वरिष्ठ कथाकार व शिक्षाविद प्रेमपाल शर्मा से युवा लेखक अनुराग ने लंबी
बातचीत की है | इसे ‘लेखक मंच प्रकाशन’ ने पुस्तकाकर प्रकाशित किया है | युवा लेखक
‘महेश चन्द्र पुनेठा’ इस आलेख में इस पुस्तक को समझने की कोशिश की है | आईये
....सिताब दियारा ब्लॉग पर इसे पढ़ते हैं ...|
अपनी भाषा और समान शिक्षा
के पक्ष में एक महत्वपूर्ण पहल
‘शिक्षा ,भाषा और प्रशासन’
वरिष्ठ कथाकार व शिक्षाविद प्रेमपाल शर्मा से युवा लेखक अनुराग की
लंबी बातचीत की एक महत्वपूर्ण किताब है जो लेखक मंच प्रकाशन से प्रकाशित हुई है।
इस किताब में शिक्षा और भाषा के विविध पहलुओं पर विस्तार से बातचीत की गई है।
अच्छी बात यह है कि बातचीत एक निष्कर्ष तक भी पहुँचाती है। शिक्षा की दिशा-दशा व
बदलाव और हिंदी भाषा की स्थिति , उसके कारण और सुधार के
उपायों को लेकर पाठक का एक विजन बनाने में सफल रहती है। अनुराग ने शिक्षा के मूल
उद्देश्य से लेकर शिक्षा के बदलाव तक तथा
भाषा और ज्ञान के संबंध से लेकर भाषा को बचाने तक के तमाम ज्वलंत प्रश्न पूछे हैं
जिनके प्रेमपाल शर्मा ने बड़ी साफगोई और सहजता से उत्तर दिए हैं। उन्होंने अपनी
बात को समझाने के लिए यत्र-तत्र देश-विदेश की शिक्षा के उदाहरण दिए हैं।उदाहरणों
से बातचीत जहाँ रोचक तो हुई है वहीं बहुत सारी जानकारी बढ़ाने वाली सिद्ध हुई है।
शिक्षा और भाषा को लेकर आम शिक्षक-अभिभावक के मन में समय-समय पर उठने वाले
प्रश्नों के उत्तर यहाँ मिलते हैं। इस किताब को पढ़ने के पश्चात शिक्षा की एक
समग्र समझ बनती है जो शिक्षा से जुड़े हर व्यक्ति के लिए जरूरी है।
यह पुस्तक भविष्य की शिक्षा का सपना भी प्रस्तुत करती है। अपनी भाषा
और समान शिक्षा के पक्ष में एक माहौल बनाती है। शिक्षा के बढ़ते निजीकरण के खिलाफ
संघर्ष को बल प्रदान करती है।इस बात को समझाने में सफल रहती है कि शिक्षा का
निजीकरण हमारे समाज के लिए किस तरह घातक है? तथा उसको रोकने में आम आदमी की क्या भूमिका होनी
चाहिए? प्रेमपाल शर्मा अपनी बातचीत में कनाडा का उदाहरण देते
हुए बताते हैं कि दसएक साल पहले की बात है-कनाडा में एक दिन लोग अचानक सड़कों पर आ
गए। इसका कारण यह था कि तब तक जा 99 प्रतिशत शिक्षा समान थी, उसके कुछ अंश का सरकार निजीकरण करने जा रही थी। लोग सड़कों पर आ गए कि हम
ऐसा नहीं करने देंगे।यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में ऐसी जागरूकता नहीं दिखाई
देती है।
सरकारी शिक्षा की गुणवत्ता में लगातार कमी आती जा रही है। इसके लिए
समान्यतः सरकारी शिक्षकों की कामचोरी को जिम्मेदार मान लिया जाता है लेकिन
प्रेमपाल शर्मा ऐसा नहीं मानते हैं।वह इसकी गहराई में जाते हुए उसके कारणों को
सामने रखते हैं तथा उसके समाधान के उपाय बताते हैं। इस बारे में उनका दृष्टिकोण
शासकवर्गीय नहीं है। वह कहते हैं कि सरकारी स्कूल उतने खराब नहीं हुए हैं ,जितना उन्हें बताया जा रहा
है। उनके खिलाफ प्रचार की भी एक राजनीति है। राजनीति यह है कि केंद्र और राज्य
दोनों जगहों की सत्ताएं विश्व बैंक, अमरीका आदि विभिन्न
दबाबों में निजी-प्राइवेट स्कूलों को बढ़ावा देना चाहते हैं।
बच्चों में रचनाशीलता और वैज्ञानिक सोच कैसे विकसित की जाय? सीखने-सिखाने की
प्रक्रिया के दौरान शिक्षक को किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? अंग्रेजी भाषा बच्चे के मानसिक विकास और रचनात्मकता को कैसे बाधित करती है?बढ़ती धार्मिकता और धर्मांधता को रोकने के क्या उपाय हैं?एनसीईआरटी की पुस्तकें क्यों अच्छी हैं? आदि
प्रश्नों के उत्तर हमें इस किताब में मिलते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में ‘लेखक मंच’ बेबसाइट के संपादक
अनुराग ने अपनी बातचीत की शुरूआत शिक्षा
के मूल उद्देश्य को लेकर की है जिसके
उत्तर में प्रेमपाल शर्मा कहते हैं कि एक बेहतर नागरिक बनाना जो अपनी मेहनत और
काबिलियत के बूते खा-कमा सके, जिसके जीवन और आचरण में सबके
लिए बराबरी का भाव हो,जो जाति,धर्म व
क्षेत्र से ऊपर उठकर समाज की बेहतरी के बारे में सोचने में समर्थ हो,संवेदनशील हो,तर्कशील हो,वैज्ञानिक
सोच रखता हो। उनका यह कहना शिक्षा के मौजूदा उद्देश्य हो गया है उस पर प्रकाश
डालता है कि हमारी शिक्षा एक अच्छा नागरिक
बनाने के बजाय सिर्फ कुछ कक्षाएं पास करने का जरिया भर है,अपने
आसपास के जीवन से सीखने की बातों से एकदम दूर।.....और तो और ,हमारी शिक्षा बच्चों को एक स्वस्थ नागरिक भी नहीं बनने दे रही है।वे यह
बात भी विस्तार से बताते हैं कि कैसे हमारी शिक्षा हमें शारीरिक श्रम से दूर ले
जाती है और शारीरिक श्रम करने वाले के प्रति हिकारत करना सिखाती है?
भारत की ही नहीं बल्कि
पाश्चात्य देशों की शिक्षा के बारे में भी इस बातचीत से बहुत कुछ
जानने-समझने को मिलता है। पता चलता है कि पूँजीवादी देशों में भी कैसे प्राथमिक
शिक्षा को सार्वजनिक क्षेत्र में ही रखा गया है। प्रेमपाल शर्मा समान शिक्षा का
समर्थन करते हुए कहते हैं कि हमारी शिक्षा असमानता पैदा कर रही है। इसको दूर करने करने के लिए उनका सुझाव है कि अब
वक्त आ गया है कि हम निजी स्कूलों के दरवाजों पर धरने देें और शिक्षा-नीति के
नियंताओं पर सरकारी स्कूलों में व्यवस्थाएं ठीक करने का दबाव डालें। निजी स्कूलों
के बारे में उनकी स्पष्ट और सटीक राय है कि निजी स्कूल शिक्षा में किसी समाजिक
बदलाव की भावना से प्रेरित नहीं हैं।यह उनके संचालकों के लिए एक और मुनाफे का धंधा
है।...शिक्षा की बुनियादी बातें वे कभी भी नहीं करते ,न सिखाते हैं। .....निजी
स्कूल पैमाना बन गए हैं मान-प्रतिष्ठा के और बच्चे उसके मोहरे हैं।नाम,मार्केटिंग,सुविधाओं की चकाचैंध में हम भूलते जा रहे
हैं कि बच्चे आखिर क्या सीख रहे हैं और उन्हें क्या सीखन चाहिए।
बच्चों की रचनाशीलता बढ़ाने के सवाल पर वह एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं
कि रचनात्मकता के लिए बच्चों की शिक्षा उनकी अपनी मातृभाषा में दी जाए।कम से कम
प्राइमरी स्तर तक उनकी अपनी भाषा में शिक्षा न देने से आप बचपन में ही बच्चे की
रचनात्मकता खत्म कर देते हैं। उन्हें पाठ्यक्रम से इतर फील्ड विजिट,कला,संगीत,साहित्य,विज्ञान जैसी रचनात्मक गतिविधियों को
व्यावहारिक पक्षों से जोड़ना होगा।
एनसीईआरटी की अद्यतन किताबों की प्रसंशा करते हुए वह कहते हैं कि ये
किताबें बहुत चुपके से समानता का दर्शन सिखाती हैं ,जाति तथा धर्म के भेद को नकारती हैं और तर्क क्षमता
बढ़ाकर वैज्ञानिक सोच पैदा करती हैं। एनसीएफ 2005 के आलोक में तैयार एनसीईआरटी की पुस्तकों
के बारे मंे उनकी राय से शायद ही किसी की असहमति हो। निश्चित रूप से यह किताबें अब
तक कि सबसे बेहतरीन किताबें हैं जिनमें बच्चों की रूचियों का विशेष ध्यान रखा गया
है। शर्मा जी का यह मानना युक्तिसंगत है कि हर सरकारी व निजी स्कूल में यदि ये
किताबें लगाई जाएं तो शिक्षा का परिदृश्य बदला जा सकता है। पर सवाल उठता है
परिदृश्य तो तब बदलेगा जब शिक्षक इनके पीछे छुपे विजन को समझें । वे इन किताबों को
पढ़ाना जाने। अभी तक तो आम शिक्षक इन पुस्तकों को गरियाने में ही हैं। उनकी नजर
में ये पुस्तकें बकवास हैं।
इस बातचीत में कहीं-कहीं प्रेमपाल शर्मा जी के अंतर्विरोध भी सामने आए
हैं जैसे- एक ओर जहाँ वह शिक्षा के
परीक्षा का पर्याय बन जाने की आलोचना करते हैं
वहीं दूसरी ओर शिक्षा अधिनियम 2009 में प्रारम्भिक शिक्षा पूरी न होने तक
बच्चे को फेल नहीं करने के प्रावधान पर पुनर्विचार करने जरूरत मानते हैं।खैर, कुल मिलाकर यह पुस्तक
शिक्षा में रूचि रखने वालों के लिए बड़ी रोचक एवं उपयोगी बन पड़ी है। लेखक मंच का
यह पहला ही प्रयास सराहनीय है। आगे अन्य शिक्षाविदों से भी इसी तरह की बातचीत की
एक श्रृंखला प्रकाशित की जानी चाहिए। बातचीत विधा में इस तरह की पुस्तकें न पढ़ने
वालों को भी अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रह सकती हैं। अंत में ,मैं इस बात के लिए भी लेखक मंच प्रकाशन की प्रशंसा करना चाहुंगा कि
उन्होंने कम मूल्य पर शिक्षा और साहित्य की किताबें उपलब्ध कराने को जो संकल्प
लिया है वह अनुकरणीय है। ऐसा सामाजिक प्रतिबद्धता से लैस व्यक्ति ही कर सकता
है।
समीक्षित पुस्तक
शिक्षा ,भाषा और
प्रशासन( बातचीत) --- प्रेमपाल शर्मा और अनुराग
प्रकाशन -लेखक मंच प्रकाशन
433,
नीतिखंड-3इंदिरापुरम,गाजियाबाद-202014
मूल्य-पचास रुपए।
समीक्षक
महेश चन्द्र पुनेठा
पिथौरागढ़ , उत्तराखंड