गुरुवार, 8 अगस्त 2013

नीलम शर्मा की कवितायें

                                 नीलम शर्मा 




इस ब्लॉग पर आप पहले भी नीलम शर्मा की कवितायें पढ़ चुके हैं | उनके पास बेहद संवेदनशील मन है और उनसे निकलने वाली बातों को कविताओं में पिरोने का हुनर भी | वे उसे बखूबी निबाहती हैं , और कोशिश करती हैं कि कविता की भाषा को पंचम स्वर में जाने से बचाये रखा जाए | आप सबको ये कवितायें पसंद आयेंगी , इस उम्मीद के साथ .....
                             

            प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर कवयित्री नीलम शर्मा की कवितायें


एक  

अब भी ताकता है आसमान
धूप और बादल की गुफ्तगू से बनी
तुम्हारी धुंधली सी तस्वीर को एकटक ...
न जाने कब एक गुनगुनी बूँद
तुम्हारी कोई बात मेरी हथेली में
छम से थमा जाये -
और मैं झुलसती रहूँ ताउम्र
पसीजते मौसम को बददुआएं देती
हवाओं को पलट कर न देखने की
कसमें देती और-
मुठ्ठी की कसमसाहट में दम तोडती
तुम्हारी उस आखिरी बात पर
अपने वजूद को नकारने की कोशिश करती
गुनगुनी बूँद की पैदाइश को ....
सौ सौ सूरजों की तपिश झेल कर
अब भी उगना चाहती हूँ
उसी रेगिस्तान की बंज़र ज़मीन पे
जहाँ रख दी थी हथेली अपनी
देख कर छाले तुम्हारे पाँव के ...



दो ...

रोज़ इतने दर्द झड़ते हैं आसमान से
कि समूचा आँचल छटपटा कर
साँस तोड़ देता है....
कितनी तुरपनें उधड गयी हसरतों की
पर एक टांका भी फुर्सत का
लगा नहीं पाए तुम-
अब ये कतई ज़रूरी नहीं
कि तुम्हारे हर सवाल के ज़वाब में
मुस्कराहटों का समंदर उमड़े
या फिर
तुम्हारी हर कविता का आगाज़
मेरे आंसुओं की दस्तक से ही हो ...
ज़रूरी सिर्फ इतना भर है
कि तुम-तुम में ना रहो-
मेरे इर्द-गिर्द घिरी ख़ामोशी की नदी
अब भी दहाड़ें मारने को
बेक़रार है ,
बस तुम ख़ुशी की एक लहर
इस तरफ भी
बहाओ तो सही........!!!


तीन  

एक एक शब्द से 
सौ नश्तरों की चुभन और 
तेजाब सी जलन का अहसास पाना 
हर स्त्री के नसीब में नहीं होता ---
देह के भीतर भी पत्थरों की कमी नहीं 
और बाहर  भी . 
हर चोट एक दूसरे से 
गुत्थम गुत्था हो कर शून्य हो जाती है 
ओर  क्या रह जाता है ....?
समर्पण की धज्जियाँ उडाता अट्टाहस  ......!
यह नियति नहीं -
कर्मरेखा या भाग्यफल भी नहीं ,
स्वनिर्णय होता है 
जो बार बार सिर्फ इस वज़ह से 
कमज़ोर पड़ता है कि 
अगली बार ऐसा नहीं होगा शायद ........! 
जंगलों में पेड़ अकेले नहीं होते 
परन्तु हर लता उनसे आकर लिपटती भी नहीं .
मैं गुलीवर के देश को नहीं जानती 
लेकिन घूरों पर उगते कुकुरमुत्ते 
अक्सर जंगलों में तब्दील नहीं होते 
और----
उन बौने  जंगलों में
तेजाब  से जले चेहरे वाली स्त्री 
अब नहीं उगती ......!!!



चार ....

चुप रहो क्योंकि शब्द नश्तर हैं तुम्हारे
अब भी चुभन बह रही है नसों में .
आसमान का नीले से लाल हो जाना
जरूरी नहीं रोज़ की एक आदत हो ....
सुबह का अवसाद रातों रात पैदा नहीं होता
और चुप रहने से अकेलेपन की तौहीन हो
ये भी कतई जरूरी नहीं .....
कभी कभी सौ चुप्पियों को एक मामूली नज़र ही
तबाह कर देती है
तो कभी सैंकड़ों आवाज़ों का शोर भी
तमाम सन्नाटों पर पहरे नहीं लगा पाता ...
बेहतर है अपने जवाबों के दायरे में
खुद ही सवालों से सवाल करते रहो ....
तुम्हारा ये सिलसिला ख़त्म होते ही
मौन से हुए मेरे तमाम अनुबंध
खुद ब खुद टूट जायेंगे !!!!


पांच ...  

टुकड़ों टुकड़ों में मिलती हैं खुशियाँ
और एक टुकड़े को दुसरे से जोड़ने में
लग जाते हैं
पीडाओं के अनगिनत धागे ....
नफरतों की तीखी सुई की चुभन से
छलक पड़ती हैं ऑंखें
और ज़ज्ब हो जाती है नमी
फिर से उन्ही टुकड़ों में ......
आसान नहीं है
एक भीगे टुकड़े को दूसरे  तक पहुँचाना ,
एक कोना भी अटक  जाये
तोहमतों के काँटों में
तो देर नहीं लगती
घावों की बखिया उधड़ने में --
यूँ ही चलती हैं कोशिशें
और-
जीती रहती हूँ मैं
एक सीली सी
पैबंद लगी जिंदगी ......!


छः ...

समंदर की लहरों से टकराते 
विचारों के भंवर 
फटती मस्तिष्क की शिराएँ 
और 
उफनते भावनाओं के ज्वार--
तलाशो !
कहीं तो होगा 
निष्कासन का एक छिद्र 
जो संभव कर सके 
द्रवित संवेदनाओ का बहाव 
मनुष्य से मनुष्य की ओर ............!




परिचय और संपर्क
            
नीलम शर्मा

पेशा – अध्यापन कार्य

उदयपुर , राजस्थान में रहती हैं 




2 टिप्‍पणियां: