रविशंकर उपाध्याय
‘रविशंकर’
दूसरी बार सिताब दियारा ब्लॉग पर छप रहे हैं | उन्हें जानने वाला कोई भी शख्श उनकी
संकोची प्रवृति और मृदुभाषिता को पहले बतलाता है | अपनी कविताओं में संवेदनशीलता
बरतने वाले रविशंकर उसे जीवन में भी निबाहते हैं | उनकी कविताएँ एक मध्यम स्वर में
, कहें तो बातचीत की भाषा में लिखी होती हैं , लेकिन उनका असर हर अर्थों मे गहराई
वाला और समाजोन्मुखी होता है | हाल ही में ‘संवेद’ पत्रिका के ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’
पर केन्द्रित ‘युवा रचनाशीलता अंक’ का उन्होंने सम्पादन भी किया है |
तो प्रस्तुत है
सिताब दियारा ब्लॉग पर रविशंकर उपाध्याय की कवितायें
1… चुप्पी
जब हम कुछ कहते
हैं तो
अपना पक्ष रखते
हैं
जब हम बोलते हैं तो
किसी की और से बोलते
हैं
मगर यह जरूरी
नहीं कि
जब हम चुप्प है तो
कुछ नहीं बोलते
हो सकता है
हम कुछ न कह कर
भी
कुछ लोगों के लिए
बहुत कुछ कहते है
दोस्तों
आज चुप्पी
सबसे बड़ी
ईमानदारी है
जिसके नीचे
बेईमानो का तलघर है।
2 …. जानना
जानना बेहद जरूरी है
खुद को
यह जानते हुए कि
खुद से बेहतर
कोई नहीं जान
सकता
मुझे
जब जानना चाहा
खुद को
तो उतरने लगा
तालाब की तलहटी
तक
झूमने लगा फसलों के
साथ
रिसने लगा चट्टानो
के बीच
लगा कि अब पसर रहा हूँ
रिश्तों के भीतर
चमक उठा हूँ असंख्य पुतलियों में
गा रहा हूँ अनंत राग
तब जाना कि
खुद को जानने का
इससे बेहतर
कोई और रास्ता नहीं हो सकता
3 …. परिभाषा
हम बिछुड़ रहे थे
एक दूसरे से
साल रहा था हमें
बिछुड़न का दर्द
अभी कई इच्छाएँ अतृप्त थीं
कहा ही ठीक से
उतर पाया था
तुम्हारी आँखों
की बढ़ियाई नदी में
स्पर्श की प्यास
बनी ही थी रूप के
श्वासों की गंध लेनी
बाकी ही थी अभी
कि सिहर उठा रोम-रोम
हम दोनों की दिशाएँ
एक दूसरे से होनी थी विपरीत
एक दूसरे से होनी थी विपरीत
मगर थी नहीं
उँगलियाँ अलविदा
के उठती और झुक जातीं
पाँव बढ़ते और ठहर
जाते
मेरे भीतर एक अनियंत्रित गति थी
और तुम्हारे भीतर
एक नियंत्रित स्थिरता
लहरों पर चमकता
सूरज इतना करीब था
जितना एक बच्चें
के हाथो का खिलौना
हवा हौले¨ से कुछ कहती और
चली जाती
मुझे लगा कि
प्रेम की परिभाषा
शब्दों में नहीं अर्थों
में व्याप्त है
ध्वनियों में
नहीं
प्रतीकों में
अभिव्यक्त है
जब भी करता हूँ
तुम्हें याद
तुममें नहीं खुद
में पाता हूँ तुम्हें
4 … उदासी
की आश्वस्ति
ज्यों ही उठती है आवाज
सावधान हो जाओ
एक आशंका व्याप्त हो जाती है
शांति मुझे डरावनी लगने लगती है
हिल उठते हैं समस्त विश्वासी केन्द्र
अपरिचित महसूस होता है
वह रास्ता जिस पर सकदों बार चला था
मछलियाँ घाट के किनारे तैरती हैं
उछलती है तेज लहरों की धार से
घाट पर बैठा एक आदमी
फेंक रहा है आटे की गोलियाँ
कल ही तो बांध से छोड़ा गया
था पानी
रेत थोड़ी खिसक आयी है
एक बच्चे की आँख चमक रही हैं
खिलखिला उठा है मन
समाप्त हो जाता है आटा
खत्म हो जाती हैं मछलियाँ
घाट पर बैठा आदमी
अब उदास है
5
… जब टपकती हैं ओस की बूँदें
जब टपकती हैं ओस की बूँदें
मेरे कमरे के सामने वाले पेड़ के पत्तों पर
सिहर उठता है मन
हवाओं से खेलती गंगा की लहरें
तुम्हारी याद ताजा कर देती हैं
यह वर्ष तो बीत ही गया देखे बगैर
घर के मुंडेर पर बैठी कौओ की बारात
रक्ताभ सूरज अब ढलने वाला है
मगर बिसर गयी है याद सूरजमुखी की
क्या आज नहीं लौट पाएगा
गौरयों का दल अपने घोसलों तक
यही तो मिलना होता है
माँ और बच्चों का
क्या नहीं मिल पाया चारा उन्हें
अपने मासूमों के लिए
या उठा ले गया कोई बाज
किसी एक सदस्य को
जिसके शोक में
गतिहीन हो गया है
पूरा दल
बार-बार उझूक-उझूक कर
घोसले के बाहर देखने में प्रयासरत हैं
नन्हीं-नन्हीं गौरैया
कोसों दूर बैठी तुम्हारी
आँखों में डूब रहा हूँ , मैं।
परिचय और संपर्क
रविशंकर उपाध्याय
शोध छात्र (हिंदी)
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी
मो.न. 09415571570
कविता मन को भिंगोती है। छूती है आपके भीतरी तल को। मन और भाव एकाकार हो तो मायने नहीं रखता कि आपकी कविता की समझ ‘बूम-बूम’ है या बौनी। रविशंकर उपाध्याय साथ के साथी हैं। कम बोलते हैं। सही हैं। मुझसे उनकी वाजिब बाते ही होती हैं। बेहद सीमित शब्दों में। लेकिन बातचीत आत्मीयता और जीवंतता के साथ प्रकट होती है। यहाँ लगी कविताओं अच्छी लगीं। उनमें सहजता के आवरण और बिम्ब रोपे गए हैं, इसलिए अंकुरित अर्थ अबूझ नहीं है। इन अर्थों से हम भाषा के सामथ्र्य और उसकी सम्प्रेषणीयता को समझ सकते हैं। कवि की बेचैनी के बरअक़्स अपने समय के अन्तर्विरोधों तथा उसके अंतःसम्बन्धों को परिभाषित कर सकते हैं। इन अर्थों के सहारे हम जी सकते हैं अपने आस-पास का भरा-पूरा जीवन जिसमें हमारे ‘मैं’ होने का जीवनबोध उपस्थित है।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(13-7-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!