रविवार, 10 जून 2012

विमल चन्द्र पाण्डेय का संस्मरण - छठीं किश्त

                 
                                विमल चन्द्र पाण्डेय  

पिछली किश्त में आपने पढ़ा कि विमल चन्द्र पाण्डेय एक तरफ इलाहाबाद में यू.एन.आई. की नौकरी से जूझ रहे होते हैं , वही दूसरी तरफ उनके मित्रों की सर्किल है , जो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में व्यस्त है | यह अलग बात है , कि इस तैयारी के दौरान वे किताबों से अधिक  जीवन के विविध पक्षों को रच रहे होते हैं | कोई पाक कला में प्रवीण होना चाहता है , तो किसी को शारीरिक सौष्ठव की अधिक चिंता है | ...और अब आगे ....

                
                        प्रस्तुत है विमल चन्द्र पाण्डेय के संस्मरण 
               शहरों से प्यार वाया इलाहाबाद -मेरी जिंदगी के सबसे उपजाऊ साल 
                                 की छठीं किश्त 
                                      

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यूएनआई के उत्तर प्रदेश के ब्यूरो चीफ सुरेन्द्र दूबे जी थे और लखनऊ ऑफिस में बैठते थे | सब कुछ ठीक चल रहा था | मैं थोड़ी नौकरी और थोड़ी मस्ती करता रहता कि अचानक उनका महीने भर बाद धमकी भरा फोन आता | वह कहते कि इलाहाबाद बड़ा सेंटर है और वहाँ से बहुत सारी ख़बरें निकल सकती हैं | मैं हामी भरता | वह कहते कि वहाँ एक सेंट्रल यूनिवर्सिटी है, एक सेंट्रल रेलवे है और एक सेंट्रल कल्चरल सेंटर है जहाँ से हर रोज़ एक्सक्लूसिव स्टोरीज निकाली जा सकती हैं, मैं फिर से हामी भरता | वह कहते कि जियालाल बहुत काहिल आदमी हैं और मैं उनके नक़्शे कदम पर न चलूँ, मेरी उम्र अभी मेहनत करने की है और मैं जम के मेहनत करूँ, मैं फिर से हामी भरता तो वो मेरी नीयत समझ जाते और डाँटते हुए कहते कि मैं एक नियम बनाऊं कि अब से हर हफ्ते मैं कोई स्पेशल स्टोरी करूँगा वरना वो मेरा ट्रान्सफर कहीं भी करा सकते हैं | मैं फिर से हामी भरता | कम से कम जियालाल जी से मैंने ये एक चीज तो सीख ही ली थी कि कोई काम किया जाए या नहीं हामी ज़रूर भरी जाए | एक तरफ लखनऊ ऑफिस से आये फोन मुझे बताते कि मैं जियालाल जी की तरह कोरम पूरा करने वाली पत्रकारिता न करूँ तो दूसरी तरफ जियालाल जी मुझसे कहते कि मैं बहुत ज़्यादा परेशान न हुआ करूँ | एजेंसी में आलतू फालतू खबरें नहीं चलतीं, मैं सिर्फ़ बड़ी और कायदे की ख़बरों पर नज़र रखूं और घर जाकर आराम करूँ | इधर मैं परेशान रहता था कि आखिर बड़ी खबर कौन सी है क्योंकि मेरी समझ न जियालाल जी से मिलती थी न लखनऊ ऑफिस वालों से |

छोटे छोटे झटके तो पत्रकारिता ने मुझे कई दिए थे , लेकिन जो सबसे बड़ा झटका था , वह 2007 के किन्हीं अंतिम महीनों में लगा था , जब मुझे लगने लगा था कि मुझे ये फील्ड छोड़ देना चाहिए , क्योंकि मैं अपनी ऊर्जा इससे लड़ते हुए बर्बाद नहीं कर सकता | सुपरस्टार अमिताभ बच्चन की माँ तेजी बच्चन का देहांत हो गया था और वह संगम में उनकी अस्थियां विसर्जित करने आने वाले थे | उसी समय वरिष्ठ साहित्यकार अमरकांत जी को साहित्य अकादमी दिए जाने की घोषणा हुई थी | मुझे लखनऊ से फोन करके एक दिन पहले से चेतावनी दी गयी कि मैं अमिताभ की पूरी खबर कवर करूँ और कम से कम 3 – 4 स्पेशल स्टोरीज निकालूँ | मैंने एक स्टोरी पहले से बना ली थी जिसमें लगभग सारी ज़रुरी बातें थीं | और इसमें ज़रुरी था क्या ? यही कि किस पंडित ने सारे संस्कार किये और उनके साथ कौन-कौन से वीआईपी मौजूद थे, कहाँ कहाँ ठहरे और कब कैसे निकले | आज की डेट में पत्रकारिता की जो हालत है उसमें मुझे इस स्थिति पर अधिक आश्चर्य नहीं होगा लेकिन एक तो समय आज से पांच साल पहले का था और दूसरे यह कि मैं एक नया आदर्शवादी टाइप का पत्रकार था , जिस पर सिर्फ़ हंसा जा सकता था | मैं खबर बनाने के बाद सत्यकेतु जी के साथ अमरकांत जी के घर एक विस्तृत इंटरव्यू के लिए चला गया कि जब भी मुझे पता चलेगा कि अमिताभ जी ने अस्थि विसर्जन की प्रक्रिया पूरी कर ली है, मैं एक दो डिटेल्स डाल कर खबर भेज दूँगा | चलिए मान लेते हैं कि अमिताभ वाली खबर ज़्यादा बिकती और अमरकांत का साक्षात्कार लेने जाना मेरा खुद का स्वार्थ था लेकिन जो भी था मैं अमरकांत से मिलने के इस दुर्लभ पल को नहीं छोड़ सकता था | जब मेरी पोस्टिंग इलाहाबाद में हुई थी तो मुझे दो लोगों से मिलने का ज़बरदस्त उत्साह था हालाँकि मुझ कम सामान्य ज्ञान वाले आदमी को वहाँ पहुँच कर पता चला कि मेरे प्रिय कवि कैलाश गौतम का तो मेरे पहुँचने के पांच महीने पहले ही देहांत हो चुका है. ये मेरे लिए एक सदमे की तरह था, उनके अनगिनत प्रशंसकों की तरह मुझे भी पता नहीं क्यों लगता था कि मैं उन्हें बहुत निकट से जानता हूँ | कैलाश गौतम, हरिशंकर परसाई और ओशो के साथ उन चंद लोगों में से हैं जिनसे मिलने कि अधूरी इच्छा लिए बिना ही मुझे मरना होगा | खैर, मैं ‘डिप्टी कलक्टरी’ , ‘दोपहर का भोजन’ , ‘ज़िंदगी और जोंक’ और ‘हत्यारे’ के उस लेखक से मिलने जा रहा था जिसकी किताबें कच्ची उम्र के बाद , कुछ समझ आने के बाद भी, जब भी पढ़ीं, हर बार यही लगा कि लेखन में सहजता का कोई विकल्प नहीं है, न हो सकता है | वो अपनी रचनाओं की तरह ही सहज इंसान के रूप में मुझसे मिले | सत्यकेतु जी उनसे मिलते रहते थे लेकिन मेरे लिए ये पहला मौका था | अमरकांत जी ने सत्यकेतु की उसी समय प्रकाशित कहानी ‘अकथ’ पर उन्हें डांटा कि उन्होंने नायक के शुरुआती दिनों में उसे इतना क्रन्तिकारी क्यों दिखाया है, यह अननेचुरल लगता है | सत्यकेतु जी ने मुस्करा कर उनका साक्षात्कार शुरू किया और मैं सोचने लगा कि काश ! मेरी भी कोई कहानी पढ़ के मेरे इस पसंदीदा लेखक ने डांटा होता तो मुझे भी मोक्ष मिल गया होता |

साक्षात्कार शुरू ही हुआ था कि मेरे पास लखनऊ से फोन आने शुरू हो गए कि अगर अब तक विसर्जन न हुआ हो तो ये ही खबर भेजी जाए कि ‘अमिताभ के चाहने वालों की भीड़ उमड़ी’ या ‘फलां चिलं की उपस्थिति में अमिताभ पहुंचे संगम’ आदि आदि | मैंने कहा कि पल पल की खबर रखना तो चैनलों का काम है तो मुझे कहा गया कि कई चैनल भी हमारे सब्स्क्राईबर हैं जो ऐसी ख़बरें मांग रहे हैं | मैंने बताया कि मैं महान लेखक अमरकांत का साक्षात्कार ले रहा हूँ जो साहित्य अकादमी मिलने के बाद बहुत ज़रुरी है | मुझसे कहा गया कि ये कोई खबर नहीं है और मैं जल्दी से संगम जाकर अमिताभ से सम्बंधित खबर प्रिओरिटी बेसिस पर भेजूं | मैंने पता किया तो मालूम हुआ कि अभी विसर्जन नहीं हुआ था | मैंने अपना फोन स्विच ऑफ किया और अमरकांत जी के साक्षात्कार के दुर्लभ पलों में डूब गया | इसके बाद जब मैंने डिटेल पता की तो विसर्जन थोड़ी देर पहले हुआ था और मैंने अपनी ख़बरों में तथ्य डाल कर भेज दिया | कहना न होगा कि इस खुन्नस में अमरकांत जी वाली खबर पता नहीं वहाँ से भेजी गयी या उसका क्या किया गया | मुझे अगले दिन के अपने सब्स्क्राईबर अख़बारों में मेरी स्टोरी से सम्बंधित कुछ भी कहीं देखने को नहीं मिला | मुझे पहली बार अपनी नौकरी में इतना गुस्सा आया कि मैंने अगले तीन चार दिन कई महत्वपूर्ण ख़बरें मिस कीं और ज़रूरत के समय अपना फोन स्विच ऑफ कर दिया | ये मेरी लक्जरी थी और इतनी ही मेरी विरोध जताने की सीमा भी | मैं चाह कर भी अपनी नौकरी को सीरियसली नहीं ले पा रहा था और इन सब दिनों के बहुत पहले, सालों पहले से कहीं ये दिमाग में रहता आया था कि मेरी हर नौकरी अस्थायी होगी और जब भी मेरा मन करेगा मैं उसे छोड़ दूँगा | जब भी ऐसे मौके आते मैं इसके समाधान सोचता और जब सोचता सोचता शून्य हो जाता तो कुछ पलायनवादी विचारों की शरण में जाता और सोचता कि मुझे वैसे भी साहित्य रचना है और फिल्ममेकिंग करनी है , इसलिए ये नौकरी जल्दी ही छोडनी ही है |

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हमारी एजेंसी घाटे में चल रही थी और तनख्वाह आने में अक्सर देर हो जाती थी | मेरे पास के पैसे महीने के अंतिम हफ्ते में खत्म हो जाते और मैं विवेक के साथ टहलता यही चिंता करता रहता कि जेब में पैसे नहीं हैं और काम में संतुष्टि नहीं है, पता नहीं लाइफ कैसे चलेगी | फिर मैं उसे बताता कि मैं जल्दी ही सब छोड़ छाड कर मुंबई जाऊंगा और कुछ फ़िल्में बनाऊंगा | विवेक इसके लिए मुझे कहता कि मुझे लोगों से थोड़ा मिलना जुलना चाहिए, बड़े लेखकों को फोन वगैरह करते रहना चाहिए ताकि नेटवर्क बने | कुछ बड़े लेखकों से शुरुआती उत्साह में मिलने का मेरा अनुभव बहुत खराब रहा था और न चाहते हुए भी मैं अक्सर न जाने किस भौकाल में रहता था कि किसी से काम के लिए नेटवर्क बनाना मुझे दुनिया का सबसे बुरा काम लगता | विवेक का कहना था कि चूँकि मैं बनारसी हूँ, मेरा रवैया तन्नी गुरु वाला हो गया है और ये आगे मुझे बहुत नुकसान पहुँचायेगा | मैं यह कहता हुआ बात बदल देता कि मैं जो करूँगा, अपने तरीके से ही करूँगा,

“जहाँ पहुंचेंगे सब छलांगे लगा कर,
वहाँ पहुंचूंगा मैं भी मगर धीरे धीरे.”

दरअसल अपने मन में एक असाधारण छवि बना कर मैं जिन कुछेक बड़े लेखकों से मिला था वो छवि बहुत बुरी तरह इसलिए टूटी थी कि ये बड़े लेखक अपनी असल ज़िंदगी में एक सामान्य इंसान तक नहीं रह गए थे | उनकी रचनाओं ने उनके आसपास एक ऐसा अल्प-पारदर्शी मटमैले रंग का घेरा बना दिया था कि उन्हें अव्वल तो दुनिया दिखाई ही नहीं देती थी और कभी थोड़ी बहुत दिखती थी तो अपनी रचनाओं के रंग की ही | ये दिन में २५ घंटे अपनी रचनाओं के बारे में बात करते थे और इस बात को बार-बार दोहराने से इसे खुद ही सत्य मान बैठे होते थे कि वे अपने समय के सबसे प्रतिभाशाली लेखक हैं |

आत्ममुग्धता एक ऐसी बीमारी थी जिसके लक्षण शुरू शुरू में एकदम पता नहीं चलते थे और अंतिम चरणों में पता चलने पर इसका कोई इलाज दुर्भाग्य से मौजूद नहीं था.
अपनी रचनाओं के बारे में सोचना और उस पर बात करना बुरी बात नहीं लेकिन उसके असर के बारे जाने बिना खुद उसकी तारीफ करने में जुटे रहना, दूसरे सभी लेखकों को खुले मन से गरियाना, दुनियादारी के दखल से कटे रह कर सिर्फ़ लिखने को बड़ा महान काम मानना, ये सब कुछ ऐसे दृश्य थे जो मेरे मन में जुगुप्सा पैदा करते और मैंने फैसला किया कि इन बड़े लेखकों की मन में बनाई मेरी फर्जी छवि से खुश होने का विकल्प ज़्यादा सेहतमंद लगा | उनकी संगति से लाख गुना बेहतर उनकी किताबें होती हैं और मैं पढ़ता रहा |

समय मगर थोड़ा निराशा का था और उससे निकलने के रास्ते कम थे | एकमात्र रास्ता मेरे पास पढ़ने के बाद विवेक के साथ अच्छी फ़िल्में देखना का था | अपने कंप्यूटर पर हम अच्छी अच्छी फ़िल्में खोज खोज कर देखने की कोशिश करते | मातृभूमि जैसी अच्छी फिल्मों के साथ हम वेलकम जैसी बकवास फ़िल्में भी देखते | मैं कभी कभी पॉर्न फ़िल्में भी देखता और विवेक भी बिना रूचि के मेरा साथ देता | विवेक स्वास्थ्य के प्रति बहुत सजग आदमी था और जहाँ तक मेरा अंदाज़ा है कि वह पॉर्न फ़िल्में इसीलिए देखना पसंद नहीं करता था कि कहीं उससे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े | वह सुबह जागने के बाद हर काम में खर्च होने वाली कैलोरी का अंदाज़ा लगा लेता था और उसी हिसाब से खाना खाता था | किये जाने वाले काम में खर्च की जाने वाली कैलोरी और ग्रहण किये जाने वाले भोजन की कैलोरी के अंतर्संबंधों पर उसने मुझे चलते-चलते कई प्रवचन दिए थे | मैं गंभीर मुद्रा बना कर सुनता था कि कहीं वो बुरा न मान जाए कि मैं उसकी कीमती सलाहों की क़द्र नहीं कर रहा | वह बताता कि एक बार चुम्बन लेने में करीब 8-10 कैलोरी खर्च होती है और एक टमाटर खाने से 20 के आसपास कैलोरी मिलती है | तुम दिन में अगर अपनी प्रेमिका को 10 बार किस भर ही कर लो तो तुम्हें भोजन के अतिरिक्त पांच टमाटर खाने होंगे | मैं उसकी सलाहों से इतना आतंकित हो जाता कि कल्पना करने लगता कि मैं अपनी प्रेमिका से मिलने जा रहा हूँ और मेरी जेबों में टमाटर भरे हुए हैं | ये तो अच्छा था कि उस समय मैं प्रेम में नहीं था और मेरी एकाध पूर्व प्रेमिकाओं से अब मेरी दोस्ती भर ही रह गयी थी |

हमने किराये पर सीडी लाने के लिए एक दुकान चुनी थी जिसका मालिक एक खुशमिजाज़ पर अनिश्चित आदमी था और हमें ‘मित्र’ कहके बुलाता था | हमारी जानकारी के मुताबिक वह छह महीने पहले कोई और काम करता था और उसने ये सीडियों वाला धंधा अभी-अभी शुरू किया था | हम प्रायः हर शाम (जब मैं हाई कोर्ट की खबर भेज कर खाली हो चुका होता था) उसकी दुकान पर जाते और मैं उसके खजाने से कुछ ऐसी फिल्मों की तलाश करता जो मैंने न देखी हों और उन्हीं में से मुझे स्पर्श, इजाज़त और मंडी जैसी फ़िल्में मिल जातीं जिन्हें मैं खोज रहा होता था | इसके बाद कभी कभी मैं उससे ‘उन’ फिल्मों की मांग करता और ये हिदायत भी देता कि वो कुछ ऐसी फ़िल्में दे जिनमें बढ़िया कहानी के साथ कुछ दृश्य हों यानि सीधे सीधे हम पॉर्न फिल्म की नहीं एरोटिक फिल्मों की मांग करते थे लेकिन न तो हम उसे अच्छे से समझा पाते और न वह अच्छे से समझ पाता | वह बहुत मस्त और फुर्तीला आदमी था और मेरे पॉर्न देखने के बावजूद न जाने क्यों मुझे सम्मान दिया करता था जबकि पॉर्न देखने वालों (और उसकी स्वीकारोक्ति करने) को तब भी और अब भी एक अजीब नज़रों से देखने का रिवाज़ है | दुकान पर कई ग्राहक उसकी सीडियों के डब्बे पलट रहे होते और वह फुर्ती से अन्दर जाता, कुर्ते में कुछ छिपा के लाता और जल्दी से मेरे हवाले करने के बाद बुदबुदाता, “अन्दर्र रक्क्खो, अन्दर्र रक्खो |” हमें कोई नहीं देख रहा होता न ही किसी को ये जानने की फुर्सत रहती कि हम कौन सी सीडी ले रहे हैं लेकिन दुकानदार उसे इतनी गुप्त चीज की तरह हमें देता कि घबरा के फटाक से अंदर रख लेते | वैसे ही किन्हीं दिनों में न जाने कैसे मैं ‘ओम शांति ओम’ की सीडी भी लेता आया जबकि न तो मेरी यह फिल्म देखने की इच्छा थी न विवेक की लेकिन शायद फिल्म बहुत चल रही थी और उसे हर तरफ बज रहे गानों से प्रेरित होकर सीडी वाले ने ही हमें प्रेरित किया कि हम यह धमाकेदार फिल्म ज़रूर देखें |

मैंने और विवेक ने ‘ओम शांति ओम’ देखना शुरू किया और हमें बार-बार पेशाब लगने लगी. कभी मैं बाहर जाता तो कभी विवेक | क्या बकवास है? हमने एक दूसरे से पूछा और बंद कर देने की इच्छा के बावजूद सिर्फ़ इस खबर की तस्दीक के लिए फिल्म देखते रहे कि आखिर ये हिट कैसे हो रही है | फिल्म के अन्त तक जाते जाते हम दोनों पक गए थे | मुझे उस समय नहीं पता था कि ये फिल्म मधुमती से प्रेरित है और अंतिम दृश्यों में जब दीपिका पादुकोण दिखाई पड़ी तो न जाने मेरे मुँह से कैसे निकल गया, “अरे ये असली वाली नहीं होगी, कहीं सचमुच की भूत न हो ये.” इस पर विवेक ने मुझे तुरंत डपटा, “अबे चुप रहो इतनी भी बकवास नहीं हो सकती |” खैर, फिल्म खत्म हुई और हमारे सामने ये राज खुला कि भईया ये तो एक भुतहा फिल्म थी | हम अपने दो ढाई घंटे गँवा के चुपचाप बैठे थे | फिल्म ने हमें सदमे में डाल दिया था | “ई साली हिट कैसे हो रही है ?” विवेक के इस प्रश्न का मेरे पास कोई उत्तर नहीं था | हमारा मूड खराब हो चुका था जिसे ठीक करने के लिए विवेक ने मेरी इच्छा के विपरीत कुछ ब्लू फ़िल्में देखीं और पाया कि बिगड़ा मूड और बिगड़ गया तो हम नन्हे अंडे वाले के यहाँ ऑमलेट खाने चले गए | यह वही नन्हे था , जो मुझे देखते ही तेज़ी से अधिक से अधिक हरी मिर्च काटने लगता था |

हम काफ़ी डिस्टर्ब रहे और दिन में कई बार हमने उसी फिल्म के बारे में बात की और शाहरुख के साथ फराह खान और अन्य को गालियाँ भी दीं | शाम को हमारा कल का बिगड़ा मूड इस बात पर राज़ी हुआ कि कुछ पीने के बाद वह ठीक हो जायेगा | हम कीडगंज में ही शराब की दुकान से शराब लेने वाले थे की सामने विश्वामित्र (जो बाद में अपने पड़ोसी सिनेमा हॉल काजल की तरह शहरों में आई ‘मॉल लहर’ में आकस्मिक बंदी की चपेट में आया) से ‘ओम शांति ओम’ का शाम का शो छूटा और विवेक हरकत में आ गया |

“आओ चलो जरा पता करें सबको कैसी लगी फिल्म |” उसने प्रस्ताव दिया जो मेरी समझ में नहीं आया | निश्चित रूप से विवेक वह फिल्म देख कर उससे अधिक डिस्टर्ब था और सुबह ही पता नहीं कहाँ कहाँ से खोज के लायी ख़बरें उसने मेरे सामने दुखी आवाज़ में सुनाई थीं कि इतने ही दिनों में फिल्म ने इतने का बिजनेस कर लिया है | मैंने जाने को मना किया |

“जाने दो बे, किसी को अच्छा लगे या खराब, हमसे क्या मतलब?”
तब तक वह विश्वामित्र में घुस चुका था और लोगों से बातें करने लगा था | उसके देखा देखी मैं भी घुसा और दर्शकों की राय जानने लगा |
“भईया कैसी है पिक्चरवा?” इस एक सवाल पे हमें जो जवाब मिले उनका बहुमत हमें चौंकाने वाला तो था पर हम चौंके नहीं | कितना चौकेंगे आखिर और कब तक ?
“अरे अभी देखे नहीं का, बहुते धांसू है.”
“हमसे का पूछ रहे हो में, जाय के देख लेओ.”
“बहुत मस्त पिक्चर है में, हम त दूसरी बार देख रहे हैं.”
“ठीके ठाक है.”
“सहरुख्वा लपूझन्ना लागत रहा लेकिन हिरोइनिया बहुत मस्त है. देख लेओ में धमाकेदार पिच्चर है.”

हम लोग पीने बैठे तो हमारी चिंता सिर्फ़ यही थी कि आखिर जनता को चीज़ें पसंद आयें इसका पैमाना क्या है | इस टॉपिक पे हम इतनी दुखभरी गंभीरता से चर्चा कर रहे थे कि दूबे जी बीच में आये और चर्चा में रस न देख कर थोड़ी देर बाद अपने कमरे में वापस चले गए |

                                                        
                                                          क्रमशः .......

                                                 प्रत्येक रविवार को नयी किश्त 



संपर्क - 

विमल चन्द्र पाण्डेय 
प्लाट न. 130 - 131 
मिसिरपुरा , लहरतारा 
वाराणसी , उ.प्र. 221002

फोन न. - 09820813904
         09451887246


फिल्मो में विशेष रूचि 





10 टिप्‍पणियां:

  1. विमल, आप अपनी कहानी भी उतने ही रोचक ढंग से लिख रहे हैं जितनी अपने पात्रों की लिखते हैं. इसे पढ़ते हुए मैं आपसे मिले बिना आपको अपने करीब महसूस कर रहा हूँ...

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  2. लीना मल्होत्रा राव2:12 pm, जून 10, 2012

    बहुत दिलचस्प .. कई जगह हंसी फूट गई.. जेबों में टमाटर की कल्पना.. और क्षोभ भी हुआ कि बाज़ार इतना हावी हो चूका है अमरकांत जी को छोड़कर अमिताभ ने किस रंग के कपडे पहने और किस गाडी से उतरे .. आँख में आंसू था या नही.. ये सब परोसना विमल जी जैसे प्रबुद्ध पत्रकार को भी पत्रकारिता से विमुख कर सकता है..और भी न जाने कितने.. ये दुखद है..अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी..

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  3. लेखन में सहजता का कोई विकल्प नहीं है, न हो सकता है | वो अपनी रचनाओं की तरह ही सहज इंसान के रूप में मुझसे मिले!- अमरकांत जी के लेखन के विषय में यह टिप्पणी विमल जी के मूल्यांकन की गंभीरता को प्रकट करता है. शाहरुख खान की फिल्मों के विषय में उनकी राय हम सबकी राय से मिलती जुलती है. मुझे तो कई बार लगता है कि लोग फ्रस्टेट होकर चाहते हैं कि जैसे मेरा मूड खराब हुआ वैसा ही आपका हो इसलिए शानदार प्रतिक्रियाएं देते हैं और यह प्रक्रिया चलती रहती है...
    हमारे छात्रावास डायमंड जुबिली में तो यह पुराना और सर्वाधिक प्रचलित फार्मूला था और इस झांसे में न फंसने के चक्कर में हम अच्छी फ़िल्में भी कई बार मिस कर देते थे...
    बहुत अच्छा लग रहा है पढ़ना ...
    अगले अंक का इंतज़ार रहेगा...

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  4. बेनामी1:11 am, जून 11, 2012

    वह बताता कि एक बार चुम्बन लेने में करीब 8-10 कैलोरी खर्च होती है और एक टमाटर खाने से 20 के आसपास कैलोरी मिलती है | तुम दिन में अगर अपनी प्रेमिका को 10 बार किस भर ही कर लो तो तुम्हें भोजन के अतिरिक्त पांच टमाटर खाने होंगे | मैं उसकी सलाहों से इतना आतंकित हो जाता कि कल्पना करने लगता कि मैं अपनी प्रेमिका से मिलने जा रहा हूँ और मेरी जेबों में टमाटर भरे हुए हैं |
    Zabardast....

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  5. बेनामी9:14 pm, जून 12, 2012

    आप बहुत अच्छा लिखते हैं और आप उन चंद युवा लेखकों में हैं जिनकी हर रचना हमारे पूरे परिवार में पढ़ी जाती है, आपके संस्मरण भी बहुत गहराई लिए हुए है और सच मानो तो इसमें अपने समय कि धडकन मौजूद है लेकिन क्या पॉर्न फिल्म देखना और फिर उसे आम भी कर देना आप जैसे संवेदनशील लेखकके लिए उचित है ? क्या इससे पढ़ने वाले पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा ? आप बेहतर बता सकते हैं लेकिन कृपया आप अच्छी और मन को सुकून पहुँचाने वाली बातें लिखें तो पाठकों का और स्नेह आपको मिलेगा.
    आपका देवेन्द्र

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  6. देवेन्द्र जी .....कहानी लेखन का कुछ भी हो...संस्मरण में इमानदारी जरुरी है .....मजा आ गया ....

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  7. issme pichhale 3 k apeksha km masti rahi pr sarthakata rahi....

    thoda marmik suruaat thi pr jate jate anandit kr diaya...

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