केशव तिवारी 
हिंदी के जाने पहचाने आलोचक रेवती रमण का युवा कवि केशव तिवारी की रचनाओं पर केन्द्रित यह लेख "आधारशिला" पत्रिका में छपा था | 'सिताब दियारा' ब्लाग इस महत्वपूर्ण लेख को आपके समक्ष प्रस्तुत करते हुए गर्व का अनुभव कर रहा है |
अपनी जमीन की कविताएं
 केशव तिवारी हिन्दी
के एक ऐसे युवा कवि है जिनकी कविता का एक जनपद है। उनका आंचलिक वैशिष्ट्य भाषा और संवेदना-दोनो
ही स्तरों पर स्पष्ट लक्षित होता है।  प्रगतिशील
यथार्थवादी कविता परम्परा का असर उनकी अभिव्यक्ति को अनुकृति या प्रतिकृति सिद्ध नहीं
करता। लेकिन समकालीन परिदृश्य में जो नये ढंग का रीतिवाद प्रचलित है, उससे मुक्त वह इस वजह
से ही रह सके हैं कि उनकी अपनी एक जमीन है, ग्राम,समाज और जनपद की वेदना और वैभव की पुकार है
केशव की कविता। वह भीतर से भरे हुए की शब्दावली है इसीलिए उत्तर आधुनिक प्रेतात्माओं
से प्रभाव-ग्रहण किये बिना ही केशव की कविता खुद का संदर्भ रचती है। उसमे अन्तर्वस्तु
ग्राम परिवेश है और जो बड़ी तेजी से बदल रहा है। बदलाव इतना त्वरित है कि पहचान का संकट
गहराने लगा है। केन नदी से लेकर बेतवा के विस्तार तक केशव की कविता का जनपद उनके कवि-कर्म
का स्वानुभूत जीवन-द्रव्य हैं। उन्हें पढ़ते हुए केदार नाथ अग्रवाल और विजेन्द्र का
स्मरण संस्मरण जैसा नहीं लगता।  गालिब और त्रिलोचन
दोनों का सहयोग है।
सच यह भी है कि केशव तिवारी तीन पीढ़ियों के अनुभव-यथार्थ का
भार वहन करते हैं-दो समानान्तर विचार-व्यवस्था और विसंगति-बोध के साथ। बावजूद इसके
कि मौजूदा यथार्थ कवि के स्मृति -लोक का निषेध है। केशव का मनोवांछित स्मृति-निर्भर
है। पर जो चुनौती के रूप में उन्हें चिढ़ा रहा है, वह बाजार और व्यभिचार है, जिसकी आकृति किसी तिलिस्म
से कम रहस्यमय नहीं है। तथापि केशव एक प्रतिबद्ध और पक्षपर कवि हैं, उनमें एक खास तरह की
विहंगता है, अपने समय की प्रायोजित चिन्ताओं की शल्य-चिकित्सा के युवा-उत्साह के बावजूद मितकथन
का संयम है। मानवता के लिए करुणा की एक संक्षिप्त पूंजी भी है उनके पास। इसलिए हम कह
सकते हैं कि उनका आरंभ ही अन्त नहीं होगा, आनन्द की साधनावस्था की जो श्रेणी है, केशव उससे ही जुड़ते
हैं।
केशव के दो संग्रह अब तक प्रकाशित हो चुके हैं,- 1.
‘इस मिट्टी से बना’
(2005) और ‘आसान नहीं विदा कहना’(2010)
पहले की भूमिका विजेन्द्र
ने लिखी हैं और दूसरे की डॅा0 जीवन सिंह ने। डॅा0 रमाकान्त शर्मा ने भी 
‘बुन्देलखंड जनपद की सजीव प्रस्तुति’ के लिए केशव की प्रशंसा की है। विजेन्द्र की मानें तो ‘केशव के  पास अपनी जमीन है और अपना बीज भी ।’ इन तीन महानुभाओं की
सहमति स्वीकृति, यात्रारंभ की बड़ी उपलब्धि मानी जायगी।
केशव तिवारी का दूसरा संग्रह ‘आसान नहीं है विदा कहना’ उनके पहले संग्रह से
बेहतर है। हम दावे से यह नहीं कह सकते। क्योंकि इसमें भी वहीं ताजगी है। जीवन सिंह
के शब्दों में कहे तो ‘जीवन के रस में पगी हुई हैं- वे कवितांए जीवन की नदी में नहाकर
निकली हैं।, इस संग्रह की कविताओं में भावुकता परम निश्छल है, इतनी बढ़ी हुयी।’ कि कवि पहाड़ो के लिए भी घर की कामना करता
हैं। ‘घर होगा तो यह भी सो सकेंगे।’ सूरज जेठ में जब सर चढ़ेगा तो उसके तीखे ताप से बच सकेगें,
यह कहते हुए कि ‘कुछ चुजों के आंखें
खोलने का मौसम है।’ (पृ-23) पहले संग्रह की कविताओं नदी-जल की प्रवहमान निरन्तरता है लेकिन दूसरे में पहाड़ों
का पथराया हुआ चेहरा संतप्त है। वक्त का आईना इतना धुंधला गया है कि उसके एक कोने में,
अत्यन्त छोटे हिस्से
में बचा रह गया है उजाला।
‘बांदा’ शीर्षक से केशव के दोनों संग्रहों में कविता हैं। पहली में ‘बांदा’ के मानिक कुइयां,
छाबी तालाब,
टुनटुनिया पहाड़,
केन नदी  और उसमें पाये जाने वाले मूल्यवान पत्थर ‘शजर’ की चर्चा है। ‘बांदा’ में खास कुछ है जो
केदार को कहीं और टिकने नहीं देता था।  वे लौट-लौट
आते/जानने को इसका हाल। कवि की दृष्टि में किन्तु ‘यह शहर है बोड़े हलवाई, ढुलीचन्द मोची और चमड़े
पर उस्तरा देते पीरु मियां का।’ (इस मिट्टी से बना, पृ. 31-32) नये संग्रह में ‘बांदा’ कविता बड़ी हो चली है। इसमें 1857 के नवाब नायक, कामरेड दुर्जन, प्रहलाद, तुलसी, पद्माकर, केदार को लोग याद क्यों नहीं रखते,
इस बात का क्षोभ दर्ज
कराया गया है। हकीकत यह भी है कि स्वयं केशव तिवारी को बांदा अपने से अधिक समय दूर
नहीं रहने देता। उनके बाहर रहने पर बांदा आकर खड़ा हो जाता है सिरहाने/कहता है घर चलो/महाकौशल
टेªन से लौटते हुए वह
देखता है भूरागढ़ का दुर्ग। ‘नागार्जुन के बांदा आने पर’ केदार की बड़ी प्रसिद्ध कविता है। केशव ने
गालिब के बांदा आने पर अपने अनोखे अन्दाज में लिखा है। गालिब को उन्होंने देखने का
एक फटेहाल परेशान शायर कहा है। बांदा में कभी रहीम भी आये थे, अपने दुर्दिन में जब
दिल्ली ने उन्हें ‘देश निकाला दे दिया था। केशव तिवारी बांदा को इसलिए भी महत्व देते हैं कि ‘दिल्ली के दर्प को
उसने कभी नहीं कबूला।’ गालिब के जाने-माने शेर से ‘बांदा’ कविता का समापन हुआ है-
                           इब्ने मरियम हुआ करे
कोई 
                                                मेरे गम की दवा करे
कोई।
यह गम गालिब का है तो ‘बांदा’ के कवि केशव तिवारी का भी है जिसे विगत वैभव
की स्थिति है लेकिन स्वाभिमान बेचना बिल्कुल नहीं । उत्तर छायावाद के एक अत्यन्त लोकप्रिय
कवि थे गोपाल सिंह ‘नेपाली’। वह कविता को स्वाभिमान की सुगन्ध कहते थे। सपने और स्वाभिमान के अभाव में कविता
जातीय संगीत नहीं अनर्गल प्रलाप ही हो सकती है। गालिब की परेशानी में केशव अपने समय
के सबसे संवेदनशील मनुष्य की परेशानी लोकेट करते हैं।
‘केन के पुल पर शाम’ की नाभि पर कवि की अनुराग बांसुरी बाम्बेसुर पहाड़ी से झांकते
चांद की रोशनी में आलोकित हो उठती है। प्रेम करने के लिए जैसे एक खानाबदोश को सब समय
नये ठिकाने की तलाश रहती है। इस कविता में नटवीर की समाधि का प्रसंग आता है,
जिसने एक बादशाह की
बेटी से प्रेम करने की हिम्मत की थी और जिसकी याद में आज भी वहां मकर संक्रान्ति में
आशिकों का मेला लगता है। (पृ.-52 ) इसमें एक कविता ‘त्रिलोचन जी के लिए’ भी है। उनके लिए प्रयुक्त ‘जती’ शब्द कितना सटीक और
व्यंजक है। भदेस और देसी कहकर जिसे विद्वानों ने दुत्कारा-‘वह साहित्य के निर्जन में पेंडुकी के स्वर
में निरन्तर बोलता रहा। मौनभरी बेईमानी की गांठें खोलता रहा। अपने जनपद का पक्षी वह
विश्वगगन को तोल रहा था।’ (पृ.-73 )
‘अवधी’ के जायसी-तुलसी-त्रिलोचन से केशव तिवारी का अपनाया भाषा की संस्कृति
में अपने पूर्वज के प्रति सम्मान से कहीं अधिक सृजन-संवाद हैं। अवध की संस्कृति की
शान है बिरहा, कजरी, नकटा, आल्हा, चैती। केशव की कविता की लयात्मक समृद्धि के पीछे लोक संवेदना और लोक संगीत है।
जिस कवि की मातृ-भाषा अवधी हो और कर्म-क्षेत्र का विस्तार विशाल बुन्देलखण्ड,
उसका अनुभूति क्षेत्र
बड़ा होगा ही। केशव गहरी क्षमता से केदार और त्रिलोचन के सृजन-जनपद को मिलाने और आत्मसात
करने की कोशिश में हैं। मानों अवध का अनुरागी बुन्देलखण्ड के अन्न-जल से अपनी भूख-प्यास
को मिटाने की कोशिश कर रहा हो। इस प्रक्रिया में ही केशव की कविता स्थानिक उपकरणों
से लैस होती है।
मैं कहना यह चाहता हूं कि केशव तिवारी के काव्य में लोकधर्मिता
की समृद्धि का कतई यह अर्थ नहीं है कि, वे कविता में अपने कारणों से नहीं आए हैं। उनकी आरंभिक कविताओं
में पारिवारिकता के सधन संदर्भ हैं। मां, पिता, आजी, नानी, को लेकर उनकी अभिव्यक्ति सहज मानवीय है। वह जनपदीय जीवन-व्यापार
का प्रस्थान-बिन्दु हैं। व्यक्ति-राग का निश्छल और सघन किन्तु समकालीन संस्करण केशव
तिवारी की उपलब्धि है। उनकी ‘एहसास’ कविता की आरंभिक पंक्तियां हैं।
इसके सिवा/हम कर भी क्या सकते थे
कि जिस फिसलन भरे रास्ते पर हम खड़े हैं
खुद को/फिसलन जाने के भय से मुक्त रखें (पृ.-56)
कोई बड़ा दावा नहीं, दंभ और दहाड़ नहीं। बहुतेरे खाई में गिरकर भी शिखर पर होने का
विज्ञापन कर रहे होतें हैं, उन्हें अपना सब बढ़िया-सुन्दर-श्रद्धेय जंचता है, अन्य का हेय और अकार्य।
केशव की कविता में आत्म वैभव का विज्ञापन नहीं है। वैसे, संप्रति, फिसलने से बच रहना साधारण तप नहीं है। यह
उस साधना का स्थानापन्न है जिसे विजेन्द्र श्रेष्ठ कविता-कर्म की निधि मानते हैं। केशव
का विश्वास ‘चैत के घोर निर्जन में खिले पलास’ का बिम्ब है।
मैं मानता हूं कि इस कवि की सामाजिक राजनीतिक चेतना उपेक्षणीय नहंी है पर उसका
केन्द्र कवि की प्रेमानुभूति ही है-
                        तुम्हारे पास बैठता
और बतियाना
                        जैसे बचपन में रुक-रुककर
                        एक कमल का फूल पाने
के लिए
                        थहाना गहरे तालाब को
                        डूबने के भय और पाने
की खुशी के साथ-साथ 
                        डटे रहना...... जैसे
अमरूद के पेड़ से उतरते वक्त 
                        खुना गई बांह को/साथ-साथ
महसूस करना (पृ.-54)
इस कविता की अन्तिम पंक्तियां केशव की कवि-प्रकृति को समझने में सहयोग करती हैं-
              तुम्हारे चेहरे पर उतरती झुर्री
                        मेरे घुटनों में शुरू
हो रहा दर्द 
                        एक पड़ाव पर ठहरना 
                        एक सफर का शुरु होना
(पृ.-54)
यहां काजी गांव के अन्देशे से दुबला नहीं होता है ।  जिस झुर्री की बात कर रहा है कवि वह उसके हमसफर
के चेहरे तक ही सीमित नहीं रहती। यह वह झुर्री है जो प्रेमिका के चेहरे पर ही नहीं,
कवि के कुल समय को
अपनी गिरफ्त में ले चुकी है । वह केशव के रचना-समय की सबसे बड़ी चुनौती है बाजार।इसलिए
पेड़, पहाड़, नदी के चरित्र-चित्र
से ही केशव की क्षमता का अन्दाजा लगाना उनकी मुश्किलों को अनदेखा करना होगा।
केशव के नये संग्रह में एक कविता ‘बेचैनी’ है-
              एक बेचैनी/जिसने रचा इस दुनिया को 
                        एक बेचैनी/जिसने कायम
है यह दुनिया
                        एक और बेचैनी है/जिसे
मैं
                        तुम्हारी आंखों में
देखता हूं। (पृ.-44)
यहां ‘देखने’ का समकाल केशव की वर्णना का वैशिष्ट्य है। ‘राम की शक्ति-पूजा’
में निराला  के राम, सीता, की आंखों में केवल अपनी छवि देखते हैं। केशव-प्रिया
की आंखों में जो बेचैनी है वह सृजन और संरक्षर से ऊपर की बेचैनी है। यह बचाव की मुद्रा
है। उत्तर आधुनिक महानगरीय आपाधापी में खुद के लिए एक स्पेस की चाहत है। पर वहां तो
पार्को में भी जगह नहीं बची। कभी मयाकोब्स्की ने कहा था-‘आज हमारे रंग की कूंची हुई सड़कें/और कैनवास
हुई पार्क, गलियां, चैराहे।’ केशव आज के संदर्भ में चुनते हैं तो उनकी सारी उत्सवधारीयता हवा हो जाती है। सही
है कि बाजार सभ्यता के जन्म से ही उसके साथ है। लेकिन दादा जी के लिए बाजार का अर्थ
था गांव लड्डू बनिया। पिता के लिए वह बाजार जैसा बाजार रहा। आज वह सर्वग्रासी रूप में
सामने है। कवि के लिए एक तिलिस्म-जैसा नहीं, एक तिलिस्म बाजार में इज्जत खरीदने की क्षमता
से मिलती है। यह क्षमता कविता नहीं देती । केशव की उलझने इस वजय से बढ़ी हैं । लखकर
अनर्थ आर्थिक पथ पर। जो पहले सिंह-सा दहाड़ते थे, बिगड़ैल सांड़-सा फुफकारते थे और जिन्हे लगता
था कि देश और जाति का स्वाभिमान उन्हीं से है-वे सियार सा हुहुचा रहे हैं, बगलें झांक रहे है।
कवि का अनुभव है-
‘घने कीचड़ में फंसता है गरियार बैल
तब जुआं छोड़ कर बैठ जाता है वहीं
फिर कुसिया से खोदने पर भी उठता नहीं ।’
केशव भीतर-बाहर शिख से नख तक सह्दय हैं, कवि हैं। उनका अन्तर्घट
लबालब है-जो जरा-सा हिल जाने से छलक पड़ता है। इसमें खोने-पाने के खेल में कुछ न पाकर
भी किंचित गंवा देने का आभास नहीं है। जैसे मुक्तिबोध के लिए कवि-कर्म ‘सहर्ष स्वीकारा’
है। केशव का भी यही
सच है। कवि -कर्म कठिन है, अफसोस नहीं । रही बेचैनी की बात तो ‘चैन तो फुटपाथ पर भी  मिल जाता है और बेचैनी महलों को ललकारती है । ‘केशव की काव्य भाषा
में खोने-पाने का संदर्भ आम आदमी की दिनचर्या की सादगी और सफाई से प्रतिकृत है। था
कुछ और । 
सोचा था कि दादा जी की तरह पेड़ लगाऊंगा
खुले कठं से चैता गाऊंगा
दादा की तरह ही चैपाल पर बैठूंगा 
मूंछें ऐंठूंगा
हल्के-हल्के मुस्कराऊंगा।’ 
लेकिन हो रहा कुछ और है। कवि को चाकरी करनी पड़ रही है और वह
कैरियर की खोह में फसं कर रह गया है।
रोज तरह-तरह के समझौते
घिसट-घिसट कर निभाना।
घर और कार के लिए ऋण लेना और मरते दम तक चुकाना। नये उपनिवेशवाद
का सामना पुराने मोंथरे औजारों से, हथियारों से कैसे हो। केशव तिवारी की कविताएं सभ्यता-समीक्षा
की नई तहजीब हैं। इसमें खुद को भी जांचते-परखते रहने की तरकीबें हैं।
                                रेवती रमण हिंदी के सुपरिचित और महत्वपूर्ण आलोचक हैं             
नाम               - केशव तिवारी
शिक्षा              -  बी0काम0 एम0बी0ए0
जन्म              -   अवध के एक ग्राम जोखू का पुरवा में
प्रकाशन            -    दो कविता संग्रह प्रकाशित  1... “इस मिट्टी से बना”
                                                     2... “आसान नहीं विदा कहना”
सम्प्रति                  -     हिंदुस्तान यू0नी0 लीवर लि0 में कार्यरत्
                  -     कविता के लिये सूत्र सम्मान:      
                  -    सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित |
                  -   कुछ कविताओं का मलयालम, बंगला, मराठी, अंग्रेजी में अनुवाद
संपर्क              -  द्वारा – पाण्डेय जनरल स्टोर , कचहरी चौक , बांदा (उ.प्र.)
मोबाइल न.         – 09918128631 


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bahut doob kar likha gaya aalekh hai......ramji bhayi ne yah aalekh yahan prastut kat bahut achha kiya. महेश पुनेठा
जवाब देंहटाएंkesav bhaiya,badhai!....सूर्य नारायण
जवाब देंहटाएंकेशव तिवारी की कविताओं से गुज़रना हमेशा एक सुखद अनुभव रहा है । इस प्रस्तुति के लिए आभार .....नील कमल
जवाब देंहटाएंबहुत सठिक लिखा है रेवतीरमण जी ने केशव जी की कवितायों के बारे में , केशव जी मिट्टी से जुड़े कवि हैं इसमें कोई शक नही किन्तु उससे बड कर वे एक सम्वेदनशील इंसान भी हैं .
जवाब देंहटाएंकेशव तिवारी की कवितायें पढते हुए अपनी मिट्टी की गंध महसूस होती है. जीवनानुभवों से निकली हुई इनकी कवितायें पाठक को अनायास ही अपनी ओर खींच लेतीं हैं. रेवती रमण ने बिना लाग-लपेट के केशव जी पर यह जो आलेख लिखा है, उससे आलोचना का धरातल और समृद्ध होगा. प्रस्तुतीकरण के लिए बधाई.
जवाब देंहटाएंविचारधाराओं की दार्शनिक दादागिरी और सौंदर्यबोध के तमाम सैद्धांतिक दुराग्रहों के खिलाफ केशव जी की कविताएँ लोक-ऐन्द्रिकता का अपना प्रतिमान रचती कविताएं हैं. मनोभावों के सामाजिक आस्वाद और गहरी मानवीय संगतियों के भीतरी अस्मिता-बोध को तलाशती और थपथपाती कविताएं हैं ये. हमारी पीढ़ी के दृश्य और स्वप्न को संजोता कवि.
जवाब देंहटाएंबेहद श्रम और मनन से लिखा गया आलेख. रेवती रमण जी को साधुवाद.
सुबोध शुक्ल