सिताब दियारा ब्लाग पर आज युवा कवि प्रदीप
त्रिपाठी की कवितायें .....
एक ....
किसी का न मिलना
मिलने की खुशी में
किसी का न मिलना
उतरते हुए ट्रेन से
किसी चीज के छूटने के डर जैसा लगता है
इस तरह का मिलना
विचारों का मिलना नहीं
बल्कि
बंद दरवाजे की खोई हुई चाभी के
अचानक मिलने जैसा है
यह मिलना
किसी अदब का मिलना नहीं
बल्कि
गणित के किसी भूले हुए फार्मूले के
अचानक याद आने जैसा है
इस तरह के मिलने की खुशी
किसी के मिलने की खुशी
में न मिलने जैसा है
या
भीड़ में किसी नन्हें बच्चे के
खो जाने जैसा
या
सबका एक साथ मिलना
कोई बड़ा हादसा टल जाने जैसा
किसी का न मिलना
उतरते हुए ट्रेन से
किसी चीज के छूटने के डर जैसा लगता है
इस तरह का मिलना
विचारों का मिलना नहीं
बल्कि
बंद दरवाजे की खोई हुई चाभी के
अचानक मिलने जैसा है
यह मिलना
किसी अदब का मिलना नहीं
बल्कि
गणित के किसी भूले हुए फार्मूले के
अचानक याद आने जैसा है
इस तरह के मिलने की खुशी
किसी के मिलने की खुशी
में न मिलने जैसा है
या
भीड़ में किसी नन्हें बच्चे के
खो जाने जैसा
या
सबका एक साथ मिलना
कोई बड़ा हादसा टल जाने जैसा
दो ....
नहीं करना चाहता हूँ! संवाद
अब नहीं करना चाहता हूँ..
मैं
तुम्हारी कविताओं से किसी भी तरह का संवाद
एक लंबे अरसे से सुनते-सुनते
तंग आ चुका हूँ.. मैं
तुम्हारे इन अजनबी बीमार
बूढ़े शब्दों को
मुझे अच्छी नहीं लगती
तुम्हारी किसी एक उदास शाम की कल्पना
बार-बार सोचता हूँ
आखिर क्यों नहीं बनता है
तुम्हारी कविताओं में प्रेम का कोई एक चित्र
या कोई जिज्ञासा
जिसे मैं थोड़ी देर तक गुन-गुनाकर चुप हो सकूँ
क्यों नहीं झलकती है कविताओं में तुम्हारी
उम्र
तुम्हारी इच्छाएँ ,वासनाएँ
नहीं बजता है गीत-संगीत या कल-कल की कोई एक धुन
कभी नहीं दिखते हैं इस तरह के
कोई भी प्रयास या कोशिशें।
मुझे दिखते हैं तुम्हारी कविताओं में
सिर्फ और सिर्फ
ढेर सारे ... अल्पविराम, कामा, प्रश्नवाचक चिह्न
या फिर सदियों से चले आ रहे कुछ लंबे अंतराल
जिसे देखकर मुझे हो जाना पड़ता है
अंततः निःशब्द ...
तीन
....
पेशावर
के बच्चों के प्रति
बच्चों ने नहीं पढ़ी थी
कोई ऐसी 'मजहबी' किताब
अथवा 'धर्म-ग्रंथ'
जिसमें लिखा हो
बम, बारूद अथवा अचानक अंगुलियों से फिसल जाने वाली
संवेदनहीन, बंदूक की गोलियों की अंतहीन कथा
ऐसी कोई भी किताब नहीं पढ़ी थी,
अब तक, बच्चों ने
बच्चों ने नहीं बूझी थी ऐसी कोई जिहादी-पहेली
ऐसा कुछ भी, नहीं सीखा था
इन बच्चों ने।
बच्चों में बहुत 'भय' था
सिर्फ इसलिए कि
बच्चे जानते थे
कि
वे 'बेकसूर हैं....
कोई ऐसी 'मजहबी' किताब
अथवा 'धर्म-ग्रंथ'
जिसमें लिखा हो
बम, बारूद अथवा अचानक अंगुलियों से फिसल जाने वाली
संवेदनहीन, बंदूक की गोलियों की अंतहीन कथा
ऐसी कोई भी किताब नहीं पढ़ी थी,
अब तक, बच्चों ने
बच्चों ने नहीं बूझी थी ऐसी कोई जिहादी-पहेली
ऐसा कुछ भी, नहीं सीखा था
इन बच्चों ने।
बच्चों में बहुत 'भय' था
सिर्फ इसलिए कि
बच्चे जानते थे
कि
वे 'बेकसूर हैं....
चार ...
यह जो मनुष्य है
यह, जो मनुष्य है
इसमें
सर्प से कहीं अधिक विष है
और
गिरगिट से अधिक कई रंग
दोनों का एक साथ होना
अथवा बदलना
मनुष्य, सर्प और गिरगिट के लिए तो नहीं
परंतु
मानव-सभ्यता के लिए घातक है।
पांच ...
सच कहूँ तो चुप हूँ
सब के सब...
मिले हुए हैं ।
नाटक के भी भीतर
एक और नाटक खेला जा रहा है।
हम, सब ...
एक साथ छले जा रहे हैं
'क्रान्ति' और 'बहिष्कार'
के इन छद्मी आडंबरों के तलवों तले।
अभिव्यक्ति के तमाम खतरे उठाते हुए भी
मैं आज
'नि:शब्द' हूँ
सच कहूँ तो
चुप हूँ
कारण यह.
कि मेरे 'सच' के भीतर भी एक और 'अदना सा सच' है
कि
'मैं' बहुत 'कायर' हूँ।
मिले हुए हैं ।
नाटक के भी भीतर
एक और नाटक खेला जा रहा है।
हम, सब ...
एक साथ छले जा रहे हैं
'क्रान्ति' और 'बहिष्कार'
के इन छद्मी आडंबरों के तलवों तले।
अभिव्यक्ति के तमाम खतरे उठाते हुए भी
मैं आज
'नि:शब्द' हूँ
सच कहूँ तो
चुप हूँ
कारण यह.
कि मेरे 'सच' के भीतर भी एक और 'अदना सा सच' है
कि
'मैं' बहुत 'कायर' हूँ।
परिचय और संपर्क
प्रदीप त्रिपाठी
शोध-अध्येता
(पी-एच.डी.)
महात्मा गांधी
अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा,
महाराष्ट्र 442001
Mob-08928110451
मैं आपके बलोग को बहुत पसंद करता है इसमें बहुत सारी जानकारियां है। मेरा भी कार्य कुछ इसी तरह का है और मैं Social work करता हूं। आप मेरी साईट को पढ़ने के लिए यहां पर Click करें-
जवाब देंहटाएंHerbal remedies
बढ़िया कविताएं हैं
जवाब देंहटाएंशुक्रिया !
हटाएंबढ़ियां......
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंBahut badhiya hamare blog pe bhi ek nazar de shayrana dil
जवाब देंहटाएंशुक्रिया शहवेज़
जवाब देंहटाएंअंतिम दोनों कविताएँ बड़ी अच्छी हैं। साहसिक स्वीकार ! तीसरी कविता भी ठीक है, लेकिन अंत आरोपित सा लग रहा है। दूसरी कविता को शायद मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। क्या आपने पूर्ण विराम, कौमा, प्रश्नवाचक अथवा अंतराल के महत्त्व को नकारा है? मुझे तो यह बड़े सार्थक लगते हैं। और पहली कविता में अच्छे बिंब हैं, लेकिन पहली चार लाइनों का नहीं मिलना कब मिलने में बदल जाता है, पता नहीं चलता!
जवाब देंहटाएंप्रदीप भाई बहुत बढ़िया... बस लिखते रहिए
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