रविवार, 17 जून 2012

विमल चन्द्र पाण्डेय का संस्मरण - सातवीं किश्त



                                 विमल चन्द्र पाण्डेय 

पिछली किश्त में आपने पढ़ा कि इलाहाबाद में एक साथ दो बड़ी घटनाएं होती हैं | एक तो अमिताभ बच्चन अपनी माँ 'तेजी बच्चन' की अस्थियों को विसर्जित करने के लिए संगम पर पहुचते हैं , और दूसरी तरफ हिंदी के जाने माने साहित्यकार अमरकांत जी को 'साहित्य अकादमी' पुरस्कार से नवाजा जाता है | विमल जहाँ अमरकांत से साक्षात्कार लेने में डूबे हुए हैं , वहीँ ऊपर से उन्हें निर्देश दिया जाता है , कि वे अमिताभ वाली खबर को कवर करें | विमल का संवेदी मन अपने दिल की बात मानकर अमरकांत जी के साथ बने रहने का निर्णय करता है और ऊपर के निर्देशों की लगभग अवहेलना कर देता है | लेकिन उस समय उन्हें उस अवहेलना की कीमत का पता चलता है , जब अगले दिन की खबरों से उनके द्वारा भेजी गयी 'अमरकांत' वाली खबर पूरी तरह से नदारद रहती है |

विमल की बड़ी खासियत यह है कि अपने आस पास के परिवेश को उद्घाटित करते हुए इस संस्मरण में वे ऊपर-ऊपर तो अपना मजाक उड़ाते हैं , लेकिन भीतर-भीतर इस समाज और व्यवस्था की वह तस्वीर प्रस्तुत करते हैं , जो बेहद अमानवीय और सालने वाली है |

                    

                    तो प्रस्तुत है विमल चन्द्र पाण्डेय के संस्मरण 
                            ई इलाहाब्बाद है भईया
                              की सातवीं किश्त 

                                   11..
‘ओम शांति ओम’ हमारे लिए चेतावनी का अलार्म थी. विवेक का कहना था कि करने वाले लोग इतना कचरा-कचरा काम कर दे रहे हैं और हम सिर्फ़ सोच रहे हैं, हमें छोटे स्तर पर ही सही, अपना काम शुरू करना चाहिए. मैंने हामी भरी. जिस दिन मैंने अर्बेन्द्र का हैंडीकैम देखा, मेरा दिल ज़ोरों से धड़कने लगा. उसके कैमरे की रेंज अच्छी थी. मुझे लगा ये मेरे लिए ऊपर वाले का सन्देश है कि ले बेटा कैमरा कुछ कर. मैंने दिल्ली में सौरभ शर्मा (सूचना का अधिकार पर बनायी गयी उनकी संस्था ‘जोश’ में काम करते हुए) और नीरज एडिटर के साथ मिलकर मानवाधिकार आयोग पर जो डॉक्यूमेंट्री बनाई थी, उसकी बहुत तारीफ हुई थी और उसके बाद एसवीएम प्रोडक्शन की कांग्रेस के लिए बनाई गयी फिल्म भी ठीक-ठाक ही थी. लेकिन बात ये थी कि मैं नॉन-फिक्शन का नहीं , वरन फिक्शन का आदमी था. विवेक का मन अलबत्ता नॉन-फिक्शन में लगता था लेकिन तय यही रहा कि हम अर्बेन्द्र के कैमरे से पहले एक 12 मिनट की शोर्ट फिल्म बनायेंगे. पहले तो मैंने ज्ञान प्रकाश विवेक की दसों साल पहले इंडिया टुडे में प्रकाशित एक कहानी ‘बोहेमियन’ पर शोर्ट फिल्म बनाने की सोची लेकिन उसके लिए हमें संसाधन ज़्यादा चाहिए थे और दो दमदार अभिनेता भी. विवेक उस कहानी से बहुत मुतास्सिर नहीं हो पा रहा था क्योंकि उसके हिसाब से वह कहानी आम दर्शक को थोड़ी कम समझ में आती. मैंने एक कहानी लिखी जिसमे एक दंगे का दृश्य था और वह एक कसाई की कहानी थी जो बहुत सीधे सादे स्वभाव का है. विवेक रोज़ सुबह मेरे कमरे पर आ जाता और हम स्क्रीनप्ले और प्रोपर्टीज पर बहस करते. हमने कागज पर अच्छा खासा काम किया था और ये छोटी-छोटी बातें भले आपकी ज़िंदगी में प्रत्यक्षतः कुछ जोड़ती न हों, आपको सिखाती बहुत हैं. ये ऐसे अनुभव होते हैं जो हमेशा साथ रहते हैं. हम कसाई के रोल के लिए एक अच्छा अभिनेता खोज रहे थे और कई लोगों से बात करने के बाद विवेक ने मुझे आईडिया दिया कि हम क्यों न अर्बेन्द्र को ट्राई करें. हमने अर्बेन्द्र का स्क्रीन टेस्ट लिया और उसने हमें अपने चेहरे पर छाये ‘नो एक्सप्रेशन’ से कन्विंस कर दिया कि वह कसाई के रोल में घुस गया है. उसे फाईनल कर दिया गया और मैंने इस खुशी में लौज के बाहर से लाकर सबको मुहूरत की मिठाई भी खिलाई. उन दिनों बनारस से अनुज भी आया हुआ था.

मित्र विवेक के साथ विश्वविद्यालय रोड के किनारे वाली चाय की दूकान पर 
बनारस में हमारे पास इत्मीनान से बैठ कर अड्डेबाजी करने के लिए कोई निश्चित जगह नहीं हुआ करती थी. जब से मैंने इलाहाबाद में कमरा लिया था तब से ये एक नियम बन गया था की जब भी बनारस के दोस्त एक साथ खाली होंगे, मेरे कमरे पर मयनोशी करने चले आया करेंगे. तो उन दिनों बनारस से अनुज एकाध दिनों के लिए आया हुआ था और उसे हर गर्मियों की तरह इस बार भी दो तीन नाज़ुक जगहों पर फुन्सियाँ निकली हुई थीं.

तो कुल मिलाकर प्री-प्रोडक्शन का काम शुरू होने का वक्त आ चुका था. मैंने अपने नजर में अच्छी स्क्रिप्ट लिखी थी और बाकी छोटी मोटी बातें भी फाईनल हो चुकी थीं. अब हमारे लीड अभिनेता पर काफ़ी कुछ निर्भर करता था. मैंने अर्बेन्द्र को किरदार में घुसने के कुछ तरीके बताये थे और कुछ उसने खुद ईजाद किये थे. उसने बताया कि आजकल ए टीवी के ऑफिस से आते वक्त वह रामबाग पर एक मटन की दुकान पर काफ़ी देर तक खड़ा रहता है. वहाँ से उसने उस कसाई की बहुत सारी भाव भंगिमाएं नोट की हैं जो उसके किरदार के लिए बड़े काम की हैं. मुझे बहुत संतोष हुआ क्योंकि मैं निर्देशक के साथ-साथ निर्माता भी तो था. हमने पहली बार कैमरा ट्राईपोड पर लगा कर अपने लौज में ही रिहर्सल करवाने की सोची. अर्बेन्द्र को अनुज का हाथ पकड़ कर उसे मारने के लिए अपना हथियार उठाना था, अनुज को एक छोटे बच्चे की भूमिका करनी थी जिसे ‘मुझे छोड़ दो अंकल, जाने दो...प्लीज’ की विनती करते हुए हाथ छुड़ाना था. अर्बेन्द्र को तुरंत उसका हाथ नहीं छोड़ना था लेकिन थोड़े संघर्ष के बाद उसका हाथ छोड़ देना था और शून्य में ताकने लगना था.
दोनों कलाकारों को दृश्य समझाया गया. हालाँकि अनुज का कहना था कि वो नहीं करना चाहता लेकिन उसे ये कह कर राज़ी किया गया कि उसे सिर्फ़ रिहर्सल में साथ देना है, फिल्म में नहीं, हम इस दृश्य को कैमरे पर देखना चाहते हैं कि क्या कमी हो रही है, इसलिए उसे इस पुनीत कार्य में हमारा साथ देना चाहिए. वह बिना मन के राज़ी हो गया.

दृश्य शुरू होते ही अर्बेन्द्र अपने कैरेक्टर में फटाक से घुस गया, जब अनुज अभी सोच ही रहा था कि कैरेक्टर में घुसने की ये क्रिया होती कैसे है. दृश्य हम लोग लौज के बरामदे में कर रहे थे और फौजी और एकाध लड़के अपने खुले दरवाज़ों से हमें देख कर मुस्करा रहे थे. फौजी बिहार से ताल्लुक रखते थे और लौज का एक प्रमुख हिस्सा थे जिनके बारे में आगे बात की जायेगी. अर्बेन्द्र का किरदार में घुसना देख कर अनुज को भी मजबूरन अपने किरदार में घुसना पड़ा.

“मुझे छोड़ दो अंकल....अअआ...दर्द हो रहा है...प्लीज.” लेकिन अर्बेन्द्र ने उसका हाथ नहीं छोड़ा और पास पड़ा अपना हथियार उठाया. इधर अनुज उसकी पकड़ से छूटने की पूरी कोशिश कर रहा था. उसने अनुज की कलाई इतनी कस के पकड़ रखी थी कि उस पर सिलवटें आ गयी थीं. उसकी आंखे क्रूरता से चमक रही थीं और पकड़ खूब सख्त थी, यही उसकी पूरी एक्टिंग थी जो उसने उस कसाई को देख कर सीखी थी. अनुज अपना हाथ छुड़वाने के लिए ताकत लगा रहा था लेकिन कसाई अपने किरदार में गहरे उतर गया था.

“छोड़ दो अंकल.....प्लीईईज...अबे छोड़ो...”

अर्बेन्द्र ने हाथ नहीं छोड़ा तो अनुज ने उसके पैर के एक जोर की लात लगाई और अपना हाथ झटके से छुड़ा लिया.

“छोड़ो भोसड़ी के..........तब से अंकल अंकल कह रहे हैं समझ में नहीं आ रहा...चूतिया कहीं के...”
अनुज की बगल में निकली फुंसियों में से एकाध अर्बेन्द्र के जीवंत अभिनय के कारण फूट गयी थीं और वह ज़मीन पर अधलेटी अवस्था में कराह रहा था. हमने उसे सहरा देकर उठाया तो फौजी अपने दरवाज़े पर आकर खड़े हो गए और हँसने लगे, “काहें हो ....फाट गईल ?” अब ना बनबऽऽ हीरो ?”

अनुज ने एक जलती नज़र फौजी पर डाली और उन्हें जीवनदान देता हुआ कराहता कमरे में चला आया. यह वही अनुज था जिसका नाम कालांतर में ‘बाबा’ पड़ना था और जिसके ऊपर ‘बाबा एगो हईये हउयें’ कहानी लिखी जानी थी. अर्बेन्द्र भी किरदार से बाहर निकल कर चुपचाप आकर बाल्टी से पानी निकाल कर पीने लगा और मुझसे वही पुरानी शिकायत करने लगा कि मैं बहुत फूहड़ आदमी हूँ जो पीने का पानी तक ढक कर नहीं रखता. मैं विवेक को निराशा भरी नज़रों से देख रहा था कि हमारी शोर्ट फिल्म का क्या होगा.

अगले दिन हम अर्बेन्द्र को लेकर कीडगंज के पीछे बोट क्लब गए और वहाँ हमने उसके कुछ एक्सप्रेशन कैमरे में कैद करने चाहे. वह दूर खड़ा था और वहाँ से उसे दौड़ते हुए चिल्लाते हुए कैमरे की तरफ आना था. उसने किसी तरह ये शोट दिया लेकिन मजा नहीं आया. हमने इसे चार बार दोहराया और पांचवी बार उसकी चेतावनी थी, ‘’अब आखिरी बार दौड़ रहे हैं, इसके बाद नहीं दौडेंगे.” वह आखिरी बार पिछली कोशिशों से भी खराब दौड़ा. हमने उसे अपनी शर्ट खोल कर गुस्से से कैमरे की ओर देखने और कुछ संवाद बोलने को कहा. उसने अपने आसपास नज़र डाली और शर्ट उतरने से साफ़ मुकर गया.

“अब नंगा भी करा दोगे क्या...?” मेरा दिमाग खराब हो गया. मैंने कैमरा बंद करके विवेक के हवाले किया. “अब से कोई इस फिल्म के बारे में बात नहीं करेगा, खत्म.” और मैं चुपचाप आकर अपने कमरे में लेट गया. बाद में पता चला कि विवेक ने अपने तईं उसे कुछ देर समझाने की नाकाम कोशिश की थी. उसका विवेक से सवाल था कि क्या सभी बनारसी ऐसे ही गालियाँ देते हैं ? विवेक ने उसे कहा था कि ऐसा नहीं है. कुछ ही बनारसी इतने बद्तमीज होते हैं, जब इस पर अर्बेन्द्र खुश हुआ तो विवेक ने वहाँ से निकलते वक्त कहा कि बाकी बनारसी महाबद्तमीज होते हैं.
खैर, ये हमारी पहली कोशिश थी जो नाकाम रही थी और इस नाकामी ने हमें एक महीने तक कोई काम नहीं करने दिया.
                              
                                  12...                      

अर्बेन्द्र ने पगार न मिलने के कारण ए टीवी छोड़ दिया था. वह उन स्थानीय पत्रकारों की तरह पुलिस वालों और नेताओं से कमाने की कला नहीं जानता था और स्थानीय चैनल वाले बिना तनख्वाह दिए इसीलिए काम करते थे कि पत्रकार ‘इधर उधर’ से तो खाने कमाने लायक कमा ही लेगा. वह तो ऐसा कर्मठ पत्रकार था जो मर्डर की खबर मिल जाने के बावजूद घटनास्थल पर जाता था और लाश का बकायदा मुआयना करता था कि उसे कितनी जगह चोटें आई हैं. उसे उसके कुछ सीनियरों ने समझाया कि उसे अखबार में काम करना चाहिए क्योंकि चैनल सब दलाल हो गए हैं. वह एक स्थानीय अखबार ‘शहर समता’ में काम करने लगा जहाँ उसे हर महीने हजारों रुपये देने का वायदा किया गया.

इलाहाबाद के जाने माने अखबार ‘यूनाइटेड भारत’ में एक क्राईम रिपोर्टर गिरीश पांडे जी थे जिनके बारे में माना जाता था कि वह अपराध होने से पहले ही खबर बना लेते हैं कि अपराध कहाँ और कब होने वाला है. उन्होंने ख़बरें निकालने के लिए मुझे कुछ गुरुमंत्र दिए थे जिनमें से एकाध मेरे काम भी आये थे. अर्बेन्द्र भी शहर समता के लिए अपराध की रिपोर्टिंग करने लगा था और इस तरह गिरीश जी उसके सर बन गए थे. मैं अपराध की ख़बरें अर्बेन्द्र से ही ले लिया करता था और यह कहने में मुझे ज़रा भी शर्म नहीं आनी चाहिए कि इस नौकरी की वजह से मैं बहुत आरामतलब और आलसी सा हो गया था. मुझे बैठे-बैठे ख़बरें मिल जाती थीं और मैं उसे बना कर लखनऊ भेज दिया करता था. एक दिन मैंने यूँ ही अर्बेन्द्र से पूछ दिया कि अपराध की पत्रकारिता कैसे होती है. उसने बदले में बड़ी-बड़ी बातें कीं जैसे इसके लिए बहुत बड़ा कलेजा चाहिए, पत्रकार को बहुत मुस्तैद होना चाहिए और सबसे अधिक, किसी भी चीज से डरना नहीं चाहिए. उसने साथ में यह भी कहा कि वह कल से सुबह निकलते वक्त मुझे भी अपने साथ ले लिया करेगा ताकि मैं भी कुछ गुर सीख लूं. मैंने कोई उत्साह नहीं दिखाया.

लेकिन मेरे उत्साह दिखाने न दिखाने से क्या होता है जब सामने वाला अति-उत्साही हो. सुबह ७ बजे मेरा दरवाज़ा खटखटाया गया और अर्बेन्द्र ने मुझे सिर्फ़ १५ मिनट का वक्त दिया कि मैं इसमें जो चाहे कर लूं और उसके साथ निकल चलूँ. ये इलाहाबाद है, कोई इस तरह यहाँ कुछ सिखाता नहीं, इसलिए मुझे उसके जैसे दोस्त का फायदा उठाना चाहिए. मुझे उसकी बातों में सच्चाई महसूस हुई. मैं उतनी देर में जितना तैयार हो सकता था, हुआ और उसकी हीरो पुक पर सवार होकर चल पड़ा. वह सड़क से न चल कर गलियों का सहारा लेता था . एक पुराने इलाहाबादी की तरह उसे सारी गलियाँ मालूम थीं.

“हम कहाँ जा रहे हैं ? कोई क्राईम हुआ है क्या ?” मैंने पूछा लेकिन अब वो मेरा सीनियर बन चुका था और उसने मेरे इस मामूली सवाल को वक्त के भरोसे छोड़ दिया. इधर उधर गलियों से गुज़र कर उसकी गाड़ी शहर के सरकारी यानि स्वरुप रानी अस्पताल पहुंची.

कीडगंज(इलाहाबाद) स्थित अपने लाज में 
“यहाँ क्या...?” मुझ नासमझ पत्रकार ने पूछा.

“घर में बैठे-बैठे पत्रकारिता करोगे तो यही होगा. यहीं से तो सब मसाला मिलेगा. देखते जाओ.”

मुझे अपनी काहिली पर फिर शर्म आई और मैंने सोचा कि अब मैं रोज़ सुबह इसके साथ निकला करूँगा और सीखूंगा कि ख़बरें कैसे निकालते हैं. अस्पताल में जाते ही उसने कल रात और आज सुबह भर्ती हुए लोगों की लिस्ट देखी. जो मारपीट वाले मामले थे उसके बेड नंबर उसने नोट कर लिए फिर हम अस्पताल के भीतर पहुंचे. ज़्यादातर मरीज़ गांवों से आये होते थे और ज़्यादातर मामले ज़मीन या लड़की के होते थे जिनमे एक पक्ष ने दूसरे को कट्टे, लाठी या चाकू से मार कर घायल किया होता था. कुछ लोग मर चुके होते थे जिनकी लाश मोर्चरी में रखी होती थी. अर्बेन्द्र ने भीतर जाकर पीड़ित पक्ष का बयान लिया और एक दूसरे मामले में, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो चुकी थी, कुछ नोट किया. इसके बाद वह मोर्चरी की ओर चल पड़ा. मैं भी उसके पीछे हो लिया.

“देखो, यहाँ डेड बॉडी पड़ी होगी. आओ उसको देखते हैं.”

मैंने प्रतिवाद किया की हम मृत व्यक्ति का शरीर देख कर क्या करेंगे, ये तो फोटोग्राफर का  काम है. हमें खबर चाहिए थी जो मिल गयी. अब हमें चलना चाहिए.

“ऐसे नहीं होती है पत्रकारिता, पत्रकार का सब काम होता है...देखना पड़ता है, आओ अन्दर आओ. थोड़ा भी डेडिकेशन नहीं है तुम्हारे अन्दर...”

वो एक सरकारी शव विच्छेदन गृह था जिसमें एसी और कूलर क्या , पंखे तक की व्यवस्था नहीं थी. लाशें पोस्टमोर्टम के बाद बुरी तरह बदबू कर रही थीं. अर्बेन्द्र ने वहाँ के कर्मचारी, जो उसे पहचानता था, से पूछा, “और, क्या हाल ?”

“सब चकाचक.”

“कितना विकेट गिरा आज चाचा ?”

कर्मचारी ने लाशों को गिनते हुए बताया, “एक, दो अउर ....तीन. तीने ठो है आज तो..”

“कैसे कैसे मरे...? हत्या वाली बॉडी कौन सी है ?”

“ये वाली, बाकी तो दोनों लावारिस है.”

“अच्छा, कितनी चोटें लगी हैं चाकू की ?”

“१२ से १५ चोट हैं, छोट बड सब मिला के..” कर्मचारी ने खैनी मलते हुए बताया. वहाँ की बदबू से मेरा दिमाग फटा जा रहा था लेकिन मैं अब अर्बेन्द्र से ये नहीं कह सकता था कि यहाँ से जल्दी चलो. वह फिर जोड़ देता, “ऐसे पत्रकार नहीं बन जाता कोई.” मैं चुप रहा और सोचता रहा कि आखिर अर्बेन्द्र भी तो ये सब सह ही रहा है. मैंने मन ही मन सोचा कि भाड़ में जाए क्राईम रिपोर्टिंग, मैं पोलिटिकल और कल्चरल करके ही खुश रहूँगा.

अर्बेन्द्र ने आराम से सारी बातें नोट की और वहाँ से बाहर निकल कर जब हम एक चाय की दुकान पर आये तब मैंने गला खंखार कर कई बार थूका और लंबी सांसे लीं. अर्बेन्द्र मेरी ओर देख कर मुस्करा रहा था. उसने दो चाय का ऑर्डर दिया. मुझे मितली सी आ रही थी, लाशों की सडन भरी बदबू मेरी नाक में घुस गयी थी जो निकलने को तैयार नहीं थी. लेकिन मैंने चाय के लिए मना नहीं किया वरना मुझे कुछ और व्यंग्य बाण सहने पड़ते. लेकिन हद तो तब हो गयी जब उसने दो समोसों का भी ऑर्डर दे दिया. मैंने तुरंत मना किया.

“मैं समोसा नहीं खा पाउँगा...”

“अरे खाओ...ये सब यहाँ रोज होता है. छोटी मोटी बातें हैं...टेंशन मत लो. चांप के खाओ.”

मैं कुछ नहीं बोला और समोसा खाने से बचने के लिए मैंने पास की गुमटी से एक गोल्ड फ्लेक लेकर सुलगा ली. उसने मेरी ओर दया भरी नज़रों से देखा जिसमे भाव था कि ‘मेरी कितनी भी कोशिशों के बावजूद तुम असली पत्रकार नहीं बन सकते.’ मेरे चेहरे पर न चाहते भी भाव आ गया कि ‘मुझे बनना भी नहीं असली पत्रकार, मैं अपने काहिलपने में बहुत खुश हूँ.’

लेकिन दुखद पहलू ये रहा कि महीनों दौड़ कर इस तरह मेहनत करने के बाद भी उस अखबार ने वादे के मुताबिक उसे पैसे नहीं दिए. जब भी तनख्वाह मिलने का समय आता, उसे टाल दिया जाता और जब वह ज्यादा जिद करता तो उसे कभी 500 और कभी 1000 रुपये थमा दिए जाते. मेरी याद्दाश्त अगर धोखा नहीं खा रही तो अभी भी उस अखबार पर अर्बेन्द्र के बहुत सारे पैसे बाकी हैं. पगार देने में की गयी हीला-हवाली ने उसके काम करने के जज़्बे पर असर डाला था. वह अक्सर निराश सा रहता और कई बार बातों-बातों में कहता कि वह यह फील्ड छोड़ने के बारे में सोच रहा है. कई बार निराशा हद से बढ़ने पर वह शंकरगढ़ अपने गांव चला जाता और वहाँ से आकर हमें डॉक्यूमेंट्री के विषय बताता. वह कहता कि उसके गांव में ऐसे बहुत से मुद्दे हैं जिन पर अच्छी डॉक्यूमेंट्री बनायी जा सकती है. मुझे  उसके साथ का पहला अनुभव याद आ जाता और मैं साफ मुकर जाता. हालाँकि मोर्चरी वाले मुद्दे पर मैं डॉक्यूमेंट्री बनाने की सोच रहा था और विवेक से इस मुद्दे पर मेरी बात भी चल रही थी. इसी बीच उसने अपना दुखड़ा गिरीश सर से रोया या उसको कुछ और संपर्क मिल गए, मुझे उतना स्पष्ट तो याद नहीं कि कैसे लेकिन उसे यूनाइटेड भारत में फ्रीलांसिंग करने का मौका मिल गया. उसे कुछ साहित्यकारों के साक्षात्कार , कला साहित्य टाईप के किसी पृष्ठ के लिए लेने थे और इसके लिए उसने मेरी मदद भी मांगी. मैंने उससे कहा कि मैं हमेशा उसके लिए तैयार हूँ.

इधर 'मुखातिब' की गोष्ठियों की बाकायदा शुरुआत हो चुकी थी. 2007 के किसी महीने में एक रविवार कुछ लोगों की उपस्थिति में मुरलीधर जी ने ‘मुखातिब’ की पहली कहानी ‘खोखल’ का पाठ किया जो बाद में कथादेश में छपी. पांच छह लोगों से शुरू हुआ ‘मुखातिब’ का कारवाँ ऐसा चला कि एक दिन ऐसा भी आया जब इलाहाबाद का कोई साहित्यकार ऐसा नहीं बचा था जिसने ‘मुखातिब’ में शिरकत ना की हो. कुछेक ऐसे साहित्यकार जो आने में असमर्थ थे जैसे शिवकुटी लाल वर्मा, ‘मुखातिब’ उनकी कविताओं पर गोष्ठी करवाने उनके घर पर भी पहुंचा. शुरुआत में हिमांशु जी, मुरलीधर जी, सत्यकेतु जी के अलावा जो दो और नए लोग इस नेक काम के लिए जुड़े थे उनमे कैलाश जी और देवेन्द्र जी प्रमुख थे. देवेन्द्र जी साहित्य प्रेमी थे और वे ‘बेली रोड’ स्थित जिस स्कूल में पढ़ाते थे, उनके सौजन्य से उसी स्कूल को हर दूसरे रविवार ‘मुखातिब’ की गोष्ठी के लिए चुना गया. यहाँ से इलाहाबाद में मेरे बिताए गए दिनों को दो भागों में बांटा जा सकता है. पूर्व कैलाश काल और उत्तर कैलाश काल, यानि कैलाश जी से मिलने से पहले का मेरा इलाहाबाद प्रवास और कैलाश जी से मिलने के बाद का इलाहाबाद प्रवास. कैलाश जी इलाहाबाद के सबसे सज्जन आदमी थे और उनकी सज्जनता का हुलिया , पीने के पहले और पीने के बाद कुछ इस तरह से आपस में घुलता मिलता था कि उसे अलगाना मुश्किल है. मैं अगर थोड़ा विस्तृत ढंग से समझाने की कोशिश करूँ तो यही कि सज्जन तो वह पीने के बाद भी रहते थे और वही मीठी बातें पीने के बाद भी करते थे , लेकिन यदि कोई चुस्त मुस्तैद आदमी रहे तो पकड़ लेगा कि पीने के बाद हर मीठी बात के बाद सच बोल कर उसका खंडन भी करते थे. प्राइमरी का अध्यापक होने के साथ-साथ वह ज्ञानवाणी में भी काम करते थे और उनकी आवाज़ और उच्चारण एकदम बेदाग और गरिमापूर्ण थी. उनकी ज़िंदगी की असली कहानी ऐसी थी कि वह बड़ी-बड़ी कल्पनाओं पर भारी पड़ती थी.

                                                                                                               क्रमश ......

                                                                                                    प्रत्येक रविवार को नयी किश्त 

संपर्क - 

विमल चन्द्र पाण्डेय 
प्लाट न. 130 - 131 
मिसिरपुरा , लहरतारा 
वाराणसी , उ.प्र. 221002

फोन न. - 09820813904
         09451887246

फिल्मो में विशेष रूचि 




9 टिप्‍पणियां:

  1. maja aa gaya ..

    अनुज ने एक जलती नज़र फौजी पर डाली और उन्हें जीवनदान देता हुआ कराहता कमरे में चला आया. यह वही अनुज था जिसका नाम कालांतर में ‘बाबा’ पड़ना था और जिसके ऊपर ‘बाबा एगो हईये हउयें’ कहानी लिखी जानी थी.

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  2. लीना मल्होत्रा राव10:52 am, जून 17, 2012

    एक पिच्चर की तरह दृश्य आँखों के सामने से गुजरते हैं.. बहुत आनंद आ रहा है.. किसी कहानी जैसा. शुक्रिया.

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  3. उन दिनों रचनामकता से लबरेज़ कई लोगों से मिलने के बाद मैंने....
    फरवरी को बसंत और जुलाई को सावन की तरह जीना सीखा.
    सचमुच वो बहुत उपजाऊ और जीवंत समाया था...इन सुखद पलों को सजोने का शुक्रिया विमल!
    विमल सचमुच यारबाज आदमी है (मैंने सही शब्द इस्तेमाल किया....यारबाज न की यारबाश)

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  4. वाकई विमल का संस्मरण बेहतर बन पड़ा है. इसे पढते हुए कहानी जैसी ही अनुभूति हो रही है. विमल की मुखातिब की कुछ गोष्ठियों में मैंने भी शिरकत की थी. और उनसे परिचय का क्रम वहीं पर शुरू हुआ था. विमल को बधाई और बेहतर संस्मरण पढवाने के लिए आपका आभार.

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  5. Mujhe laga tumhein itni saari baatein yaad nahi hogi, lekin tumhein to wo bhi yaad hain jo mai shaayad bhool hi gaya tha... mazaa, hansi aur thoda gussa bhi aa raha hai...aage ke liye utsukta bani huyi hai...

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  6. मजा आ रहा है...हर बार की तरह

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  7. aapki kahaniya itani jivant lagti hai jise mai kahani nahi chalcitr dekh rahi hoo behatrin

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