बुधवार, 24 जुलाई 2013

बहस और विमर्श की देहरी पर खड़ी कहानियां




  कथाकार प्रेम भारद्वाज के कहानी-संग्रह ‘इन्तजार पांचवे सपने का’ पर लिखी मेरी यह 
समीक्षात्मक टिप्पड़ी ‘कथाक्रम’ पत्रिका में छपी है | आप सबके लिए इसे सिताब दियारा 
ब्लॉग पर भी प्रस्तुत कर रहा हूँ ...|


बहस और विमर्श की देहरी पर खड़ी कहानियां

हिंदी साहित्य की जिन कुछ पत्रिकाओं में आज भी हमें सम्पादकीय का इन्तजार रहता है , उनमें  
दिल्ली से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘पाखी’ शामिल है | एक तरफ जहाँ इसका सम्पादकीय 
सामाजिक , राजनीतिक , सांस्कृतिक और साहित्यिक विषयों को लेकर प्रति माह अपनी स्पष्ट राय
 के साथ सामने आता है , वहीँ दूसरी तरफ इसके माध्यम से अपने पाठकों के मध्य एक वैचारिक 
उद्वेलन भी पैदा करता है | इसी प्रतिष्ठित पत्रिका ‘पाखी’ के संपादक प्रेम भारद्वाज का कहानी 
संग्रह ‘इन्तजार पांचवें सपने का’ हमारे सामने है | ‘सामयिक प्रकाशन’ से प्रकाशित इस संग्रह में ,
 कुछ छोटी और कुछ औसत कद-काठी की मिलाकर , कुल बारह कहानियां हैं | इन कहानियों की 
लाइन और दिशा वही है , जिस पर चलते हुए प्रेम भारद्वाज अपनी पत्रिका का सम्पादकीय 
लिखते हैं | मसलन इनका कथ्य और विषय सामाजिक – राजनीतिक मुद्दों से जुड़ा हुआ है , 
और इन मुद्दों को सामने रखते हुए अपना पक्ष भी चुना गया है | यहाँ भाषा और शिल्प के 
चमत्कार को उड़ेलने के बजाय , अपनी बात को कह देने पर जोर अधिक है , साथ-ही-साथ 
जमीनी यथार्थ से जुड़े सवालों से टकराने का साहस भी |

ये कहानियां उस जमीन से उपजती हैं , जहाँ से कथाकार प्रेम भारद्वाज आते हैं ,और जहाँ पर 
वे रहते हैं | गाँव और छोटे शहर के खुले माहौल से महानगर की भूल-भूलैया में पहुंचने के बाद 
उन्हें हर समय यह लगता है , कि यहाँ हमारा अपना कोई नहीं है | और उन्हें ही क्यों , इस 
व्यवस्था में हर किसी के भीतर यही एहसास घुमड़ता रहता है | संग्रह की पहली कहानी 
‘शहर की मौत’ उन बदलावों की तरफ इशारा करती है , जिन्होंने न सिर्फ इन शहरों का भूगोल 
बदला है , वरन उससे अधिक उसमे रहने वालों के भीतर का आदमी भी बदल दिया है | यह 
व्यवस्था और तंत्र कुल मिलाकर समाज को उस दिशा में धकेल रहा है , जिसमे मुट्ठी भर लोगों 
के सामने तो दुनिया हाथ बांधे खड़ी है , और उसका बड़ा हिस्सा घिसटने के लिए मजबूर है | 
समाज का नियंत्रण बाजार के हाथों में सौंप दिया गया है , जो हमारे सामने अर्जित करने के 
लिए इच्छाओं का पहाड़ रखता है , और जिसकी ललक में आदमी अपने भीतर की छोटी सी 
जगह को भी खो बैठता है | प्रेम भारद्वाज व्यक्ति , समाज और व्यवस्था के भीतर आये 
उन बदलावों की शिनाख्त करते हैं , जिन्होंने हमारे वर्तमान को इतना अमानवीय और भविष्य 
को इतना अंधकारमय बना दिया है |

पूरे तंत्र में आया यह बदलाव कितना लोमहर्षक है , इसकी स्पष्ट झलक साम्प्रदायिक दंगों के 
दौरान दिखाई देती है | इस संग्रह में कम से कम दो ऐसी कहानियां हैं , जो साम्प्रदायिकता की
 इस विभीषिका से सीधे-सीधे जुडती हैं | ‘दंगे में फूल’ और ‘बीच का रास्ता’ | पहली कहानी एक 
अबोध बच्चे को केंद्र में आगे रखकर बढ़ती है , जो दंगे के दौरान अपने माँ-बाप से बिछड़ गया है ,
 और सरे-राह दंगाईयों के सामने आ जाता है | वहीँ दूसरी कहानी में एक बेटा , दंगे के दौरान 
अपनी माँ के अंतिम संस्कार के लिए परेशान है , और उसका साथ देने के लिए कोई भी  
आगे-पीछे दिखाई नहीं देता | एक तीसरी कहानी ‘लेकिन आसमान चुप है’ को भी इसी कोटि में
 रखा जा सकता है , जिसमें अटूट प्यार के मध्य 6 दिसंबर 1992 की घटना हो जाती है और 
लड़के के भीतर का ‘हिंदू’ पहचान में आ जाता है , जिसे लड़की उस रिश्ते को अपने साहसिक 
फैसले से ठुकरा देती है |

‘धंधा’ नामक कहानी में प्रेम भारद्वाज , आदमी के भीतर की उस अमानवीय स्थिति को दर्शाते हैं ,
 जिसमें ‘पेट की भूख’ के सामने , अपने प्रियजनों की मृत्यु भी एक सामान्य घटना ही बनकर रह 
जाती है | वहीँ ‘क्या वह पागल था’ नामक कहानी क्षेत्रीयता की उस विषबेल को उद्घाटित करती है 
, जो किसी भी तरह से साम्प्रदायिकता की राजनीति से कम खतरनाक और कम विभाजनकारी 
नहीं है | इसी तरह के अन्य विषयों को उठाते हुए प्रेम भारद्वाज , अपने संग्रह की अंतिम कहानी 
‘इन्तजार पांचवे सपने का’ पर पहुँचते हैं | यह इस संग्रह की सबसे विचारोत्तेजक कहानी है | 
कवि ‘आलोक धन्वा’ की कविता को शिल्प में इस्तेमाल करते हुए यह कहानी नक्सलवाद की उस 
बहस को सामने लाती है , जिससे निकला हुआ ‘कामरेड’ हाशिये पर जाते – जाते एक दिन जिन्दगी
 से ही पलायन कर जाता है | यह कहानी नक्सलवादी आन्दोलन के उन प्रतिबद्ध व्यक्तियों से 
हमारा परिचय कराती है , जो इसके लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर चुके हैं , लेकिन कालांतर 
में जिन्हें समय और समाज के साथ – साथ अपने साथियों ने भी चुका हुआ मान लिया है | अपनी 
निष्पक्ष और जमीनी बहस के कारण यह कहानी अत्यंत महत्वपूर्ण बन गयी है |

लेकिन जिन आधारों पर इस संग्रह की कहानियों को सराहा जा सकता है , उन्ही आधारों पर कुछ 
लोगों द्वारा उन्हें आलोचित भी किया जा सकता है | मसलन यह आरोप लगाया जा सकता है , 
कि इनमें विमर्श और बहस इतनी अधिक हो गयी है , कि कही-कहीं तो विचारों ने ही कथा को 
आच्छादित कर लिया है | इसलिए यह संग्रह पाठक के सामने पढ़े जाने की एक अलग दृष्टि की
 मांग करता है | संग्रह , उन चलताऊ विषयों से बिलकुल किनारा करता है , जिन्हें हथियार 
बनाकर आजकल कहानियां लिखी और परोसी जा रही हैं | इस संग्रह की कहानियों में न तो 
सेक्स की छौंक है , न शहराती चकाचौंध , और न ही मुट्ठी भर लोगों पैदा किया हुआ खोखला 
और कागजी विमर्श |  इसके बरक्स इन कहानियों में जमीनी यथार्थ है , उनसे उपजे सवाल हैं , 
बहसें हैं और पाठक के मन-मस्तिष्क को उद्वेलित करने वाली प्रक्रिया भी | उम्मीद की जानी 
चाहिए , कि यह उद्वेलन समाज में साहित्य की भूमिका को सार्थक करेगा , उसे बेहतर बनाने 
की दिशा में रास्ता भी दिखाएगा |




                                    
        



 
पुस्तक
इन्तजार पांचवे सपने का             

(कहानी संग्रह )
लेखक – प्रेम भारद्वाज
प्रकाशक – सामयिक प्रकाशन , दिल्ली
मूल्य – 200 रुपये 




समीक्षक 

रामजी तिवारी   
बलिया , उ.प्र.                 
मो न. - 09450546312     
                                    
        



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