रविवार, 25 नवंबर 2012

'शिवमूर्ति की कहानियों में स्त्री जीवन' - संतोष चतुर्वेदी



                                   शिवमूर्ति 

आज सिताब दियारा ब्लाग ने एक साल का अपना सफ़र पूरा कर लिया | 25 नवम्बर 2011 को अस्तित्व में आये इस ब्लाग का सफ़र आसान तो कत्तई नहीं रहा | एक पिछड़े इलाके के गाँव में रहते हुए , जिसमे बिजली और नेटवर्क की उपलब्धता ‘चाँद–तारों’ को पाने से कम नहीं है , ब्लाग को एक नियमित अंतराल पर अपडेट करते रहने की जिम्मेदारी , किसी चुनौती से कम नहीं थी | यह रचनाकारों द्वारा जताया गया विश्वास और पाठकों की उम्मीदों पर खरे उतरने की चुनौती ही रही , जिसने मुझे इस कोशिश में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया |

पिछले एक साल में , जहाँ सिताब दियारा के समर्थक मित्रों की संख्या 100 तक पहुँच गयी , वहीँ कुल 68 पोस्टों को पढने वाले पाठकों की तादाद 20 हजार के आसपास रही | ‘सिताब दियारा’ ब्लाग , आप सभी रचनाकार मित्रों और पाठकों का आभार व्यक्त करता है , और आशा करता है , कि आगे भी आप सबका सहयोग इस ‘ब्लाग’ के लिए बना रहेगा |

इस वर्षगाँठ पर प्रस्तुत है , कवि-मित्र संतोष कुमार चतुर्वेदी का यह उत्कृष्ट आलेख , जिसे उन्होंने हमारे दौर के सबसे महत्वपूर्ण कथाकारों में से एक ‘शिवमूर्ति’ की प्रतिनिधि कहानियों के केंद्र में रखकर लिखा है | यह आलेख जहाँ एक ओर ‘शिवमूर्ति’ की रचनाशीलता को समझने में मददगार साबित होगा , वहीँ दूसरी तरफ युवा कथाकारों के लिए भी एक रास्ता सुझाने का काम करेगा |
                    

     तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर संतोष कुमार चतुर्वेदी का यह आलेख     
                            
               स्त्री जीवन की व्यथा-कथा
                               (शिवमूर्ति की कहानियों के विशेष सन्दर्भ में)

                                    

People not only live their own lives, they live also in the lives of others. W. Somerset Maugham

डब्ल्यू सामरसेट माम का का उपर्युक्त कथन अगर आज की कहानी के सन्दर्भ में प्रयुक्त किया जाय तो बात को समझने में शायद ज्यादा सहूलियत होगी. जैसे कोई भी व्यक्ति अपना जीवन जीते हुए भी केवल अपना जीवन नहीं जीता बल्कि कई एक के जीवन को अपने में जीता चलता है ठीक वैसे ही कोई भी कहानी, खासतौर से आज की कहानी निखालिस कहानी नहीं हो सकती. कहानी पढ़ने वाले पाठक को उसमें वर्णित समय, घटना, परिस्थिति, स्थान, पात्र या विडम्बना कहीं न कहीं बिलकुल अपनी जैसी लगने लगती है. पाठक को यह पता ही नहीं चल पाता कि वह कब खुद इस कहानी का एक पात्र बन गया. मेरी समझ से किसी भी रचना की यही सफलता होती है कि वह कैसे बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के पाठक से तुरंत ही अपना सामंजस्य स्थापित कर लेती है, अपना नाता बना लेती है. शिवमूर्ति ऐसे ही कहानीकारों में से एक हैं जिनकी कहानियाँ पढते हुए हमें बराबर यह एहसास होता है कि अरे! यह तो हमारी अपनी कहानी है या हमारे आस-पास घटी किसी घटना का ही दिलचस्प विवरण है. हम इनकी कहानियों में एक बार उतरते हैं तो फिर समाप्त होने तक लगातार पढते चले जाते हैं. कहीं कोई उबन नहीं होती. कहीं पर पाठक थमता-थथमता नहीं है.    
     
शिवमूर्ति हमारे समय के उन कहानीकारों में से एक हैं जिन्हें अपनी कहानियों के कथ्य के लिए कहीं भटकना नहीं पड़ता. गवई जीवन से अटूट रूप से जुड़े शिवमूर्ति के पास कथक्कडी का अकूत भण्डार है. जिन्होंने भी अपने जीवन में कभी न कभी गाँव का जीवन जिया है, उसका आस्वाद लिया है, वे इस बात को अच्छी तरह से समझ-बूझ सकते हैं. छोटे से छोटे गाँव के पास अमूमन कहानियों का ऐसा भण्डार हुआ करता है जो कभी खत्म होने का नाम ही नहीं लेता. किसी भी गाँव में सुबह से शाम और फिर रात तक कहानियों का यह क्रम किसी न किसी रूप में निरंतर चलता ही रहता है. कौडा तापते, आराम फरमाते या फिर राह चलते आज के हालात से ही कोई सूत्र पकड़ कर तुरंत ही किसी कहानी का ताना-बाना बुन जाता है. कोई भी तीज-त्यौहार हो, किसी की हारी-बीमारी हो, किसी का शादी-व्याह हो, कोई कमाने के लिए घर से बाहर गया हो, किसी के घर मरण-जियन हो - हर अवसर हर बात के लिए एक कहानी. फिर इस एक कहानी में कई कहानी. जैसे कोई बड़ी तेजी से बढ़ने वाला पौधा अपनी हर पत्ती से कनखा फेकता है जिससे एक नयी डाल सृजित होती चली जाती है. और यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है. कुछ इसी तरह की है गाँव की ये कहानियां. निरंतर चलायमान. कहानियाँ ऐसी कि कुछ-कुछ सही तो बहुत कुछ मनगढंत. लेकिन यह मनगढंत भी हवा-हवाई नहीं होता बल्कि इसका धरातल पुख्ता होता है. लेकिन यहाँ की हर कहानी अपने में कोई न कोई गंभीर अर्थ, गंभीर  मतलब जरूर लिए होती है. खुद शिवमूर्ति के ही शब्दों में कहें तो कल्पना तो केवल लता है. उसके लिए एक यथार्थ का आधार चाहिए, चाहें वो सूखा एक बाँस का डंडा ही क्यों न हो. उसी के सहारे कल्पना की लता ऊपर चढ सकती है... कल्पना यथार्थ से एक बित्ता ऊपर चलती है. कल्पना एक ऐसी कमजोर लता है जो बिना किसी आधार के ज्यादा ऊपर तक नहीं जा सकती है. (पाखी, जून २०१२, पृ. ३८)      

भोजपुरी क्षेत्र में अक्सर माताएँ, दादा-दादी कहानी सुनाते हुए अंत में टेक जैसी दो लाईनें जरूर दुहराते हैं. कथा गईल बन में, सोचा अपना मन में. आखिर वह कहानी ही क्या जो सोच विचार के लिए पाठक को अनुप्रेरित न करे. आज के समय में कहानी दरअसल वही होती है जो मनोरंजन के साथ ही हमारे सोच को भी समृद्ध करे. नाईजीरियाई लेखक चिनुवा अचीबे ने एक जगह पर उचित ही लिखा है- जब हम किसी कहानी को पढते हैं तो हम केवल उसकी घटनाओं के द्रष्टा ही नहीं बनते, उस कहानी के पात्रों के साथ हम तकलीफों में भी सांझा करते हैं. दरअसल प्रेमचंद और उनके बाद हिन्दी कहानी का जो वितान बना उसमें आम आदमी के सुख-दुःख, उसकी विडंबनाओं, और उसके संघर्षपूर्ण जीवन को ही वरीयता दी गयी. यथार्थ के धरातल पर कल्पना की लकीरों से ऐसी रेखाएं खीचने का प्रयास हिन्दी के कहानीकारों द्वारा किया गया जो आज की कहानी के रूप में हमारे सामने दिखायी पड़ रही है. नयी कहानी आंदोलन से लेकर आज तक के समय में इसे प्रत्यक्षतः देखा महसूसा जा सकता है. संभवतः यही वजह है कि इस समय को ठीक-ठीक जानने के लिए इतिहासकारों का एक वर्ग इन कहानियों की सूक्ष्मतम तहकीकात कर अतीत की हकीकत को वास्तविक और समग्र तौर पर उद्घाटित करने का प्रयास कर रहा है. यह एक महत्त्वपूर्ण सवाल तो है ही कि भारत के स्वतन्त्रता संग्राम को प्रेमचंद की कहानियों के बिना ठीक-ठीक कैसे जाना जा सकता है. इस बात से शायद ही किसी को इनकार हो कि भारत के विभाजन को सआदत हसन मंटो, राजिंदर सिंह बेदी, कृष्ण चंदर, कुर्रतुल एन हैदर, भीष्म साहनी, यशपाल, राही मासूम रजा, खुशवंत सिंह जैसे कहानीकारों की कहानियों को पढ़े बिना संजीदगी से नहीं जाना जा सकता. ठीक वैसे ही आजादी के बाद भारतीय गाँव की कोई भी तस्वीर फणीश्वर नाथ रेणु, मार्कन्डेय, अमरकांत, शिवमूर्ति जैसे कहानीकारों की कहानियां पढ़े बिना कत्तई निर्मित नहीं की जा सकती. शिवमूर्ति की प्रायः सभी  कहानियां गाँव केंद्रित हैं. गाँव को कहानी की पृष्ठभूमि बनाने के सन्दर्भ में खुद कहानीकार शिवमूर्ति कहते हैं ‘ मेरे पास और कोई विकल्प नहीं था. मैं वहीं पैदा हुआ और बड़ा हुआ तो स्वाभाविक तौर पर कहानियों में गाँव रहेगा और आज भी मेरी मानसिकता गाँव की ही है. (पाखी, जून २०१२, पृ. ३५).

हमने शिवमूर्ति के कहानीकार रूप का अध्ययन करने के लिए उनके जिस प्रतिनिधि कहानी संकलन का चयन किया है उसका नाम है- केशर-कस्तूरी. यह संकलन पहली बार १९९१ में छप कर सामने आया. १६४ पृष्ठ के संकलन में कुल ६ बेजोड कहानियां शामिल हैं- कसाईबाड़ा, अकाल-दंड, सिरी उपमा जोग, भरतनाट्यम, तिरियाचारित्तर और केशर-कस्तूरी. ये सभी कहानियां किसी न किसी पत्र-पत्रिका में प्रकाशित हो कर पहले ही पाठकों के बीच काफी चर्चा प्राप्त कर चुकी हैं. और साहित्य जगत में अपना एक मुकाम बना चुकी हैं. इन सारी कहानियों की पृष्ठभूमि गाँव की है. स्वाभाविक तौर पर पात्र, स्थान और घटनाक्रम भी गाँव के ही हैं. पात्रों के बीच के संवाद और उनकी बोली-भाषा भी गवई ही है | ध्यातव्य है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में १९९१ एक महत्वपूर्ण विभाजक रेखा है. कांग्रेसी सरकार के प्रधानमंत्री पी. बी. नरसिंह राव ने उदारीकरण के जिस बयार की नींव रखी उसके प्रतिपादक उनके वित्तमंत्री मनमोहन सिंह थे जिन्होंने आगे चल कर खुद भारत की बागडोर संभाली और उदारीकरण के दूसरे चरण को जोर-शोर से आगे बढ़ाया. १९९१ ही वह साल था जब देश मंडल कमीशन की सिफारिशों के चलते सवर्ण तबके के गुस्से का शिकार हो रहा था और इसकी काट के लिए भाजपाई सूरमा लाल कृष्ण आडवानी रथयात्रा का पाखण्ड रच कर देश में एक अजीब किस्म का साम्प्रदायिक विष-वमन करते फिर रहे थे. विभाजन के बाद शायद यह पहली बार था कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की खाई इतनी अधिक बढ़ चुकी थी कि किसी को बीच का कोई रास्ता ही नहीं सूझ रहा था. दोनों ओर अविश्वास का माहौल गहरे तौर पर व्याप्त था. आर्थिक उदारतावाद के दौर में भारत ने जब कदम रखे तब यह जोर-शोर से प्रचारित-प्रसारित किया गया कि इससे सामाजिक समरसता बढ़ेगी और सभी वर्गों का जीवन खुशहाल बनेगा. लेकिन आँखे बंद कर देखे गए सपने तो महज सपने ही होते हैं. एक तो वे जगने पर याद ही नहीं आते और अगर दिमाग पर जोर देने पर किसी तरह याद आये भी तो बे सिर-पैर के होने के कारण उनकी हमारे जीवन में कोई खास अहमियत नहीं होती. उदारीकरण के तिलिस्म के बावजूद आम आदमी का जीवन लगातार बद से बदतर होता गया. महंगाई से आम आदमी का जीना लगातार दूभर होता गया और भ्रष्टाचार बड़ी तेजी से हमारे जीवन और जीवन पद्धति का पर्याय बनता चलता गया. समाज में पहले बच-बचा  कर रिश्वत लेने की परम्परा थी अब यह खुलेआम स्टेटस सिम्बल से जुड गया. पहले हजारों-लाखों की रिश्वत छुप-छुपा कर लेने की परम्परा थी. अब यह यह हजारों-करोड और लाखों-करोड में तब्दील होते हुए खुलेआम ली-दी जाने लगी. यद्यपि शिवमूर्ति का यह संग्रह केशर-कस्तूरी १९९१ में ही छप गया. यानी इस संग्रह की कहानियां बहुत पहले लिखी जा चुकी थीं लेकिन यह उन कहानियों की ताकत ही है कि इतने सारे बदलावों के बावजूद आम आदमी के जीवन-संन्दर्भ में वे आज भी प्रासंगिक हैं.

संग्रह की पहली कहानी है कसाईबाड़ा. भारतीय राजनीति के वास्तविक चेहरे को उजागर करती यह कहानी लोकतांत्रिक पद्धति के प्राथमिक सोपान गाँव और ग्राम पंचायत के सर्वोच्च पद ग्राम प्रधान को लेकर मचे घमासान और उसी के मद्देनजर किये जा रहे दुरभि-प्रयत्नों की कहानी है. इस क्रम में कठपुतली बनी है शनीचरी. जो इस कहानी की मुख्य पात्र भी है. चुनाव में प्रधान बनने की अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए लीडर जी ने स्कूल मास्टरी से छुट्टी ले ली है. आखिर कौन मरे खपे छोटी सी नौकरी में. राजनीति से बेहतर कैरियर आखिर क्या हो सकता है? लोकतंत्र के पहरुए अब इसे धन कमाने का एक बेहतर उद्यम मानने लगे हैं. और जब भी यह घटित होता है यह लोकतंत्र लोक का बेड़ा ही गर्क करने लगता है. विकास योजनाओं के नाम पर आ रहा अकूत धन अपनी जेब में भरने का एकमात्र माध्यम राजनीति ही हो सकती है. आज गाँव के प्रधान से लेकर देश के मुखिया तक येन-केन-प्रकारेन धन लूटने-खसोटने में लगे हुए हैं. हमारे देश के एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी तक ने १९८७ में ही यह खुले तौर पर स्वीकार किया था कि केंद्र यानी दिल्ली से विकास के लिए चला एक रुपया गाँवों तक पहुंचते-पहुंचते मात्र १७ पैसे रह जाता है. सवाल यह है कि भारतीय जनता की गाढ़ी मेहनत का बाकी ८३% बीच में से ही आखिर कहाँ गायब हो जाता है? और तब से गंगा में काफी पानी बह चुका है. पता नहीं आज यह औसत घट कर कितना हो चुका है. जिन्हें हमने बहुत भरोसे के साथ अपने घर का रखवाला बनाया वही आज उसके भक्षक बन गए हैं. हमारे ये राजनीतिज्ञ जो भी काम करते हैं उसके मूल में अंततः उनका अपना स्वार्थ ही होता है. इसीलिए आज किसी भी बेहतर उद्देश्य को लेकर शुरू किये गए काम में भी जनता-जनार्दन को काफी ढोल-पोल नजर आती है. लंबे-चौड़े उद्देश्यों को लेकर शुरू की गयी महत्वाकांक्षी योजना मनरेगा का आज क्या हाल है यह किसी से ढका छिपा नहीं है.

इस कहानी में भी एक आदर्श विवाह का आयोजन धूम-धडाके के साथ किया गया. ए. डी.ओ., बी.डी.ओ. जैसे अधिकारियों से लेकर प्रमुख, प्रधान, सरपंच जैसे राजनीतिक कर्ता-धर्ताओं की देख-रेख में यह आयोजन संपन्न हुआ. लेकिन बाद में पता चला वस्तुतः यह आदर्श विवाह का आयोजन न हो कर लडकियों को बेचने-खरीदने का आयोजन था. इसका पता चलने पर और लीडर जी के उकसाने पर शनीचरी प्रधान के दरवाजे पर भूख हड़ताल पर बैठ गयी है. यह भूख हड़ताल परिचायक है दलितों में आ रही प्रतिरोधी चेतना के उभार की. हालांकि इस हड़ताल का कोई निष्कर्ष निकलता नहीं दिखायी पडता, लेकिन दूसरे नजरिये से देखें तो इस हड़ताल के अनेक निहितार्थ भी छुपे हुए होते हैं. जो दलित पहले तमाम अत्याचारों और शोषण को अपनी नियति मान कर चुपचाप सह लेता था अब वह प्रतिकार करना शुरू कर रहा है. भारतीय राजनीति के इतिहास पर अगर गौर किया जाय तो इस कहानी के लेखन समय से थोड़ा आगे-पीछे ही भारतीय परिदृश्य में कांशी राम, मायावती और बहुजन समाज पार्टी के प्रारंभिक स्वरुप डी-एस फोर का उदय होता है. इन सबमें उत्तर भारत का दलित समुदाय अपने संघर्ष और प्रतिरोध की आहट को गंभीरता से महसूस करता है और इसके बैनर तले एकजुट होता है. भारतीय राजनीति में यह एक अहम शुरूआत है जिसे रेखांकित किया जाना चाहिए. कहानी में वर्णित इस आदर्श-विवाह आयोजन में भाग लेने वाले आम लोगो की विडम्बना खुद कहानीकार शिवमूर्ति के शब्दों में ही देखिये- जिनकी बेटियाँ उस समारोह में व्याही गयीं थीं, उनके अंदर खलबली मच गयी. करें भी तो क्या? एक तरफ परधान से खिलाफत. बिरादरी में बदनामी. हुक्का-पानी बंद होने का डर. छोटे बेटे-बेटियों की शादी में रूकावट और दूसरी तरफ बेटी की ममता. शनिचरी की तरफदारी कर के बेटी का पता लगाएं या- हुआ सो हुआ, बात को दबा कर बदनामी से बचें? (पृ १०). यह है आम जन की ऊहापोह जो बदनामी से बचने-बचाने की आड़ में अपना सब कुछ गिरवी रख देता है. गाँव में शनिचरी का पक्ष लेने वाला बस एक है- अधपगला अधरंगी. उसका वामांग पैरालिसिस का शिकार है. ध्यातव्य है कि कहानी में यह वर्णन अनायास ही नहीं आया है बल्कि शिवमूर्ति ने समझ बूझ कर इसका प्रयोग किया है. वाम को प्रतिरोधी चेतना का प्रतीक माना जाता है. लेकिन यहाँ पर तो सम्पूर्ण प्रतिरोधी चेतना ही सुन्न पड़ गयी है. पागल होने के बावजूद अधरंगी यह बात अच्छी तरह जानता है कि प्रधान और लीडर दोनो गाँव के राहू केतु हैं. दूसरी भाषा में कहें तो एक ही थैली के चट्टे-बट्टे. सवाल यह है कि क्या गाँव के अन्य लोग इस बात से बेखबर हैं? कदापि नहीं. लेकिन ओखली में सिर डालने का जोखिम कौन मोल ले.  

लडकियों के खरीद-फरोख्त की बात थाने में पहुँचती है. दरोगा प्रधान को सी. आई. डी. इंवेस्टीगेशन की धमकी देता है. दारोगा की प्रधान से पैसे की डीलिंग होती है मंदिर के नाम पर. दूसरी तरफ लीडर भी थाने पहुंचता है. शुरुआती मापतौली बातचीत के बाद दरोगा शिकायती लहजे में लीडर से कहता है- देखिये हाई ऑथोरिटी के इंटरफियर से कभी-कभी बनती बात भी बिगड जाती है. सुना है आपने डाइरेक्ट डी. एम. को दरखास्त भेज दी है. अब बताईये जांच-पड़ताल मुझे करनी है या डी. एम. को? और फिर एक बात यह भी याद रखिये कि जो जितनी ऊंची कुर्सी पर बैठा है वह उतना ही कमजोर और नालायक है. (पृ. १६). यह है भारतीय नौकरशाही की सच्चाई. ऊपर से किसी भी जांच का जब आदेश होता है तो इसका निर्धारण अंततः उन कर्मचारियों की जमीनी जांच के द्वारा ही होता है जिससे आदमी पहले से ही उत्पीडित होता है. ऐसे में ये कर्मचारी खुद ही बेलगाम और निरंकुश व्यवहार करने लगते है तो इसमें किस बात का आश्चर्य. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि ये भ्रष्ट कर्मचारी अपने को साफ़-सफ्फाक और कुशल मानते हुए अपने उच्च अधिकारियों को कमजोर और निकम्मा मानते हैं. जबकि यहाँ पर कोई किसी से कम नहीं वाली न खत्म होने वाली होड मची हुई है.

मुख्यमंत्री को दरखास्त देने के नाम पर लीडर शनिचरी से कचहरी के कागज़ पर अंगूठा-निशान लगवा लेता है. और इस तरह उसकी बची-खुची सम्पत्ति धोखे से अपने नाम करा लेता है. जब लीडर की पत्नी उसके इस कृत्य के लिए खरी-खोटी सुनाती है और प्रतिरोध जताते हुए अपने पति से कहती है कि पूरा गाँव कसाईयों का है मैं यहाँ नहीं रहूंगी. तो लीडर इसकी सफाई यह कह कर देता है कि इसमें धोखा क्या है? मैं नहीं कराता तो प्रधान कराता. गलत काम के लिए पश्चाताप का लेशमात्र भी नहीं दिखता लीडर में. और लीडर ही क्यों, यही तो हमारे सारे राजनीतिज्ञों का चरित्र बन चुका है. इधर प्रधान एक षडयंत्र के तहत दूध पिला कर शनिचरी को मार डालता है. इस प्रकार राजनीति की बलिवेदी पर शनिचरी शहीद हो जाती है. इसके बावजूद चारो ओर भयावह चुप्पी है. कहीं कोई प्रतिरोध नहीं दिखाई-सुनाई पडता. कहानी का समापन लीडर द्वारा अपनी डायरी पर यह नोट करने से होता है –‘मिनिस्टर होते ही सबसे पहले शनिचरी के मौत की कारणों की जांच के लिए एक जांच आयोग बैठवाउंगा. आजाद भारत में कोई भी घटना घटने, कोई भी घोटाला होने पर एक काम जो आवश्यक रूप से हुआ है वह है जांच आयोग बैठाने का काम. इतिहास गवाह है कि इन आयोगों का क्या हश्र हुआ. इनकी रपटें आयीं भी या नहीं. फाइलों में दबी रह गयीं या कूड़ेदान में पहुँच गयी. कोई नहीं जानता. लेकिन आयोग बिठाने के नाम पर जनता को उल्लू बनाने का काम हमारे राजनीतिज्ञों ने बड़े सधे हुए अंदाज में लगातार किया. और यह काम आज भी बदस्तूर जारी है.

संग्रह की दूसरी कहानी है- अकाल-दंड. इस कहानी की केन्द्रीय पात्र भी एक दलित-महिला सुरजी है. महिला जो दलितों में भी दलित और दमितों में भी दमित होती है. इलाके में अकाल फैला हुआ है. लेकिन यह अकाल समाज के सशक्त लोगो के लिए नहीं है. बल्कि कमजोर अशक्त और भूमिहीन तबके के लोगो के लिए है. ऐसे तबके के भूमिहीन लोग-बाग बाहर यानी परदेश कमाने चले गए हैं. गाँव में बच गए हैं- बूढ़े-बूढियाँ, बच्चे, सयानी कुंवारी लडकियां या बड़े किसान परिवार जिनके घरों में थोड़ा बहुत अन्न शेष है या जो सहायता सामग्री हथियाने में माहिर हो गए हैं. (पृ. ३०) इस अकाल में भी मानवीयता नहीं बल्कि जाति-पांति और बिरादरी की भावना सबसे ऊपर दिखाई पडती है. गाँव में जब पानी का टैंकर आता है तो जबरा लोग अपने बैलों को पिलाने के लिए बड़े-बड़े ड्रम और छोंड़ भर लेते हैं. तब गाँव के कमजोर लोगों की बारी आती है. यही नहीं बांटने के लिए आया हुआ गाढ़ा दूध सरपंच बडके टोला के लोगों को बंटवा देता है. छोटे लोगों की बारी आने पर एक-एक ड्रम में चार-चार बाल्टी पानी मिला दिया जाता है. मजदूरी देने के नाम पर भी दो आंखी. कोई काम न करने के बावजूद ऊंची जाति वाले पंजीकृत लोगो को बैठे-ठाले आधी मजदूरी मिल जाती है. जबकि नीची जाति वालों के लिए काम ही नहीं है. यह अकाल अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए सुकाल साबित होता है. ब्लाक के ड्राईवर-कर्मचारियों के लिए कैसा अकाल! उनका मन चौबीसों घंटे, बारहों मॉस जवान रहता है.(पृ. ३१) नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने अपने एक शोध में यह महत्वपूर्ण रहस्योद्घाटन किया है कि अकाल से होने वाली मौतों के पीछे सरकारी नीतियां अधिक उत्तरदायी होती हैं बनिस्बत प्राकृतिक कहर के. शिवमूर्ति उसी अवस्थापना की बात अपनी कहानी में बहुत पहले करते दिखाई पड़ते है. इसी अकाल में सिकरेटरी जो अकाल राहत का प्रमुख है, की नजर गाँव की दलित जवान लडकी सुरजी पर है. वह उसे पाने के तमाम तरीके अख्तियार करता है. इसी क्रम में वह सुरजी को एक पूरे गाँव का चार्ज देने के लिए तैयार है. सुरजी के झटका देने पर वह कातर स्वर से दूसरे का दुःख दर्द दूर करने से बढकर कोई और पुन्न न होने की बात करने लगता है. वह साम-दाम-दण्ड-भेद किसी भी तरह सुरजी को पाना चाहता है.

सिकरेटरी से आतंकित सुरजी राशन लेने नहीं जाती है. लेकिन इस तरह कैसे काम चलेगा. कुछ न कुछ तो करना ही पडेगा पापी पेट के लिए. अपने लिए न सही अपनी बूढ़ी कृशकाय सी सास के लिए. इसी क्रम में वह करमा बुआ के घर सेर भर चावल मांगने जाती है. संवाद शैली में कहानीकार ने इसे प्रस्तुत करते हुए लिखा है-

बुआ पूछती है तूं काहें नहीं गयी कल राहत उठाने?
कहा न बुआ! पेट में दरद...
बहुत-बहुत मेर का दरद देखा है बुढ़िया ने. ई कवन मेर का दरद था? किसका दरद? कब का दरद? (पृ ३७)

शिवमूर्ति की ग्रामीण जीवन पर सूक्ष्म पकड़ है. गाँव के एक-एक टाँट को वे बखूबी जानते-समझते है. यहाँ पर करमा बुआ सुरजी पर जो फब्ती कस रही है वह स्त्री के ही स्त्री के विरोधी होने के चरित्र को ही उजागर करती है. गाँव में यह आम परम्परा है. पित्रसत्तात्मक समाज ने स्त्री समाज में ही बड़ी चालाकी से दो-फाड़ कर दिया है. उन्हें पता ही नहीं चल पाता कि यह सब एक षडयंत्र के तहत है. फूट डाल कर अपना गुलाम बनाए रखने की शातिर तरकीब है. इसी के तहत एक स्त्री लडकी जनने पर दुखी रहती है और तमाम दिक्कतें सहते हुए भी एक लडके की आस लगाए रखती है. आज जो व्यापक स्तर पर मादा भ्रूण ह्त्या का क्रम चल रहा है उसमें बहुत हद तक इस तरह की सोच रखने वाली उन स्त्रियों की भी भागीदारी होती है. आखिर बेवश सुरजी हालात से समझौता कर लेती है और आधी मजदूरी पर काम करने के लिए तैयार हो जाती है. एक बार फिर सिकरेटरी रात को सुरजी की झोपड़ी में पहुँच जाता है. सुरजी अपनी तरफ से प्रतिरोध करती है. इस प्रतिरोध में सिकरेटरी के आगे के दोनों घोड़ा दन्त टूट जाते हैं. पस्त-परास्त सिकरेटरी तमाम निशानियां छोड़े भाग रहा है. लेकिन सिकरेटरी ने हारना नहीं सीखा वह जमीदार रंगी बाबू को बुलाता है. पिछले एक साल से सिकरेटरी का गेंहूँ- चावल थोक में ब्लैक कर रहे हैं रंगी बाबू. रंगी बाबू सोचते हैं- कभी शिकायत का मौक़ा नहीं दिया. तब भी बुलाने के लिए आठ बार आदमी भेजा. आखिर इसको यह कैसे पता चला कि आज मैं पेमेंट लेकर लौट रहा हूँ. अब रंगी को क्या पता कि सिकरेटरी की आज की यह बुलाहट पैसे की बंदरबांट के लिए नहीं बल्कि उसकी परजा सुरजी को साधने के लिए है. बेइज्जती का बदला बेइज्जत करके निकालने की आदत को साकार करने के लिए है.

सिकरेटरी किसी न किसी बहाने से सुरजी को बुलवा कर बदला लेना चाहता है और इसी काम में रंगी बाबू का उपयोग करना चाहता है. आखिर रंगी को वह सारा कायदा ताक पर रख कर कितना फ़ायदा दिलाता रहता है, किस दिन-रात के लिए. रंगी को भी मालूम है की सिकरेटरी की संगत में रहते हुए, न सही अपने गाँव में, दूर-दराज के गाँवों में उन्होंने भी सावन-भादों की उमडती गंगा में असनान का सुख लूटा है.
  
अब समस्या यह है कि सुरजी अपने भूस्वामी रंगी बाबू को कैसे मना करे. एक ओर कुंआ तो दूसरी ओर खाई. सुरजी सोचती है- मना करने पर यह जल्लाद यानी रंगी रात-बिरात अपने आदमियों से उठवा सकता है. चीख पुकार करने पर भी इसके मुकाबले कोई नहीं आने वाला. अंततः सुरजी बयान देने जाने के लिए तैयार हो जाती है. कितना लाचार है आज भी गाँव का दलित? उसके स्वाभिमान की रक्षा कैसे हो सकती है. आज भी कितने दबंग हैं ये ऊँचे तबके के लोग. क़ानून की परवाह किये बिना सब कुछ कर-करा सकते हैं. समाज के सारे नियम क़ानून समाज के दुर्बल और कमजोर तबके के लिए ही क्यों होते हैं.

कहानी के अंत में कैम्प से चीत्कार और कोलाहल की आवाज आती है. सिकरेटरी के तम्बू के अंदर बाहर भीड जमा है. सिकरेटरी पलंग पर नंग-धडंग छटपटा रहा है. सुरजी ने हंसिये से उनकी देह का नाजुक हिस्सा अलग कर दिया है और पिछवाडे के रास्ते अँधेरे में गुम हो जाती है. इस कहानी में भी शिवमूर्ति सुरजी के माध्यम से दलित प्रतिरोध का ताना-बाना बुनते हैं. तमाम किन्तु-परन्तु तमाम शोषण के बावजूद यह वर्ग अपने तरीके से प्रतिरोध का रास्ता अख्तियार कर रहा है. इसी क्रम में सुरजी एक ऐसी ही प्रतिनिधि चरित्र है जो तमाम लानत-मलानत को सहते हुए भी गढे रूप में नहीं अपितु वास्तविक रूप में अपना प्रतिरोध जताती है.

सिरी उपमा जोग’ शिवमूर्ति की चुनिन्दा कहानियों में से एक है. छोटी किन्तु बिलकुल गठी हुई कहानी. कहानी में कहीं से कुछ अतिरिक्त नहीं लगता. दरअसल आज के जीवन की विडंबनाओं की तहकीकात करती हुई यह एक अलग शिल्प और तेवर वाली कहानी है जिसका शिकार अंततः स्त्री ही होती है. शिवमूर्ति की कहानियां पढते हुए स्त्रियों के सन्दर्भ में मुझे हिन्दी का एक मुहावरा याद आ रहा है ‘खरबूजा चाहें चाकू पर गिरे या खरबूजे पर चाकू गिरे दोनों हालत में कटना खरबूजे को ही है.’ आलोचक रविभूषण जी ने अपने एक लेख में यह तथ्य उद्घाटित किया है कि ‘सिरी उपमा जोग’ और ‘भरतनाट्यम’ जैसी कहानियों में शिवमूर्ति के निजी जीवन की झलकियां भी शामिल हैं. खुद शिवमूर्ति इस बात को स्वीकार करते हुए कहते हैं कि ‘हाँ, मैंने अपने निजी जीवन से कुछ हिस्से लेकर उसे रचनात्मक बनाया है... हमारी कहानी भरतनाट्यम आयी तो लोग हमारी बड़ी वाली बेटी से पूछते थे कि तुम्हारी दूसरी अम्मा कौन है. ‘सिरी उपमा जोग’ के बाद पूछते थे कि क्या तुम्हारी अम्मा का नाम ममता है.’ (पाखी, जून २०१२, पृ ४४) जाहिर सी बात है कि शिवमूर्ति जैसा कहानीकार जब खुद अपनी कहानी में शिद्दत से शामिल है तो वह उम्दा तो होगी ही. लेखक के जीवन का जुड़ाव किसी भी रचना को जीवंत बना देता है. इसी क्रम में इस कहानी में कई प्रसंग ऐसे आते हैं जिससे हो कर गुजरते हुए हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

ए. डी. एम. साहब जनता की समस्याएं सुन रहे हैं. इसी क्रम में एक लड़का उनसे अकेले में मिलना और अपनी बातें खुद बताना चाहता है. लेकिन ए. डी. एम. साहब के पास समय नहीं है. वे उसे अगले दिन मिलने के लिए कह कर अपनी जीप से चल पड़ते हैं. लड़का जीप की बगल से दौड़ते हुए अपनी जेब से निकाल कर एक चिट्ठी ए. डी. एम. साहब की गोद में फेंक देता है. चिट्ठी जिसे आटे की लेई से चिपकाया गया है, को फाड कर साहब पढने लगते हैं. दरअसल यह चिट्ठी उनकी पहली पत्नी के द्वारा लिखी गयी है, जो गाँव में दीन-हीन जीवन व्यतीत कर रही है. चिट्ठी से ही पता चलता है कि जिस गँवारू टाईप के लडके ने उन्हें फेंक कर चिट्ठी दी है वह दरअसल उनका ही लड़का लालू है जिसे वह आज से १० बरस पहले, जब वह मात्र १० महीने का था, को छोड़ कर शहर आ गए थे और अपनी मर्जी से चुपके से दूसरी शादी रचा ली थी.

चिट्ठी पढते हुए साहब अपने अतीत में चले जाते हैं. उस अतीत में जो उनके संघर्ष के थे. जिसमें उनकी अनपढ़ किन्तु आशा और आत्मविश्वास से भरी हुई पत्नी का बराबर का सहयोग मिला था. उसी पत्नी ने उनके बेरोजगारी से जूझने वाले मुश्किल  समय में खुद अपनी चिंता न कर अपने गहने बेच कर उनके प्रतियोगिता परीक्षा के शुल्क और पुस्तकों की व्यवस्था की थी. यही नहीं इसी पत्नी ने खेती बारी का सारा काम अपने कन्धों पर ले कर उन्हें गिरस्थी की तमाम जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया था जिससे कि वे निश्चिन्त होकर परीक्षा की तैयारी कर सकें. उनकी सफलता के लिए तमाम मनौतियां माँगी थी पत्नी ने, जिसे उनके सफल होने पर एक-एक कर पूरा किया था.

साहब बन जाने के बाद अब उन्हें पत्नी की देहाती ढंग से पहनी गयी साडी और घिसे-पिटे कपडे चुभने लगे. एक-दो बार शहर ले जा कर फिल्म वगैरह दिखा लाये जिसका अनुकरण कर वह अपने में आवश्यक सुधार लाये. खडी बोली बोलने का अभ्यास कराया करते थे, लेकिन घर गृहस्थी के अथाह काम और बीमार ससुर की सेवा से इतना समय वह न निकाल पाती, जिससे पति की इच्छानुसार परिवर्तन ला पाती. वह महसूस करती थी कि उसके गंवारेपन के कारण वे अक्सर खींझ उठते और कभी कभी तो रात में कहते उठ कर नहा लो और कपडे बदलो, तब आ कर सोओ. भूसे जैसी गंध आ रही है तुम्हारे शरीर से.(पृ ६४). यहाँ पर अनायास ही भीष्म साहनी की कहानी चीफ की दावत की याद आ रही है. सफलता क्यों हमें इतनी निर्मम बना देती है कि इसे हासिल कर लेने के बाद बिलकुल अपना ही बेगाना लगने लगता है. क्या भौतिक उपलब्धियां और सफलताएं जिसमें हमारे अपनों के त्याग, समर्थन और उनकी दुवाओं का भी कुछ न कुछ अंश हुआ करता है, सबको दरकिनार कर हमें महज स्वार्थी बना देने का काम किया करती है. इस कहानी में एक तरफ साहब के अपने अतीत से जी उचटने का जिक्र है तो दूसरी तरफ उनकी वही तथाकथित गंवार पत्नी अपने पति में आये हुए इस बदलाव को शिद्दत से रेखांकित करती है और मनोनुकूल वातावरण पाने पर कहती है- अब मैं आपके जोग नहीं रह गयी हूँ. कोई शहराती मेम ढूंढिए अपने लिए. (पृ ६५).

यह अक्सर देखने में आता है कि लोग सफलता पाने के पश्चात जब अपना गाँव छोडते हैं तो वहीं पर अपनी गवई पत्नी भी छोड़ आते हैं. शहर आ कर वे बेझिझक शहराती लडकी से शादी कर लेते हैं. यह किसी नौकरशाह या राजनीतिज्ञ द्वारा ही नहीं किया जाता बल्कि नामी-गिरामी साहित्यकारों, कलाकारों द्वारा भी पर्याप्त तौर पर किया जाता रहा है. ऐसी स्त्रियाँ परित्यक्ता का जीवन जीते हुए मृत्युपर्यंत न केवल घर-परिवार में अपितु समाज में भी उपेक्षा झेलती रहती हैं. शहराती पत्नी के लिए गाँव की अपनी सौत चुड़ैल और डायन सरीखी लगती है. उसके मन मस्तिष्क में कहीं भी यह अपराध बोध नहीं होता कि उसने किसी का हक छीना है. वह न केवल खुद अपितु अपने पति और बच्चों को उसकी छाया तक से दूर रखने का प्रयास करती है. स्त्रियों के प्रति क्या यह एक तरह की हिंसा नहीं है? बिलकुल दूसरे तरह की हिंसा. जिसमें पुरुष वर्ग केवल अपना स्वार्थ देखता है और उसे ही वरीयता देता है, इस क्रम में बिलकुल करीबी रिश्तों को भी तिलांजलि देने से वह नहीं चूकता.

कहानी के अंत में साहब का गाँव का लड़का लल्लू साहब के घर आने का प्रयास करता है जहां साहब की अनुपस्थिति में उनकी दूसरी पत्नी की बेटी अपनी मोटर चला कर उसे मारती है. शहरी पत्नी ममता अपने साहब पति से पूछती है कहीं वह उस चुड़ैल की औलाद तो नहीं जिसे आप गाँव का राज-पाट दे कर आये हैं? ऐसा हुआ तो खबरदार, जो उसे गेट के अंदर लाये तो खून पी जाऊँगी. सवाल यह है कि कैसा राजपाट दे कर आये हैं साहब? क्या वह राजपाट ले कर ममता यानी साहब की शहरी बीवी संतुष्ट हो जायेगी. बहरहाल सबेरे उठ कर साहब देखते हैं- चबूतरे पर गाँव नहीं था. यानी लल्लू नहीं था. वाकई गाँव इतना संकुचित भी तो नहीं. तमाम उपेक्षाओं के बावजूद गाँव आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ बने हुए हैं. खेती बारी की कमान हो या रिश्तों की कमान गाँव उसे आज भी पूरी जिम्मेदारी के साथ थामें हुए हैं.

शिवमूर्ति की कहानी भरतनाट्यम दरअसल ग्रामीण जीवन का खंडकाव्य है. गाँव, गँवई संस्कार, ग्रामीण सोच-समझ एवं जीवन तथा वहाँ का परिवेश अगर महसूस करना हो तो भरतनाट्यम कहानी से बेहतर कुछ और नहीं हो सकता. वैसे तो यह गाँव के एक बेरोजगार युवक की कहानी है. ऐसा युवक जो बेरोजगार होते हुए भी आदर्शवाद का शिकार है. मैंने यह टर्म जान-बूझ कर इस्तेमाल किया है. अगर आप बढ़िया नौकरी करते हुए भी अपने गाँव में सादगी का जीवन जीते हैं तो गाँव के लोग उसमें संदेह व्यक्त करने लगते हैं. उनके लिए तो बढ़िया नौकरी का मतलब है तमाम तरह का दिखावा और तड़क-भड़क वाला जीवन. अगर ऐसा नहीं तो फिर कुछ भी नहीं. भरतनाट्यम पढते हुए मुझे बराबर अमरकांत जी कहानी डिप्टी कलक्टरी की याद आती रही. कंटेंट अलग होते हुए भी दोनों के मूल में बेरोजगारी ही है. हाँ डिप्टी कलक्टरी में बेरोजगारी की पीड़ा को पूरा घर खास तौर पर पिता महसूस करता है जबकि भरतनाट्यम में यह दंश इस कहानी का बेरोजगार युवक खुद भुगतता है. यह बेरोजगारी इतनी भयावह है कि अपने माँ, बाप तक मुंह फेर लेने से गुरेज नहीं करते. कहानी में शुरू में ही इसका जिक्र कुछ इस प्रकार है- उन्हें (यानी पिता) तो मेरे उठने, बैठने, देखने, चलने, यहाँ तक कि आँखों की पलकें उठाने-गिराने के ढंग तक में खराबी नजर आने लगी है... साला चलता कैसे है, शोहदों की तरह! चलता है तो चलता है, साथ में सारी देह क्यों ऐंठ डालता है? दरिद्रता के लक्षण हैं ये, घोर दरिद्रता के. माँगी भीख भी मिल जाए इस हरामखोर को तो इसकी पेशाब से मूँछ मुडा दूंगा... और देखता कैसे है? शानिचरहा ! इसकी पुतली पर शनिचर वास करता है. सोने पर नजर डालेगा तो मिट्टी कर देगा.(पृ. ६९). यह वर्णन कोई अतिशयोक्ति नहीं बल्कि हकीकत है और इसे कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है. यही नहीं बेरोजगार युवक का परिवार यानी उसकी पत्नी और तीन लडकियाँ भी समवेत रूप से उस दंश के शिकार होते हैं. बेरोजगार युवक की पत्नी को भी तमाम ताने सुनने पड़ते हैं- उनका (यानी घर वालों) का विश्वास है कि पहले मैं बड़ा ही लायक और भाग्यवान था, पर जब से मेरी कुलच्छनी पत्नी इस घर में बहू बन कर आयी, इस घर में शनीचर की पैठारी हो गयी है (पृ. ७१). गाँव के किसी भी घर में किसी भी घटना-दुर्घटना को बहुओं के आने से जोड़ कर देखना बिलकुल आम है. जैसे बहू ने जान-बूझ कर उस घटना में शिरकत की हो या किसी साजिश के तहत उसे अंजाम दिया हो. और अगर बेरोजगार की लडकियाँ हो जाय तो यह तो कोढ़ में खाज जैसा है. कहानी के एक अंश के सहारे ही अपनी बात कहूँ तो मुनासिब होगा- जब (मेरे बड़े भाई के लडके) अमर और विनोद आँगन में दूध पी रहे होते हैं तो मेरी बच्चियां भाभी जी के गिर्द खडी हो कर चुपचाप हसरत भरी नज़रों से खाली होते गिलासों को टुकुर-टुकुर ताकती रहती हैं. पर कभी भूल कर भी हठ नहीं करतीं कि वे भी अमर और विनोद की तरह दूध पियेंगी. उनमें इतनी दीनता कहाँ से आ गयी? उनमें बाल सुलभ जिद क्यों नहीं है? जन्म लेते ही इतनी प्रौढता कैसे आ गयी? (पृ. ७३).

कहानी में कहानी का नायक खुद यह स्वीकार करता है मैंने कभी इन लडकियों पर अपना प्यार प्रकट नहीं किया. सच तो यह है कि २४ साल की उम्र में तीन बच्चों का बाप हो गया हूँ, यह सोच कर ही रोना आता है. अपने एक साक्षात्कार में शिवमूर्ति भी स्वीकार करते हैं- भरतनाट्यम लिखे जाने तक मैं भी तीन बेटियों का बाप बन चुका था. उस समय तक कोई बेटा नहीं था. गाँव में जिनको बेटा नहीं होता था उनकी मानसिकता में कुछ कल्पना मिला कर और अपनी अनुभूति मिला कर भरतनाट्यम लिख दिया. (पाखी, जून २०१२, पृ. ४४) कहानी में नायक की पत्नी का ही यही मानना है कि तीनों की तीनों लडकियां होने का एकमात्र जिम्मेदार मेरा उससे उन्नीस स्वास्थ्य है. उसके अनुसार यदि पति तगड़ा है तो तो लडका होगा, पत्नी तगड़ी है तो लडकी... बेटा पैदा कर के घर भर की नज़रों में चढ जाने की उसकी कामना इतनी तीव्र है, इसका पता मुझे कभी न लगता, अगर उस दिन... (पृ ८८). यह हमारे भारतीय जीवन की विडम्बना ही है कि बेटियाँ आज भी हिकारत की नजर से देखी जाती हैं. लिंगानुपात लगातार गिरता चला जा रहा है. बनावटी चिंता जताई जाती है लेकिन समस्या से जूझने का साहस नहीं दिखाया जाता.

भरतनाट्यम में ही शिवमूर्ति ने बेरोजगारों का शोषण करते निजी स्कूलों के सच को भी उजागर किया है. नायक को एक स्कूल में ऐसी ही अध्यापकी की नौकरी मिलती है जिसमें दस्तखत करने वाली तनख्वाह डेढ़ सौ और मिलने वाली पचहत्तर रुपये है.
यही नहीं मैनेजर या अध्यक्ष के घर अगर कोई उत्सव हो तो उनके यहाँ मजदूरों जैसी बेगारी अलग से. सचमुच हमारे यहाँ स्कूली सच बहुत भयावह है. आये दिन मैनेजरों द्वारा अध्यापकों के उत्पीडन की  घटनाएँ घटती रहती हैं. अधिकाँश जगह तो स्थिति यह है कि चपरासी और क्लर्क तक का वेतन एवजी अध्यापक के वेतन से कहीं ज्यादा होता है. अगर प्रतिदिन की दर से मजदूर की मजदूरी जोड़ दी जाय तो इस मामले में उसकी मजदूरी ही बीस बैठेगी. इसके मूल में भी राजनीति है. प्राईमरी लेवल से लेकर परास्नातक स्तर तक के स्कूलों महाविद्यालयों के मैनेजर या तो राजनीतिज्ञ हैं, या ठेकेदार या माफिया. उनके जेहन में कमाई और अपना स्थानीय रोब-दाब ही प्रमुख होता है. पढाई-लिखाई उनके एजेंडे में दूर-दूर तक नहीं होती. छात्रों से फीस के नाम पर स्कूली इमारत के विकास और उनकी पासकराई आदि-आदि तरह की धन वसूली की जाती है. पीढीयों को बनाने और देश को आगे बढाने के मुख्य कारक शिक्षा में प्रयोग के नाम पर आज जिस तरह की घटिया राजनीति की जा रही है वह चिंतनीय है. अभी हाल ही में सबसे भ्रष्ट महकमें की खोज के लिए एक सर्वेक्षण कराया गया था. जिसके अनुसार हमारे यहाँ का सबसे भ्रष्ट महकमा शिक्षा विभाग ही है. जहाँ के शिक्षा विभाग की यह हालत हो उसके भविष्य का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है. यह कहानीकार की सूक्ष्म नजर ही है जो इस चिंतनीय मुद्दे को बहुत सहज अंदाज में बिना कुछ अतिरिक्त कहे इस कहानी में उठाता है और अपनी बात कह डालता है.

हमारी जो यह शिक्षा व्यवस्था है दरअसल उसके मूल में ही अनेकानेक त्रुटियाँ हैं. शिक्षा का उद्देश्य आज मात्र नौकरी प्राप्त करना रह गया है. मेधावी विद्यार्थी भी उसी क्षेत्र में नौकरी पाना चाहते हैं जिसमें पर्याप्त रूप से ऊपरी कमाई यानी लूट-खसोट की गुंजाईश हो. ऊपरी कमाई का मतलब ही है- भ्रष्टाचार और जनता की गाढ़ी कमाई का अवैध तरीके से हस्तानान्तरण. जबकि नौकरी का असल मकसद जनता की सेवा करना होता है. कहानी में भी जब नायक को दिल्ली में नौकरी के लिए कागज़ मिलता है तो उसके पिता नौकरी में ऊपरी कमाई के बारे में पूछते हैं. इस तरह शिवमूर्ति एक सूक्ति (ऊपरी कमाई) के सहारे देश और समाज की बड़ी समस्या की ओर इशारा कर के आगे बढ़ जाते हैं. यही तो एक कहानीकार की सफलता है. इस नौकरी में भी कहानी का नायक फिट नहीं हो पाता और अंततः लौट आता है एक बेरोजगार बन कर फिर अपने घर-गाँव. इसी क्रम में नायक के मन में एक चुभती हुई पंक्ति के साथ अपनी शिक्षा व्यवस्था के ढोल-पोल को उद्घाटित करते हुए कथाकार आगे बढता है- बच्चे के कच्चे मन पर राणा और आजाद की नुकीली मूछे और गज भर की छाती, भगत सिंह का टोप और नेताजी की सैनिक छवि इतनी गहराई तक घुस जाती है कि प्रौढ़ होने पर आज के गर्हित यथार्थ जीवन के साथ स्वयं को समायोजित करने के दौरान उसे भीषण मानसिक यंत्रणा से गुजरना पडता है. कभी-कभी तो इसी कशमकश में वह मेरी तरह टूट जाता है. (पृ. ८७). सही भी तो है यह. कहाँ आदर्शवाद का पाठ पढाने वाली हमारी शिक्षा व्यवस्था और कहाँ भ्रष्टाचार, बेईमानी-शैतानी और कांईयापन से पग-पग आप्लावित यथार्थ जीवन? जैसे दोनों नदी के दो छोर इन दोनों में कहाँ और कैसे तालमेल स्थापित हो सकेगा.   

अब नायक अपने पिता के कहने पर गाँव के पुराने सस्ते गल्ले की लायसेंसी दूकान के लिए अप्लाई करता है. लेकिन वहाँ भी वही भ्रष्ट तंत्र. गोपीचंद बताता है- नए हो इसीलिए साफ़-साफ़ बता रहा हूँ. अकेले चीनी के ब्लैक में ही हर महीने तीन हजार की बचत है... किसी दिन साहब से जाकर परसनली मिल लो... अपने इलाके के दरोगा, बी.डी.ओ. तथा जो भी दो-चार मुंहलगे कुत्ते हो, उन्हें दो-चार किलो दे कर पटाये रहो, बस सीधी-सी बात है, जिसके काटने का डर हो उसका मुंह बंद कर दो. साला काटेगा किधर से?... साल भर में बिल्डिंग खडी हो जायेगी. (पृ. ८७) देश की आजादी के बाद गरीबों की मदद के लिए कंट्रोल और राशन व्यवस्था की जो शुरुआत की गयी वही सरकारी धन की लूट-पाट का बड़ा केंद्र बन गयी. इसका फ़ायदा नेता से लेकर नौकरशाह और ठेकेदार से लेकर दलाल तक लगातार उठाते रहे. आम आदमी के नाम पर आया चीनी, किरासिन तेल और चावल, गेहूँ आम आदमी के घर की बजाय सेठ-साहूकारों की दुकानों में पहुंचता रहा और ये सभी मालामाल होते रहे. इनकी बड़ी-बड़ी हवेलियाँ बनती रहीं, इनका बैंक बैलेंस बढ़ता रहा जबकि जनता बस तमाशाई बनी रही. जनता को तो यह भी पता नहीं चलने पाया कि उसके गाँव की राशन की दूकान पर कब चावल, चीनी, गेहूँ आया, कब चला गया. दुखद तो यह है कि बेशर्म लूटपाट का यह क्रम हमारे देश में आज भी बदस्तूर जारी है.

नायक जब दूकान का लाईसेंस लेकर लौटता है तब उसे पता चलता है कि उसकी बीवी बलिष्ट देह-धजा वाले दरजी खलील के साथ कलकता भाग गयी है. इस खबर से एकबारगी उसका सारा सुरूर गायब हो जाता है. तन और मन दोनों से टूटा हुआ नायक घर से खरबूजे के खेत की ओर चल पडता है. और मन ही मन एक फ़िल्मी गाना गुनगुनाता है- इस भरी दुनिया में कोई भी सहारा ना हुआ. बेटियाँ तीन हैं बेटे का सहारा ना हुआ. माँ, पिता तो पहले से ही उसके प्रति कटु थे और अब हर पल साथ देने वाली पत्नी भी बेटे की आस में उसका साथ छोड़ गयी. और इसी सुरूर में वह खरबूजे के खेत में भरतनाट्यम शुरू कर देता है. बेरोजगारी का दंश ही कुछ ऐसा होता है जिसमें कहीं-कोई भी सहारा नहीं होता बल्कि व्यक्ति असहाय महसूस करता है जैसाकि इस कहानी का नायक. यहीं कहानी का समापन हो जाता है पाठक के मन में तमाम सवालात उठाते हुए.

तिरिया चरित्तर शिवमूर्ति की एक और बेहतरीन कहानी है. इस कहानी की केन्द्रीय पात्र विमली है. अपने माँ-बाप के लिए वह लड़का बन कर रहना चाहती है. आखिर किस लड़के से कम है वह. लेकिन दिक्कत यही की लड़की को अपनी पहचान आखिर एक लड़के के रूप में ही बनानी पडती है. कहानीकार ने जान-बूझ कर ऐसी पहचान बनाने की कोशिश किया हो, ऐसी बात नहीं बल्कि यह तो हमारे समाज की दोयम मानसिकता को ही दर्शाता है. विमली अपने घर की आजीविका चलाने के लिए भट्ठे पर काम करती है. वह घर जिसमें उसके माँ और बाप हैं. और जिन्हें एक अरसे पहले उसका भाई बेसहारा छोड़कर अलगौझा कर लिया. भट्ठे पर काम करने वाले मजदूर अपने बीच हंसी-मजाक करते हैं. अपने नीरस और उबाऊ जीवन को वे इन मजाकों के माध्यम से ही सरस और जीने योग्य बनाते हैं. ये हमारे बीच के ही पात्र हैं- कुईसा बोझवा, गणेशी, बिल्लर. बिलकुल आम पात्र जो जीवन की तमाम क्षुद्रताओं से भी भरे हैं. इनमें आदर्श की खोज करने वालों को यहाँ निराशा ही हाथ लगेगी. ट्रैक्टर चलाने वाला बिल्लर विमली के प्रति आसक्त है. वह विमली से चुहल करता रहता है. शिवमूर्ति ने बिल्लर की आशक्ति को इस लोकगीत के माध्यम से ही ज्यों का त्यों रख दिया है- ... तोर मन लागै न लागै पतरकी, मोर मन लागल बा तोरे मां (पृ. ९७) गाँव की कहानियाँ लिखने वाले कहानीकार के लिए लोक गीतों, लोक कहानियों के मर्म और मतलब को जानना बहुत जरूरी होता है, तभी बात सध पाती है.  शिवमूर्ति ने इस गीतों के जरिये लोक पर अपनी पकड़ को साबित किया है साथ ही इनके बेहतर प्रयोग ने कहानियों को और धारदार बना दिया है.

एक लडकी भट्ठे पर काम करे और लोग बोल न बोले आखिर यह कैसे हो सकता है? खुद शिवमूर्ति के शब्दों में ही कहें तो- ले टरेनिंग. बहुत लोग टरेनिंग देने के लिए लोक लेने को बैठे हैं वहाँ. (पृ. १००) लेकिन विमली किसी की परवाह नहीं करती. उसे मालूम है की स्वाभिमान का जीवन जीने के लिए अपना जांगर चलाना ही पड़ेगा. लोग पीठ पीछे उल्टी-सीधी बातें करते ही रहते हैं. वह इन बातों की परवाह करते हुए जलालत भरी गरीबी को झेलती रहे या अपना घर-बार चलाने का उपक्रम करते हुए इस गरीबी से पार पाने का प्रयास करे. इसी क्रम में वह भट्ठे पर काम शुरू कर देती है. और इसका परिणाम यह होता है कि थोड़े ही दिनों में उसके घर की बिगड़ी हालत सुधर जाती है. विमली मन ही मन डरेवर जी को चाहती है, जो भट्ठे पर अपनी ट्रक को ले कर अक्सर आता रहता है,. यह चाहना बिलकुल अलग तरीके का है. एक स्त्री द्वारा एक पुरुष के साथ एक दोस्त की तरह की रहने-बरतने की चाहत. लेकिन हमारी भारतीय मानसिकता इस बात की इजाजत कहाँ देती है? दिक्कत यही है कि हमारे यहाँ एक लडकी की पुरुष मैत्री की चाहत को अक्सर उसकी यौन लिप्सा से ही जोड़ दिया जाता है. इससे अधिक या कमतर हम कुछ सोच ही नहीं पाते. विमली की शादी बचपन में ही सीताराम नामक लड़के से हो गयी थी जिसकी अब उसे कोई याद नहीं, लेकिन वह एक पारंपरिक भारतीय पत्नी की तरह बस अपने पति के लिए अपने को सुरक्षित रखना चाहती है. आखिर जिस समाज में वह रहती है उसे उस समाज को भी तो देखना-सहना है. और यह समाज है कि बिना सोचे समझे विमली पर तमाम तरह की टीका-टिप्पणी करता रहता है. लेकिन विमली सजग-सतर्क है. वह समाज की नज़रों को और उसकी नियति को अच्छी तरह पहचानती है. इसी क्रम में एक दिन देर से घर लौटते हुए विमली को पहुंचाते समय बिल्लर जब बदमाशी पर उतर आता है तो वह उसको दांत काट लेती है. वह अपनी अस्मिता की रक्षा करना बखूबी जानती है. लेकिन भेड़ियों से भरे समाज में वह कब तक अपनी रक्षा कर पायेगी. भारतीय परिप्रेक्ष्य में महिलाओं के सन्दर्भ में आज भी यह एक यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब अब किसी युधिष्ठिर के पास भी नहीं है. और अनुत्तरित सवालों के साथ जीने के लिए अभिशप्त हैं हमारी स्त्रियाँ.

कहानी तब एक निर्णायक मोड़ लेती है जब विमली का ससुर विसराम उसका गौना लेने आता है. ससुर होते हुए भी विसराम की नजर अपनी पतोहू विमली पर है. विमली इस कौटुम्बिक यौन प्रताडना का अपने स्तर से लगातार प्रतिरोध करती है. स्वाभाविक रूप से इसकी कीमत उसे चुकानी पडती है तरह-तरह के लांछनों के रूप में. आखिर एक स्त्री यहाँ बेवश दिखाई पडती है. कहाँ जाय वह क्या करे? जब उसके घर परिवार का परिजन ही उसकी आबरू उतारने पर उतारू हो जाय तो फिर वह अपनी सुरक्षा के लिए किस सहारे को खोजे. जान सांसत में पडी है विमली की. किसी तरह पत-पानी के साथ मायके पहुँच जाती अगर... या उसका आदमी आ पहुंचता अचानक. नहीं तो हर रात जंगल की रात. एक रात एक युग. किसी से कहे भी तो क्या? क्या करेगा कोई सुन कर हँसने के सिवा? भरी पंचायत में खडा होना पड़ेगा अलग. और ऐसे ऐसे नंगा कर देने वाले सवाल पंचायत के चौधरी लोग, रस ले-ले कर पूछते हैं कि... उसे खूब पता है. नैहर तक बदनामी अलग से.(पृ. १२४) आज भी हमारे समाज में स्त्री की यही नियति है. सामंती सोच से आगे एक इंच भी हम नहीं बढ़ पाए हैं. सच कहें तो ज़माना चाहें जितना आगे बढ़ा हो हम एक इंच भी आगे बढ़ने का साहस नहीं दिखा पाए हैं. पंचायत हो या कोर्ट-कचहरी हर जगह प्रताडना दलितों में दलित, दमितों में दमित स्त्री को ही झेलनी पडती है. संदेह केवल और केवल उसी पर किया जाना है. दोषी उसी को ठहराया जाना है. रामायण युग से लेकर आज तक शक करने की समृद्ध परम्परा है हमारे पास. तो उसी परम्परा में विमली के साथ भी यही होता है. यौन-पिपासु विसराम तरह-तरह के जतन करता है विमली को रिझाने-मनाने-पाने के लिए. इसमें कामयाब न हो पाने पर वह छल का सहारा लेता है. आखिर प्रसाद के बहाने विसराम विमली को अचेत कर अपनी यौन पिपासा बुझाता है और रात ही रात फिर मंदिर पर चला जाता है. अपनी पोल खुलने के डर से विमली पर तमाम चारित्रिक इल्जाम लगाकर पंचायत के सामने खडा करता है. विमली का पिता भी इन इल्जामों को सुन कर दूर से ही बिना सोचे विचारे वापस लौट जाता है. अब कौन किसकी बेटी, कौन किसका बाप! पञ्च लोग आ गए पंचायत में तो सिर पर जूते रखवायेंगे.(पृ. १३७). हमारे समाज में लडका अगर कुछ भी करे कोई गलती भी करे तो उसके सातों खून माफ और अगर किसी लडकी पर कोई झूठा इल्जाम भी लग गया तो उसकी खैर नहीं. वह सबकी आँखों में चुभने ही लगती है अपने भी उसके साथ बेगाने का व्यवहार करने लगते हैं. आखिर पंचायत फैसला करती है- गाँव के नाक कटाने वाली, गाँव की इज्जत में दाग लगाने वाली जनाना (विमली) को बेदाग़ नहीं छोड़ा जा सकता. इसकी कोई माफी नहीं. पंचायत विमली के माथे पर दागने की सजा सुनाती है. इस निर्णय का प्रतिरोध एक स्त्री ही करती है- ई अंधेर है! दगनी दागनी है तो विसराम और बोधन चौधरी के चूतर पर दागना चाहिए. कोई काहे नहीं पूछता कि बोधन की बेवा भौजाई दस साल पहले काहे कुएँ में कूद कर मर गयी थी. गाँव की औरते मुंह खोलने को तैयार हो जाय तो विसराम की घटियारी के वह एक छोड़ दस परमान दे सकती है... यही नियाव है. ई पंचायत नियाव करनी बैठी है कि अंधेर करने.(पृ. १४२) लेकिन उसकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह जाती है. पंचायत पुरुषों की, न्याय पुरुषों का. इज्जत के बारे में फैसला करने का अधिकार पुरुषों का. स्त्री के पास तो जैसे अपना कुछ भी नहीं. न तो अपनी देह, न अपनी इज्जत, न अपना चरित्र ही. फैसला करने के अधिकार के बारे में तो सोचा तक नहीं जा सकता. अंततः विसराम को ही अपनी दागी बहू विमली को दागने का काम सौपा जाता है. दिप-दिप लाल कलछुल से दागने पर एक चीख के साथ विमली बेहोश हो जाती है. आखिर तिरियाचरित्तर समझना इतना आसान कहाँ? इसे न्यायसंगत ठहराने के लिए हम पुरुषों के पास राजा भरथरी का सूक्ति वाक्य है ही- तिरिया चरित्रम् पुरुखस्य भाग्यम... स्त्रियों के पास क्या है.वे तो आज भी पिता, पति और पुत्र के अधीन रहने के लिए अभिशप्त हैं.

संग्रह की आख़िरी कहानी है- केशर-कस्तूरी. इस कहानी की केन्द्रीय पात्र केशर है. केशर एक खुशमिजाज और कामकाजी लडकी है, जिसके पास तमाम तरह के अचूक देहाती नुस्खे हैं और जिनकी बदौलत वह जल्दी ही कोलोनी के लोगों का दिल जीत लेती है. अब उसके गौने की तारीख तय की गयी है. उसकी शादी दर्जा आठ पास करते ही हाईस्कूल में पढ़ने वाले एक लड़के से कर दी गयी थी. एक साल बाद नैरेटर केशर के गाँव किसी काम से जाता है. वहाँ वह पाता है कि केशर की चपलता चंचलता गायब है. दैहिक आभा क्षीण है. मुख मलीन! कैशौर्य की अकाल मृत्यु. (पृ. १३२) पता चलता है कि केशर के पति की एक दुर्घटना की वजह से नौकरी छूट गयी है. और पारिवारिक अलगौझे के चलते उसकी माली स्थिति खराब हो गयी है. केशर अपने पति को नैरेटर यानी अपने मौसा से कोई नौकरी दिलाने की गुजारिश करती है, जो एक अधिकारी हैं. तमाम कोशिशों के बावजूद केशर के पति को कोई नौकरी नहीं मिल पाती. हार-थक कर वह एक भट्ठे पर मुंशीगिरी करने लगता है. परिवार की गाड़ी को खीचने के लिए केशर भी हाड-तोड़ मेहनत करने लगती है. लेकिन एक महिला का कामकाजी होना भला घर वालों को कैसे सुहाता. उसके वे जेठ जो पहले ही अपने स्वार्थवश अलग हो गए हैं, उस पर तमाम गलत इल्जाम लगाने लगते हैं. इसी बीच केशर को एक बच्ची भी होती है लेकिन दो महीने का होते-होते वह चल बसती है. दुखों का पहाड़ ढोते केशर को जब ससुराल से विदा कराने के लिए उसके पिता और मौसा यानी नैरेटर उसके यहाँ दो साल बाद जाते हैं, तो वह लौटने में असमर्थता व्यक्त करती है. क्योंकि उसके कन्धों पर बूढी सास और बूढ़े बैल के परवरिश की जिम्मेदारी है. उन्हें छोड़ कर वह कहीं भी कैसे जाय. वह अपनी बात के समर्थन में कुछ अकाट्य तर्क भी पेश करती है. और अंततः एक लोकगीत की तर्ज पर पिता को आश्वस्त करती है- टुटही मडईया मा जिनगी बितऊबै, नाही जइबे आन की दुवारी जी. 

यह है शिवमूर्ति की कहानी का वितान, जिसकी केन्द्रीय पात्र अक्सर स्त्रियाँ होती हैं. वे स्त्रियाँ जो सब जगह संदेह की नजर से देखी जातीं हैं, वे स्त्रियाँ जो जब अपनी मर्जी से जीवन जीने की कोशिश करने लगती हैं तो समाज की आँखों में तुरंत ही खटकने लगती हैं. उनके चरित्र से घर, परिवार, समाज, गाँव-गिरान हर वक्त हलकान रहता है और खतरा महसूस करता रहता है. छुईमुई सा गढा हुआ बेहद लिजलिजा चरित्र जो प्रायः स्त्रियों से ही जुड़ा हुआ होता है. गरीबी हो, अकाल हो या कोई भी दुःख-विपत्ति की घड़ी स्त्रियाँ ही उसकी पहली शिकार बनती हैं. वे स्त्रियाँ जो बालिका के रूप में जब माँ के गर्भ में आती हैं तभी से उन्हें जीवन के लिए संघर्ष करना पडता है. और उनका यह जीवन-संघर्ष आख़िरी सांस तक चलता रहता है. वे स्त्रियाँ जिनकी झूठी आन-बान के लिए आज भी आनर किलिंग के रूप में उनकी हत्या कर दी जाती है. वे स्त्रियाँ जो दहेज के लिए बेहद अमानवीय तरीके से आज भी ज़िंदा जला दी जाती हैं. गाँव तो गाँव हमारे देश की राजधानी दिल्ली तक में आज स्त्रियाँ बेहद असुरक्षित हैं. आखिर किस तरीके का समाज गढा है हमने? आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी कितनी आजाद हैं हमारे देश की स्त्रियाँ. यह अनायास ही नहीं है कि शिवमूर्ति स्त्रियों को अपनी कहानी का केन्द्रीय पात्र बनाते हैं. शुक्र है साहित्य आज भी संवेदना के पानी को अपने अंतस में बचाए हुए है.

बचने-बचाने की तमाम कोशिशों के बावजूद एक रचनाकार अपनी रचनाओं में प्रत्यक्ष रूप से कहीं न कहीं दिखाई ही पड़ जाता है. इसी क्रम में उसकी सोच और उसकी पक्षधरता भी दिखाई पडती है. हाशिए के जन के प्रति पक्षधरता किसी भी रचनाकार के बनावट-बुनावट को स्पष्ट रूप से उजागर करती है. यह झुकाव एकाएक नहीं होता. दूसरों के दुःख को अपना दुःख समझने वाला ही शिद्दत से दुःख और दुःख की त्रासदी को महसूस कर पाता है. इस सन्दर्भ में मुझे गांधी जी के जंतर की याद आ रही है जिसमें वे कहते हैं - जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा. क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा. क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर कुछ काबू रख सकेगा? यानी क्या उससे उन करोडो लोगों को स्वराज मिल सकेगा जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त है? इस सन्दर्भ का संज्ञान लेते हुए अगर बात की जाय तो शिवमूर्ति गरीब और कमजोर के रूप में में स्त्री को ही अपने सामने रखते हैं. संयोगवश एक रचनाकार के रूप में शिवमूर्ति की यही ताकत है कि वे अपनी जड़ गाँव से लगातार जुड़े हुए हैं. नौकरी में होने के बावजूद उनका मन गाँव के जन के साथ ही रमता है. यही तो वजह है कि उनकी नौकरी से जुड़ा कोई प्रसंग कहानी में नहीं ढल पाया. जबकि उनकी कहानियों के बीच आये हुए लोकगीत इस बात की खुलेआम तस्दीक करते हैं कि वे गाँव की मिट्टी से गहरे तौर पर जुड़े हुए हैं. उनकी कहानियों में ये  लोकगीत कहानी के जरूरी सन्दर्भ के रूप में आते हैं. जैसे उस वक्त कहानी को उस खास लोकगीत की जरूरत पडी हो और उसका रागात्मक संग-साथ पा कर कहानी  और मजबूत हो गयी हो. कहीं से भी यह नहीं लगता कि इन लोकगीतों को कहानी में जबरन प्रक्षेपित किया गया है या ठूँसा गया है. कहना न होगा कि हमारे लोकगीतों को और उनकी गेयता को बचाने में स्त्रियों की हमेशा से महत्वपूर्ण भूमिका रही है. विद्वत जन मन्त्र-तंत्र बचाते रहे जबकि स्त्रियाँ इन गीतों को बचाती रहीं. अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत स्त्रियों को संभवतः इन लोकगीतों से बहुत प्रेरणा मिलती होगी. ये लोकगीत इन्हें हमेशा एक दिलासा दिलाते होंगे. मानसिक दिलासा जिसे तोड़ पाना इतना आसान नहीं होता. बिना किसी लाग-लपेट के शिवमूर्ति ने खुद यह स्वीकार किया है कि हमेशा से स्त्रियाँ मुझसे बहुत ज्यादा करीब रहीं हैं. वो चाहें छोटी बच्ची हो या हमारी दादी-नानी टाईप की स्त्रियाँ: हमेशा से ही खुल कर हमसे बात करती रहीं हैं. इसी के चलते मुझे बार-बार इस (स्त्री) मानसिकता में जाने का मौक़ा मिल गया.(पाखी, जून २०१२, पृ.३८). सबाल्टर्न इतिहासकार होने का दावा करने वाले क्या इस कथन से कुछ सीख ले सकते हैं. जब तक हम उस मानसिकता का सूक्ष्म अवलोकन नहीं करेंगे, जो हमारे अध्ययन का विषय है, तब तक हम उसके साथ न्याय नहीं कर पायेंगे.

शिवमूर्ति अपनी कहानियों में कहीं पर भी विचारधारा को हावी नहीं होने देते. उनके यहाँ विचारधारा भी कहानी के एक अंग के रूप में आती है. बल्कि उसके कथ्य, संवादों और दृश्यों में ही घुली-मिली दिखाई पड़ती है. स्थूलता देखने के आदी लोगों को इनके यहाँ असफलता ही हाथ लगेगी. लेकिन समग्र रूप में हर कहानी में एक विचारधारा स्वयमेव उभर कर आती है जो इनकी कहानियों की ताकत बन कर सामने आती है. यही तो एक कहानी और उसके कहानीकार की सफलता भी है.                   

प्रोफ़ेसर राजेन्द्र कुमार जी ने एक अवसर पर कहा था कि जहां इतिहास चूक जाता है वहाँ हमारी मदद साहित्य करता है. कई ऐसे बारीक व्यौरे होते हैं जिस ओर अमूमन इतिहासकार का ध्यान ही नहीं जाता जबकि उन्हीं साधारण से लगने वाले विषयों को लेकर एक साहित्यकार एक बेहतरीन कहानी या कविता रच देता है. जो असाधारण या कालजयी कृति बन जाती है और जिसका सहारा इतिहासविदों और समाजशास्त्रियों को भी समय-समय पर लेना पडता है. शिवमूर्ति की कहानियां पढते हुए हमें यह कथन बहुत हद तक सच लगता है. उनकी कहानियाँ वस्तुतः स्त्री जीवन की व्यथा-कथा हैं. और भारतीय ग्रामीण सन्दर्भ में स्त्रियों की स्थिति को ज्यों की त्यों रेखांकित करती हैं. आजादी के बाद के भारतीय गाँव के जीवन, वहाँ की उठा-पटक एवं दुष्कर जीवन परिस्थितियाँ, उच्च तबके के लोगों के तमाम तरह के दांव-पेंच, पिछड़े और दलित वर्ग में उभरती हुई राजनीतिक चेतना और उनका प्रतिरोध और इन सबके केंद्र में स्त्री जीवन और उसकी विडम्बना को अगर करीब से जानना हो तो बेशक आपको शिवमूर्ति की कहानियों के पास जाना ही पडेगा.

          

संपर्क-
संतोष कुमार चतुर्वेदी
3/1- बी, बी. के. बनर्जी मार्ग
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पिन- 211002

मोबाइल- 09450614857


(नोट- आलेख में कहानियों के समस्त उद्धरण शिवमूर्ति के कहानी संकलन केशर-कस्तूरी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, २००७ से साभार लिए गए हैं.)        


                                                                                                     

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