कथाकार प्रेम भारद्वाज के
कहानी-संग्रह ‘इन्तजार पांचवे सपने का’ पर लिखी मेरी यह
समीक्षात्मक टिप्पड़ी ‘कथाक्रम’ पत्रिका में छपी है | आप सबके लिए इसे सिताब दियारा
ब्लॉग पर भी प्रस्तुत कर रहा हूँ ...|
समीक्षात्मक टिप्पड़ी ‘कथाक्रम’ पत्रिका में छपी है | आप सबके लिए इसे सिताब दियारा
ब्लॉग पर भी प्रस्तुत कर रहा हूँ ...|
बहस और विमर्श की देहरी पर खड़ी कहानियां
हिंदी साहित्य की जिन कुछ पत्रिकाओं में आज भी
हमें सम्पादकीय का इन्तजार रहता है , उनमें
दिल्ली से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘पाखी’ शामिल है | एक तरफ जहाँ
इसका सम्पादकीय
सामाजिक , राजनीतिक , सांस्कृतिक और साहित्यिक विषयों को लेकर प्रति माह अपनी स्पष्ट राय
सामाजिक , राजनीतिक , सांस्कृतिक और साहित्यिक विषयों को लेकर प्रति माह अपनी स्पष्ट राय
के साथ सामने आता है , वहीँ दूसरी तरफ इसके माध्यम से
अपने पाठकों के मध्य एक वैचारिक
उद्वेलन भी पैदा करता है | इसी प्रतिष्ठित पत्रिका ‘पाखी’ के संपादक प्रेम भारद्वाज का कहानी
उद्वेलन भी पैदा करता है | इसी प्रतिष्ठित पत्रिका ‘पाखी’ के संपादक प्रेम भारद्वाज का कहानी
संग्रह ‘इन्तजार पांचवें सपने का’ हमारे
सामने है | ‘सामयिक प्रकाशन’ से प्रकाशित इस संग्रह में ,
कुछ छोटी और कुछ औसत
कद-काठी की मिलाकर , कुल बारह कहानियां हैं | इन कहानियों की
लाइन और दिशा वही है
, जिस पर चलते हुए प्रेम भारद्वाज अपनी पत्रिका का सम्पादकीय
लिखते हैं | मसलन
इनका कथ्य और विषय सामाजिक – राजनीतिक मुद्दों से जुड़ा हुआ है ,
और इन मुद्दों को
सामने रखते हुए अपना पक्ष भी चुना गया है | यहाँ भाषा और शिल्प के
चमत्कार को
उड़ेलने के बजाय , अपनी बात को कह देने पर जोर अधिक है , साथ-ही-साथ
जमीनी यथार्थ
से जुड़े सवालों से टकराने का साहस भी |
ये कहानियां उस जमीन से उपजती हैं , जहाँ से
कथाकार प्रेम भारद्वाज आते हैं ,और जहाँ पर
वे रहते हैं | गाँव और छोटे शहर के
खुले माहौल से महानगर की भूल-भूलैया में पहुंचने के बाद
उन्हें हर समय यह लगता है
, कि यहाँ हमारा अपना कोई नहीं है | और उन्हें ही क्यों , इस
व्यवस्था में हर किसी
के भीतर यही एहसास घुमड़ता रहता है | संग्रह की पहली कहानी
‘शहर की मौत’ उन बदलावों
की तरफ इशारा करती है , जिन्होंने न सिर्फ इन शहरों का भूगोल
बदला है , वरन उससे
अधिक उसमे रहने वालों के भीतर का आदमी भी बदल दिया है | यह
व्यवस्था और तंत्र कुल
मिलाकर समाज को उस दिशा में धकेल रहा है , जिसमे मुट्ठी भर लोगों
के सामने तो
दुनिया हाथ बांधे खड़ी है , और उसका बड़ा हिस्सा घिसटने के लिए मजबूर है |
समाज का
नियंत्रण बाजार के हाथों में सौंप दिया गया है , जो हमारे सामने अर्जित करने के
लिए इच्छाओं का पहाड़ रखता है , और जिसकी ललक में आदमी अपने भीतर की छोटी सी
जगह को
भी खो बैठता है | प्रेम भारद्वाज व्यक्ति , समाज और व्यवस्था के भीतर आये
उन बदलावों
की शिनाख्त करते हैं , जिन्होंने हमारे वर्तमान को इतना अमानवीय और भविष्य
को इतना
अंधकारमय बना दिया है |
पूरे तंत्र में आया यह बदलाव कितना लोमहर्षक है
, इसकी स्पष्ट झलक साम्प्रदायिक दंगों के
दौरान दिखाई देती है | इस संग्रह में कम
से कम दो ऐसी कहानियां हैं , जो साम्प्रदायिकता की
इस विभीषिका से सीधे-सीधे जुडती
हैं | ‘दंगे में फूल’ और ‘बीच का रास्ता’ | पहली कहानी एक
अबोध बच्चे को केंद्र
में आगे रखकर बढ़ती है , जो दंगे के दौरान अपने माँ-बाप से बिछड़ गया है ,
और
सरे-राह दंगाईयों के सामने आ जाता है | वहीँ दूसरी कहानी में एक बेटा , दंगे के
दौरान
अपनी माँ के अंतिम संस्कार के लिए परेशान है , और उसका साथ देने के लिए कोई
भी
आगे-पीछे दिखाई नहीं देता | एक तीसरी
कहानी ‘लेकिन आसमान चुप है’ को भी इसी कोटि में
रखा जा सकता है , जिसमें अटूट
प्यार के मध्य 6 दिसंबर 1992 की घटना हो जाती है और
लड़के के भीतर का ‘हिंदू’ पहचान
में आ जाता है , जिसे लड़की उस रिश्ते को अपने साहसिक
फैसले से ठुकरा देती है |
‘धंधा’ नामक कहानी में प्रेम भारद्वाज , आदमी के
भीतर की उस अमानवीय स्थिति को दर्शाते हैं ,
जिसमें ‘पेट की भूख’ के सामने , अपने
प्रियजनों की मृत्यु भी एक सामान्य घटना ही बनकर रह
जाती है | वहीँ ‘क्या वह पागल
था’ नामक कहानी क्षेत्रीयता की उस विषबेल को उद्घाटित करती है
, जो किसी भी तरह से
साम्प्रदायिकता की राजनीति से कम खतरनाक और कम विभाजनकारी
नहीं है | इसी तरह के
अन्य विषयों को उठाते हुए प्रेम भारद्वाज , अपने संग्रह की अंतिम कहानी
‘इन्तजार पांचवे सपने का’ पर पहुँचते हैं | यह इस संग्रह की सबसे विचारोत्तेजक कहानी है |
‘इन्तजार पांचवे सपने का’ पर पहुँचते हैं | यह इस संग्रह की सबसे विचारोत्तेजक कहानी है |
कवि ‘आलोक धन्वा’ की कविता को शिल्प में इस्तेमाल करते हुए यह कहानी नक्सलवाद की उस
बहस को सामने लाती है , जिससे निकला हुआ ‘कामरेड’ हाशिये पर जाते – जाते एक दिन
जिन्दगी
से ही पलायन कर जाता है | यह कहानी नक्सलवादी आन्दोलन के उन प्रतिबद्ध
व्यक्तियों से
हमारा परिचय कराती है , जो इसके लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर चुके
हैं , लेकिन कालांतर
में जिन्हें समय और समाज के साथ – साथ अपने साथियों ने भी
चुका हुआ मान लिया है | अपनी
निष्पक्ष और जमीनी बहस के कारण यह कहानी अत्यंत
महत्वपूर्ण बन गयी है |
लेकिन जिन आधारों पर इस संग्रह की कहानियों को
सराहा जा सकता है , उन्ही आधारों पर कुछ
लोगों द्वारा उन्हें आलोचित भी किया जा
सकता है | मसलन यह आरोप लगाया जा सकता है ,
कि इनमें विमर्श और बहस इतनी अधिक हो
गयी है , कि कही-कहीं तो विचारों ने ही कथा को
आच्छादित कर लिया है | इसलिए यह संग्रह
पाठक के सामने पढ़े जाने की एक अलग दृष्टि की
मांग करता है | संग्रह , उन चलताऊ
विषयों से बिलकुल किनारा करता है , जिन्हें हथियार
बनाकर आजकल कहानियां लिखी और
परोसी जा रही हैं | इस संग्रह की कहानियों में न तो
सेक्स की छौंक है , न शहराती
चकाचौंध , और न ही मुट्ठी भर लोगों पैदा किया हुआ खोखला
और कागजी विमर्श | इसके बरक्स इन कहानियों में जमीनी यथार्थ है ,
उनसे उपजे सवाल हैं ,
बहसें हैं और पाठक के मन-मस्तिष्क को उद्वेलित करने वाली
प्रक्रिया भी | उम्मीद की जानी
चाहिए , कि यह उद्वेलन समाज में साहित्य की भूमिका
को सार्थक करेगा , उसे बेहतर बनाने
की दिशा में रास्ता भी दिखाएगा |
पुस्तक
इन्तजार पांचवे सपने का
(कहानी
संग्रह )
लेखक – प्रेम भारद्वाज
प्रकाशक
– सामयिक प्रकाशन , दिल्ली
मूल्य
– 200 रुपये
समीक्षक
रामजी तिवारी
बलिया ,
उ.प्र.
मो न. - 09450546312
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