गुरुवार, 5 सितंबर 2013

सौरभ चतुर्वेदी की कवितायेँ

                                 सौरभ चतुर्वेदी 


युवा लेखक ‘सौरभ’ ने अभी लिखना आरम्भ ही किया है | और जाहिर है , अन्य युवा लेखकों की भांति कविता की मुक्तछंद विधा ने उन्हें भी अपनी तरफ आने के लिए प्रेरित किया है | वे इसके नजदीक आये भी हैं , और इस आने में उनसे कुछ उम्मीदें , कुछ आशाएं तो जरुर ही बनती दिखाई देती हैं | आपसे आग्रह है , कि अपने सुझावों से ‘सौरभ’ को नवाजें , और इस युवा को आने वाले समय के लिए शुभकामनाएं दें | फिलहाल सिताब दियारा ब्लॉग के माध्यम से मैं उन्हें शुभकामनाएं प्रेषित करता हूँ |


            तो प्रस्तुत है सिताब-दियारा ब्लॉग पर ‘सौरभ चतुर्वेदी’ की कवितायें
                                                                


एक ...

तुम कौन हो?
कहाँ से आती हो?
कभी तुम्हेँ देखा नहीँ,
बस महसूस करता हूँ,
तब, जब आसमाँ से टूटा कोई सितारा
खुद को ही खो देता है शून्य मेँ,
या फिर, जब मजबूत पत्थरोँ की इमारतेँ,
एक एक कर डूबती जाती हैँ आंसुओं की बूँद मेँ।
मैँ कैसे कहूँ तुम्हारा अस्तित्व नहीँ  
तुम न हो तो हर रात के बाद दिन क्योँ है;
और लौ के साथ जलते पतँगोँ को
मौत से इतनी मोहब्बत क्योँ है?
तुम्हारा आभास होता है,
जब आँखो के आगे अँधेरे मेँ
दूर कहीँ जूगनू चमकते दिखाई देते हैँ,
या ऊँचाईयोँ को छूने को बेताब
अबोध गौरैया के बच्चे पँख फैलाते हैँ।
सच कहेँ तो तुम्हारे बिना सब एक पिँजड़े मेँ बन्द हैँ,
जिसकी चाभी समन्दर के किसी कोने मेँ डूब गई है
बगैर तुम्हारे मन एक वस्त्रहीन सुन्दरी की तरह है,
जो अपने कोमल हाथोँ से
अपनी लाज बचाने की नाकाम कोशिश कर रही है
कितने अजीब ये गुजरते हुए पल हैं,
हर आज के बाद एक कल है,
दिखती हो तुम ही उस कल के हर पल मेँ,
जैसे दिखता है चाँद निस्तब्ध सा जल मेँ।
तुम्हारा एहसास ही तो जीवन का उत्कर्ष है,
पर सवाल वही है,
कि तुम कौन हो...? आखिर तुम कौन हो ...?




दो .....

इक शाम ढ़ली थी बस यूँ ही,
कुछ बात चली थी बस यूँ ही,
कुछ हुआ अजब सा गजब कहीँ पर,
वो बात हुई थी बस यूँ ही।
कुछ साँझे अब भी गुजरीँ हैँ,
कितनी प्यारी कितनी सोँधी,
ज्योँ इक दुल्हन की आँखेँ होँ,
सिमटी सिमटी सकुची सकुची।
तपिश अभी उन शामोँ की इस ठंडक को गरमाती है,
प्रबल प्रदीप्ति उस प्रखर अतीत की आती है
परिवर्तन तब से अब का
यह हर पल मुझको ठिठकाये क्योँ?
क्योँ सूखे पत्तोँ से हरियाली
यह भ्रमर प्रिया ले जाती है?
जब रातेँ दिन सी लगती थीँ
तब तो दुनिया यह सोती थी,
बस आँख हमारी जगती थी
तकदीर बिचारी रोती थी।
अब दुनिया मेँ तकदीरी का पैमाना हमसे होता है,
हर दिन को नुमाईश होती है, रातो को नजारा होता है
इन बातोँ का कोई मतलब ना होता था ना होता है,
हो पेट मेँ दाना ना जिसके वह बैठ बिचारा रोता है।
जब साथ चले सब वही हमारे जो हाथ मिलाते डरते थेँ,
तो बात कोई हो क्या मतलब बस दर्द सा दिल मेँ होता है।
इक शाम ढ़ली है फिर यूँ ही,
कुछ बात चली है फिर यूँ ही,
कुछ अजब ही था वो गजब कहीँ पर,
बस बात हुई है फिर यूँ ही......

तीन ....

मेरे पड़ोस मेँ एक लड़की काम करती है,
खुद है हाँशिये पर,
पर औरोँ के पन्ने तैयार करती है।
अपने नन्हेँ हाथोँ से रोज न जाने कितनी बार,
औरोँ की किस्मत की खातिर
खुद की तकदीर कुर्बान करती है।
आँखोँ मेँ बेबसी सी खुशी,
गालोँ पर अभाग्य की छाया,
छोटी उमर मेँ बड़ी सयानी हो गयी
वो दस साल की काया  
होठोँ पर उसके हँसी ही है
या खुद से हुआ मजाक,
दुनिया इसे चाहेँ जो भी कहे
पर वो बस मुस्कुराती है।
वो हो न चाहे फर्श पर भी
अर्श सपनोँ मेँ उसके भी होगा,
गुमनामियोँ के इस भँवर मेँ,
तिनके का सहारा उसको भी होगा।
कोई वजूद उसका भी हो
पल पल बदलती दुनिया मेँ शायद,
पर जज्बातोँ की सुखी रेत मेँ
वो तलाश खुद का निशान करती है........



परिचय और संपर्क

सौरभ चतुर्वेदी

उम्र – २३ वर्ष
जन्म-स्थान – बलिया
सम्प्रति – पूर्वांचल बैंक में कार्यरत    



3 टिप्‍पणियां:

  1. कम उम्र में बहुत ही परिवक्व लेखन है ...बधाई और शुभकामनाएं

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  2. Dear saurabh ...
    Congratulations ...and wish you get the highest success of your life.....may you touch the height of moon

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