रविवार, 11 अगस्त 2013

विमलचंद्र पाण्डेय की कवितायें



                              विमल चन्द्र पाण्डेय 





बतौर कथाकार विमल चन्द्र पाण्डेय को हम सब जानते हैं | अपने पहले कहानी संग्रह ‘डर’ के बाद पिछले साल ही उनका दूसरा कहानी-संग्रह ‘मस्तूलों के इर्द-गिर्द’ भी आया है , और ख़ासा चर्चित भी हुआ है | वैसे चर्चित तो उनका संस्मरण ‘ई इलाहब्बाद है भईया’ भी हुआ है , जिसमें उनकी किस्सागोई और उस शहर के बहाने अपने भीतर और बाहर देखने की कोशिश मुखरित हुयी है | वे उपन्यास भी लिख रहे हैं , और संभवतः वह जल्दी ही प्रकाशित भी होने वाला है | लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कवितायें भी लिखते हैं , और इतनी मारक तथा  संवेदनशील तरीके से लिखते हैं | सिताब दियारा ब्लॉग उनकी ऐसी ही चार कविताओं को आपके सामने रख रहा है | अब आप सुधि पाठक ही तय करेंगे , कि ये कैसी हैं |

         
        तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर विमलचंद्र पाण्डेय की कवितायें  



एक

बार-बार लौटता हूं बनारस                       

जैसे छेदी की गायें पूरे लहरतारा की घास चरने के बाद लौटती हैं अपनी खटाल में
शिव गंगा कोहरे में छत्तीस घंटे भी विलम्ब होकर आती है वाशिंग लाइन के यार्ड में
जैसे सांस छूटने के बाद फिर से वापस आती है जीवित व्यक्ति की नासिकाओं में
मैं बार-बार लौटता हूं बनारस जैसे अब नहीं जाउंगा कहीं भी

जम जाता हूं जब यहां आता हूं
जैसे जमती है काई घाट की सीढ़ीयों पर
पर हर बार सफ़ाई होती है
रोज़ी कमाने या सपनों को बचाने के लिये विस्थापित होता हूं किसी और शहर

मेरे बहुत सारे मित्र हैं जो कमाते हैं धन
मैं राजेन्द्र प्रसाद घाट पर पतंगें लूटता हूं खिचड़ी में
सब अर्जित करते हैं प्रसिद्धियां और अखबारों में साक्षात्कार देते हैं
मैं अचार डालता हूं खुद को मिले मौकों का और खिलाता हूं मुट्ठी भर अज़ीज़ मित्रों को
मणिकर्णिका पर खड़ा होकर चिता की आग से सुलगाता हूं सिगरेट
और सोचता हूं कि चाय पहले पीउं या ठंडाई
जैसे हर अंतिम काम पूरा होने से पहले भस्म होता है हरिश्चन्द्र घाट पर
बार-बार लौटता हूं बनारस जैसे यहीं मर जाउंगा इस बार

इस पुरातन शहर की आत्मा में हुये छेदों को भरने की कोशिश करता हूं
सड़क पर टहलता हूं अकेला रात-रात भर
इसकी सांस अवरुद्ध होती है फेफड़ों में जमे धुंए की वजह से
मैं इसके सीने पर गरम तेल और अजवाइन मिलाकर मलता हूं

वे सब इसे छोड़ कर चले जाते हैं कहीं न कहीं
जो इससे सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं
मैं उनकी मजबूरियों को इसे समझाने आता हूं यहां बिना कारण
जैसे डूबता तैराक बचने की कोशिश करता है आखिरी बार एक लंबी सांस लेकर
लौटता हूं बनारस और जीने की एक और कोशिश करता हूं

बनारस को प्यार करते हैं सब अपने बूढ़े बाप की तरह
इसकी पुरानी यादों से मुस्कराते तो हैं लेकिन दूर रहते हैं इससे
कभी आते हैं यहां तो इसका हालचाल भी नहीं पूछते

जैसे बूढ़ी मां को सहेजने के लिये नहीं दी जाती कोई थाती
इसे बहलाते हैं सब बातों से और घर खरीदते हैं दिल्ली और मुंबई में
यह कभी कोई शिकायत नहीं करता किसी से
सिर्फ धूल भरी आंधियां चलती हैं यहां भरी दोपहरी में अचानक
इस मामले में यह मेरे जैसा है
हममें इसीलिये बनती है इतनी कि एक दूसरे का हाथ थामे हम बैठे रह सकते हैं
कई दिन कई रात कई जन्म
कुछ हासिल करता हूं या खो देता हूं कुछ
तो लौटता हूं बनारस यह समझने कि पाना और खो देना दरअसल दो शब्द हैं
जिन्हें चबाकर ज़िंदगी को बनाना होता है थोड़ा मीठा, थोड़ा नमकीन
न न न, मुझे आध्यात्मिक न कहें श्रीमान !
खोना और पाना की जगह आप अपनी सहूलियत से दूसरे शब्द रख सकते हैं
जैसे नौकरी या बेरोज़गारी
प्रेम और विश्वासघात
जीवन और बनारस के बाहर की ज़मीन

बनारस में जीवन मंथर गति से चलता है
उसी तरह यहां कारें, स्कूटर और प्रेम भी चला करते हैं
तेज़ गति से चलती है गोलियां, कटती हैं गर्दनें, बचाये जाते हैं पुरखों के सम्मान
धर्म का बहुत सुन्दर सजीव प्रदर्शन होता है यहां
उसे अधिक पास से न देखियेगा यदि अश्लीलता को पचाने की आदत न हो आपकी

यह देखता है सब कुछ एक उदासीन दर्शक की तरह
मैं इसके कंधे पर हाथ रखे चुपचाप बैठा रहता हूं
हम दोनों एक दूसरे जैसे हैं
खामोश, उदास और अकेले
मेरी बात छोड़िये और इसके बारे में यह जान लीजिये साहेबान !
यह वैसा बिल्कुल नहीं है
जैसा बना दिया गया है इसे
जैसा फिल्में दिखाती रही हैं इसको
जैसा आप समझते हैं इसे


दो .....

तुम अलग थी अपने प्रेम से


तुम्हारा प्रेम मुझे अमर करना चाहता था
तुम हर पल मुझे मारने पर उतारू थी
तुम्हारी प्रलय की हद तक जाती शंकाएं
मेरी चमड़ी के नीचे की परत देखना चाहती थीं
तुम्हारा प्रेम मेरी अदृश्य चोटों पर भी होंठों के मरहम रखता था

किसी को कैसे एक साथ देखा जाये उसके प्रेम से
जबकि दोनों अलग अलग वजूद हैं समय के
तुम्हारा प्रेम इतना बड़ा कि समा नहीं पाता मेरे हृदय में पूरा का पूरा
तुम्हारे आरोप इतने छोटे कि कहां चुभते हैं मेरे बदन में
खोज तक नहीं पाता

मैं भी कहां था अपने प्रेम जैसा
जो तुम्हें आकाश में उड़ता और नदियों में अठखेलियां करता देखना चाहता था
मैं चाहता था तुम्हें बाहों में भर कर चूमूं और हमेशा के लिये बंद कर लूं अपने हृदय में
इसमें मेरे प्रेम से अधिक यह भावना थी कि तुम्हें देखूं हमेशा मैं ही
तुम्हें चूमूं हमेशा मैं ही
तुम्हें हमेशा सिर्फ मैं ही प्यार करूं
मेरा प्रेम बहुत विराट था तुम्हारे प्रेम जैसा ही
लेकिन हम वही थे टुच्ची कमज़ोरियों से भरे
छोटी कामनाओं वाले मनुष्य

न तुम कुछ खास थी न मुझमें कोई बात थी
हमारे प्रेम ने हमें बदल कर कुछ वैसा बनाना चाहा
जैसा किताबों में और पुरानी कहानियों में होते हैं किरदार
हमने वैसा बनने का अभिनय किया और अपने प्रेम को सम्मान दिया
जितनी हमारी क्षमता थी

हमारी क्षमता के हिसाब से ही हमें मिलता है प्रेम

प्रेम हमसे बदले में कुछ नहीं चाहता था
सिर्फ इतना कि हम अपनी बांहें बिल्कुल छोटी कर लें और बढ़ा लें अपने हृदय का विस्तार सागर सा
प्रेम में दुनिया से लेंगे भी तो क्या लेंगे गुड़िया ?
कौन सी चीज़ प्रेम में सुकून पहुंचाती है
सिवाय प्रेम के ?

तुमने मुझे हमेशा छीलना चाहा अपने आकार में लाने के लिये
मैंने तुम्हें दबा कर तुम्हारी उंचाई कम करने की कोशिश की
हम एक दूसरे को सबसे अच्छे से जानते थे इसलिये हम सबसे अच्छे दुश्मन थे
और हमसे अच्छे दोस्त कहां मिल सकते थे
प्रेम ने हमें बड़ी मिसालें दीं तो हमने उन्हें कविता में प्रयोग कर लिया
जीवन में हमने उन्हीं चीज़ों का प्रयोग किया जो हमें बिना मेहनत के मिलीं
हमारे तकिये पर और हमारे पुश्तैनी घर की आलमारी में

तुम मेरी आत्मा पर अपने नाखूनों के निशान छोड़ती रही
मैं तुम्हारे शरीर को सजाता रहा
सताता रहा
हमने एक दूसरे से प्यार करके भी
अलग-अलग चीज़ों से प्यार किया
जिसे संभालना कठिन साबित हुआ
खुद हमारे लिये भी



तीन

प्रेम विवाहों के खलनायक


वे उस समय दिखायी देते हैं दुनिया के क्रूरतम चेहरे
लेकिन उसके पहले और उसके बाद वे हमेशा प्यार से पेश आते हैं
प्रेम विवाहों में जो खलनायक होते हैं वे हमारे घरों में ही रहते हैं
और हमारी तरह ही खाते हैं रोटी सब्ज़ी
कभी-कभी खीर भी

प्रेम विवाहों के खलनायकों की कोई सोची समझी योजना नहीं होती     
उसे करने की जो वह करते हैं
उम्र और लिंग की सीमाओं से परे जाकर जब वह कर रहे होते हैं किसी विवाह का पुरज़ोर विरोध
दरअसल उसके पीछे की ठोस वजह उन्हें पता नहीं होती

वे इसीलिये नहीं करते ऐसा करने के कारणों पर बात
घूमते हैं सिर्फ रह-रह कर इसी बात के इर्दगिर्द कि यह शादी होगी तो वे छोड़ देंगे ये दुनिया
गोया यह दुनिया चल रही है सिर्फ उनकी ही उपस्थिति से
जाति, धर्म, गोत्र, रिश्ता, पैसा और कभी-कभी तो हास्यास्पद ढंग से
वे संभावित वर-वधू की त्वचा का रंग और लम्बाई तक को अपने ऐतराज़ की वजह बनाते हैं
प्रेम विवाह उन्हें अपना महत्व दिखाने का एकमात्र बड़ा मौका प्रदान करता है

‘‘हमारे ज़माने में इतनी हिम्मत नहीं थी’’ या ‘‘हमारे समय में....’’ जैसी उपमाओं से वे खोलते हैं अपनी ज़िद का पिटारा
उम्मीद करते हैं कि उनकी इस धमकी से कोई भुला दे अपने साथ जीने मरने के वादे
उनकी खोखली ज़िदों पर कोई फैसला नहीं लिया जायेगा
अक्सर उन्हें यह पता होता है और जब ऐसा होता है
वे अपनी ज़िदों के साथ एक खोल में बंद दिखायी देते हैं

प्रेम विवाहों में जो खलनायक होते हंै
वे भी हमारी तरह देश में हो रहे अपराधों पर दुखी होते हैं
सिलिंडर और पेट्रोल के बढ़ते जा रहे दामों पर कोसते हैं सरकार को
गंभीरता को तोड़ने के लिये सुनाते हैं कोई चुटकुला
सिलसिला के गीत उन्हें बहुत पसंद होते हैं
रेखा उनकी पसंदीदा अभिनेत्री होती है अक्सर

वे नहीं जानते अपने दुख का असली कारण
अकेले में जब वह याद करते हैं अपने बेटे या बेटी की रोती हुयी सिसकी
अपने मनपसंद जीवनसाथी से विवाह करने की अनुमति मांगता उनका गिड़गिड़ाता चेहरा
उन्हें याद आता है एक ठहरा हुआ वक्त
अपनी पुरानी बेड़ियां और बंदिशें उनके सामने साकार होने लगती हैं
वे रोते हैं और उनके सामने घूम जाता है एक पुराना सीलन लगा चेहरा
जो एक खास वक्त में रुक गया होता है
उन्हें और तेज़ रुलाई आती है
उन्हें पूरी तरह विश्वास नहीं होता अपनी ही बात पर मगर फिर भी
वे फिर से एक नये सिरे से यह कहते हुये बाहर निकलते हैं
कि यह शादी करके वे नहीं लगवा सकते अपने खानदान की इज़्ज़त पर कोई दाग

प्रेम विवाहों में जो खलनायक होते हैं
उन्होंने अक्सर विवाहों के नायक नायिकाओं की उंगलियां थामी होती हैं उन्हें चलना सिखाने के लिये
उनके मलमूत्र सहे होते हैं अपने कपड़ों में
वे अचानक बर्दाश्त नहीं कर पाते अपने बच्चों का इतना बड़ा होना
इतना बड़ा होना कि वे जीने की ज़िद करें किसी और के साथ
उन्हें अपना अस्तित्व अचानक ख़तरे में दिखायी देता है
उनके अवचेतन मन में बनने लगते हैं अंधेरे गहरे कुंए
वे गिरने लगते हैं उस कुंएं में तेज़ गति से
गिरते-गिरते ही उन्हें एक युग बदल जाने का बोध होता है
एक पीढ़ी बीत जाने की बात उन्हें एक टीस देती है
उन्हें अचानक लगता है कि वे न रहे इस दुनिया में तो भी यह चलती रही उतनी ही रवानी से
उनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला दुनिया के कारोबार पर
उन्हें एकाएक महसूस होता है कि यह ज़िंदगी एक फिल्म है
और उनकी भूमिका ख़त्म होने का वक़्त आने ही वाला है
उन्हें पता चलता है कि उनकी जगह पर नये कलाकार आ चुके हैं
उन्हें मंच छोड़ देना है जल्दी ही
वे सिहरते हैं और चीख उठते हैं तेज़ आवाज़ में
यह शादी नहीं हो सकती।


चार

इतने अधिक अपराध, इतने कम प्रायश्चित

दुख लटका है हमारी कमीजों की जेबों से
कई रंगों में, कई डिज़ाइनों में
वह हम पर आक्रमण करता है अचानक
हम लिख डालते हैं अपने बच निकलने की दास्तान
और जी जाते हैं
मरने की बस एक सूरत होती है
कि ऐन वक़्त पर चलती ही नहीं कलम

विरोधाभासों और विरोधियों से घिरे रहे मेरे तीनों काल
विरोधियों में कोई विरोधाभास नहीं था
वह था मित्रों में, प्रेमिकाओं में और संबंधियों में
रात और दिन
काला और सफ़ेद
सुख और प्यार
मौत और मां
मैं विरोधाभासों में जीने का आदी हो चुका हूं

जब तक खोलता हूं सफ़र के लिये अपनी कश्ती
सूरज डूबने का वक़्त हो चुका होता है
कई कश्तियां हैं जो बंधी ही रहती हैं उम्र भर किनारे से
उनकी अधूरी यात्राओं का कब्रिस्तान मेरी आंखों में है

मेरे चाहने से नहीं चलती दुनिया
नहीं होता दिन, रात, मौत, प्यार
जैसी चीजे सिर्फ़ हवा में हैं
हम नहीं पकड़ पाते उन्हें और जब हम अवसाद में होते हैं
तो सोचते हैं न पकड़ सकने वाली चीज़ों के बारे में

किसी नियम से बंधी है उसकी हंसी, उसकी नींद
हम तोड़ते हैं नियमों को और पाप करते हुये यह भूल जाते हैं
कि कानूनों के न तोड़े जाने से कहीं ज़रूरी है उसकी नींद का न तोड़ा जाना
हम कभी कोई प्रायश्चित नहीं करते जबकि दुनिया में रोज़ होती हैं लाखों मौतें
हर पल टूटते हैं हज़ारों दिल और सपने
कितनी हंसियां खो जाती हैं
कितनी ही नींदें अनिद्रा की अतल गहराइयों से चीखने लगती हैं

इतने सारे लोग हैं हर तरफ और इतने कम कंधे
इतनी सारी आवाज़ें और उसकी एक भी नहीं
इतनी आंखें घूरती हैं हर रोज़ मेरी उदासी
मगर एक भी आंख नहीं जो थाम ले मेरे हारे आंसू
इतने अधिक अपराध पर इतने कम प्रायश्चित हैं
कि हर पल डरावनी होती जाती है दुनिया

दुनिया को कविता से अधिक प्रायश्चित की ज़रूरत है
कवियों हमारा अपराध यह है
कि हमने इसलिये नहीं किये प्रायश्चित
कि हम यह कह कर छूटे
कि हमने तो नहीं किया कोई भी अपराध




परिचय और संपर्क

विमलचंद्र पाण्डेय

प्लाट न. 130 – 131
मिसिरपुरा , लहरतारा , वाराणसी
221002 , उ.प्र ...
मो. न.  9451887246 , 9820813904





19 टिप्‍पणियां:

  1. banaras par likhi kvita naayab hai.. shahar ka chitr uski deh hee nhi uski aatma ke darshan bhi karvaata hai.. vimalji ko bahut badhai .. ramji ka dhanyvaad leena malhotra

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  2. बना रहे बनारस, बने रहे विमल. हम अपने समय को उसके हर शक्ल में पढ़ते रहे.

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  3. बनारस पर लिखी,,सुन्दर कविता

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  4. Prem par kya isase adhik kholkar kuchh kahaa ja sakTaa hai... Sa edanaon ka adbhut vistaar hai vimal chandra ki kavitaon men...

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  5. बहुत अच्छी कविता है बनारस।
    वैसे बनारस पर बहुत लिखा गया है मगर यह कविता इस मायने में खास है कि कवि के भीतर बनारस जैसे अपने पूरे वजूद के साथ समा गया हो और बनारस के भीतर कवि और दोनों एक भयानक से समय के भीतर जी रहे हो खामोश,उदास और अकेले।

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  6. पहली कविता बनारस ले जाती है तो चौथी कविता के मुहाने तक | कविताएं अच्छी है,संचरनात्मक स्तर पर अपेक्षाएँ अधिक है इसलिए कुछ और काम किया जा सकता है | बधाई!!!!

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  7. अरे विमल, बहुत अच्छे भाई। पहली कविता ‘ बार-बार लौटता हूँ बनारस’ पढ़ने के बाद दूसरी, तीसरी और चौथी कविता भी आँख के सामने से गुजरी तो पर सच कहें तो उन्हें ढ़ंग से देख नहीं पाया भाई। ऐसा इसलिए कि ध्यान तो वहीं अटक गया था, शुरू में ही। बाद की कविताएँ भी अच्छी हैं। यह कविरूप बना रहे बनारस की तरह। आज के एक बड़े कवि की बनारस पर लिखी एक चर्चित कविता की याद करते हुए कहना तो यह चाहता हूँ कि कविता में कला का सोना चाहे जितना डाल दिया जाए, पर बात तो तब पैदा होती है जब उसमें जीवन का लोहा मिलाते हैं। इन कविताओं में जीवन के लोहे की तनिक भी कमी नहीं है। बहुत बधाई, प्रेम और शुभकामनाएँ असीम।

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  8. सभी कविताएं बहुत अच्‍छी हैं। विमल का किस्‍सागो होना उनकी कविताओं में नए सिरे से खुलता है। नरेशन के नए संतुलित पहलू यहां हैं। शुक्रिया रामजी भाई।

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  9. कभी कभी मैं कुछ कविताओं को पढ़ता हूँ और निराश हो जाता हूँ कि कवितायें समझने की तमीज ही नहीं मुझमें कि फिर कुछ कवितायें पढ़कर फिर से कविता की जमीन तलाशने लगता हूँ ऐसी कवितायें सहज ही बाँध लेती हैं। विमल भाई की कविता ऐसी ही कविता है। चाहे बनारस हो अथवा प्रेमविवाह के विरोधी... सभी सहज किंतु गम्भीर सार्थक और बहसतलब..

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  10. kya bat hai. vimal ne kavita ka santulan bhi achche se nibhaya hai. banaaras kavita ne man moh liya. prem vivahon ke khalnaayak bhi badhiya lagi. vimal ko badhaee ewam aapka abhar.

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  11. sorry bhai I like only first poem that is very good satire

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  12. aapki kavita 'tum alag thin apne prem se' main ek pankti thi ... humaari samsya yahi thi ki hum samajhte the ek dusre ki samasyaayen .....wo missing lag rahi hai ....main galat bhi ho sakti hoon .....lekin agar sahi hoon to wo pankti bhi add kar dijiye kavita main ...waise ek baat aur ... aap kahaniyan bahut achi likhte hain ye sahi hai lekin unse bhi zyada main aapki kavitaon ko pasand karti hoon .. so keep writing poems ...
    Reena pareek

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  13. सुन्दर.लाज़वाब,झन्नाटेदार,मस्त,बेहतरीन,गज़ब,कमाल,और...और.....और....और क्या भाई?

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  14. bahut bahut achchi kavitaayein hai, pehli do khaaskar. banaras se juda har insaan isse khud ko jod sakega.

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  15. Vimal Ki Kavitayen Apne Deshaj Sanskaron Ko Pratibadhhta se yaad Krti Hain, Visthapan Ki Visangati in Kavitaon Mein Vrihattar Jan Ka Avsaad Aur Apni Mastt Sanskriti Se Gahre Prem Ka Aakhyaan Rachti Hai. Vyavastha Ki Najayaz Karastaniyon Ka Khulasa Bhi In mein Darj Hai. Vimal Ki Kavitaon Par Ek Lagh AAlekh Anyatr Likh Chuka Hun. Bahut Bahut Mangal Kamnayaen Vimal, Swagat.

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