एक दर्शक की निगाह में ईरानी सिनेमा
ईरानी
फिल्मों को थोड़ा व्यस्थित तरीके से देखने की कोशिश कर रहा हूँ | सोचता हूँ , इस
कोशिश में आप सबको भी भागीदार बनाता चलूँ | खासकर उन लोगों से , जिन्हें इन फिल्मों
की थोड़ी-बहुत जानकारी ही है , और जो इस जानकारी और समझ को और विस्तार देना चाहते
हैं | कहीं से भी इसे आधिकारिक और विद्वतापूर्ण बनाने का मेरा कोई ईरादा नहीं ,
क्योंकि उसके लिए फिर अलग से समय और तैयारी की जरूरत पड़ेगी , जो फिलहाल संभव नहीं
दिखायी देती | इसलिए चाहता हूँ , कि इस प्रयास को सिर्फ और सिर्फ एक सिने-दर्शक के
दिलो-दिमाग से उठने वाली प्रतिक्रियाओं के रूप में ही देखा-पढ़ा जाए |
तो
प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर यह पहली कड़ी ........
एशिया में जिन कुछ देशों में ‘सिनेमा’
के क्षेत्र में सार्थक काम हुआ है , उनमे ईरान काफी ऊपर आता है | अलबत्ता एक देश
के रूप में उसने लगातार परेशानियाँ झेली हैं | 1950 के दशक में आरम्भ हुआ शाह का कठपुतली
शासन रहा हो , या फिर 1979 से लेकर अब तक चल रहा धार्मिक हस्तक्षेप वाला शासन रहा
हो , इन दोनों ने ईरानी समाज को जितना दिया है , उससे अधिक छीना है | और फिर बाहरी दबावों को तो पूछना ही नहीं
है | लगभग एक दशक तक अपने पडोसी देश ईराक से लड़ने के बाद ईरान को सांस लेने तक की
फुर्सत नहीं मिली थी , कि उसके पश्चिमी और पूर्वी दोनों पड़ोसी देशों – (ईराक और
अफगानिस्तान) - में आधुनिक दौर के दोनों बड़े युद्ध लड़े जाने लगे , और जो अभी तक
किसी न किसी रूप में जारी हैं | अमेरिकी प्रोपेगंडा द्वारा घोषित ‘AXIS OF EVIL’ वाली
छवि के विपरीत ईरानी समाज की स्थिति सम्पूर्ण अरब देशों में अलग और सार्थक तरह की है | न सिर्फ उसने ‘शरणार्थियों’ के सबसे बड़े रेले को झेला है , उन्हें शरण दी
है , वरन अपने ‘खित्ते’ में वह अकेला देश भी है , जहाँ पर लोकतंत्र के कुछ चिन्ह
दिखाई देते हैं |
इस आलोक में उसकी फिल्मों पर नजर डालते हुए
हमारा सामना दो बड़े सुखद आश्चर्यों से होता है | एक - ईरानी समाज की संवेदनशील
बुनावट के बारे में और दो – उस देश में सिनेमा के बनने और देखे जाने के बारे में |
यह ठीक है कि वहां के सिनेमा में अभिव्यक्तियाँ खुले रूप से सामने नहीं आती ,
क्योंकि उस पर तमाम तरह की पाबंदियां लगी हुयी हैं | लेकिन वे त्वचा के नीचे जिन
शिराओं और धमनियों में बहती हैं , वे हमारे दिलों को सीधे-सीधे उस देश और उसके
समाज के साथ जोड़ने में कामयाब रहती हैं | दरअसल ईरान का सिनेमा संवेदनाओं का
सिनेमा है , समझ के विस्तार का सिनेमा है , दिलों में लगातार घुमड़ते रहने वाले
विचारों का सिनेमा है , हमारे भीतर सिनेमा को देखने की ईच्छा को पैदा करने वाला
सिनेमा है और कुल मिलाकर सिनेमा को क्यों और कैसे देखा जाना चाहिए , यह बताने वाला
सिनेमा भी है | आने वाले कुछ सप्ताहों में हम वहाँ के चुनिंदा निर्देशकों की
चुनिंदा फिल्मों के सहारे अपनी बात को रखने का प्रयास करेंगे |
शुरुआत ‘माजिद
मजीदी’ से करते हैं , जिनकी फिल्मों को , न सिर्फ ईरान में वरन
दुनिया भर में जाना और सराहा जाता है | दर्जनों फिल्मों को बनाने वाले ‘माजिद
मजीदी’ ईरान के उन आधुनिक निर्देशकों में शुमार किये जाते हैं , जिनके सहारे हम
वहां के समाज की आतंरिक बुनावट को समझ सकते हैं | उनकी सबसे अधिक चर्चित फिल्म ‘चिल्ड्रेन
आफ हैवेन’ है , जिसमें उन्होंने चमकते हुए तेहरान से बाहर के उस
ईरानी समाज को दिखाया है , जो अपनी मुफलिसी और परेशानियों के बीच जीने लायक
परिस्थितियों के लिए लगातार संघर्षशील है | यह सिर्फ उन दो भाई-बहनों की कहानी
नहीं है , जिनके पास स्कूल जाने के लिए जूते नहीं हैं , और जो अपने अभिभावकों की
मजबूरियों को समझते हुए उसे आपस में बदल-बदलकर पहनते रहते हैं , वरन यह उस समाज की भी कहानी है , जिसमें
चकाचौंध के पीछे ऐसी आम-सामान्य लोगों की अनगिन कहानिया छिपी हुयी हैं | यह उस
समाज की भी कहानी है , जिसके बच्चों में इतनी संवेदनशीलता पायी जाती है , कि अपनी
गुम हुयी जूतियों की पहचान हो जाने के बाद भी , वे उन्हें नहीं मांगने का फैसला
करते हैं , क्योकि उन्हें पहनने वाली लड़की उनसे भी अधिक जरूरतमंद निकलती है | न कि
उस आधुनिक (अमेरिकी) समाज की तरह , जिनके बच्चे स्कूल जाते समय आत्मरक्षा के लिए
पिस्तौल रखने के विकल्प की मांग कर रहे हैं |
उनकी एक और फिल्म ‘द
सांग आफ स्पैरो’ में भी हमें ईरानी समाज का वही सच दिखाई देता है , जो
तेहरान की चमक से दूर किसी गाँव में अपने जीवन को बचाने के लिए और उसे बेहतर बनाने
के लिए लगातार संघर्ष कर रहा है | कि , जो प्यास लगने पर भी लोभ और लालच के समन्दर
में डुबकी नहीं लगाता , वरन इसके विपरीत अपनी प्यास बुझाने से पहले , अपने पसीने से
धरती के होठ को भिगोता है | अभिनेताओं , अभिनेत्रियों और खलनायकों की परिभाषाओं वाली
भारतीय फिल्मों के विपरीत , इन ईरानी फिल्मों के नायक-नायिकाएं बिलकुल उस आम ईरानी
से तादात्म्य स्थापित करते दिखाई देते हैं , जिससे मिलकर उस समाज का ताना-बाना
तैयार होता है |
उनकी तीसरी फिल्म ‘कलर
आफ पैराडाइज’ कलात्मक रूप से थोड़ी और गुथी हुयी फिल्म है , जिसमें एक
बाप अपने जन्मांध बेटे को बोझ के रूप में देखता है , और किसी भी तरह से उससे मुक्त होना चाहता है | उसके भीतर बार-बार
यह आवाज उठती है , कि काश ! यह बला मेरे जीवन से टल जाती | कलात्मक दृष्टि से
अद्भुत और जादुई असर वाली यह फिल्म कई स्तरों पर चलती हैं , और बताती है , कि समाज
में हम जिन्हें अपंग या बोझ समझते हैं , वे दरअसल इस समाज में हमसे अधिक संवेदनशील
तरीके से जीते हैं ,या कहें तो जीना चाहते हैं | जिनकी आँखें नहीं हैं , उनके भीतर
वह दृष्टि होती है , जिसके सहारे वे ब्रेल लिपि के अक्षरों को तो कागज़ के टंकित पन्नो
पर पढ़ ही लेते हैं , उससे आगे बढ़कर , पक्षियों के कलरव में , नदियों की तलछट के पत्थरों में , गेंहूं की उबड़-खाबड़ बालियों में और आसपास से गुजरती हवाओं में भी , वे उन
अक्षरों को ठीक-ठीक तरीके से चिन्हित कर लेते हैं | ये लोग हमें यह भी बताते हैं
कि इस प्रकृति में कुछ भी अनायास नहीं है , और यह हमारी अपनी समझ की सीमा है , जो
किसी को आवश्यक , और किसी को बेमतलब करार देती है | फिल्म का वह संवाद , जिसमें
अँधा लड़का अपने पिता द्वारा एक कारखाने पर छोड़ दिए जाने के बाद अपने ही जैसे अंधे
व्यक्ति से इस दुनिया की शिकायत करता है , न सिर्फ अद्भुत है , वरन दिल को चीरकर
रख देने वाला भी है |
अपनी एक और फिल्म ‘द
विलो ट्री’ में भी ‘माजिद-मजीदी’ एक अंधे व्यक्ति को ही नायकत्व
प्रदान करते हैं , और बताते हैं कि इस दुनिया को देखने के लिए दृष्टि की जरुरत
होती है , न कि सिर्फ आँखों की | यह फिल्म भी कई मायनों में अद्भुत फिल्म है |
लेकिन मेरी नजर में उनका सबसे बड़ा काम ‘बरान’ फिल्म में दिखाई
देता है | आतंरिक और बाह्य युद्ध की विभीषिका झेल रहे अफगानिस्तान से ईरान में
लाखों लोगों का शरणार्थी के रूप में आने का सिलसिला हाल-फिलहाल तक जारी है | उन्ही
शरणार्थियों के सहारे ‘बरान’ नामक यह फिल्म ईरानी समाज के उस द्वंद्व को उद्घाटित
करती है , जिसमे एक तरफ तो उन शरणार्थियों को अपने देश में प्रवेश दिया जाता है ,
और दूसरी तरफ उनके अपने समाज के दबाव और तनाव इतने मुखर होते जाते हैं , कि इन
शरणार्थियों के सामने जीने लायक कोई भी परिस्थतियाँ , बचती ही नहीं हैं | और फिर ‘माजिद’ की अन्य
फिल्मों की तरह ही इसमें भी कई स्तरों पर चलने वाला जीवन अपनी सम्पूर्णता में
मुखरित होता है | मसलन प्रेम को ही लें | अपने लिए किसी तरह से घिसटते हुए जीने की
स्थिति को तलाशता हुआ युवक , एक अनकहे और अनबोले प्रेम के लिए अपना सब कुछ
न्यौछावर कर देता है | यह सचमुच स्तब्धकारी अनुभव ही है ,कि बिना एक लब्ज बोले ही , इस फिल्म की नायिका
‘बरान’ , की आवाज , फिल्म की समाप्ति पर हमारे भीतर गूंजती सुनाई देती है |
‘माजिद-मजीदी’ के सहारे ईरानी फिल्मों और उसके
समाज को समझने का यह मेरा प्रयास है , जिसमें अपनी समझ को विस्तारित करने के लिए ,
आप चाहें तो उनकी अन्य दो फिल्मों – ‘ baduk’ और ‘the
faather’ - की सूची भी जोड़
सकते हैं |
अगली पोस्ट में हम ईरान के एक अन्य महत्वपूर्ण
सिनेकार ‘जफ़र पनाही’ की फिल्मों को जानने – समझने का प्रयास करेंगे |
तो
मित्रों ........ जल्दी ही मिलते हैं |
( और हां.........
यदि आप अपनी टिप्पड़ियों के सहारे इस प्रयास को और अधिक समृद्ध करेंगे , तो मेरे
लिए यह अत्यंत खुशी की बात होगी | )
प्रस्तुतकर्ता
रामजी
तिवारी
बलिया
, उ.प्र.
मो.न.
09450546312
आज से कोई पंद्रह बीस वर्षों पूर्व दूर दर्शन पर सिनेमा इरानी आया करता था...प्रत्येक शुक्रवार रात ग्यारह बजे प्रारंभ होने वाले शो मे कुछ बहुत ही अच्छी व हृदय को छूने वाली ईरानी फिल्में देखी थीं...एक अलग ही दुनिया ...आपने ईरानी फिल्मों की याद दिला दी....बहुत बढ़िया आलेख मुबारक ...
जवाब देंहटाएंपद्मनाभ गौतम ..।
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंइस सिरीज़ को पूरा करें। मैं एक सार्थक पुस्तक देख रहा हूं इसमें। विष्णु खरे के बाद हिन्दी सिनेमा पर आलोचना का तेज़ी से लोप हो रहा है। आपका काम उस परम्परा को समृद्ध करेगा।
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति |क्या ये फिल्मे हिन्दी में उपलब्ध हैं ?
जवाब देंहटाएंRamji bhai, achchee shuruaat hai , bas ek hi salaah hai ki harek film par baat karte hue thoda thahare, aur tharkar likhna aap jaante hain, fir yah silsila kaayam raha to beshak Shirish ke kahe anusaar ek aur achchee kitab hame chaapne ko mil jaayegi. khair badhai is jaurui kaam ke liye.
जवाब देंहटाएंइरानी फिल्मों पर आपकी टिप्पणियों से मजीदी की इन फिल्मों को देखने की इच्छा जग उठी है। आपने बहुत कम शब्दों में जिस तरह इन फिल्मों की समीक्षा की है वह रोचक है। आभार हर बार की तरह कुछ अलग करने के लिए। अगले कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी।
जवाब देंहटाएंआपको बहुत-बहुत साधुवाद! ‘चिल्ड्रेन आॅफ हैवेन’ देख रखी है मैने। मेरी समझ से भाई-बहन की साथगोई पर आधारित यह कहानी ईरानी-मन के करीब हमें कुछ इस तरह ले जाती है कि फिर वहाँ से हमारा लौटना मुश्किल हो जाता है। माजिद मजीदी की यह फिल्म मुझे तो सामूहिक हँसी, संतुष्टि, कल्पना और स्वप्न की अतःसाझेदारी मालूम देती है। गरीबी का भूगोल हर जगह ऊसर, बंजर या अनुर्वर ही होता है। यह आँकड़ेबाजी के उल्लेख में विश्वास करने वाले मुझ जैसे शोधार्थी जानते होंगे बेहतर। लेकिन, माजीद मजीदी के बाल-पात्रों के लिए तो अपने जूते की पहचान को अपने भीतर जिलाए रखना ही सबसे बड़ी शर्त है, जिजीविषा की प्रतीकात्मक चेतना है। वैसे दौर में जब अमीरों की सहानुभूति अपनी ही बिरादरी के बच्चों के प्रति नहीं है; माजीद मजीदी के बाल-पात्र उस गरीब लड़की से जूते इसलिए वापिस नहीं माँगते हैं कि वह लड़की अपने अँधे पिता की आँख है और उनकी दृष्टि में स्वयं से ज्यादा जरूरतमंद है। यह कहानी इसलिए अनूठी है और संवेदनशील भी कि वहाँ कोई बात बनावटी नहीं है। रंग भरे हुए नहीं है। चित्र ठूंसे हुए नहीं हैं। कई-कई जगह आपको तिलमिला देने वाली बेचैनी के साथ फिल्म निर्बाध यात्रा करती है। कुल मिलाकर जब अंत में आप फिल्म समाप्त करके अपनी आँखें भींचते हैं, तो आप कई-कई लोगों के प्रभाव में होते हैं...माजीद मजीदी का नाम सचमुच सबसे ऊपर है।
जवाब देंहटाएंअब फिल्मों को देखे बिना चैन नही आएगा . मैं इस वक्त केवल आपके प्रति आभार प्रकट करना चाहता हूँ |
जवाब देंहटाएंHaardik Dhanyavaad...
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