बुधवार, 6 जून 2012

सन्तोष कुमार चतुर्वेदी की लंबी कविता - पेनड्राइव समय


             
                                                                सन्तोष कुमार चतुर्वेदी 



हिंदी की समकालीन युवा कविता में सन्तोष कुमार चतुर्वेदी का नाम जाना पहचाना है | वे जब भी कुछ लिखते हैं , उसे हाथों हाथ लिया जाता है | उनकी कवितायें ऊपर से दिखने में सरल और लगभग सपाट दिखाई देती हैं , जिसमे बोलचाल की भाषा तक का इस्तेमाल भी किया गया होता है , लेकिन अपनी तासीर में ये कवितायें न सिर्फ कविता के सभी मानदंडों पर खरी उतरती हैं , वरन संघर्ष और प्रतिरोध की आवाज के रूप में मुखरित होती भी दिखाई देती हैं | यहाँ प्रस्तुत लम्बी कविता "पेनड्राइव समय" में भी सन्तोष जी अपने उसी चिर-परिचित रूप में दिखाई देते हैं , जहाँ सामान्य से दिखने वाले शब्दों और विषयों के सहारे वे एक विशिष्ट आख्यान रच देते हैं




                     तो प्रस्तुत है "सिताब दियारा" ब्लाग पर 
              सन्तोष कुमार चतुर्वेदी की लंबी कविता 'पेनड्राइव समय'

 पेनड्राइव समय


चौदह बरस के किशोर ने एक दिन
उमर में तीन गुने बड़े अपने चाचा से पूछा
क्या होता है पेनड्राइव
रोज रंग बदलती दुनिया में
एक पेचीदा सवाल था उनके लिए यह
इसलिए समाधान के लिए अपने विश्वसनीय
यानी मेरे पास आये वे निःसंकोच

शब्दकोष में इकट्ठा नहीं मिला कहीं यह शब्द
अगर कुछ झलक दिखी
तो टुकड़े-टुकड़े में
कहीं पर पेनतो कहीं पर ड्राइव
और इन अंग्रेजी शब्दों का तर्जुमा
अगर हमारी हिन्दी में किया जाय
तो अलग-अलग हिज्जे
और रेघा कर बोलने वाली आदत की वजह से
लगभग एक जैसे उच्चारण वाले पेनके
मोटे तौर पर दो अर्थ निकलते हैं
एक जगह यह कलम
तो दूसरी जगह यह दर्द हो जाता है

अपने परम्परागत एकल अभिप्राय के साथ
ड्राइवदिखायी पड़ रहा था
अपने समय को हांकते हुए
अध्यायों की दूरियां
कुछ कम करते हुए

कलम का दर्द से रिश्ता है क्या कोई
जब यह पूछा मैंने बाबा बाल्मीकि से
तो बाबा ने तसदीक की यह बात कि
आहत क्रौंच की व्याकुलता
एक दिन फूट पड़ी बरबस ही उनके भावों में
जिसे अब कुछ लोग आदि छन्दबताते हैं
और हमारे ही एक निकट सम्बन्धी
क्या नाम है उनका ?
(उफ! अभी से ही स्मृतिभ्रंश होता जा रहा क्यों इस कदर)
जिनकी गोद में पला-बढ़ा
भूलता जा रहा हूँ उनका ही नाम
हाँ याद आया - सुमित्रा नन्दन पन्त
जो न जाने किस बात से व्यथित हो कर
बुदबुदा रहे थे एक दिन
लगातार यह छन्द
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
और जब मैंने अपने अबोधपने में पूछा उनसे
इन पंक्तियों का मतलब
तो पहले तो टालमटोल करते रहे
फिर मेरे बालसुलभ जिद पर बताया उन्होंने कि
जिस दिन थामोगे कलम
उसी दिन समझ पाओगे
सही-सही मतलब मेरी पंक्ति का
जिन्दगी किसी बनी-बनायी लीक पर नहीं चलती
मगर तमाम अवरोधों से गुजर कर
तमाम राहों पर भटक कर भी
गुंथ जाती है जैसे सहज ही किसी कविता में
बहक जाता हूँ मैं भी अक्सर बातों के प्रवाह में
सही करने की सनक में करता जाता हूँ गलतियां
अब यहीं पर देखिए इसका उदाहरण
कि पेनड्राइव की गली से भटकते-बहकते
कहाँ से कहाँ पहुँच गया मैं
बहरहाल आते हैं अपनी बातों पर
जैसाकि अक्सर होता है
दो अलग-अलग शब्द जब भी मिलते हैं एक जगह
सुनाने लगते हैं अपनी-अपनी एक-दूसरे को
लिपट जाते हैं भावावेश में परस्पर इस तरह कि
अलग-अलग अभिप्राय वाले उनके अर्थ
खो जाते हैं अतल गहराइयों में कहीं
और उभर आता है क्षितिज पर
एक नया नवेला अर्थ
निकाल लाता है जो अपने लिए
एक निहायत ही ठेठ मतलब
अनुभव की इसी पुरानी दुनिया
शब्द के इसी अनुभवी जमीन से

तकनीकी शब्दकोष में भी
मिल पाने की कोई संभावना नहीं
क्योंकि बिल्कुल टटका था यह शब्द
अभी तो इसका अँखफोर भी नहीं हुआ था
और नाजुक इतना कि
ज्यादा छूने-छाने पर
गिधरोई होने का खतरा था
इसी वजह से नहीं रखा जा सकता था इसे
तुरत-फुरत ही
दुनिया के किसी शब्दकोष में

और इनसाइक्लोपीडिया
जो सनक की हद तक जा कर
बटोरता फिरता था तमाम तरह के शब्दों
और तमाम तरह की जानकारियों को
जगह-जगह से चुन कर
दूर-बहुत दूर निकल गया था कहीं
शब्दों और शब्दों के हरसंभव
अर्थ को जानने की तलाश में

सारी उपलब्धियां हासिल करने के बाद भी
कहने के लिए विवश था
इसी दुनिया का एक मशहूर वैज्ञानिक यह बात कि
वह तो एक कदम भी नहीं रख पाया समुन्दर में
किनारे के शंख-सीपियों ने लुभाया कुछ ऐसा कि
उन्हें ही बटोरने के फेर में रह गया जीवन भर
तो विद्वानों की लम्बी फेहरिस्त वाले इस शहर में
अदना से कवि की भला क्या बिसात
अक्षर और शब्द की दुनिया में ही
हरदम खोया रहने वाला
कहाँ से जान पाता
पेनड्राइवके बारे में

चूँकि मैं भी अनजान था पेनड्राइव से
इसीलिए बदलता रहा लगातार पैंतरा
बहकता-भरमता रहा इधर-उधर
बहरहाल बताया मैंने अपने एक विशेषज्ञ मित्र से
जब अपनी परेशानी कि
क्या होता है पेनड्राइव
तो सहज तरीके से बताया उसने कि
बिल्कुल नयी-नवेली तकनीक है यह
अंगुली के पोर बराबर का यन्त्र
जिसे रखा जा सकता है
फ्लापी और सी.डी. की वंश-परम्परा में
और एक हद तक माना जा सकता है इसे
कम्प्यूटर का ही एक सम्बन्धी

अपनी बात विस्तार से समझाते हुए बताया उसने कि
समाहित हो सकती है इसमें
सैकड़ों गायकों के जीवन भर की तपस्या
छिपा सकता है जो आसानी से
हजारों लेखकों के उम्र भर का लेखन
अपनी खामोशी में चित्रित रख सकता है जो
तमाम चित्रकारों का चित्रमय जीवन

हिफाजत से रख सकता है यह
सफेदपोशो की सारी कारगुजारियां
जिसमें हत्यारे बेफिक्र होकर
चिन्हित कर सकते हैं वे सारे नाम
जिनकी मौत का खाका
खींचा गया होता है वहाँ कूटशब्दों में
जो ऐरी-गैरी सारी जानकारियां
इकट्ठा रख सकता है अपने पेट में
कुछ इस तरह कि
डकार भी न आये

डकार की बात पर याद आयी यह परेशानी कि
तमाम संसाधनों, नयी तकनीकों
और इलाज के नये तरीकों के बावजूद
आजकल नहीं मिट पा रही मेरी भूख
ऐसा लगता है कि बदल गया हूँ मैं
अपने ही मुल्क के उन एक-तिहाई लोगों की शक्ल में
जिन्हें मय्यसर नहीं होता
दूसरे वक्त का खाना
अपनी फाकाकशी में फिर भी
दोहराते चलते हैं जो इन पंक्तियों को सहज ही
आज खाइ काल्ह को झक्खै
ताकौ गोरख संग न रक्खै

यह इत्तफाक नहीं था कि ठीक इसी समय
दुनिया के एक बड़े और लोकतान्त्रिक देश का
साढ़े तीन हाथ कद वाला मगरूर राष्ट्रपति
दुनिया में अनाज की बढ़ती कीमतों का ठीकरा
हमारे पड़ोसी और हमारे ऊपर
बेशर्मी से फोड़ रहा था
जबकि एक सर्वेक्षण में इसी समय
उजागर हुई थी यह बात कि
उसी राष्ट्रपति के राष्ट्र-राज में
लोग हर रोज फेंक देते हैं
तकरीबन तीस करोड़ लोगों के एक वक्त का खाना
और वह मगरूर राष्ट्रपति
अपने गले में माला की तरह
लटका कर चलता है पेनड्राइव

ठीक इसी समय
हाँ बिल्कुल इसी समय
हमारे देश  के बदहाल किसान
रोज-ब-रोज लटक जा रहे हैं
मौत के फन्दे से
खुद पेनड्राइव बनकर
और तमाम विशेषज्ञ-देसी , विदेशी
जुटे हैं अभी भी इस गुत्थी का खुलासा करने में
कि किस तरह पेनड्राइवमें तब्दील होते जा रहे हैं रोज-ब-रोज
हमारे देश के किसान

माफ करिएगा
अपनी तो आदत बन गयी है कुछ इस तरह की
कि घर से सुबह ही निकलता हूँ अखबार पढ़ने
और पड़ जाता हूँ नून-लकड़ी के चक्कर में
नजरें बचा कर चलने के बावजूद
किसी न किसी तरह पकड़ ही लेता है धवलकेशी कर्जदार
तगादा करता है वह रोज की तरह
कर्ज चुकता करो
कर्ज चुकता करो
बेबाक करो मेरा खाता
फिर वह जबरन निकाल लेता है
मेरी जेब के पैसे सूद के एवज में
और प्रतिरोध के लिए सोचता हूँ जिस क्षण
अदष्य हो जाता है तभी वह
किसी मायावी की तरह

इन्हीं घटनाक्रमों के अन्तराल में
आ धमकता है चमकता-चहकता सूर्य
ठीक बीच आसमान में
और अपने कुर्ते की बाँह से
चेहरे और गर्दन के पसीने पोछता लौट आता हूँ घर
बिल्कुल खाली हाथ
कहता हूँ बीबी से सुनो
आज पढ़ा है मैने अखबार में
काली चायफायदेमन्द होती है सेहत के लिए
और जहाँ तक बच्चों की बात है
माड़ से ज्यादा पौष्टिक
भला और क्या हो सकता है दुनिया में उनके लिए

पूरा घर कुछ नहीं कहता
एक अजीब सा सन्नाटा पसरता जा रहा है चारो ओर
हर दिशा घिरती चली जा रही है धुन्ध से
सिमटती जा रही है देखने की क्षमता

कहीं से प्रतिरोध का कोई स्वर
फूटता नहीं दिखायी पड़ता
लगता है कि मैं
गुनहगार हूँ अपने ही बीबी-बच्चों का
उनसे नजरें नहीं मिला पाता मैं
हालांकि जानते-बूझते हैं वे बखूबी मेरी सारी बातें
मेरी हर चतुराईयां
कुछ न बोलकर वे सब कुछ कह डालते हैं
व्यक्त कर देते हैं मेरे सामने अपना मौन विरोध
जिसे हम प्रायः मौन स्वीकृतिमान लेने का ढोंग
रच लेते हैं

देखिए! फिर वही गड़बड़ी
माफ करिएगा पुनः एक बार
पड़ गयी है खराब आदत
कहना - बताना चाहता था आपसे कुछ
और बहक गया नून-लकड़ी के चक्कर में

कविता सुनते-सुनते
कहीं ऊब तो नहीं गये
ऐसी बात है तो रूकिए
मनबहलाव के लिए
कुछ विज्ञापनों का इन्तजाम करता हूँ
और फिर ब्रेक के बाद नये अन्दाज में
आपके सामने पेश होगी कविता
लेकिन यह तो भूल ही  गया कि
कवि अच्छी कविता तो लिख सकता है
मगर एक विज्ञापन जुटा पाना
कवि के बस की बात नहीं
और विज्ञापन में तो
कत्तई तब्दील नहीं हो सकता कवि
वह तो प्रोफेशनल्सके बस की ही बात है
जिनकी जेबों में भरा होता है - पेनड्राइव

बातचीत के क्रम में न चाहते हुए भी
एक बार फिर बहक गया मैं
विचारों के हिलोर में
मुझे लगा ऐसा कि
वैसे भी उदरस्थ किया है पेनड्राइव ने
पहले भी बहुत कुछ
नेस्तनाबूद होते गये
न जाने कितनी पत्तियों, फूलों और फलों वाले पेड़
न जाने  किस दिशा में खोती गयी
पक्षियों की सुरमयी अनुगूँज
तरह-तरह की युक्तियों से
एक-एक तिनका जुटा कर
घोसला बनाने का उपक्रम
तिरोहित होता गया धीरे-धीरे वह कोलाज
जिसे जितनी बार देखा
उतनी बार सूझा एक नया बिम्ब
उतनी बार दिखा एक नया अर्थ
अन्त की घोषणा में दिलचस्पी रखने वाले
महत्त्वाकांक्षी लोगों की कहीं यह साजिश तो नहीं
कविता को खत्म करने की
क्योंकि हमने और हमारे पुरखों ने
लिखीं तमाम कविताएं इन दरख्तों के तले ही
न जाने कितने कवियों की कविताओं का पाठ हुआ यहीं
और दुनिया की अधिकतर
कहानी-कविताओं की तो
बात ही पूरी नहीं होती थी
दरख्तों, फूलों और पक्षियों बिना

किसी के आबाद होने के पीछे
छुपी होती हैं कितनी बरबादियां
यह सवाल ही नहीं उठा कभी
सत्ता के दिलो-दिमाग में
और कभी किसी ने अगर हिमाकत की इस तरह की
तो प्रश्नाकुल आवाजों को
नक्कारखाने वाली तूती की आवाज में
बखूबी बदल देते थे सत्ताधीश

क्यों कि हर आवाज एक सम्भावना होती है
और हर आवाज का
कोई न कोई मायने हुआ करता है
इसलिए आवाज ही निषाने पर होती है शिकारियों के
लेकिन आवाज का क्या ठिकाना
किस पल बदल ले अपना रूप
किस पल बदल ले अपना रंग
और समय तालियों के साथ करने लगे उसका स्वागत
बहरहाल जब हम उलझे हुए थे
बातों-विचारों और आवाजों की दुनिया में
ठीक उसी समय अपनी आवाज के साथ
कविता में पैठ बनायी पेनड्राइव ने

हमारे बहकाव में हस्तक्षेप किया जब मित्र ने
तो झेंपते हुए पूछा मैंने
क्या कीमत होगी पेनड्राइव की
हजार रूपये मात्र
बताया उसने बिना किसी लाग-लपेट के
मैंने आदतन हिसाब लगाया
एक परिवार का पन्द्रह दिनों का खाना-पीना
एक मजदूर के बीस दिनों की मजदूरी
एक बच्चे की पढ़ाई की साल भर की फीस
गुल्लकों में पेट काट-काट कर
जतन से बटोरी गयी रेजगारी

माना कि अपने समय की बेहतरीन तकनीक का नमूना है पेनड्राइव
कई परिष्कृत सोचों का नायाब उदाहरण है यह
और जहाँ तक जरूरत की बात है
दूसरे तकनीकी खोजों की तरह ही
शामिल हो जायेगा यह भी
एक दिन हमारी दिनचर्या में
चुपके से इस तरह कि
हमें आभास तक नहीं हो पायेगा इसकी महिमा का
मगर जिस तरह हमें अपनी धरती से जोड़े रखने में
भूमिका निभाता आया है
परदे के पीछे रह कर काम करने वाला गुरूत्व
जिस तरह ओझल रहते हुए भी
मौजूद होता है बिन्दु के समान ही सही
कहीं न कहीं एक केन्द्र
अपनी गोलाई के बीच घिरा हुआ खामोश
ठीक वैसे ही पेनड्राइव की रौनक के पीछे
जुड़ी है कहीं न कहीं
हमारी तमाम भूखी-प्यासी रातें
इस एक सफलता में ढक गयी हैं
हमारी हजार असफलताएँ चुप्पी साध कर

विचार के किन गलियारों से होते हुए
पहुंचा है इस मुकाम तक
किन हाथों ने ढाला है इसे पारस-पत्थर की शक्ल में
किस गीतकार ने बनायी है यह सरगम अद्भुत सी
इन सब के बारे में तो अब
पेनड्राइव को भी कुछ याद नहीं रहा
बहरहाल अपने अजीब से समय का
मुहावरा बनने की तैयारी में
जोर-शोर से जुटा है पेनड्राइव

इस अजीब से समय में
दुःख के तमाम धागों के बीच
उलझ कर रह गया है
सुख का आभास देने वाला
एक महीन सा धागा
जो पूरी बुनावट में एक अजीब सी डिजाइन बना रहा है
इसे देखते ही पतिंगों सा डिग जाता है मन
मोल-तोल करने लगता हूँ मैं मोहाविष्ट होकर
फिर बदहाली के बावजूद खरीद लेता हूँ
टूटे हुए एक दाम पर
खुश होकर लाता हूँ चादर घर पर
जिसे कभी रख दिया था कबीर ने जस का तस
आतुर होकर दिखाता हूँ
घर वालों को
पड़ोसियों को
परिचितों को
कितनी सुन्दर-सी डिजाइन
लेकिन यह क्या
कहीं पता नहीं चल पा रहा डिजाइन का
घर तक आते ही उड़ गया रंग
मद्धिम पड़ गयी चमक चादर की
क्या बुनावट में भी होती है बनावट
सहज ही कौंध जाता है यह सवाल

नायाब तकनीक वाले पेनड्राइव समय में भी
दुःख के धागे एक-एक कर
चिपकने लगे चेहरे पर
सब हैरान-परेशान कुछ अचंभित-विस्मित
इसी समय पीठ पर धौल जमाते हुए बोला मेरा मित्र
जानते नहीं यूज एण्ड थ्रोका जमाना है यह
और जिस भरोसे की रट लगाये रखते हो तुम
वह बीते जमाने की टर्मिनोलाजी है
अब पेनड्राइव को ही लो
होता यह है कि जिस समय हमें जरूरत होती है
किसी अहम जानकारी की
दगा दे जाता है कमाण्ड
खुलने से मना कर देता है पेनड्राइव
अनसुना कर देता है सारा मान-मनुहार
क्योंकि उसकी मर्जी इस समय आराम फरमाने की है
और हम कुछ नहीं कर पाते
हाथ मलने के सिवाय

काम न करने के अपने फैसले पर
जब अड़ा हुआ था पेनड्राइव
उस वक्त भी बिना थके बिना थमे
दुनिया की तमाम जगहों की
तरह-तरह की घड़ियों में
टिक-टिक की अपनी जानी-पहचानी पदचाप के साथ
अलमस्त चाल में अपनी राह
चलता चला जा रहा था समय
रेलवे की घड़ी में भी वही समय
जगाये हुए था अपनी अलख
जहाँ बारह के बाद तेरह का घंटा बजता है
और यह सिलसिला
फिर तेईस तक लगातार चलता है
हमारी घड़ी बारह बजाने के बाद
फिर एक पर अटक जाती है
चाहे जितनी मशक्कत कर ली जाये
वह नहीं बजा पाती
तेरह ...., पन्द्रह ......, इक्कीस या तेईस
कोई समझाता है इसके लिए एक सहज युक्ति
जब दिन के एक बजे उसे तेरह मानो
जब तीन बजे तब उसे पन्द्रह समझो
यह क्या गोलमाल है
झल्लाहट में कहता हूँ मैं
भलेमानुश ! एक को एक की पहचान के साथ
तीन को तीन की शान के साथ
क्यों नहीं जीने देते

क्यों खिलवाड़ कर रहे हो
तीन ......., पाँच ........, सात ........ के वजूद से
जीने भी नहीं देते इनको चैन से
और एक भला कैसे बदल सकता है तेरह में
तीन कैसे ढल सकता है पन्द्रह में
मेरी समझ से परे है यह गणित

लोग कहते हैं कि कवियों की गणित कमजोर होती है प्रायः
और आज के पेनड्राइव समय में
गणित और तिकड़म पर पूरा कब्जा है राजनीति का
तभी तो अबूझ लगते समीकरण
हल हो जाते हैं यहाँ पलक झपकते
तभी तो धरी की धरी रह जाती है सारी गणनाएं
और जोड़-तोड़ वाला निकाल लेता है
किसी न किसी तरह मनमाफिक उत्तर

इसी समय समाधान की तलाश में पास आये
अपने जरूरतमन्द मित्र को बताया मैंने
पेनड्राइव के बारे में
और उसने बताया उमर में तीन गुने छोटे
अपने भतीजे को यह सब जब
व्यंग्य से मुसकुराया वह यह कहते हुए
चचा जान! इतना परेशान होने की
भला क्या जरूरत थी आपको
मैंने तो आपका इम्तहान लेने के लिए
पूंछा था यह सवाल
जिसका जवाब मुझे
पहले से ही मालूम है।

                                           
                                            सन्तोष कुमार चतुर्वेदी


नाम- संतोष चतुर्वेदी 
जन्म तिथि- 2 नव.1971  
जन्म स्थान - बलिया 
सम्प्रति - प्रवक्ता (इतिहास विभाग) एम.पी.पी.कालेज  मऊ, 
               जिला -चित्रकूट , उ.प्र.  
इलाहाबाद से निकलने वाली अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका  " अनहद " का संपादन 
 सभी प्रमुख हिंदी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओ में कविताये और लेख प्रकाशित 
इतिहास और संस्कृति विषय पर कुछ  पुस्तकें प्रकाशित 
 " पहली बार " शीर्षक से 2010 में काव्य संग्रह भी प्रकाशित (प्रकाशक -भारतीय ज्ञानपीठ)
मो. न.-   9450614857 
ब्लाग -  http://pahleebar.blogspot.in/



6 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामी7:51 am, जून 07, 2012

    ek chhoti electronic chij ko kendra me rakhkar hamari maujuda duniya ka shandar vritt khicha gaya hai.santosh sir ko badhai....अरविन्द

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  2. बेनामी7:52 am, जून 07, 2012

    बहुत सुन्दर..... गोविन्द सिंह परमार

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  3. बहुत बढ़िया.......................

    अनु

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  4. इस बीच यह लम्बी कविता बार-बार पढ़ी। सन्तोष भाई ने एक प्रतीक के सहारे व्यव्स्था के विद्रूपों को बड़े कौशल से सामने लाने का प्रयास किया है। यह मुझे बहुत सकारात्मक लगता है कि इधर एक बार फ़िर युवा कवि लम्बी कवितायें लिख रहे हैं। साहित्य, राजनीति, संस्कृति और समाज पर नवउदारवादी व्यव्स्था के चौतरफ़ा हमलों के बरक्स उनका मुकाबिला करने वाली ऐसी कवितायें बेहद ज़रूरी हैं।

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    उत्तर
    1. आभार अशोक भाई. आप सुधी मित्रों की प्रतिक्रियाएं हमें काफी बल देती हैं.

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  5. बेनामी4:53 pm, जून 12, 2012

    संतोष जी ने इस कविता के बहाने अपने समय में बरस रही आम जन की तकलीफों को विस्तार दिया है , वह भी आत्मीयता की चटक भाषा के साथ . विज्ञानं और तकनीकी ने हमें अभूतपूर्व सुविधाएँ इजाद की हैं , मगर वह भारतीय जो १००० / हासिल करने के लिए सौ बार मरता है, वह क्या जानेगा पेंद्रैव . तकनीकी काश , हमारे आम हिन्दुस्तानी की पहुँच से बाहर न रहती . यह कविता बहु उद्द्श्यीय है. यह जरूर है की मन में , आकंठ भरे हुए भाव पूरी भाषाई कसावट के साथ नहीं व्यक्त हुए हैं , और वर्णन धर्मी कथात्मकता ज्यादा उभर उठी है . बावजूद इसके अपनी बहु आयामी जन प्रतिबद्धता के कारण कविता रेखांकित करने योग्य है .

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