रविवार, 24 अगस्त 2014

"ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर" --- तीसरी क़िस्त ---- 'अशोक आज़मी'

                                  अशोक आज़मी



पिछली किस्तों में ‘अशोक आज़मी’ अपने बचपन के दिनों को याद कर रहे हैं | उन दिनों को, जिसमें किसी भी मनुष्य के बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है | वे ‘संघ’ संचालित शिशु मंदिर के उस माहौल में शिक्षा ग्रहण कर होते हैं, जहाँ ‘कट्टरता’ कुलांचे मार रही होती है | आज इस तीसरी क़िस्त में वे 1984 के सिख-विरोधी दंगों के पागलपन को याद कर रहे हैं, जिसमें बहुसंख्यक समाज ‘विवेक-च्युत’ होता हुआ दिखाई देता है | और जो चाहता है कि किसी एक व्यक्ति के गुनाह की सजा सारे समुदाय पर थोप दी जाए | ......



     तो आईये पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग अशोक आज़मी के संस्मरण                       
               

            “ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर” की तीसरी क़िस्त
           
             

           देवियों के कोप अक्सर बेक़सूर मासूमों पर होते हैं




हम पांचवीं में पढ़ते थे जब सन चौरासी आया. उस दिन छुट्टी थी शायद. वजह जो भी पर स्कूल नहीं गया था मैं. लाल बहादुर शास्त्री शिशु मंदिर के मैदान में क्रिकेट जमा हुआ था. उसके पीछे ही हमारे मकान मालिक के भतीजे विनोद चाचा की फैक्ट्री थी जिसमें लोहे के चैनल, गेट वगैरह बनते थे. विनोद चाचा मजेदार कैरेक्टर थे. उनके पापा चकबंदी अधिकारी थे और भ्रष्टाचार तब तक गर्व करने लायक़ चीज़ बन चुका था. चार लड़कों और चार लड़कियों का भरापूरा परिवार उस आठ दस कमरों के आलीशान मकान में जिस शान से रहता था उस शान से तो आई एस एस अधिकारी की तनख्वाह में भी नहीं रहा जा सकता. विनोद चाचा सबसे बड़े थे और सबसे छोटा सुबोध हमसे एक क्लास पीछे था. कोई साढ़े पांच फुट के विनोद चाचा का वज़न कम से कम सौ किलो रहा होगा. समोसे के ठेले पर खड़े होते तो बीस से कम नहीं खाते, अंडे वाला रोज़ दर्ज़न भर उबले अंडे काट और तल के पेश करता. कभी गुपचुप पर कृपा होती तो हाफ सेंचुरी लगाए बिना पिच से नहीं टलते. और किसी की छोड़िये थोड़े दिनों बाद जब उनके बच्चे चन्दन और कुंदन बड़े हुए तो हम सब देख कर आनंद लेते कि विनोद चाचा समोसों पर भिड़े हुए हैं और बच्चे उनकी टांगों से उलझे एक समोसे की मांग के साथ ठुनक रहे हैं . अंत उनका दुखद रहा. चालीस पार करते न करते देह रोग का घर बन गयी और बीमारी के चंद सालों बाद वह चल बसे. बड़े बच्चों को अक्सर माँ बाप की सख्ती बर्बाद करती है और मुहब्बत भी.

खैर, उस दिन अचानक रेडियो हाथ में लिए लिए विनोद चाचा फैक्ट्री से बाहर आये और लगभग रुंधे हुए गले से कहा, “इंदिरा गांधी के मार दिहलें कुल.” बाल हाथ में लिए लिए दीपू भैया ने पूछा, “मरि गइलीं?” सब के सब स्तब्ध, दुखी और शिशु मंदिर की शिक्षा का असर देखिये कि मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला, “नीक भईल.” मेरा यह कहना था कि बच्चों की वह पूरी टोली, विनोद चाचा और उनकी फैक्ट्री के कामगारों की भृकुटियाँ तन गयीं. पिटने का पूरा चांस था लेकिन छत पर से पापा बुलाने आये और मैं घर भागा. घर पर जैसे मुर्दानगी छायी हुई थी. रेडियो लगातार बज रहा था और माँ-पापा भरी आँखों से उसे घेरे बैठे थे. मैं समझ नहीं पा रहा था कि कल तक इंदिरा गांधी की इतनी आलोचना करने वाले पापा इतने दुखी क्यों हैं?  वक़्त बीतने के साथ शहर और बाहर से ख़बरें आनी शुरू हो गयीं. दुकानें लुटने की ख़बरों के साथ सरदारों की दुकानों से लूटा हुआ समान लाते पड़ोस के भैयाओं और चाचाओं को हमने देखा. पापा बेहद परेशान थे. तब फोन वगैरह था नहीं और उनके कालेज के जमाने के अजीज दोस्त हरदयाल सिंह होरा शहर के दूसरे छोर पर रहते थे. शाम होते होते वह निकल पड़े और होरा जी के घर पहुँचे. स्थानीय इंटर कालेज में भौतिकी के लेक्चरार होरा जी को उनके पड़ोसियों से घेरा हुआ था. किसी बाहरी की हिम्मत नहीं हुई उनका बाल भी बांका करने की. लेकिन यह क़िस्मत शहर में फैली उनके रिश्तेदारों की दुकानों की नहीं थी. वे लूट ली गयीं. जला दी गयीं. दहशत का वह पहला दौर था जो हमने इतने क़रीब से देखा था. बहुत बाद में गोधरा के बाद हुए दंगों के दौर में गुजरात में रहते हुए इस दहशत को और नंगे रूप में देखा. स्कूल कई दिनों तक बंद रहा. एशियाड देखने के लिए आई टीवी पर हमने इंदिरा जी का शवदाह देखा, भीगी आखों वाले राजीव को देखा और बड़े पेड़ गिरने पर धमक होने वाले उनके अमानवीय बयान को सुना. अमानवीय यह अब लगता है, तब तो रातोरात वह हम सबके प्रिय बन गए. इस क़दर कि जब चुनाव में उनके साथ अमिताभ बच्चन के आने की ख़बर सुनी तो पैदल मैदान तक पहुंचे और अमिताभ के न आने पर भी उनका पूरा भाषण सुने बगैर नहीं लौटे.

दंगो का असर टी वी के बाहर बाद में दिखा. हमारी क्लास में पढने वाले गुरुमीत सिंह नाम के दो लड़कों में से एक की पढ़ाई छूट गयी थी. सब्जी मंडी के पिछले मुहाने पर जहाँ कभी उसकी पक्की दुकान थी अब एक ठेला था जिस पर वह और उसके पिता लालटेन वगैरह का रिपेयर किया करते थे. सैंतालीस के दंगों के वक़्त बेघर होकर यहाँ वहाँ भटकते तमाम सिखों ने तीस पैंतीस सालों में जो कुछ खड़ा किया था वह सब एक पीढ़ी के भीतर गँवा चुके थे. जिस दुकान से पापा जूते खरीदते थे वह लुट चुकी थी, जिस दुकान से माँ रेडीमेड कपड़े खरीदतीं थीं वह लुट चुकी थी. जगह जगह मार पीट हुई थी. हाँ इतना संतोष कि कम से कम हमारे उस कस्बे में कोई बलात्कार नहीं हुआ था, कोई जान नहीं गयी थी. लेकिन देश के दीगर हिस्सों में क्या क्या नहीं हुआ! बेअंत सिंह और सतवंत सिंह के उस गुनाह का बदला देश भर के सिखों से लिया गया था और देश जैसे एक क़त्लगाह में बदल गया. सरकारी टीवी से कम लेकिन अखबारों से वे ख़बरें घर घर में पहुँच रही थी. हमारे शिशु मन प्रभावित होते ही थे, वह दौर कि जब आतंकवाद का नाम हमने पहली बार सुना था और उसका चेहरा किसी सिख के चेहरे जैसा लगता था. बाद में उसे एक मुस्लिम चेहरे में बदलते देखा. माँ देवरिया से ही पढ़ी थीं, उनकी स्मृति में तमाम सिख घरों के फर्श से अर्श पर जाने के किस्से थे. कैसे नंदा बहनजी ने कस्तूरबा में पढ़ाते हुए अविवाहित रहकर भाइयों को सेटल किया और अब उनकी इतनी दुकानें और इतने घर हैं, कैसे फलां सरदार जी ठेले पर अंडे बेचते बेचते इतना बड़ा बिजनेस खड़ा कर गए...और उस कौम ने अपना जीवट तब भी नहीं छोड़ा. एक बार फिर से सब खड़ा करने की कोशिश में लग गए. जली दुकानों की राख बुहारी और झोंक दिया फिर से खुद को और एक दशक के भीतर भीतर सब फिर से खड़ा भी हो गया लेकिन इस दिखाई देने वाले दृश्य के पीछे कितने गुरमीतों का बर्बाद बचपन था वह कोई नहीं देख पाता. देवरिया जाने पर गुरमीत से कई बार मुलाकात हुई, बातचीत हुई पर हमारे दरम्यान वह लम्हा पत्थर सा जम गया था. 

पाँचवी के बाद जब हम सरस्वती विद्या मंदिर पहुँचे. पहले न्यू कालोनी के किसी वक़ील साहब के घर में चलता था. दो किलोमीटर होगा वह और मैं पैदल ही जाया करता था. स्कूल के सामने दीनदयाल पार्क था जो स्वाभाविक रूप से हमारा प्ले ग्राउंड बना. इसके अलावा दो मकान छोड़ के एक प्लाट ख़ाली था तो वह भी खेल के मैदान की तरह उपयोग होता था. हमारा गणवेश बदल गया था और हम नीली गेलिस वाली हाफ पैंट की जगह खाकी हाफ पैंट और सफेद शर्ट पहनने लगे थे. ग्राउंड्स की यह उपलब्धता हमारे भीतर के क्रिकेटर को जगा दिया था. क्रिकेट अब रेडियो से निकल के सशरीर टीवी पर आ चुका था और धीरे धीरे एक दिवसीय क्रिकेट का जादू सब पर तारी हो रहा था. तिरासी का विश्वकप फाइनल हमने लाइव देखा था. उस रात माँ नानी के यहाँ गयी हुई थीं. ननिहाल मेरी बमुश्किलन दो किलोमीटर की दूरी पर थी और माँ अकसर साइत वाइत के बिना जाती आती रहती थीं. मौसा आये हुए थे फैज़ाबाद से और एक रिश्ते के मामा भी. पापा और मैंने भारत के जीतने की शर्त लगाई थी और उन दोनों लोगों ने वेस्ट इंडीज के जीतने की. नतीजतन उस राटा मैच ख़त्म होने पर खिचड़ी उन दोनों लोगों ने बनाई. कपिलदेव हम सबके हीरो थे. पापा कभी कालेज की टीम से क्रिकेट और टेबल टेनिस दोनों खेल चुके थे. आफ स्पिन डालना उन्होंने ही मुझे सिखाया था. लेकिन एक्सपेरिमेंट तो विद्या मंदिर के लंच में उन्हीं मैदानों में हुआ. प्लास्टिक की एक रुपये की बाल आती थी और बैट कोई भी हो सकता था, आधी टूटी टेबल से लेकर लकड़ी के किसी लम्बे टुकड़े तक. कभी कभी कोई असली वाले बैट का जुगाड़ कर देता तो समझिये उसका दर्ज़ा सुनील गवास्कर से कम नहीं होता. मुझे याद है उसी दौर में रवि शास्त्री दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम में क्रिकेट सिखाया करते थे तो उनसे भी खूब सीखा. वैसे तो सब आल राउंडर हुआ करते थे तो हम भी, लेकिन मजा ओपनिंग बैटिंग और स्पिन बालिंग में आया करता था. स्कूल के अलावा मोहल्ले में भी क्रिकेट की बहार थी. स्कूल से लौटते ही बस्ता फेंककर सीधे मैदान में. भूप्पन भैया हुआ करते थे पूरे मोहल्ले के आदर्श.

भूप्पन भैया यानी भूपेन्द्र श्रीवास्तव. पिता किसी सरकारी महकमें में काम करते थे, शायद रेलवे में. उन दिनों वह लोग किराए पर रहते थे. भूप्पन भैया दरम्याना क़द के बेहद स्मार्ट युवक. देवरिया की टीम में खेलते थे. पहले प्लेयर जिन्हें हमने सच्ची में हेलमेट, पैड, एडी और ग्लब पहन के खेलते देखा था. ओपनिंग बैटिंग करते थे और उस ज़माने में स्कूटर से घूमते थे. अक्सर खेलने के लिए गोरखपुर, लखनऊ वगैरह जाया करते. फुर्सत में हमें बैटिंग सिखाते थे. बैट पकड़ना, क्रीज के पास खड़ा होना, एक कदम आगे बढ़ा के बल्ले पर पूरा बाडी वेट डालकर डिफेंड करना, स्क्वायर कट, स्टेट ड्राइव वगैरह, वगैरह. मैं शायद नौवीं में रहा होऊंगा. उस दिन दशहरा था. मोहल्ले की सबसे बड़ी जो झांकी सजी थी उसके कर्ता धर्ता भूप्पन भैया ही थे. दस बजे रात तक हम सब वहीँ थे. फिर सुबह उठे तो ख़बर आई. रात में भैया गोरखपुर गए थे. सुबह सुबह मोटर साइकल से लौटते हुए एक्सीडेंट हुआ और वह कोमा में चले गए. पूरे मोहल्ले में ख़बरें तैर रही थीं कि पूजा के चंदे से शराब पी थी उन्होंने और जब लौट रहे थे तो देवी का कोप हुआ. देवी का कोई कोप गुरमीत को जलाने वालों पर नहीं हुआ था. देवी का कोई कोप नहीं हुआ था पड़ोस की उस लड़की के ससुराल वालों पर जिन्होंने उसे जला के मार डाला था. हर बच्चे को समलैंगिक सम्बन्ध के लिए फांसने वाले दीपू भईया पर भी कोई कोप नहीं. बस भूप्पन भैया पर हुआ जो मोहल्ले के सभी बड़ों का पाँव छुआ करते थे, जो क्रिकेट के दीवाने थे, जिनका एक हफ्ते पहले उत्तर प्रदेश की टीम में चयन हुआ था...कई सालों तक वह बिस्तर पर रहे. उठे तो आधा अंग बेकार हो चुका था. हम जब अपने घर में शिफ्ट हुए तो उधर टहलते हुए आया करते थे. आधी देह से संघर्ष करते, एक एक वाक्य बोलने में हाँफते भूप्पन भैया. अपनी ज़िद में इस हालत में रोज़ दो किलोमीटर टहलते भूप्पन भैया. बहुत दिन हुए नहीं देखा उन्हें. किसी ने बताया कि काफी हद तक सामान्य हो चुके हैं अब. शादी वादी भी हो गयी शायद. कुछ करते ही होंगे, बस क्रिकेट नहीं खेलते होंगे भूप्पन भैया.

                                                                                                          
                              .........................................जारी है .....

परिचय और संपर्क

अशोक आज़मी .... (अशोक कुमार पाण्डेय)

वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी    


  


7 टिप्‍पणियां:

  1. अब अपनी पूरी रौ में आए हैं आप ।

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  2. १९८४ के दंगे केवल सिख्खों पर ही नहीं मोनो पर भी भरी समय था

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  3. गहरे घावों पर जमी नरम सतह कुरेद दिया| बहुत मर्मांतक संस्मरण है भाई!

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  4. १९८४ के दंगे में मेरे एक मित्र के पिता की दाढ़ी में आग लगा दी गयी थी | मोहल्ले के लोगो की प्रतिरोध की वजह से बमुश्किल उनकी जान बची | मोहल्ले के सबसे प्रतिष्ठित परिवारों में वो शुमार किये जाते थे और काफी सम्प्पन जीवन व्यतीत करते थे | बाद में उनके परिवार के जीवन स्तर में बहुत गिरावट आया | पर धीरे-धीरे वो अपनी पुरानी प्रास्थिति प्राप्त करने में सफल रहे | पर मन के घाव भरने में बहुत समय लगे |

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  5. बहुत बढ़िया चल रही है आत्मकथा।

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  6. बहुत बढ़िया लिख रहे हैं …जारी रखिये।

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