रामप्रकाश अनंत
सम-सामयिक विषयों पर संवेदनशील नजर रखने वाले ‘रामप्रकाश अनंत’ पेशे से
चिकित्सक हैं |
इधर उनके लिखे लेख समयांतर और फिलहाल जैसी जन-पक्षधर वैचारिक पत्रिकाओं में
छपते रहे हैं | हालाकि उन्होंने अपने लेखन के आरंभिक दौर में कई गजलें भी लिखी हैं
, लेकिन किन्ही कारणों से वह सिलसिला टूट सा गया हैं | लगभग एक दशक बाद वे पुनः इस
विधा में वापसी कर रहे हैं | उम्मीद करता हूँ कि ‘सिताब-दियारा’ ब्लॉग के पाठक
अपनी प्रतिक्रियाओं के माध्यम से उन्हें आगे लिखने के लिए उत्प्रेरित करेंगे |
तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर
रामप्रकाश अनंत की चार गजलें
एक
.
आग दिल में थी
अरमां पिघलते रहे,
अश्क़ बन-बन के
सब दर्द ढलते रहे.
पेड़ का ख़्वाब
हमको दिखाया गया,
इसलिए हम दुपहरी
में चलते रहे.
हम सिखाएंगे
तुमको उसूलो-वफ़ा,
कह के ये बात वो
हमको छलते रहे.
हम सफ़र मुझको
ऐसे मिले उम्र भर,
जो कि पल पल में
रस्ता बदलते रहे.
फूल गुलशन में
मेरे न खिल जाएं,ये-
सोचकर लोग
कलियाँ मसलते रहे.
ज़ोर आँधी ने
काफ़ी लगाया मगर,
मेरे घर के दिए
फिर भी जलते रहे.
दो
फिर चुनावों के
लिए कुछ रैलियाँ होंगी,
भाषणों की
खूबसूरत शैलियाँ होंगी.
मंच पर हर शख्स
बेहद जोश में होगा,
झूठे वादों से
फ़क़त अठखेलियाँ होंगी.
जो इकट्ठा कर के
चंदा जीत जाएंगे ,
पास उनके ही
हवेली गाड़ियां होंगी.
क्या रखेंगे याद
वे कर्तव्य अनंत अपना,
उनके मन में
अपने चेले-चेलियाँ होंगी.
तीन
ये न पूछो कि
मैं क्या कहता हूँ ,
सिर्फ ये देखो
मैं क्या करता हूँ .
दर्द चुपचाप
अपने सहता हूँ,
रंजो-ग़म दूसरों
के सुनता हूँ.
अंजुमन में है
उजाला मुझसे,
मैं अँधेरे में
रहा करता हूँ.
हो किसी आँख का
आंसू मैं उसे,
अपने पलकों पै
सजा लेता हूँ.
एक इंसां रहे
ज़िंदा मुझमें,
हरिक पल इसलिए मैं मरता हूँ
चार
जब क़दम दीप के
लडखडाने लगे,
साए जुल्मत के
नज़दीक़ आने लगे.
मैं न इसको
तरक्क़ी कहूंगा कभी ,
खून भाई का
भाई बहाने लगे.
रात भर हादिसों
की झड़ी देखकर,
चाँद तारे
भी आंसू बहाने लगे.
भूलने के सिवा
कोई चारा नहीं,
ग़म जुदाई के अब
हद से जाने लगे.
खोद कर राह में
खंदकों को अनंत,
गिर पड़ा मैं तो
वे मुस्कराने लगे.
परिचय और संपर्क
रामप्रकाश अनंत
1972 में उ.प्र. के एटा जिले में जन्म
सम्प्रति आगरा में चिकित्सक
सम-सामयिक विषयों पर पैनी नजर रखते हैं
इंसानियत की पैरवी करने वाली संवेदनशील कवितायेँ जिनमें बनावटीपन कम है और भावुकता अधिक.
जवाब देंहटाएंरामप्रकाश अनंत जी को पढ़ा। पढ़कर सपने नहीं आ रहे, हकीकत याद आ रही है। ज़माने को देखने की उनकी नज़र और कहने का उनका अंदाज़ दोनों साफगोईपूर्ण है। समय के बारे में साफ-साफ कहा जाए, यह जरूरी है। हमारे समय के कथित महान और बुद्धिजीवियों को समय ख़ारिज कर रहा है। वह उन्हें स्थापित कर रहा है जो जन-जन के मन को समझते-बूझते और उनके दुःख-सुख से मैत्री-संगति करते हैं। मेरी ओर से साधुवाद रामप्रकाश जी!
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