शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

लगभग अनामंत्रित को पढ़ते हुए





अपने दौर के महत्वपूर्ण युवा-कवि अशोक कुमार पाण्डेय के कविता संग्रह ‘लगभग अनामंत्रित’ पर लिखी मेरी समीक्षा कथन पत्रिका के इस अंक में छपी है | आप सबके लिए इसे ‘सिताब दियारा’ ब्लाग पर भी प्रस्तुत कर रहा हूँ |                           
                                                          रामजी तिवारी          

              
               वैकल्पिक व्यवस्था की तलाश में  


प्रत्येक साहित्यकार के मन में लिखते समय यह सवाल अवश्य कौंधना चाहिए , कि हम इसे क्यों लिख रहे हैं | क्या उस ‘स्वान्तः-सुखाय’ के लिए , जिसे साहित्य के एक लम्बे दौर में प्रचारित-प्रसारित किया गया , और जिसे आज भी कुछ लोग अपने सीने से चिपकाए घूमते हैं ? फिर तो यह सवाल भी खड़ा हो जाता है , कि जब कोई अपने ही बारे में लिखता है , तो उसे लिखने की क्या जरुरत है ? वह अपने बारे में सोचे , अपने बारे में विचार करे और अपने तई उसे रखे भी | क्योंकि लिखा हुआ शब्द तो सबका होता है | इसलिए , जाहिर है कि लेखन भी वहां से आरम्भ होता है , जहाँ से आपके भीतर अपने से अलग सोचने की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है | यह अनायास नहीं है , कि दुनिया की सभी कालजयी कृतियाँ उसी सामाजिकता से अविछिन्न रूप से जुड़ी दिखाई देती हैं , जिसमें वे रहती हैं और जिसे बेहतर बनाने के लिए वे लगातार संघर्ष भी करती हैं | यहाँ तक कि वे आत्मकथात्मक कृतियाँ भी , जो अपने जीवन को केंद्र में रखकर लिखी गयी होती हैं |

इसी तरह किसी भी संग्रह को पढ़ते समय हमारे मन में यह ख्याल अवश्य आता है , कि हम इसे क्यों पढ़ रहे हैं | और दरअसल सच तो यह है , कि इसे वैसे ही आना भी चाहिए | जैसे लिखने के लिए लेखक के पास एक उद्देश्य होता है , उसी तरह से पढ़ते समय एक पाठक के पास भी होना चाहिए | यदि आपके पास पढने के लिए वही पैमाना है , जिसे उपरोक्त पैराग्राफ में लिखने के लिए उल्लिखित किया है , तब युवा कवि अशोक कुमार पाण्डेय का यह कविता संग्रह ‘लगभग अनामंत्रित’ आपके लिए ही है | इस संग्रह की कवितायें जहाँ एक तरफ अपने भीतर झाँकने का प्रयास करती हैं , वहीँ उस बृहत्तर सामाजिकता से भी अपने आपको जोडती हैं , जिससे वे उपजती हैं | इस सामाजिकता में भी अशोक उस परम्परा का चुनाव करते हैं , जिसमें एक नाईजीरियाई कवि अपनी कविताओं के बारे में कहता है कि ‘ हमें ऐसी कवितायें चाहिए / जिनमे खून के रंग की आभा हो ’ | जिसमें हिंदी कवि सर्वेश्वर कहते हैं कि ‘तुम मुझे एक चाकू दो / मैं अपनी रगें काटकर दिखा सकता हूँ / कि कविता कहाँ है |’ और जिसमें पंजाबी कवि ‘पाश’ कहते हैं , कि मुझे समझने के लिए मेरी कवितायें ही काफी हैं | वे कवितायें , जिन्हें मेरे बाद भी उसी तरह से समझा जा सकेगा , जैसा कि मैं उनके बारे में कहना चाहता था | उनकी कोई भी अन्यत्र व्याख्या नहीं की जा सकती |’

लगभग पचास कविताओं के इस संग्रह में कुछ चीजें बहुत साफ़-साफ़ पढ़ीं जा सकती हैं | मसलन कि हमें किसी भी चीज को देखने और समझने के लिए उसकी सम्पूर्णता में जाना चाहिए | उसकी जड़ों में जाकर ही हम यह पड़ताल कर सकते हैं , कि वह चीज कहाँ से पैदा हुई है , और तभी उसके बारे में हम अपनी कोई राय भी बना सकते हैं | मसलन क्या हम ‘वैश्विक पूँजीवाद’ को समझे बिना ,पिछले दो-ढाई दशकों में दुनिया के स्तर पर आये राजनीतिक , आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों को समझ सकते हैं ? जाहिर है , हम सबका उत्तर ‘नहीं’ में होगा , और अशोक के इस संग्रह का भी |

दूसरी और भी कई चीजें हैं , जो इस संग्रह को अलगाती हैं , और विशिष्ट बनाती हैं | मसलन आप इस संग्रह की कविताओं पर उंगली रखकर ठीक-ठीक बता सकते हैं , कि इनका स्टैंड क्या है | इस दौर में भी , जहाँ कहने से अधिक छिपाने पर ध्यान दिया जाता है, और जहाँ बातों को ‘गोल-मटोल’ तरीके से प्रस्तुत करने को अपनी विशिष्टता समझा जाता है | ध्यान देने वाली बात यह है , कि यह साफगोई भी एक ‘राजनीतिक पक्षधरता’ के साथ दिखाई देती है | वहीँ दूसरी तरफ इस संग्रह की कवितायें , कविता के उच्च प्रतिमानों को कायम रखते हुए इस मिथक को भी तोड़ती हैं , कि जनवादी कवितायें तो कलात्मक रूप से कमजोर होती है , और वे अधिकतर नारेबाजी में बदल जाती हैं | अशोक के इस संग्रह की कवितायें उस परम्परा को भी आगे बढाती हैं , जिसके अनुसार एक साहित्यकार पर , न सिर्फ अपने समय और समाज को परिभाषित करने की जिम्मेदारी आयत होती है , वरन उससे यह भी अपेक्षा की जाती है , कि वह अपने पाठकों के सामने उन असुविधाजनक सवालों को भी उठाये , जिनसे सामाजिक जड़ता और यथास्थिति को चुनौती मिलती हो | अर्थात पाठकों की रुचियों को सकारात्मक तरीके से परिमार्जित करने की जिम्मेदारी का निर्वहन भी इस संग्रह में दिखाई देता है |

इस संग्रह की पहली कविता ‘सबसे बुरे दिन’ में ही अशोक अपने स्टैंड को साफ़ कर देते हैं | ‘पाश’ की प्रसिद्द कविता ‘सबसे खतरनाक’ के शिल्प का इस्तेमाल करती हुयी यह कविता अपने अंत में कहती है ‘

बहुत बुरे होंगे वे दिन
जब रात की शक्ल होगी बिलकुल देह जैसी 
और उम्मीद की चेकबुक जैसी 
विश्वास होगा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन 
ख़ुशी घर का नया कोई सामान 
और समझौते मजबूरी नहीं बन जायेंगे आदत / .....
लेकिन सबसे बुरे होंगे वे दिन    
जब आने लगेंगे इन दिनों के सपने |’ (पृष्ठ -१२) 

और फिर दूसरी कविता ‘लगभग अनामंत्रित’ से अपने दौर की शिनाख्त आरम्भ हो जाती है | उदारीकरण , वैश्वीकरण और भूमंडलीकरण के उस चमकीले दौर की , जिसमे सोचने समझने वाला हर आदमी ‘लगभग अनामंत्रित’ है | अशोक अपने बचपन की स्मृतियों को टटोलते हुए ‘जगन की अम्मा’ के पास भी जाते हैं , और ‘अंकल चिप्स’ की चमक के नीचे दबे उस भयावह सवाल से टकराते हैं कि ‘

क्या कर रहे होंगे आजकल 
मुहल्ले भर के बच्चों की डलिया में मुस्कान भरने वाले हाथ ? 
आत्महत्या के आखिरी विकल्प के पहले
होती हैं अनेक भयावह संभावनाएं |’(पृष्ठ-१७)

असुविधाजनक सवालों से टकराने के लिए अशोक सबसे पहले अपने घर-परिवार का ही चुनाव करते हैं | वे दकियानूस परम्पराओं और प्रथाओं को तोड़कर अपनी राह चुनने की हिम्मत दिखाते हुए कहते हैं ‘

हम नालायक पुत्र अपनी पिताओं के                   
पूर्वजों के माथे का कलंक घोर
हम हत्यारे कितनी उम्मीदों के
हम अपराधी कितनी परम्पराओं के 
कर्तव्यों के मारे हम
हमने छोड़ी अधिकारों की चाह 
और चुनी खुद अपनी राह |’ (पृष्ठ-६६)  

और इस कविता से भी आगे बढ़कर जब वे अपनी बेटी से अपनी चाहत बयान करते हैं  ‘ कि

विश्वास करो मुझ पर                             
ख़त्म नहीं होगा वह शजरा
वह तो शुरू होगा मेरे बाद  
तुमसे !..’ (पृष्ठ-४८)  

तो वे ‘धरती को नाम देकर’ अब तक ‘सर के बल खड़ी’ उस परम्परा को ‘पैरों के बल खड़ी’ कर देते हैं |

एक बार जब यह टकराहट अपने घर से आरम्भ हो जाती है , तब दुनिया से टकराने का हौसला भी मिल जाता है | यह संग्रह ऐसी टकराहटों से भरा पड़ा है | ‘एक सैनिक की मौत’ कविता में आया सवाल कहता है कि,

अजीब खेल है
कि वजीरों की दोस्ती
प्यादों की लाशों पर पनपती है
और जंग तो जंग     
शांति भी लहू पीती है |   (पृष्ठ-२०)

वहीँ फांसी की सजा की औचित्यपूर्णता को परखती हुयी कविता ‘अंतिम ईच्छा’ भी है , जिसमे न्याय की सम्पूर्ण अवधारणा को ही प्रश्नांकित किया गया है | ‘वे चुप हैं’ , ‘माँ की डिग्रियां’ , ‘बुधिया’ , ‘आग’ , ‘गुजरात-२००७’ , ‘काम पर कान्ता’ , ‘इन दिनों बेहद मुश्किल में है मेरा देश’ और ‘किस्सा उस कमबख्त औरत का’ जैसी कविताओं में अशोक अपने साथ-साथ , इस समाज की प्रचलित रुढियों से टकराने का साहस दिखाते हैं , जिन पर लोग सामान्यतया मौन साधते हुए, बचकर निकल जाना ही बेहतर समझते हैं |

इस संग्रह की एक कविता ‘गाँव में अफसर’ है , जिसे पढ़ते हुए हमे ‘आलोक धन्वा’ की कविता ‘जिलाधीश’ याद आती है | आलोक जी ने उस दौर में भी, हमें उस पर कड़ी नजर रखने की सलाह दी थी | अशोक की यह कविता उसे पुनः पुष्ट करती है ,

समय का सवर्ण है अफसर 
ढाई क़दमों में नाप लेता है
गाँव का ब्रह्माण्ड 
कलम की चार बूँद स्याही में
समेट लेता है
नदी का सारा जल | (पृष्ठ-८०) 

एक और कविता है ‘वैश्विक गाँव के पञ्च परमेश्वर’ , जिसका आज के दौर में उल्लेख किया जाना अत्यंत आवश्यक है | यह कविता हमें बताती है कि , इस दौर ने हम सबको कठपुतलियों में बदल दिया है , और जिसका नियंत्रण उन व्यक्तियों के हाथों में है , जिनकी उसमें कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए |

प्रचलित रुढियों को तोड़ते हुए अशोक, वैकल्पिक स्थापनाएं भी प्रतिपादित करते नजर आते हैं | घर से आरम्भ करते हुए समाज , राजनीति और दुनिया को देखने समझने के साथ-साथ , ये स्थापनाएं कविता के शाश्वत विषय ‘प्रेम’ तक भी जाती हैं | अपनी कविता ‘मत करना विश्वास’ में वे कहते हैं

करती रहना दाल में नमक जितना अविश्वास
हंसों मत
जरुरी है यह  
विश्वास करो  
तुम्हें खोना नहीं चाहता मैं | (पृष्ठ-४३)

वहीँ एक अन्य कविता ‘तुम्हारी दुनिया में इस तरह’ में वे प्रेम के जड़ और दकियानूस मानदंडों को ख़ारिज करते हुए कहते हैं ,

सिंदूर बनकर
तुम्हारे सिर पर  
सवार नहीं होना चाहता हूँ  
चूड़ियों की जंजीर में
नहीं जकड़ना चाहता  
तुम्हारी कलाईयों की लय  
न मंगलसूत्र बन         
झुका देना चाहता हूँ  
तुम्हारी उन्नत ग्रीवा |’ (पृष्ठ-६९)

संग्रह की अंतिम कविता ‘अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कार’ है , जो कि इस संग्रह की एक मात्र लम्बी कविता भी है | यह कविता हमारे समय की उस भयावहता को उद्घाटित करती है , जिसमें इस देश की सबसे कमजोर , सबसे गरीब और सबसे दलित जनता पिस रही है | अच्छी बात यह है कि , अशोक सालने वाली क्रूर सच्चाईयों को बयान करने तक ही नहीं रूकते, वरन जनता के प्रतिरोध की ही तरह अपनी कविता को भी प्रतिरोध की उस ऊँचाई तक ले जाते हैं ,जिसमे ऐसी कविता को जाना ही चाहिए |

दरअसल अशोक के इस संग्रह ‘लगभग अनामंत्रित’ की सभी कवितायें पाठक को उस वैकल्पिक व्यवस्था की तलाश की ओर अग्रसर करती दिखाई देती हैं , जिसका सपना सभी जनवादी और प्रगतिशील शक्तियों की आँखों में तैरता रहता है | टूटने-बिखरने और लूटने-बटोरने के इस दौर में भी अशोक कुमार पाण्डेय के रूप में हमारे सामने कविता का एक यह चेहरा भी उपस्थित नजर आता है , जिसके पास प्रतिरोध करने लायक कथ्य भी है और उसे कविता में ढालने लायक भाषा और शिल्प भी | जिसके पास इन सबको व्यक्त करने की हिम्मत भी है , और साहित्य के बाजार से मिलने वाली अशरफियों को ठुकराने का साहस भी | आज के दौर में साहित्य को ऐसे और संग्रहों की , ऐसे और स्वरों की आवश्यकता है |

                                                

                                                    रामजी तिवारी 

                                                  


लगभग अनामंत्रित  (कविता संग्रह )                     
लेखक - अशोक कुमार पाण्डेय
शिल्पायन प्रकाशन , दिल्ली
मूल्य – 150 रूपये        
                                                      

3 टिप्‍पणियां:

  1. अशोक जी आपका आभार मुझे ऎसी कविता ही अच्छी लगती है एकदम सच के समीप वाली- सच बोलने पर आमादा दिमाग मे झनझनाहट पैदा हो गई---
    बहुत अच्छी लगी एक बार और आपको धन्यवाद ।

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  2. अशोक कुमार पाण्डेय के संग्रह पर आपने बेहतरीन तरीके से लिखा है. कविता की दुनिया में अपने इस युवा साथी का आत्मीय स्वागत. और आपका आभार. संतोष चतुर्वेदी

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