प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर पद्मनाथ गौतम के संस्मरण
मैं, उस नगर की
कविता
की पहली क़िस्त
यह समय कब का है, इसका संकेत सन-संवत् से करने की जगह उन स्मृति-शेष बातों से कर रहा हूँ, जिनका नहीं होना ही
अब हमारे लिए युग-परिवर्तन का संकेत
बन चुका है। उस हिसाब से यह दौर तब का है जब दूरदर्शन ने अभी हमारे छोटे से कस्बे
में दस्तक भी नहीं दी थी तथा आकाशवाणी से प्रसारण प्रारंभ होने की सूचना देने वाली
मायावी धुन का जादू सर चढ़कर बोलता था। अब तक अमीन सयानी का बिनाका गीतमाला, सिबाका गीतमाला में
नहीं बदला था तथा बी.बी.सी. लंदन की खबरें गंगा
उठा कर बोले सच का पर्याय होती थीं । तब का समय जब हरक्यूलिस सायकल, मरफी मुन्ना रेडियो
और एच.एम.टी.-सोना घड़ी की तिकड़ी
से शादियों का दहेज बनता था तथा शादी के बाद दूल्हे की जगह समधी साहब को यह सुख
पहले प्राप्त होता कि वे साप्ताहिक बाज़ार के दिन कलाई में घड़ी बाँधकर, कंधे पर रेडियो
लटकाए हुए शान से सायकल पर बाज़ार करने निकलें। रसोईघरों में गैस-स्टोव की घुसपैठ
नहीं हुई थी तथा मिट्टी के चूल्हे से उतरी धुँआई चाय से सुबह हुआ करती थी । यात्री-परिवहन के कारोबार
में राज्यपरिवहन निगम की बादशाहत थी, जिसके टीन-कनस्तरों की दादागिरी के आगे सभी नतमस्तक थे। सड़कों के
किनारे बैठे धैर्यवान यात्री पन्द्रह-बीस किलोमीटर की यात्रा करने के लिए भी घण्टो तक बिना
शिकायत प्रतीक्षा कर लेते थे तथा बसों के दसियों बार
बैठ-बैठ कर उठ खड़े होने
वाले इंजनों की गर्जना सुनकर पाँच-सात किलोमीटर दूर से ही उनके आगमन की बिल्कुल सटीक
भविष्यवाणी की जा सकती थी। यह वही समय था जब सारे देश में साहित्यिक आंदोलन भी जोर
पकड़ रहा था। बाबा नागार्जुन उस बाघिन के ऊपर निडर होकर कविता लिख रहे थे जो पंजे
काढ़े किसी का भी मानमर्दन करने को उद्यत थी। प्रायः उसी काल में हमारे बैकुण्ठपुर
में भी समकालीन साहित्य का छोटा सा उपक्रम प्रारंभ हुआ। बैकुण्ठपुर अर्थात् मेरा
गृहनगर, छत्तीसगढ़ के उत्तरी
छोर पर अम्बिकापुर-मनेंद्रगढ़ मार्ग पर
स्थित कोरिया जिले का मुख्यालय, जो इस जिले के अस्तित्व में आने से पहले अविभाजित सरगुजा
जिले की एक उपेक्षित सी तहसील था और तब जिसकी जनसंख्या पाँच हजार से भी कम रही
होगी। इस मार्ग पर मील के पत्थर भी तब पीले नहीं अपितु हरे हुआ करते थे अर्थात् तब
यह मनेंद्रगढ़ से प्रारंभ होकर अम्बिकापुर में समाप्त हो जाने वाला उबड़-खाबड़ इकहरा
प्रादेशिक मार्ग ही था व आज के दोहरी देह वाले आरामदेह गुमला-कटनी राष्ट्रीय
राजमार्ग मार्ग में तब्दील नहीं हुआ था।
जब आपातकाल और उसके उत्तरयुग में देशभर में साहित्यिक
आंदोलन की लहर आई तो उस लहर से छिटक कर कुछ बूंदें इस नगर तक भी पहुँची और उन्हें
अपनी हथेलियों में सहेजा कवि जीतेंद्र सिंह सोढ़ी, कुरील जी, नेसार नाज़, जगदीश पाठक, रूद्र प्रसाद ‘रूप’ इत्यादि नवयुवकों ने। इनमें से अधिकांश युवक नौकरीपेशा थे व
बैकुण्ठपुर तथा इसके आस-पास के स्थानों में सरकारी दफ्तरों में कार्यरत थे। कोई तब
की सरकारी कोयला कम्पनी एन.सी.डी.सी. में काम करता था, तो कोई बैंक या किसी अन्य सरकारी नौकरी में। कुछ छोटे-मंझोले व्यापारी, पत्रकार और कुछ पढ़े-लिखे बेकार युवक भी
इस जमात में शामिल हो गए। एक वाक्य में मूल रूप से निम्न-मध्यम वर्ग के वे लोग जिनके जीवन का उद्देश्य
परिवार के लिए रोटी कमाना व भविष्य के लिए थोड़ी सी आर्थिक सुरक्षा इकट्ठा करना भर
था। इस नगर के मध्यवर्ग की दूसरी दुनिया के लोग।
दरअसल हर छोटे नगर के मध्यवर्ग में दो
समानांतर संसार होते हैं। ठीक हैरी पॅाटर के उपन्यासों के उस सहअस्तित्व वाले
काल्पनिक संसार की तरह जिसमें जादूगर और मगलू (जादू
नहीं जाने वाले लोग) लंदन शहर में एक साथ रहते रहते हुए भी एक-दूसरे
को जानते तक नहीं। कई बार तो लंदन के इन जादूगरों की अदृश्य गलियाँ मगलुओं के घरों
के बीच से होकर गुजरती हैं। हमारे बैकुण्ठपुर के मध्यवर्ग में भी ऐसे ही दो संसार
हुआ करते । एक तो वह जिसमें रहने वालों का एक-एक
घड़ी-पल दुकानों पर बैठ कर कपड़े काटने, किराना
तौलने, चिरौंजी-महुए
की खरीद कर गोदामों में भरने, सरकारी विभागों के ठेके
जुगाड़ने, राशन के कोटे हथियाने व छुटभइया नेतागिरी
आदि जैसे वे सभी काम करने में समर्पित होता, जिन्हें
एक वाक्य में नोटों की खेती कह सकते है। इसके अतिरिक्त इनको कुछ भी नहीं आता।
दूसरी दुनिया होती छोटे दुकानदारों, कर्मचारियों, पत्रकारों
आदि की, जिनकी धनलिप्सा सीमित होती है व मूल-भूत
आवश्यकताओं की पूर्ति के अतिरिक्त थोड़ा-बहुत धन गाढ़े दिनों के लिए
बचा ले जाएँ, यही इनके जीवन का लक्ष्य होता है। जहाँ
पहले वर्ग के मध्यवर्गीय इंटर तक पढ़कर भी संतोष कर लेते हैं, क्योंकि
इतना पढ़ लेना भी इनकी कारगुजारियों का हिसाब-किताब
रखने के लिए पर्याप्त होता है, वहीं दूसरी तरह के मध्यवर्गीय
नगर के दायरे में मौजूद शिक्षा संस्थानों में उपलब्ध पाठ्यक्रमों को प्रायः औसत के
आस-पास अंक अर्जित करते हुए पूरा कर लेते
हैं। इनमें से कुछ को तृतीय-चतुर्थ वर्ग की सरकारी नौकरी
मिल जाती है, तो कुछ पत्रकार, बीमा-एजेंट
आदि बन जाते हैं। कुछ छोटा-मोटा काम-धंधा
खोल लेते हैं, क्योंकि बड़े व्यवसाय के लिए न तो इनके
पास पूँजी ही होती है और न ही उसके लिए अनिवार्य छल-छिद्र
का ज्ञान। दोनों ही वर्गों के लोग साथ-साथ भी रहते हैं और एक-दूसरे
को निस्पृह भाव से देखते हुए अलग-अलग भी। यद्यपि सिवल सेवक
बाबुओं और राजदण्डी अधिकारियों का एक मध्य वर्ग और भी है, किंतु
यह सामान्यतः दर्प मिश्रित उच्चताबोध से पीडि़त वर्ग अपने-आपको
दोनो समूहों से ऊपर मानता है। वह वर्ग जो सिविल लाईंस नामक स्वर्ग की सरहद में
विचरण करके अपने आपको देवता समझ बैठता है, और
उनकी लिपिस्टिक-पाउडर पोते पत्नियाँ अपने आप को अप्सराएँ।
चूँकि अपने ही लोगों से कट कर बने इस अधिकार संपन्न समूह के समक्ष नतमस्तक होना
अन्य दोनों उपवर्गों की अनिवार्य विवशता है, इस
कारण आर्थिक रूप से मध्यवर्ग में होकर भी यह वर्ग उच्च हो जाता है।
मुद्दे पर आएं तो इस दूसरे दर्जे के
मध्यवर्गीय नौजवानों के समूह ने इस नगर में समकालीन लेखन की कवायद शुरू की। चूँकि
नगर का एकमात्र सरकारी ठिकाना- ’रामानुज क्लब’ सरकारी
अफसरों के रसरंजन के लिए ही प्रयोग में आता था, अतः
उठने-बैठने के लिए एक अदद स्थान तलाशते आखिरकार
इन्होंने ककउआ होटल को अपना ठिकाना बनाया। इसका नाम ककउआ होटल कैसे पड़ा यह चिंतन
का विषय है, परंतु जैसा कि इसके नाम से ही अनुमान हो
जाता है, यह कोई नामी-गिरामी
प्रतिष्ठान न होकर एक छोटी सी चाय-पकौड़ों की दुकान भर थी, जिसमें
मुहूर्त होने पर कभी-कभी बर्फी और पेड़े भी मिल जाते। इस के
बगल के थोड़े से हिस्से में एक पान का ठेला लगाकर पान-सिगरेट
बेचने का भी जुगाड़ था। यह पान का ठेला भीतर से एक छोटे से दरवाजे के माध्यम से
होटल से जुड़ा हुआ था तथा होटल का अभिन्न अंग था। यह विस्मय हो सकता है कि आखिर
ठेला कैसे किसी दुकान का अभिन्न अंग हो सकता है? दरअसल, बैकुण्ठपुर
में पान की दुकान को सदा से पान-ठेला ही कहा जाता रहा है, बावजूद
इसके कि हर पान की दुकान लकड़ी के चार खम्भों पर स्थाई रूप से खड़ी होती है और
ठेली तो कतई नहीं सकती। एक अंग्रेज लेखक ने भारत के बारे में अपने अनुभवों में
विशेषरूप से आश्चर्यबोध के साथ लिखा था कि यहाँ कतार में सबसे किनारे की दुकान पान-सेण्टर
हो सकती है और कतार के ठीक बीच की दुकान पान- कॅार्नर।
काश कि वे एक बार बैकुण्ठपुर से भी गुजर जाते, तब
शायद वे हमारे नितांत जड़, स्थाई संपदा के रूप में गिने
जाने वाले पान के 'ठेले' को
भी विश्वप्रसिद्ध कर देते।
बहरहाल, इसके
स्थापत्य-शिल्प का विषय बदल कर बात करें तो उस
जमाने में नगर के पुराने बस स्टैंड की इस छोटी सी दुकान के एक हिस्से में अमल-सुट्टे
के शौकीन इकट्ठे होते तथा दूसरी ओर सबके लिए खुले हिस्से में समकालीन साहित्य से
जुड़े रचनाकारों की बैठकें जमतीं। तब ककउआ होटल बैकुण्ठपुर के साहित्यकारों के
लिये वही महत्व रखता था जो बड़े शहरों के साहित्यकारों के लिए इंडियन कॅाफी हाउस
का हुआ करता। शाम को अपने-अपने काम-धन्धों
से निवृत्त साहित्यकार यहाँ इकट्ठे होकर कविता-कहानियों
की छान-फटक करते। धुएँ के छल्लों के बीच ‘एक
और कट चाय’ के बार-बार
दिये जाते आदेशों के साथ देर शाम तक यहाँ साहित्यकारों का जमावड़ा लगता।
साहित्यकारों के बीच नोंक-झोंक भी होती। विशेषकर नेसार
नाज़ और जगदीश पाठक के बीच की चुहलबाजी लोगों को आज भी याद है। यदि इनमें से एक
वागर्थ में छपी रचना पर इतराता तो दूसरा भीष्म साहनी की पत्रिका में छपने की शर्त
लगाकर जीत जाता। फिर शर्त की रकम से चाय-पकौड़े की पार्टी होती। वैसे
भी उस समय की आर्थिक परिस्थितियों में कवि-कोविद
अधिक बड़ा शौक कर भी नहीं सकते थे, बशर्त कि वो अपना घर न फूंक
दें। समय के साथ इस कश्ती में टेकचन्द नागवानी (अब
स्वर्गवासी), सेन जी आदि भी सवार हुए। टेकचन्द भी जगदीश
पाठक की चुहलबाजी का अभिन्न अंग थे। नितांत गंभीर मुखमुद्रा वाले टेकचन्द कभी बुरा
नहीं मानते तथा पाठक जी के छेडने पर हौले-हौले
सर हिलाते हुए मुस्कान बिखेरा करते। ये कहानी उस समय की है, जब
मैं अभी छोटा ही था और यह सारा साहित्य-पुराण सुनता-गुनता
रहता था।
इसी अंतराल में नेसार नाज़ का एक उपन्यास
प्रकाशित हुआ जो काफी चर्चित हुआ। यह और बात कि आज भले ही यह उनके लड़कपन की
प्रेमकथा का गुलशन नंदा की श्रेणी का लुगदी-उपन्यास
महसूस होता है, किंतु हमारी स्मृति में तो यह बैकुण्ठपुर
के साहित्य के पहले महत्वपूर्ण कदम के रूप में ही सुरक्षित रहा आया। इसी समय
कुरीलजी के साहचर्य में जीतेंद्र सिंह सोढ़ी जी ने भी नई कविता लिखना प्रारंभ किया, जिन्होने
बाद में सरगुजा और कोरिया के प्रगतिशील कवियों के बीच निस्संदेह अपनी एक अलग ही
पहचान बनाई। उनके हृदय में कम्युनिष्ट सोच का बीज भी इसी दौरान अंकुरित हुआ, और
वह ऐसा अंकुरित हुआ कि कालांतर में सोढ़ी जी कोयलांचल में साम्यवाद तथा उससे जुड़ी
संस्थाओं का प्रतीक बन गए। शनैः-शनैः ये लोग विभिन्न कारणों से
एक-दूसरे से दूर होते गए। कुछ स्थानांतरण की
वजह से, कुछ पत्नियों के प्रकोप से, कुछ
रोजी-रोटी के बोझ तले दबकर तो कुछ साहित्य से
समय-समय पर होने वाली विरक्ति के कारण भी। नगर
के साहित्य ने यदि इस बीच कुछ सबसे अधिक खोया, तो
वह थी नेसार नाज़ की रचनात्मकता। नेसार नाज़ की प्रभावशाली कविता-कहानियाँ
अब अतीत का विषय थीं जिसकी पीड़ा सारे नगर को थी। मोतियों जैसी लिखाई जो नेसार नाज
की पहचान थी, अब वह केवल निमंत्रण पत्रों पर नाम लिखने
तथा अदालती दस्तावेज बनाने के काम आ रही थी। ‘न
जाने किसकी नज़र लग गई नेसार को' - इस दुःख-बोधक
वाक्य के साथ आज भी पूरा नगर इस बात की गवाही देता है और अफसोस करता है।
इस समय तक बैकुण्ठपुर में श्वेत-श्याम
टेलीविजन सेटों के माध्यम से दूरदर्शन अपनी दस्तक दे चुका था। आकाशवाणी के
अम्बिकापुर प्रसारण केन्द्र से रेडियो प्रसारण प्रारंभ होने की सूचना देने वाली
जादुई धुन की गूँज कम हो रही थी और अब लोग प्रतीक्षा करते थे टेलीविज़न के पर्दे
पर एक वृत्त के चारों ओर घूमती हुई उन धूमकेतुनुमा आकृतियों का जो प्रसारण प्रारंभ
होने की सूचना देती थीं। प्रसारण नहीं हो रहा हो तो भी लोग श्वेत-श्याम
टेलिविजन सेट पर फुदकती साबूदानेनुमा बिंदियां देख कर ही प्रफुल्लित हो जाते। हाँ, लेकिन
अभी भी बैकुण्ठपुर रोड रेलवे-स्टेशन से होकर गुजरने वाली
रेलगाडि़याँ गाढ़ा-सोंधा धुआँ छोड़ने वाले स्टीम इंजनों
द्वारा ही खींची जा रहीं थीं तथा इस नितांत पिछड़े आदिवासी कोयलांचल में यात्री
गाडि़यों के लिए डीजल इंजनों के आगमन का मार्ग अभी प्रशस्त नहीं हुआ था। यह वही
समय था जब राज्य परिवहन निगम ने अम्बिकापुर से मनेंद्रगढ़ के बीच ’महाकाली-एक्सप्रेस’ नाम
की बस चलाई थी, जो इन नगरों के बीच की दूरी को ‘रिकॅार्ड
समय’ में तय करती व रास्ते में केवल बैकुण्ठपुर
में रुका करती। नगर में 'महाकाली एक्सप्रेस' की
समय की पाबंदी की प्रशंसा उस युग में ठीक वैसे की जाती थी, जिस
तरह से आज के दौर में राजधानी रेलगाडि़यों की।
इसी कालखंड में एक लंबे अंतराल के बाद
जगदीश पाठक, जो कि भारतीय स्टेट बैंक में कर्मचारी थे, पुनः
बैकुण्ठपुर स्थानांतरित हुए। तब उन्होंने पाठक-मंच
के माध्यम से नगर की साहित्यिक गतिविधियों को दोबारा एक नई दिशा दी। इसमें कोई दो-मत
नहीं कि बैकुण्ठपुर में साहित्यिक गतिविधियों के पीछे जगदीश पाठक की प्रेरणा सदैव
ही महत्वपूर्ण रही। पाठकजी एक व्यक्ति के रूप में भी और हास्य-व्यंग्य
के रचनाकार के रूप में भी नगरवासियों को अत्यंत प्रिय थे। लेकिन इस दौर में
गतिविधियों का केंद्र ककउआ होटल से हटकर कवि अजय नितांत की पान की दुकान और कचहरी
पारा में पाठकजी के निवास के इर्द-गिर्द केंद्रित हो गया था। इस
समय भोला प्रसाद मिश्र, विजय त्रिवेदी, अजय ’नितांत’,
बशीर अश्क़, शैलेन्द्र श्रीवास्तव, यादवेंद्र
मिश्रा, मेराज अली, राम
सिंह राजपूत इत्यादि कवि सक्रिय रूप से साहित्य से जुड़े थे। कुछ कवि एक ओर जहाँ
अपनी प्रतिभा के लिये जाने जाते तो दूसरी ओर कुछ कविता के साथ-साथ
दूसरी हरकतों के लिये भी चर्चित थे। बाद में इसमें अली अहमद फैज़ी, रशीद
नोमानी, शजात अली इत्यादि भी शामिल हुए। तब मैं
गोष्ठियों में जाकर इन सब की कविताएँ सुना करता था।
इनमें से एक कवि जो अविभाजित मध्यप्रदेश
के देवास के रहने वाले थे तथा बैकुण्ठपुर में नौकरी करते थे, मनोरंजन
का विशेष केन्द्र थे। ओज के कवि, ’जस-जस
सुरसा बदन बढ़ावा-दादा रे दादा’ की
तर्ज़ पर कहीं भी-कभी भी कविता सुनाने के लिए तैयार। उनसे
जुड़ा एक वाकया आज भी पेट पकड़ कर हँसने को मज़बूर कर देता है, जब
दुर्गा पूजा के मौके पर लोगों ने उन्हें लग्घे पर चढ़ा दिया और वे वहीं पंडाल
बाँधने के लिए रखे गए व्हालीबॅाल के रेफ्री-स्टैंड
पर चढ़कर कविता सुनाने लग पड़े। किसी उत्साही (यदि
मेरी स्मृति सही है तो स्वर्गीय पत्रकार गुलाब बघेल तथा संजय सोनी) ने
माइक-चोंगा भी जुगाड़ दिया। जनता ने समझा कि
कोई बड़ा कार्यक्रम है और आनन-फानन में सैकड़ों लोग मैदान
में इकट्ठे हो गए। तब के समय में जनता सहज ही तमाशबीन बन जाती थी अर्थात् डमरू
बजाते ही भीड़ का लगना तय होता था। इसकी वजह थी कि तब नगर में मनोरंजन के साधन
बहुत सीमित थे। नगर का इकलौता सिनेमाघर ’दुर्गा टाकीज़’ बन्द
हो चुका था। मुफ्त मनोरंजन का कोई भी कार्यक्रम हो, चाहे
एन.सी.डी.सी. मनोरंजन
क्लब के द्वारा मैदान में दिखाई जाने वाली फिल्में या सुपारीलाल की रामलीला या फिर
स्कूल-कॅालिजों के मिलन-मड़ई
अथवा वार्षिकोत्सवों का ही कार्यक्रम, हजार-पाँच
सौ आदमियों की भीड़ ऐसे ही इकट्ठी हो जाती थी। आवाज गूँजी तो यहाँ भी भीड़ जुट गई।
लेकिन दो-चार-चार
औल-फौल कविताओं के बाद जनता-जनार्दन
को समझ आ गया कि यहाँ तो कविता हो रही है और वह भी कतई ना-क़ाबिले
बर्दाश्त। अतः जितनी तेजी से भीड़ इकट्ठा हुई थी उतनी ही तेजी से उड़न-छू
भी हो गई। कुछ देर बाद किसी ने माइक बन्द कर दिया। फिर किसी ने बत्तियाँ भी बुझा
दीं, पर कवि थे कि रूकने का नाम नहीं। कुछ दूर
पर बैठे दुर्गा पण्डाल में ठेके पर डोमकच (नगाड़ा) बजाने
वाले चार ग्रामीणों को जो अपने ठिकाने पर थे और भागकर कहीं जा भी नहीं सकते थे, उन्होंने
घण्टों बगैर बिजली और लाउड-स्पीकर के ही कविताएँ सुनाईं।
अंत में उनसे वह स्टैंड भी छीन लिया गया जिस पर चढ़कर वे बैठे थे, तब
कहीं वह मज़बूरन रुकने को राजी हुए। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उत्साह से
कितने भरपूर हुआ करते थे उन दिनों के कवि।
खैर, इस
मंडली ने जो कुछ भी किया हो पर नगर में यदि कविता व साहित्य को जाना गया, तो
संभवतः इन्हीं लोगों के बाद। इस बिरादरी की सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि रही नगर के बस
अड्डे पर कवि नितांत की दुकान के सामने कविता-पोस्टर
का प्रदर्शन, जिसकी याद आज भी निवासियों के मन में बसी
है। मनेंद्रगढ़ से अम्बिकापुर जाने वाली हर बस यहाँ रूकती थी तथा उससे उतरने वाली
सवारियाँ एस.कुमार होटल में चाय के लुत्फ के साथ कविता
का भी आनंद उठातीं। लेकिन समय के साथ हुए साहित्यिक आंदोलन के क्षरण के साथ यहाँ
भी कविता के गंभीर रूप पर अब मज़ाहिया व सतही साहित्य की छाया पड़ चुकी थी। रचनाओं
के कंटेंट में मूल रूप से पाकिस्तान को गाली देना तथा युद्ध के लिये ललकारना, ईद
और होली के हिसाब से सेंवई-गुझियों की बातें, नल-बिजली
और राज्य परिवहन की तकलीफ के साथ-साथ प्रत्येक दशहरे नेताओं को
रावण का अवतार बताना, यही कविता की औसत हद थी। मान सकते हैं कि
इस दौर के कवियों ने कविता को जनता के मूल सरोकारों की जगह उसके प्रत्यक्ष मनोरंजन
से अधिक जोड़ा तथा इस फेर में वे मानदंड जो किसी कविता को साहित्य के इतिहास में
स्थान दिलाते हैं, लगभग किनारे ही रख दिए गए। इसी के
समानांतर जो साहित्य पास के कस्बे अम्बिकापुर में प्रगतिशील बिरादरी के द्वारा
लिखा-पढ़ा जा रहा था, वह
बैकुण्ठपुर में नदारद था। केवल जीतेंद्र सिंह सोढ़ी ही एकमात्र ऐसे साहित्यकार रहे
जिन्होंने साम्यवाद और प्रगतिशील लेखन का झण्डा एकला चलो की तर्ज पर अकेले उठाए
रखा। आज नगर के उस दौर की जो भी जनपक्षधर कविता जीवित है, वह
सोढ़ी जी की कलम से लिखी हुई ही है। अम्बिकापुर से प्रकाशित होने वाली विजय गुप्त
की ’साम्य’ जैसी
समकालीन साहित्य की जानी-मानी पत्रिका को इस दौर के
अधिकांश साहित्यकार अबूझ व बकवास का विशेषण दिया करते। मजे की बात कि ‘साम्य’ पुस्तिकाएँ
इन्हीं लोगों की आलमारियों में इनके बुद्धिजीवी होने की गवाही के रूप में शान से
में विराज़मान हुआ करती थीं। एक वाक्य में मूल रूप से यह नगर की कविता का छन्न-पकैया
रौंड़ (राउंड) था।
छन्न-पकैया रौंड़ डोगरी कवि सम्मेलनों में उस
दौर को कहते हैं जिसमें हँसी-ठिठोली की कविताएँ पढ़ी जाती
हैं और इसका सबसे ज्यादा इंतज़ार बच्चों को हुआ करता है।
इस काल में आकाशवाणी-अम्बिकापुर
के कार्यक्रम का अनुबंध हासिल कर लेना ही नगर के कवियों का लक्ष्य तथा काफी हद तक
उनकी लोकप्रियता का पैमाना बन गया था। कोई अगले और कोई पीछे के दरवाजे़ से, बस
किसी तरह एक अनुबंध हासिल कर लेना चाहता था। फिर तो छह-आठ
महीनों में इसकी पुनरावृत्ति होती रहती तथा वह निरंतर कवि बना रहता, प्रत्येक
प्रसारण के पूर्व आकाशवाणी से रचना प्रसारण की सूचना स्थानीय अखबार में छपवाकर।
किंतु इस कथन से आकाशवाणी का महत्व कम नहीं हो जाता। आकाशवाणी के अम्बिकापुर
केन्द्र की सरगुजा व कोरिया जिले की ग्रामीण जनता में बहुत गहरी पैठ थी। इसका एक
उदाहरण थी कवि भोला प्रसाद जी की सरगुजिहा बोली में लिखी कविता ‘बंदवा
बरात’ अर्थात विधुर विवाह जो रेडियो सुनने वाले
न जाने कितने ग्रामीणों की जु़बान पर सहज ही चढ़ गई थी। कवि जहाँ-जहाँ
जाते, इस कविता की फरमाईश हो ही जाती। अंत में
तो वे इसे सुना-सुना कर दुखी हो गए थे।
परंतु जैसा कि मनुष्य की ज्ञात प्रकृति है, उसके
इकट्ठे होने के स्थान पर मतभेद और मनभेद दोनो पहले ही आ धमकते हैं; यह
मंच भी इससे अछूता नहीं रहा। यह जमात भी कई विभाजनों का शिकार हुई, कभी
हिन्दी व उर्दू के नाम पर तो कभी किसी और वज़ह से। अंततः जगदीश पाठक जी के
मनेंद्रगढ़ स्थानांतरण के पश्चात् एक समय ऐसा आया कि नगर में साहित्यिक गतिविधियाँ
पूर्णतः शिथिल पड़ गईं। समूचा नगर बस यह कहता रहा गया- ’जब
पाठकजी थे, तब यहाँ पर कविता होती थी’।
इस पूरे अंतराल का सार यह मान सकते हैं कि
प्रगतिशील लेखन का जो पौधा ककउआ होटल में बीजा गया था, वह
अब लगभग मुरझा गया था। यह वह कालखण्ड था जब बैकुण्ठपुर रोड स्टेशन से गुजरने वाली
रेलगाडि़यों में कोयले से चलने वाले इंजनों की धकड़-छकड़
की जगह डीज़ल से चलने वाले इंजनों की गड़गड़ाहट ने ले ली थी। यह पिछड़ा इलाका शनैः-शनैः
अपनी जड़ता त्याग कर गतिशील होना प्रारंभ कर रहा था। ‘महाकाली
एक्सप्रेस’ को चुनौती देती कई बसें मैदान में आ चुकी
थीं, जिनमें ‘बादशाह
मेल’ सबसे अग्रणी, यद्यपि
नगर के रहवासी घडि़यों में ‘सवा-दो’ का
समय अब भी ’महाकाली’ के
बैकुण्ठपुर प्रस्थान से ही मिलाते थे।
लेकिन जगदीश पाठक के जाने से पैदा हुए इस
शून्यकाल में भी दो कवि रचानाकर्म में अनवरत लगे रहे- एक
तो कवि जीतेंद्र सिंह सोढ़ी, जो कभी रेडियो के माध्यम से तो
कभी मंच पर, सदैव ही सक्रिय रहे। कम्युनिष्ट पार्टी के
महासचिव होने के कारण वे मज़दूर आंदोलन से निरंतर जुड़े रहे व प्रगतिशील काव्य से
उनका जुड़ाव सहज ही था। सोढ़ी जी अच्छे कवि होने के साथ-साथ
बहुत अच्छे इन्सान भी हैं। उन्होंने कुछ बहुत गंभीर रचनाएँ लिखीं, जो
हमें आज भी याद हैं तथा हमारी पथ प्रदर्शक हैं। दूसरे कवि जो निरंतर रचनाकर्म में
लगे रहे, वे थे मेरे मामा भोला प्रसाद मिश्र अर्थात ‘अनाम
जी’। ब्राह्मणकुलोत्पन्न ‘अनाम
जी’ ने स्थानीय अखबार व आकाशवाणी के माध्यम से
नगर के कविता जगत में अपना अलग स्थान बनाया भी तथा उसे सुरक्षित भी रखा। शिक्षक
होने के साथ ही संगीतकार भी होने की वजह से शासकीय आयोजनों में इनकी विशेष पूछ-परख
थी। सरस्वती-वन्दना, अभिनन्दन-गीत
इत्यादि तो अनामजी के बिना होते ही नहीं थे। ’अनाम
जी’ आज भी नगर में सरगुजिहा कविता और कहानी के
पर्याय बने हुए हैं।
कहा जा सकता है कि एक लम्बे समय तक ये
दोनों कवि ही बैकुण्ठपुर में कविता को जीवित रखते आए। पाठक जी को गए हुए एक अरसा
हो गया था। इधर कुछ वर्षों तक पढ़ाई के सिलसिले में रीवा तथा सागर में रहने के बाद
सागर विश्वविद्यालय से अपनी स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी कर के मैं भी वापस आ चुका
था। सहस्त्राब्दि महोत्सव की तैयारी हो रही थी तथा तब तक टेलीविजन पर दूरदर्शन को
स्टार तथा जी चैनलों ने लगभग धकिया कर किनारे लगा दिया था। राज्य परिवहन अब अपने
कबाड़ हो चुके वाहनों के साथ बंद हो रहा था व निजी कंपनियों की रंग-बिरंगी
खूबसूरत बसें मनेंद्रगढ़-अम्बिकापुर मार्ग की
महारानियाँ बन चुकी थीं। यह बात और कि हर बार इनकी तंग सीटों पर बैठते ही हम राज्य
परिवहन की इफ़रात जगह वाली बसों को जरूर याद करते। ‘महाकाली
एक्सप्रेस’ और ‘बादशाह
मेल’ जैसे नाम अब बीते समय की कहानी बन चुके
थे। रेलगाडि़यों से डीजल के इंजन भी विदा ले रहे थे तथा उनकी जगह चलने वाले बिजली
के लोको हमें एक अलग ही युग में ले आए थे। अब हम अपने आप को ’विकसित’ महसूस
करने लगे थे। जमीन के सौदागरों की भाषा में कहिए तो इस इलाके की सोई पड़ी जमीन अब
जागने लगी थी।
इस समय तक मेरी नौकरी नहीं लगी थी तथा पास में केवल समय था। यह थोक में उपलब्ध समय अक्सर मुझे काटता व
मैं इसको। इसी क्रम में संयोगवश मेरी मुलाकात ताहिर आज़मी से हुई। पेशे से सहायक-शिक्षक, उर्दू की तालीम में
अव्वल और एक मस्तमौला इंसान। मूल रूप से आजमगढ़ के रहने वाले और सरगुजा-कोरिया में पले-बढ़े। आजमगढ़ में
सरगुजा तथा सरगुजा में आजमगढ़ के लिये मर मिटने वाले शख़्स। मेरे ही मुहल्ले में
एक छोटा सा खपरैल-मिट्टी वाला कमरा
किराए पर लेकर रहते थे। उन्होंने अपने उसी कमरे में खैनी घिसते हुए ग़ज़लों से
मेरा परिचय कराया। ताहिर मियाँ गज़ब के पढ़ाकू थे, ग़ालिब और कैफ़ी आजमी के अनगिनत अशआर से लेकर से
लेकर ‘तीसरी क़सम’ व ‘लाल पान की बेगम’ तक का एक-एक संवाद उन्हें
मुंहजबानी याद था। ‘तीसरी कसम’ के बड़े मुरीद, ‘’ए हो केतना सुन्दर
लिखा है’’- जि़क्र आते ही बोल
पड़ते। सैकड़ों ग़ज़लें और कताएँ उनकी जु़बान पर चढ़़ी हुई थीं। इतने बड़े शायरों
को इस कदर पढ़ने वाले ताहिर भाई को सबसे ज्यादा पसंद था तो मुनव्वर राणा का लिखा
यह सादगी भरा शेर -
अमीरों की हवस सोने की दूकानों पे फिरती है
ग़रीबी कान छिदवाती है, तिनके डाल लेती है।
जाहिर है कि ताहिर भाई जनवादी सोच के आदमी थे। ताहिर भाई पढ़ने के ऐसे कीड़े थे कि कुछ नहीं
मिलता तो मनोहर कहानियां, सुरेन्द्र मोहन पाठक और जेम्स हेडली चेइज़ ही घोंट कर पी
जाते। किसी से कोई दीवान माँग कर ले गए तो फिर वापस आना नामुमकिन। सैकड़ो किताबों
के ढेर में कहीं गुम । ज्यादा पूछने पर एक ही दादागिरी- ’अरे जनाब, दुनिया की सारी
किताबें मेरी ही तो हैं’। बाद में उन्होंने बैकुण्ठपुर में ही थोड़ी सी ज़मीन लेकर
घर बना लिया। घर भी बनाया तो अपने स्वभाव के अनुरूप, श्मशान भूमि के सामने प्रेमाबाग बगीचे में स्थित
ऐतिहासिक शिवमंदिर के पीछे ताहिर भाई का इकलौता मकान। वहाँ, जहाँ लोग दिन-दुपहरी जाने में भी
कतराते थे, उस जगह ताहिर भाई का
आठों-पहर का वास था। देर
रात तक मेरी और ताहिर भाई की बैठकें उस बगीचे में चला करतीं और लोग हमें भूत-भयार समझ कर डरते
रहते।
ताहिर भाई ने मेरी मुलाकात करवाई चचा रशीद नोमानी से। उम्र
तकरीबन साठ के आस-पास, दोहरा बदन और चेहरे
पर बेतरतीब बिखरी हुई दाढ़ी। हमेशा सफेद-कुर्ता पाजामा पहने रहने वाले नोमानी जी बहुत ही नेक-दिल और खुशमिज़ाज
इंसान थे। एक ऐसा शख़्स जो सारी उम्र अपनी परिस्थितियों से लड़ता रहा किंतु यह बात
कभी किसी पर जाहिर नहीं होने दी। बिहार के किसी गाँव से आकरनोमानी जी कोरिया जिले
में बस गए थे। पहले वे बैकुण्ठपुर के पास स्थित चरचा कॅालरी की एक मस्जिद के
हाफिज़ थे, फिर बैकुण्ठपुर में
लकड़ी की टाल चलाने वाले दिलदार व्यापारी नूरुल हुदा जी चचा नोमानी को बैकुण्ठपुर
ले आए, अपने घर के पास बनी
एक मस्जि़द में। उसी मस्जि़द के बाहर बनी दो दुकानों में एक चचा को दी गई थी।
उसमें उनकी छोटी सी किराने की दुकान खुली, जो दिन में उनकी दुकान होती तथा रात में
आशियाना। मैं व ताहिर भाई हर शाम बिलानागा पहुँच कर उनकी इकलौती खटिया पर डट जाते, टीन के डब्बे से
लेकर चन्नवा चबाते हुए। चचा ने बैकुण्ठपुर में ही एक छोटा सा घर भी बना लिया था, जहाँ उनका परिवार
रहा करता था। नगर के एक सिरे पर स्थित पेट्रोल-पंप के बगल में उनका घर था और दूसरे सिरे पर
स्थित पेट्रोल-पंप के बगल में उनकी
मस्जि़द, जिसके कि वे हाफिज़
थे। इन्हीं दो ठिकानों के बीच सीमित थी चचा नोमानी की दुनिया। कभी बीमार होते या
कोई ज़रूरी काम होता तभी घर जाते अन्यथा मस्जिद वाली दुकान में ही रहते। नगर से
बाहर तो बहुत कम ही जाते थे। नोमानीजी मालोजर से बहुत बड़े आदमी नहीं थे, लेकिन दिल के उतने
ही बड़े थे। मस्जि़द में पाँच वक्त की नमाज़ पढ़ाते, थोड़ा समय निकाल कर बच्चों को उर्दू वगैरह
सिखाते और उससे बचे समय में ग़ज़लें और हज़लें गढ़ते। चचा की सोच शानदार थी और सब
कुछ मुँहज़बानी याद;कोई डायरी नहीं, कोई दीवान नहीं।
अखबारों की कतरनों के अलावा शायद ही कहीं उनका लिखा कुछ मिल पाए। उनकी एक हज़ल के
शेर कुछ ऐसे थे -
मुझे तो अफ़्सरों की ये मुटाई ज़ह्र लगती है
ये उनकी शानो-शौकत औ बुराई ज़ह्र लगती है
जिसे दुनिया कहे अच्छा वही इन्सान है अच्छा
किसी के मुँह से खुद उसकी बड़ाई ज़ह्र लगती है।
इन पक्तियों से समझ आता है कि उनकी ग़ज़लें अथवा हज़लें
सीधी-सादी जुबान में लिखी
होतीं व उनमें अधिक लफ्फाज़ी नहीं होती थी। हाँ, यदि उन्होंने कोई बात ख़ालिस उर्दू में कह दी, तब फिर उसे ताहिर
भाई के अलावा और कोई नहीं बूझ पाता था। नोमानीजी बहुत ज्यादा महात्वाकाँक्षी भी
नहीं थे। वे बच्चों को हज़ल भी उतने ही मज़े से सुनाते, जिस तरह से शायरी की महफिल में ग़ज़लें। उनकी एक
और खास बात थी, वे अपनी दुकान पर
आने वाले हर मेहमान का स्वागत कुछ न कुछ खिलाकर ही करते थे, कभी बरनी से एक तिल
का लडडू, तो कभी एक हाजमोला
कैंडी। कभी-कभी हम पास की दुकान
तक पैदल जा कर चाय भी पी आते।
इस तरह इन दो महानुभावों के करीब आकर मुझे भी ग़ज़लें लिखने
का शौक लग गया। उत्साह इतना कि दुष्यंत जिस मुकाम पर उसे छोड़ कर गये थे, उससे आगे ले जाने की
वसीयत जैसे मेरे ही नाम लिख गए हों। ये दीगर बात कि एक अरसे के बाद कहीं जाकर मुझे
यह समझ आया कि ग़ज़ल में बह्र (मीटर) जैसी भी कोई चीज है। जाने कितने दिनों तक उबड़-खाबड़ रदीफ़-काफि़ये मिला कर खुद
ही अपनी पीठ ठोंकता फिरता रहा। लेकिन इसी बीच कुछ लोग अब हाशिए की लाल रंग की लकीर
के पीछे से झाँकने लगे थे। जैसे थाह लेने की कोशिश करते हों कि आखिर बछड़े में
छलाँग है तो कितनी। ये नगर के निद्रालीन साहित्यकार थे जो अपनी कविताओं को सिरहाने
दबाकर आराम की नींद सो रहे थे। इनमे से ज़्यादातर वह लोग थे, जो साहित्यिक-बिरादरी में इसलिए
शामिल हो गए थे क्योंकि एक दिन उन पर भी एक खूबसूरत कविता नाजिल हुई थी, ठीक वैसे ही जैसे
स्कूल में सामान्य-हिन्दी पढ़े हर
व्यक्ति के ऊपर जीवन में कम से कम एक बार अवश्य होती है। उसी कविता या ग़ज़ल को
लेकर वे साहित्य के मैदान में कूद पड़े थे। ये और बात कि उसके बाद शायद ही उन पर
कुछ दूसरा उतरा हो कविता के नाम पर। अतः उसी एक नाजिल कविता को कलेजे से छपकाए
तुकबन्दियाँ भिड़ाते रहते। कोई बाहर का आदमी आ गया तो अपनी ट्रेडमार्का कविता सुना
देते। धीरे-धीरे यह सारे लोग
साहित्यिक शीतनिद्रा में जा पहुँचे। जब कभी नींद खुलती तो एक-दो गोष्ठियाँ करके
फिर सो रहते। पर अब हमारी हलचलों से इनकी नींद में खलल पडने़ लगा था। मुद्दे पर
आएँ तो अब नगर में फिर से साहित्य का मौसम अंगड़ाई ले रहा था। इसी बीच मैंने जोश
में लगभग थोक के भाव अपनी शुरूआती अधकचरा रचनाएँ, मसलन कविताएँ, ग़ज़लें और कहानियाँ वगैरह बैकुण्ठपुर के स्व. रूद्र प्रसाद रूप के
स्क्रीन-प्रिंटिग पर नीले
रंग की स्याही से छपने वाले पाक्षिक सम्यक-सम्पर्क, अम्बिकापुर से प्रकाशित दैनिक-अम्बिकावाणी तथा
बिलासपुर से प्रकाशित दैनिक-हरिभूमि में छपवा डालीं। दैनिक-हरिभूमि में छपी कहानियों के लिए पारिश्रमिक के
दो चेक भी मिले, जिन्हें मैंने इसलिए
नहीं भुनाया क्योंकि बैंक ने उन्हें संग्रहण के लिए बिलासपुर भेजने का तमाम खर्च
काटने के बाद प्रति चेक कोई नकारात्मक रकम हासिल होना बताया था। अतः मैंने वह
दोनों चेक प्रमाणपत्र के रूप में ही सुरक्षित रख लिए। अलीगढ़ की एक पत्रिका ’जर्जर क़श्ती’ ने भी सौ रूपए की
वार्षिक सदस्यता के एवज में मेरी गज़लों को नियमित रूप से छापना प्रारंभ कर दिया
था। यह सब देख कर एक दिन स्थानीय साहित्य के नूरा-पहलवान फिर से अखाड़े में कूदने लगे। जिस स्थान
को वे सुरक्षित रखकर सोए थे, उसे पक्की किलेबंदी कर के और अधिक सुरक्षित करने के लिए।
तो इस नगर में एक बार फिर से गोष्ठियों के दौर का आरंभ हो
चुका था। । इस समय बैकुण्ठपुर में ग़ज़लगोई का चलन जोर पकड़ रहा था। हर दूसरा
लिखने वाला एक ग़ज़लगो। जगदीश पाठक का समय हँसी-ठिठोली का था और अब चचा नोमानी का दौर, जिसमें प्रत्येक
व्यक्ति बस गज़ल पर ही ज़ोर आजमाना चाहता था। अम्बिकापुर के कवि-लेखक और पत्रिका ’परस्पर’ के सम्पादक प्रभुनारायण
वर्मा सदैव मुझसे मज़ाक करते कि ‘यार बैकुण्ठपुर में इतने अधिक शायर क्यों होते हैं? वस्तुतः इसका भी एक
कारण था। उन दिनों कवि गोष्ठियों में ‘तरह’ देने का चलन था, अर्थात् सब को चाचा नोमानी के द्वारा एक मिसरा दिया जाता
जिस पर बकाया शायर अगली गोष्ठी में ग़ज़ल लिखकर लाते। इसका एक फायदा था कि सभी को
एक बना-बनाया फर्मा मिल
जाता जिसमें केवल कुछ तुकबंदियाँ भर टाँकनी पड़तीं। बाद में इन्हीं पंक्तियों को
दैनिक-नवभारत व दैनिक-भास्कर में
विज्ञप्ति के रूप में सबके नाम के साथ छपवा दिया जाता। कवि बारंबार समाचार-पत्र पढ़ते तथा
मुग्ध होते जाते। बस इतनी ही छपास थी ज़्यादातर कवियों में। परंतु इस ‘तरह’ के चक्कर में ऐसे ‘बेतरह’ शेर लिखे जाते कि
कहिए मत। मुझे एक ग़ज़ल का शेर आज भी याद है जिसे पढ़कर समझा जा सकता है कि उन
गोष्ठियों में में क्या नहीं हुआ करता था -
पत्थर को तोड़ के शीशा बना दिया
लोगों ने उसको तोड़ के भाला बना दिया
शायर की सोच! शायरी में मानव-विज्ञान तक की पैठ। कवि पत्थर तोड़ कर भाला बनाने वाले आदिम
युग को भी ग़ालिब की मुलायम ग़ज़ल के लिबास में पेश कर देते थे। इस शेर को चचा
नोमानी, मैं और ताहिर मियां
बरसों तक याद करते रहे। याद क्या करते थे, हँसते-हँसते दोहरे हो जाते थे।
परिचय और संपर्क
पद्मनाभ गौतम
स्कूलपारा , बैकुण्ठपुर,
जिला-कोरिया, छत्तीसगढ़
पिनकोड- 497335
फो. 8170028306,
9425580020
इसे प्रकाशित करने का बहुत-बहुत धन्यवाद भइया।
जवाब देंहटाएंmukkammall tasdeek...ho gaye mureed
जवाब देंहटाएंShukriya Raka bhaiji
जवाब देंहटाएंDhanywaad Madanji
जवाब देंहटाएंपद्मनाभ जी, आपके परिवेश के तमाम पात्रों से मैं परिचित हूँ...नेसार नाज़ को मैं तो अपनी लडकाई में मंटो सा ग्रेट समझता था...अजब मस्तमौला थे नेसार नाज़...भाई पहल और साक्षत्कार के कहानीकार थे नेसार नाज़. अपनी विकट प्रतिभा के प्रवाह को वे संभाल न सके थे. स्व- अमीक हनफी के पसंदीदा afsana-निगार नेसार की याद दिला कर आपने पुराने दिनों कि याद ताज़ा कर दी. और टेकचंद नागवानी के किस्से जगदीश पाठक उर्फ़ भतीजा मनेन्द्गढ़ी की जुबानी सुनकर हंसते हँसते लोट-पोट हो जाते थे हम...आप चूक न रहे हो तो संबोधन साहित्य कला परिषद की नींव बैकुंठपुर में रखी गई थी..भाई गिरीश पंकज, वीरन्द्र श्रीवास्तव, जितेन्द्र सोढ़ी आदि ने इस संस्था को फिर मनेन्द्रगढ़ स्थानांतरित किया था...बाकी नोमानी साहेब की यादें दिल को छू गईं...बैकुंठपुर से ही एक संस्मरण लेखक विख्यात हैं कांति कुमार जैन और आपकी लेखनी भी उसी राह पर है...वाह
जवाब देंहटाएंनिचित रूप से भइया, अमीक हनफी के अफसाना निगार नेसार भाई अपनी प्रतिभा के प्रवाह हो सम्भाल नहीं सके। इस बार घर गया था तो मुझसे लिपट गए। मुझे कहा कि उस जमाने का जो भी साहित्य है उनके पास मैं वह सब ले लूं। सम्बोधन की नींव बैकुण्ठपुर में रखी गई थी इसका मुझे ज्ञान नहीं था, परंतु मनेंद्रगढ़ में वह आज भी जीवित है यह प्रसन्नता का विषय है । वीरेन्द्र श्रीवास्तव जी ने अथक प्रयास कर उसे जीवित रखा है। नोमानी चाचा की कमी खलती है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद कि आपने इसे इतने ध्यान से पढ़ा।
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