शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

दिल्ली की एक रात

मैंने भारतीय रेल को पहले ही आगाह किया था कि मेले से लौटते समय लेट मत होना | लेकिन फिर वह भारतीय रेल ही क्या, जो लेट होने की अपनी गौरवपूर्ण विरासत को छोड़ दे | लेकिन हम भी कम नहीं | लीजिये साहब ... ‘दिल्ली की एक रात’ की यादें ही लिख दी | शुरुआत इलाहाबाद में की और मुगलसराय के आउटर सिग्नल पर इसके पिछले एक घंटे से खड़े होने का लाभ उठाते हुए इसे पोस्ट भी करने जा रहा हूँ | अब होने दीजिये लेट ...मेरे पास और भी बहुत सारी योजनायें हैं | देख लूंगा मैं भी | हां ....नहीं तो |

        फिलहाल ‘दिल्ली की एक रात’ का अनुभव आप सबके लिए |   



                         दिल्ली की एक रात




पुस्तक मेले में मेरे लिए वह खरीददारी का दिन था | इस कारण वहां से निकलने में थोड़ी देर हो गयी थी | रात के लगभग आठ बजे मैं अपने अतिथि-गृह पर वापस पहुंचा | तय कार्यक्रम के अनुसार मुझे डिनर के लिए अपने एक अजीज मित्र के घर जाना था, जिनसे काफी अरसे बाद मैं मिल रहा था, और जिसे लेकर मैं काफी उत्साहित भी था | मैं गया और जैसा कि उनसे मिलने पर अमूमन होता रहा था, मैं उस मुलाक़ात में डूब गया | यहाँ डूबने का मतलब कुछ और मत लगाईयेगा, क्योंकि हम-दोनों तो उस समंदर के किनारों से भी महरूम हैं | तो हमारे पास दुनिया-जहान की बातें थी, और उसे बाँट लेने की हड़बड़ी भी | इसी बीच लगभग साढ़े दस बजे मेरे मोबाईल की घंटी बजी | फोन बंगलौर से था और उस लेख को भेजने के लिए अंतिम आग्रह के रूप में किया गया था, जिसे मुझे अगली सुबह दस बजे तक हर-हाल में भेज देना था | वह उस पत्रिका की डेडलाइन होती है, जिसे मैं भी जानता था, और जिसके लिए मैं बलिया से निकलते वक्त वादा करके आया था | ऐसा कम ही होता है, लेकिन इस बार यह दुर्योग ही रहा कि यहाँ दिल्ली में पहुँचने के साथ ही मेरे दिमाग से वह बात स्लिप कर गयी | मैंने अपने मित्र से यह बात बतायी | उन्होंने ख़ुशी जाहिर कि मैं अपने मन की दुनिया का भी कुछ कर लेता हूँ, और जितनी जल्दी संभव हो सकता था, उन्होंने मुझे खाना खिलाकर अगली मुलाक़ात शीघ्र होने की कामना करते हुए विदा किया |


अतिथि-गृह पहुँचते-पहुँचते रात के ग्यारह बजे से अधिक का समय हो चुका था | हम जैसे गँवई लोगों के लिए लगभग आधी रात का समय | मैंने दिल्ली वाले मित्रों जैसा हौसला बटोरा और लेख के लिए लग गया | बात 1500 शब्दों को लिखने की नहीं थी, वरन उसको लिखने लायक मनःस्थिति तक पहुँचने की थी | बहरहाल रात के दो बजे मैं उसे सम्पादित करने में कामयाब रहा | अब बस सुबह उठकर एक बार वर्तनी और भाषा की अशुद्धियों को देखना भर रहा गया था, जो कि कंप्यूटर पर सीधे लिखने के बाद मुझे करना ही पड़ता है | जब काम पूरा हुआ, तो दिमाग पर चढ़े बोझ को थोड़ा हल्का करने के लिए फेसबुक पर भी जाना माँगता ही था | तो लगे हाथ आधे घंटे की एक यात्रा उसकी भी कर आया | और फिर अगले आधे घंटे नींद को बुलाने में लग गए | वह आयी | लेकिन अभी उसने मेरे ऊपर ठीक से चादर भी नहीं डाली थी, कि मेरे उन बलियावी-मित्र का जे.एन.यु. कैम्पस से फोन आया, जो मेरे साथ ही इस मेले के लिए बलिया से आये थे |


उन्होंने उसी चिर-परिचित अंदाज में कहा “ए महाराज , एक काम करिए न | जरा कंप्यूटर खोलकर यह तो देखिये कि अवध-आसाम एक्सप्रेस नयी-दिल्ली से जाती है या कि पुरानी दिल्ली से | सोचता हूँ कि उसे ही पकड़कर अमरोहा निकला जाऊं |” (बताता चलूँ कि उन्हें अमरोहा होते हुए बलिया जाना था, और तयशुदा प्रोग्राम के मुताबिक़ उन्हें पिछली शाम को ही अमरोहा चले जाना था |)


एकबारगी तो मन में झुंझलाहट हुयी, और मन किया कि मुन्ना-भाई एम.बी.बी.एस. में ‘बोमन इरानी’ जैसे बिस्तर से उठकर थोड़ी चहलकदमी करने के बाद एक शातिर फैसला लूं, कि नेट काम नहीं कर रहा है | लेकिन मेरे उन मित्र द्वारा मेरे ऊपर दिखाए गए अधिकार में मुझे मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस. के ‘बोमन ईरानी’ बनने से बचा लिया | “आखिर उन बेचारे को यह बात तो पता नही होगी कि मैं आज की रात तीन बजे तक जाग रहा था | उन्होंने मुझे पौने चार बजे इसीलिए तो फोन किया होगा कि मैं उनकी मदद कर सकूंगा | | मुझे उनके विश्वास की रक्षा करनी ही चाहिए | और फिर गाँव के लिहाज से अब थोड़ी देर में उठ जाने का समय भी तो हो गया है |” एक गिलास पानी पीने के बाद मेरे दिमाग की खिड़की उनकी तरफ थोड़ी और खुली |


लेकिन इस अतिथि-गृह में एक दूसरी समस्या भी थी | उस डारमेट्री में और पांच लोग भी सो रह थे, जिसमें मैं रुका था | उनमे से एक सज्जन रात को मेरे लेख लिखते समय बार-बार करवट बदलते हुए यह बात कहे जा रहे थे कि “जगह बदलने से नींद नहीं आ रही है |” हालाकि मेरे लिए उनकी अविधा में कही गयी इस बात को व्यंजना में बदलना कठिन नहीं था कि “आपके कंप्यूटर पर इतनी रात काम करने की वजह से मुझे नींद नहीं आ रही है |” लेकिन मेरे पास कोई और चारा भी नहीं था | और जो था, वह मैंने कर भी दिया था | मैंने सारे लाइटें बुझा दी थीं, और कम्यूटर की रोशनी में ही लिखने का काम कर रहा था | मैंने सोचा, इस शख्श ने  पहले ही मुझे रात के ढाई बजे तक कंप्यूटर पर काम करते हुए झेला है | अब मेरे लिए यह बहुत अश्लील होगा कि मैं फिर से कंप्यूटर को आनकर उनके धैर्य की परीक्षा लूं, और उनकी प्यारी सी नींद को चिकोटी काटने की गुस्ताखी करूं | मैं अपना लैपटाप लेकर कमरे से बाहर निकल आया | यहाँ मुझे अपने उस फैसले पर थोड़ी खीज उत्पन्न हुयी, जिसमें मैं अपने मोबाइल सेट को बदलने वाला निर्णय टालता आ रहा था, और जिसके अपग्रेड होने से मैं यह काम उस कम्बल में भी कर सकता था |


बाहर ठण्ड बहुत थी | लेकिन उसे झेलने के अलावा कोई और विकल्प भी नहीं था | मैंने लैपटॉप आन किया और वहीँ से अपने मित्र को फोन भी कि आपकी अवध-आसाम एक्सप्रेस ट्रेन पुरानी दिल्ली से जायेगी | और जिसके छूटने का समय आप सुबह के आठ बजे बता रहे हैं, वह 7.45 बजे ही है | उन्होंने मेरा धन्यवाद किया और फोन रखते-रखते यह भी जोड़ा कि मेरे मन में रात को ही यह विचार आया था कि मैं आपसे पूछ लूं, लेकिन यह सोचकर कि अब ग्यारह बज चुके हैं, मैंने फोन नहीं किया कि आप सो गए होंगे | “अरे महराज .... आप जो सोचेंगे, वह सब ठीक ही होगा | आखिर आप संपादक जो हैं |” और फिर उनकी मुक्त हंसी ने बात को काट दिया | (दरअसल वे उस पत्रिका के संपादक हैं, जो चार साल पहले हम लोगों के दिमाग में आयी थी, और अभी तक दिमाग में ही है | और मैं ? ...... चलिए बता ही देता हूँ | उस न निकल सकने वाली पत्रिका का उप-संपादक) |


घड़ी में इस समय सवा चार बज रहे थे | मैंने फिर से एक बार नींद का आह्वान किया | वह जल्दी ही चली भी आयी | लेकिन थोड़ी ही देर बाद एलार्म की घंटी बज उठी | मारे गए .... तो मैंने छः बजे का लगाया गया अपना पुराना एलार्म आफ नहीं किया था | बढ़िया है ......रमेश बाबू | यह सबक भी याद कर लीजिएगा | एलार्म को आफ करने के बाद मैंने सोने की एक और कोशिश की | लेकिन इस बार फोन पर मेरे लाडले थे | “क्या पापा ... साढ़े सात बज गया है, और अभी तक आप सो ही रहे हैं | मैं आपको तीन बार रिंग कर चुका हूँ | मैं अब स्कूल निकल रहा हूँ | गुड-मार्निंग कहने के लिए फोन किया था |” “गुड मार्निंग ..बेटे |” मैं अपनी सोती हुयी भारी सी आवाज में भर्राया |


और फिर दिन शुरू हो गया | नहाने के बाद मैंने वादे के मुताबिक़ अपना लेख एक बार और देखा, और मेल कर दिया | मेले में आज मेरा भी अंतिम दिन था और खरीदी जाने वाली किताबों की लिस्ट भी तैयार करनी थी | वह काम करने के बाद आज मिलने वाले दोस्तों को एक दो फोन किये और निकल पडा | निकलते समय दरवाजे के बाहर उन सज्जन से मुलाक़ात हुयी, जो रात को डारमेट्री में लगातार करवटें बदल रहे थे | बड़े अदब के साथ उन्होंने मुझे एक सलाह दी | “कंप्यूटर और मोबाईल ने आज के लड़कों की तो जिन्दगी ख़राब ही कर दी है | कम से कम आप जैसे लोगों को तो समझना ही चाहिए | रात भर इस तरह से ही लैपटाप पर जमें रहकर आप जितना पायेंगे, उससे अधिक खो देंगे | देखिये भाईसाहब ...अन्यथा मत लीजिएगा | लेकिन यह ठीक नहीं है |” मैंने उन्हें भरोसा दिलाया कि मैं आपकी बात को ध्यान में रखूंगा |


बारह बजे दिन में मेरे ‘संपादक मित्र’ का अमरोहा से फोन आया | “ शुक्रिया महाराज ...... आपकी वजह से मेरी ट्रेन मिल गयी और मैं अमरोहा पहुँच गया | अपना खयाल रखियेगा |” और उसके थोड़ी ही देर बाद बैंगलोर से भी कि "आपने अच्छा लिखा है | हमारा बहुत शुक्रिया |" "बिलकुल" .... मुझे लगा कि ऐसे दोस्तों और ऐसे कामों के लिए एक-दो राते क्या, जिन्दगी की अनगिनत रातें जागी जा सकती हैं | और न सिर्फ जागी जा सकती हैं, वरन उस जागने पर ख़ुशी भी व्यक्त की जा सकती है | क्यों ....?


इस पूरे वाकये में बस एक बात समझने से रह गयी कि एक ही समय में, एक ही कार्य करते हुए हम सही और गलत दोनों कैसे हो सकते हैं | क्या मैंने कुछ गलत किया था ...? या कि उस करवट बदलने वाले सज्जन ने कोई गलत सलाह दी थी ...?  बताईयेगा ....|



प्रस्तुतकर्ता 


रामजी तिवारी
ट्रेन में बलिया जाते हुए
इलाहाबाद और मुगलसराय के बीच से .....



7 टिप्‍पणियां:

  1. आपने बहुत गलत किया कि इसे लिख भी मारा...और ऐसा लिखा कि हम अंत तक इस रहस्‍य में डूबे रहे कि कुछ जानदार...शानदार ज्ञान प्राप्‍त होगा अंत में...वैसा हुआ भी।

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  2. बहुत शानदार , पूरा पढ़ते हुए एक पल को भी होंठों से मुस्कराहट गायब नहीं हुई , शुक्रिया भाई जी !

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  3. सचमुच पढ़ कर मजा आ गया |

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  4. बहुत अच्छा अनुभव और कितना बढिया लिखें हैं आप, वाह!

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