले लगकर फफक कर रो पड़ा था।
      
कमरे में ख़ामोशी थी। पँखे की सरसराहट ख़ामोशी में धीरे-धीरे मिल रही थी। कमरे की हवा में दवाओं और अस्पताल की गन्ध के साथ पिताजी की पसीने की गन्ध भी घुली थी। जिसे सूँघ कर मैं बचपन में निश्चिन्त, खुले आसमान के नीचे, खरारी खाट पर भूत, जिन्न, राक्षस, चोर-डाकू, मंगलवासियों और हर उस चीज़ के डर से, जो बचपन में हो सकता है, निडर होकर सो जाया करता था। उनकी हाथ की नसों में नीडल्स धँसी हुईं थीं जिनसे बूँद-बूँद द्रव उनके शरीर में जा रहा था।
       
अगले सत्तर घण्टे कुछ नहीं कहा जा सकता था, हिलना-डुलना, खाना-पीना बोलना सब बन्द। दिल की हर धड़कन एक बीप के साथ ई. सी. जी. मानीटर पर उछल रही थी। हर उछाल में धड़कते रहने की एक घायल कोशिश थी। हर एक बीप में एक कमज़ोर याचना थी। प्राणों की याचना। मुँह पर आक्सीजन लगी थी, फिर भी कठिनाई से साँस जा रही थी। दवाओं के असर से आँखें बोझिल थीं, पर कोशिश करके जब खुलतीं तो एक बार पूरे कक्ष में घूम जाती.........कुछ तलाशती हुई।
       
इस बार, उनकी आँखों ने मुझे देख लिया था। ये वही आँखें थीं, जिनके पीछे खड़ा होकर मैं दुनिया देखने की कोशिश करता था। उन आँखों को पहनते ही, मैं खुद पिताजी बन जाता था। उन्हीं आँखों से आँसू ढलक गए थे। भीषण पीड़ा के बाद मिले आराम की विश्रान्ति थी, उन आँखों में। मैंने उनका हाथ पकड़ा तो उन्होंने अपनी गर्म हथेली से मेरा हाथ हल्के से दबाया था, यह एहसास वैसा ही था, जैसे परीक्षा से पहले, वह मेरा कन्धा दबाते थे।

       
दो दिन और दो रातें बीत चुकी थीं। हम सब थोड़ी राहत महसूस कर रहे थे। पिताजी के मुँह से आक्सीजन हटा दी गई थी। सुबह उन्होंने दो चम्मच सेब का रस पिया था। लगता था, ख़तरा टल गया था। सत्तर घण्टे पूरे होने में, एक ही घण्टा बाकी था। रात तेज़ बारिश हुई थी, पर सुबह बादल छट गए थे, चमकदार धूप खिली थी, हवा में सावन की नमी के साथ नर्सिंग होम की क्यारियों में खिले फूलों की खुनकी मिली थी। वह रविवार था। माँ ने भईया से कहकर घर से अपना चश्मा मंगा लिया था, वह पल्लू से पोंछ कर उसे पहन रही थीं, मैं बाहर बरामदे में खड़ा था। माँ ने चश्मे के पार से देखा था, पिताजी की आँखें बड़ी होकर, ऊपर उठ रहीं थी, चेहरा सख़्त और लाल हो गया था। उनकी साँस में ऐसी आवाज़ थी, जैसे खिलाड़ी छूटती साँस बचाकर, अपना पाला छूने की कोशिश कर रहा हो, पर कई हाथ उसे खींचकर उसे, उसके पाले से दूर लिए जा रहे हों। उनकी साँस के इस स्वर में, माँ की चीख़ भी शामिल थी, जिससे मेरे नाम के जैसा कोई शब्द बना था। भईया डाक्टर को बुलाने दौड़ गए। मैंने दोनों हाथों से उनकी छाती को दबाना शुरू कर दिया।
       
पिताजी ने फिर ज़ोर से साँस ली। उन्होंने पूरा ज़ोर लगाया, वापस अपने पाले में आने के लिए, अपने संसार में लौटने के लिए, पर उनकी कोशिश कमज़ोर थी, उन्हें कई हाथ अनजाने अन्धकार में खींच रहे थे। डाक्टर आ गया था। उसने मुझे धकेलकर, पिताजी की छाती को दोनों हाथों से दबाया। मुझे उनके मुँह में साँस देने को कहा, मैंने अपने मुँह से अपनी साँस उनके मुँह में छोड़ी, डाक्टर ने छाती दबाई। पिताजी ने ज़ोर से साँस छोड़ी। मैंने फिर उनके मुँह में साँस छोड़ने के लिए अपना मुँह झुकाया। मैं इस बार उन्हें साँस दे पाता, उन्होंने अपनी साँस छोड़ दी। उनकी आँखें स्थिर हो गईं। चेहरे पर आए पीड़ा के निशान मिट गए। उनकी आख़री साँस मेरे भीतर चली गई। उनकी और मेरी आँखें एक हो गई थीं। उनकी साँस मेरे भीतर जाते ही, मैं एक गुब्बारे-सा ऊपर उठने लगा था। पिताजी पलंग पर लेटे एक टक मुझे देख रहे थे। मैं कमरे में उठती आवाज़े नहीं सुन पा रहा था, लोग अन्दर-बाहर दौड़ रहे थे। किसी का ध्यान मेरी ओर नहीं था। मैं छत से टकराता हुआ, किसी गुब्बारे-सा रोशनदान से बाहर उड़ गया था। मेरे चेहरे ने पिताजी की आँखें पहन ली थीं। अब मुझमें पिताजी रहने लगे थे। अब मुझे किसी से शिकायत नहीं थी। मैं घण्टों गमलों की गुड़ाई करने लगा था।
        
सबसे कटा, अकेला।                                                          

                                                                

परिचय और संपर्क .... 

विवेक मिश्र ....
सुपरिचित युवा कथाकार 
'हनियां और अन्य कहानिया' नामक संग्रह 'शिल्पायन से प्रकाशित 
123 सी , पाकेट - सी , मयूर विहार 
फेज- 2, दिल्ली , 110091 
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