रविवार, 26 अगस्त 2012

विमल चन्द्र पाण्डेय का संस्मरण - सत्रहवीं किश्त



                                विमल चन्द्र पाण्डेय 




             प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर विमल चन्द्र पाण्डेय के संस्मरण 
                            ई इलाहाब्बाद है भईया की
                                   सत्रहवीं किश्त 

                                  २७.

मेरे सिविल लाइन्स आ जाने के कारण विवेक से मेरा मिलना कम हो गया था क्योंकि कीडगंज से सिविल लाइन्स की दूरी अच्छी खासी थी. लेकिन मैं यह दूरी कमोबेश हर शाम को तय कर लेता क्योंकि एक साल पहले मैंने अपने सफर को बजाज डिस्कवर खरीद कर थोड़ा आसान कर लिया था. ‘हमारा बजाज’ का साथ मिलने पर मैं शाम को हाई कोर्ट की खबर टाइप करके भेजता और खाली हो जाता. मैं अंग्रेज़ी का पत्रकार था और अंग्रेज़ी में ही खबर भेजना मेरी ज़िम्मेदारी थी लेकिन यूएनआई लखनऊ से डेस्क से किसी का, प्रायः बसंत जी का, फ़ोन आता और मुझे वह खबर हिंदी में भी भेजने को कहा जाता. मैं कम काम करने के अपराधबोध से दबा यह नहीं कह पाता कि मेरा काम अंग्रेज़ी की ख़बरें भेजना है, हिंदी का ठेका मैंने नहीं लिया.

कीडगंज में एक छोटी सी चाय की दुकान थी जिसे एक बॉडी बिल्डर लड़का चलता था. उस दुकान के भीतर सलमान खान, जॉन अब्राहम और कुछ और मजबूत पेशियों वाले अनभिनेताओं (अगर अभिनेता का विलोम होता हो) के पोस्टर लगे हुए थे और वह लड़का सिनेमा का जुनूनी था. उसकी चाय की दुकान के बगल में उसके बड़े भाई का जनरल स्टोर था और वहाँ पान सिगरेट भी मिलती थी. मैं उसी दुकान पर चला जाता और विवेक को भी बुला लेता. हम वहीँ चाय पीते, देर तक इधर उधर की बातें करते और चाय की दुकान वाले लड़के के उटपटांग सवालों के भी जवाब देते. एक बार जेड गार्डेन में राज बब्बर की प्रेस कांफ्रेंस थी जहाँ कांफ्रेंस के बाद इलाहाबाद के पत्रकारों में राज बब्बर के साथ फोटो खिंचवाने की होड़ मची थी और बब्बर का मोबाइल कहीं खो गया था. मैंने विवेक को बताया कि मैंने कुछ पत्रकारों की धक्का मुक्की कर बब्बर के साथ फोटो खिंचवाने की कोशिश करते हुए फोटो उतारी है. हम उन फोटोज को देख कर हंस रहे थे कि बाहर से वह लड़का भीतर आ गया.

“राज बब्बर का मोबाइल खो गया ?”

“हाँ.” मैंने कहा. मुझे लगा उसके दिमाग में होगा कि एक सेलेब्रिटी का मोबाइल कितना महंगा और शानदार होगा. लेकिन उसके सवाल कुछ दूसरे थे.

“कितने हीरो हिरोइन का नंबर होगा उसमें....उसकी बेटी का भी नंबर होगा न ? उसमें होम से सेव किया होगा घर का नंबर. डायल करो तो जुही बब्बर उठाएगी.” सिनेमा के मामले में उसका सामान्य ज्ञान अच्छा था और उसकी फैंटेसीज कमाल की थीं. अब इसके बाद हमारे बैठने की वह जगह भी खोने वाली थी. इस घटना के बाद हम जब भी वहाँ बैठे, चाय पिलाने से पहले और चाय पिलाने के बाद उसके सवाल राज बब्बर के मोबाइल से जुड़े होते और उस बहाने से मायानगरी मुंबई से. हमसे छिपा नहीं रह गया था कि सुबह शाम पसीना बहा कर शरीर बनने के पीछे उसकी क्या इच्छा थी. हम जब उसकी दुकान में घुसते, उसका पहला सवाल आता, “मिला मोबाइल ?”

“नहीं.” हम कहते और बैठ कर बातें करना शुरू करते और बीच-बीच में उसके सवालों को भी इंटरटेन करते. जब पैसे देकर हम वहाँ से निकलने लगते तो उसका अंतिम सवाल होता, “मिलेगा तो हमको बताएँगे न ?”

हम सिर हिला कर सहमति देते. और क्या देते ?

एक बार आधी रात तक पीने के बाद मैं विवेक के साथ टहलने निकला और मौसम आईपीएल का था. कई गुमटियां १२ बजने के बावजूद खुली हुई थीं और लोग उनमें लगे टीवी सेट पर अपनी पसंदीदा टीम को जितवाने के लिए चिल्ला रहे थे. हम उसी बॉडीबिल्डर के भाई की दुकान तक सिगरेट पीने गए. वहाँ लड़कों के दो समूहों में मारपीट हो रही थी. थोड़ी देर बाद कुछ लोगों ने बीच बचाव किया जिसमे बिल्डर के भाई की सबसे सक्रिय भूमिका रही और भीड़ छंट गयी. मैंने उससे दो सिगरेटें देने को कहा. मैं सिगरेट जला रहा था कि विवेक ने उससे पूछा, “का भया रहा ?”
“तुत नहीं, धाइ इन्ती ते तत्तल में थे इन्ती लल दये.” विवेक हँसने लगा. मैं कुछ नहीं समझ पाया. हम सिगरेट जला कर वहाँ से आगे चले तो मैंने विवेक से पूछा, “तुतलाता है क्या ये ?”

“हाँ.”

“क्या कहा है इसने जो तुम इतना हंस रहे हो ?”

विवेक फिर से हंसने लगा और उसने जो बताया उसे सुन कर मैं उस व्यक्ति की निस्पृहता पर आश्चर्यचकित हुआ. वह अपने आसपास की घटनाओं पर ऐसे प्रतिक्रिया देता था जैसे आसमान में बैठा हो और धरती पर होने वाले घटनाक्रमों के बारे में बता रहा हो. इलाहाबाद अभिव्यक्तियों के मामले में किसी हालत में बनारस से पीछे नहीं था.

नीरेन जी की जगह पर आये राजेश जी बहुत मेहनती इंसान थे और हमेशा नयी चीज़ें सीखने को तत्पर रहते. उन्होंने काफ़ी समय बिना कुछ सीखे गँवाया भी था इसलिए उनका सीखना बनता भी था. मेरे प्रति वह श्रद्धा भाव से भरे रहते और पता नहीं क्यों यह जानने के बावजूद कि मैं विचारधारा से पूरी तरह नास्तिक और संघियों का हर संभव मजाक उड़ाने वाला आदमी हूँ, वह मेरा बहुत सम्मान करते. एक दूसरे को ठीक से जानने के बाद स्थिति यह थी कि अक्सर वह बातों-बातों में वह भावुक होकर कह बैठते, “विमल जी, मैंने आपसे बहुत कुछ सीखा है और सीख रहा हूँ.” मैं हँसने लगता लेकिन विवेक ने ये लाइन पकड़ ली थी. वह मेरा मजाक उड़ाने का कोई मौका नहीं चूकता था और वाईस वर्सा. जब ये कहना बाकायदा राजेश जी की आदत में शुमार हो गया तो उन्हें देखते ही विवेक मुझसे कहने लगता, “विमल जी, आप महान हैं, मैंने आपसे बहुत कुछ सीखा है. आप बिना कोई कोचिंग खोले लोगों को इतना सिखाते फिरते हैं...” मैं जलभुन जाता और उसे मना करता लेकिन वह मना करने से और उत्साहित होता. दो व्यक्तियों की तीन पंक्तियों को लेकर आज भी विवेक मेरा मज़ाक उड़ाता है और ये पंक्तियाँ सुनकर मैं अपनी हँसी नहीं रोक पाता. राजेश जी आज भी फ़ोन करते हैं और बातचीत अगर थोड़ी लंबी खिंच जाए तो कह ही देते हैं, “आपसे इतना सीखा है विमल जी....” कभी कैलाश जी फ़ोन करें और कह दें, “विमल जी, आपकी इत्ती याद आ रही है कि क्या बताऊँ. इलाहाबाद सूना हो गया है आपके बिना.” मैं भावुक भी हो जाता हूँ और होंठो पर हँसी भी आ जाती है. एक बात कैलाश जी और बोलते हैं जब देर रात उन्होंने पीकर मुझे फ़ोन करके इधर उधर की बातें की हों और मुझे कुछ न बोलने दिया हो. अगली सुबह वह उठते ही पहला काम यही करते हैं कि अपना फ़ोन चेक करते हैं कि नशे की हालत में उन्होंने कितने कितने लोगों को फ़ोन किया था बातचीत तो बहुत पीने के बाद याद रहती नहीं तो हल्की फुलकी याद्दाश्त के सहारे फ़ोन लगाते हैं और अगले के फ़ोन उठाते ही शुरू हो जाते हैं, “इत्ती शर्म आ रही है मुझे विमल जी, कल रात जो मैंने अभद्रता की...” मैं कितनी भी परेशानी में रहूँ, उनकी बातों में इतना शुद्ध होपलेस पछतावा मिला होता है कि मैं हंस पड़ता हूँ.

विवेक राजेश जी को इलाहाबाद की खासियतों के बारे में बताता रहता और यदि किसी बात पर राजेश जी आश्चर्य व्यक्त करते तो वह छूटते ही कहता, “ई इलहाब्बाद है भईया. इसको गाजीपुर मत समझियेगा नहीं तो पछताएंगे.” राजेश जी मुस्करा देते. यह पंक्ति एक बार नीरेन जी ने राजेश जी के लिए कही थी जिसे हमने लपक लिया था और गाहे-बगाहे राजेश जी को परोसते रहते थे जिसे वह मंद-मंद मुस्कान के साथ ग्रहण करते. मेरा साथ उन्हें पता नहीं क्यों इतना पसंद था कि वह अक्सर मेरे और विवेक के साथ शेरे पंजाब में बैठते जहाँ हम पहले कुछ पीते फिर चिकन वगैरह का सेवन करते और वह बिना कुछ खाए पिए हमारी बातों को सुनते रहते, जहाँ चाहते वहाँ हस्तक्षेप भी करते.

उन्हें लगता कि मैं अंग्रेज़ी का पत्रकार हूँ तो मेरी अंग्रेज़ी बहुत अच्छी होगी और इसके लिए भी वह मुझसे टिप्स मांगते रहते. मैं उन्हें बताता कि मैंने हिंदी माध्यम से पढ़ाई की है और मेरी अंग्रेज़ी जो थोड़ी बहुत ठीक ठाक है वह इसलिए है कि मेरे पिताजी हर गरमी की छुट्टी में अपने ऑफिस यानि ‘दूर संचार विभाग’ से लाए एक नए रजिस्टर में नए सिरे से टेंस पढ़ाते थे. मैंने सिर्फ़ अपने अभ्यास से अपनी कमजोरियों को थोड़ा बहुत जीता है और इस लायक तो कतई नहीं हुआ हूँ कि किसी को किसी चीज़ के लिए सलाह दे सकूं. वो मानते ही नहीं और अड़ जाते कि उन्हें टिप्स दी ही जाए. मैं टिप्स के नाम पर उन्हें शिव खेड़ा या स्वेट मोर्डेन की एकाध किताबी बातें चिपका देता जिसे वो मेरी उपज मान कर स्वीकार करते और जो मैं चाहता था उसका उल्टा होता चला जाता, वह मेरे और मुरीद होते जाते. ऐसा ही कैलाश जी के मामले में हुआ था जब उन्होंने मुझे युवा पीढ़ी क सबसे ब्रिलियंट कथाकार घोषित कर दिया था. मैंने माथा पीट लिया और उन्हें अपने कुछ उन समकालीन कथाकारों की कहानियाँ पढ़ने को दीं जो मेरे पसंदीदा रहे हैं. उन्होंने सबकी रचनाएँ धैर्य से पढ़ीं और अपने विचारों से टस से मस होने को तैयार न हुए. मेरे प्रति उनका प्रेम है इसलिए मैं अपने बारे में कही उनकी बातों को प्रेम की श्रेणी में डाल देता हूँ नहीं तो मेरी कहानियों पर राय देने वाले इलाहाबाद में जो सबसे सटीक आदमी हैं वो हिमांशु जी और मुरलीधर जी हैं.

इस कमरे में मुझे अच्छा नहीं लगता था क्योंकि एक तो ये एक बंगला था और मैं बंगला संस्कृति में फिट नहीं हो पा रहा था. मैं ऊंचाई वाले कमरे, जो मेरी लाइब्रेरी बन गयी थी, की बालकनी से नीचे देखता तो वहाँ पर हरी घास और फूल दिखाई देते. बंगले का केयरटेकर अश्विनी नाम का एक आदमी था जो मेरे कमरे के सेट के नीचे वाले सेट में अपने परिवार के साथ रहता था. उसके परिवार में उसकी एक चार-पांच साल की बेटी थी जो मानसिक रूप से थोड़ी अस्वस्थ थी और सभी चीज़ों को आश्चर्य भरी अजीब निगाह से देखती थी. उससे छोटा उसका बेटा था जो अभी गोद में था. बंगले के मालिकान मुंबई में रहा करते थे और मुझे हर महीने साढ़े तीन हज़ार रुपये किराये के उनके बैंक अकाउंट में डालने होते थे.

यूएनआई में किसी ज़माने में एक तकनीशियन हुआ करते थे जिनकी मृत्यु के बाद उनका बीस साल का बेटा शोभित उनकी जगह नौकरी पाना चाहता था और गाहे बगाहे गुहार लगाने यूएनआई लखनऊ और दिल्ली ऑफिस जाता रहता था. उसे मेरे पास अश्विनी लेकर आया था और उसके बाद वह अक्सर मेरे पास आने लगा था. शोभित का कहना था कि उसकी माँ उसके छोटे भाई के नाम सारी जायदाद करना चाहती है और उसे पागल करार देकर उसके नाम कुछ नहीं छोड़ना चाहती. वह पागल तो नहीं था लेकिन कई मामलों में मुझे मंदबुद्धि ज़रूर लगता था. मैंने उससे पिंड छुड़ाने की गरज से कहा कि ये उसका घरेलू मामला है और मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता. लेकिन बाद में उसने इतना दबाव बनाया कि मुझे उसकी मदद करनी पड़ी. उसके पास ढेर सारी समस्याएं थीं. एक बार वह आया और उसने कहा कि उसके पिता के नाम पर कुछ ज़मीन थी जो कुछ रसूखदार लोग हड़पना चाहते हैं. वह धूमनगंज की तरफ रहता था और मैंने उसे धूमनगंज थाने की मदद लेने को कहा. उसने मुझसे वहाँ के एसओ से बात कर उसकी मदद करने को कहा. मैंने उससे एक आवेदन लिखवाया और धूमनगंज के तात्कालिक थानाध्यक्ष से बात कर मामला समझाया, उसने पूरी मदद करने का आश्वासन दिया और कहा कि कल वह लड़का थाने आकर उनसे मिल ले. मैंने शोभित को समझाया कि वह ग्यारह से बारह के बीच थाने जाए और थानाध्यक्ष को आवेदन देकर सारी बातें समझाए और ज़रूरत पड़े तो मुझसे बात भी करा दे. शोभित फिर एक हफ्ते बाद आया और उसका कहना था उसकी माँ ने उसे उस दिन उसे थाने जाने नहीं दिया और वह ज़मीन हड़पने वाला आदमी फिर से उसे परेशान कर रहा है. मैंने उसे डांटा और कहा कि थानाध्यक्ष अगर मदद करने को कह भर भी दे तो हमारे राज्य में यह खुशनसीबी की बात होती है और इसका अर्थ समझना चाहिए, वह मदद लेने में कोताही नहीं करनी चाहिए. उसने रुआंसा चेहरा बना कर कहा कि मैं एक बार और बात करूँ और वह इस बार ज़रूर जायेगा. मैंने फिर से बात कि और वह उस दिन भी सुबह कहने के बाद शाम को गया और थानाध्यक्ष को आवेदन दे आया, हालाँकि इसके बाद जब थानाध्यक्ष ने उसे जिस समय बुलाया वह वहाँ गया नहीं. मैं उसका फ़ोन उठने से बचने लगा था क्योंकि मुझे उसकी माँ की बातों में सच्चाई नज़र आने लगी थी.

एक तो यूएनआई लखनऊ से जिस हिसाब से दबाव बढ़ता जा रहा था मुझे लगने लगा था कि जल्दी ही संजय जी अपनी धमकी को पूरा करेंगे और मेरा ट्रांसफर कहीं दूर दराज के एरिया में कर दिया जायेगा और दूसरे मैं अपने प्यार को लेकर भयानक तनाव से गुजर रहा था. तीसरी बात ये कि जब मैं इस कमरे में आता तो मेरी बेचैनी और बढ़ जाती. मेरे फ्लैट के बगल में रहने वाला परिवार जब से ये फ्लैट छोड़ कर चला गया तब से यहाँ सन्नाटा और बढ़ गया था और न जाने क्यों मुझे यहाँ क अकेलापन बड़ा मनहूस सा रहता. मैं दिन भर टीवी चला कर या तो ईटीवी उत्तर प्रदेश देखता रहता या फिर फ़िल्मी गाने चलने देता पर मजा नहीं आता. उस समय मैं अपने डेल के बड़े लैपटॉप पर इंटरनेट का उपयोग अपने मोबाइल से करता था इसलिए स्पीड बहुत धीमी होती थी और आधे घंटे का काम एक घंटे में होता. मैं जैसे ही खाली होता, राजेश जी के ऑफिस की ओर भागता या फिर कीडगंज विवेक से मिलने. मुझे चार कमरों का यह सेट रास नहीं आ रहा था. जब तक मैं कमरे में रहता, मुझे भीतर से बड़ा अजीब सा रहता. बचपन से ही मुझे कभी अकेला रहने में कोई दिक्कत नहीं आई बल्कि दिल्ली में जब मैं अकेला होता था तो वे दिन मेरी रचनात्मकता के लिए बड़े अच्छे होते लेकिन यहाँ का अकेलापन बहुत अजीब सा था. डर की क्या कहें, मैं अपने गांव में अपनी निडरता के लिए गांव में रहने वाले बच्चों के लिए ईर्ष्या का बायस था. मैं हर गरमी की छुट्टियों में गांव जाता और हम भूतों वाली जगहों के लेकर शर्त लगाते, गांव में रहने वाले बच्चों को आश्चर्य होता कि मैं मिजाज से उनसे ज़्यादा निडर था और आधी रात को भी कहीं भी कभी भी चला जाता जबकि मेरे कई गांव के दोस्त बुरी तरह डर जाते. तो यह विश्वास से कह सकता हूँ कि भूत प्रेत सुनने में एक अच्छी और मनोरंजक कहानी से अधिक मेरे लिए कुछ नहीं रहे थे. इस तरह के डर और ऐसे एहसास भी मेरे लिए बहुत अजनबी थे लेकिन इस कमरे में मैं थोड़ा डरा सा रहने लगा. पता नहीं क्यों जब मैं बैठ कर टीवी देख रहा होता तो अचानक मुझे लगता कि मेरे पीछे कोई खड़ा होकर मेरे साथ टीवी देख रहा है. मेरे रोंगटे क्षणांश के लिए खड़े हो जाते और मैं झटके से पीछे पलटता. वहाँ कोई नहीं होता. इस समय ये सब लिखते हुए भी मेरे रोंगटे फिर से खड़े हो रहे हैं और इस बात को कोई ऐसा इंसान नहीं समझ सकता जिसके साथ ऐसा कुछ अपरिभाषित हुआ न हो जिसने उसे उलझाया हो. कारण बहुत से होते हैं और गिनाये जाते हैं लेकिन उस वक्त कोई कारण वहाँ कि स्थिति पर खरा नहीं उतरता था. किराये के साथ बिजली का बिल अलग से जमा करना था और इसलिए मैं बाथरूम जाता तो वहाँ से निकलते ही बत्ती बुझा देता. बत्तियाँ ज़रूरत न होने पर बुझा देने की अच्छी आदत मुझे घर से ही थी और मैं इसमें कभी कोताही नहीं करता था. आश्चर्य होता कि मैं बाथरूम से बत्ती बुझा कर तैयार होकर कोई प्रेस कांफ्रेंस या खबर कवर करने निकलता और वापस आकर बाथरूम में घुसता तो अक्सर बत्ती को जलता हुआ पाता. एक बार तो मैंने बाहर से लौट कर टीवी चलाया और मेरे सामने टीवी अपने आप बंद हो गया जबकि रिमोट का मुँह टीवी के उलटी दिशा की ओर था. मैं झल्लाया और मैंने टीवी कंपनियों को गाली दी. मैंने बाथरूम के प्लग भी चेक किये जो एकदम सही थे. ये चीज़ें मुझे इरिटेट करतीं और मैं मानने लगा कि मेरी याद्दाश्त कमज़ोर हो रही है.

विवेक इस कमरे पर बार-बार बुलाने पर भी आना अवाइड करता और कहता कि मैं ही उसकी तरफ चला आऊँ. मैं चला जाता लेकिन कई बार मेरे बार बार बुलाने पर भी वह नहीं आता तो मुझे थोड़ा गुस्सा भी आता. मैंने एक बार कहा कि मैं उसके एक बार बुलाने पर सिविल लाइन्स से कीडगंज चला जाता हूँ और वह इतने नखरे करता है, वह सचमुच गणितज्ञ है लेकिन अच्छा होगा वह अपनी गणित मुझपे न चलाये नहीं तो मैं हर चीज़ की काट रखता हूँ. वह मेरी धमकी का मान रखने के लिए कभी-कभी आ जाता. एक दिन उसने मेरी बनाई हुई कड़क चाय पीते हुए कहा कि उसे इस कमरे में आने में अच्छा नहीं लगता क्योंकि उसे यहाँ बड़ा मनहूस लगता है. मैं ख़ामोश हो गया और अपनी चाय पीने लगा तो उसने अपनी बात को जस्टिफाय किया.

“यार हम लोग मोहल्ले में रहने वाले लोग हैं. मेरी नींद सुबह तब खुलती है जब मेरी खिड़की के पास आकर ठेले वाला चिल्लाता है, “आलू, बैंगन, परवल, टमाटर....” तो हम लोगों के लिए ये सोफिस्टिकेटेड माहौल थोड़ा अजीब सा लगता है, एकदम शांत, एकदम गंभीर.”

मैं उसकी बात सुनता रहा. मैंने भी उसे बताया कि मुझे यहाँ अच्छा नहीं लगता क्योंकि मैं अकेला बोर हो जाता हूँ. विवेक ने कहा कि एक आदमी अगर चार कमरों में रहेगा तो वह बोर होगा ही. मैंने उसे और कुछ नहीं बताया क्योंकि ये एक तरह से मेरी हार जैसी बात होती. उसे पता था मैं न तो ईश्वर पर विश्वास करता हूँ, न किस्मत पर और न ही किसी आसमानी बात पे और यह कुछ ऐसी ही बात को स्वीकार करना होता.

                                    २८.                   

जब मैं अपने प्यार से मिलने दूसरी बार जा रहा था तो संदीप के साथ जाकर मैंने कटरा से उसके लिए एक लाल साड़ी खरीदी. विवेक ऐसे कामों में रूचि नहीं दिखाता था और मैं ज़बरदस्ती नहीं करना चाहता था. संदीप का एक प्रेम प्रसंग था जो लंबे समय तक चल कर टूट गया था और उसने उसे आधार बना कर एक कहानी लिखी थी जिसे वह चाहता था कि मैं कहीं छपवा दूं. वह अचानक मेरे बहुत करीब आ गया था क्योंकि वह प्यार कर चुका था और मैं प्यार में था. वह एक कहानी लिख चुका था और मैं रेगुलर कहानियाँ लिखता था. मैंने उसे विश्वास दिलाया कि मेरी कहानियाँ पत्रिकाओं में छपती हैं इसका मतलब ये नहीं कि मैं जो भी लिख देता हूँ वह छप जाता है. उसने विश्वास नहीं किया और मुझे गालियाँ देने लगा. मैंने उसे तद्भव के संपादक अखिलेश और रविन्द्र कालिया के पत्र दिखाए जिन्होंने मेरी कहानियों को अलग-अलग कारणों से अस्वीकृत करते हुए छापने से मना कर दिया था. उसका गुस्सा कुछ कम हुआ.

वह नॉनवेज का बड़ा शौक़ीन था और चिकन को लेकर वह वैसा ही भावुक हुआ करता था जैसा एक ज़माने में प्यार में पड़ने पर हुआ होगा. पढ़ने में यह बात अजीब लग सकती है लेकिन यह सोलह आने सच बात थी. उसका एक भतीजा था जिसे वह बहुत मानता था. उसका भतीजा उससे ज़्यादा उसे मानता था और मेरे कमरे पर या कहीं बाहर देर होने पर वह अचानक ऐसे जाने के लिए उठ खड़ा होता जैसे नए शादीशुदा लोग अपनी बीवी का फ़ोन या एसएमएस आने पर उठ खड़े होते हैं.

“क्या हुआ अचानक ?” कोई पूछता.

“अरे चलें यार, सुन्दरम डंडा कर रहा है.” वह कहता.

“अरे तो बोल दो न फ़ोन करके कि देर लगेगी.”

“नहीं यार, चलते हैं नहीं तो वह गुस्साने लगेगा.” संदीप सफाई देता. हम उसकी इस बात को पिंड छुड़ाकर भागने का बहाना मानते. लेकिन हमारा यह भ्रम दूर हो गया जब हम उसके भतीजे सुन्दरम से मिले. वह एक बहुत प्यारा, बचपन से किशोरावस्था की दहलीज पर खड़ा बालक था जो अपने चाचा से इतना प्यार करता था कि उन्हें कहीं अकेले जाने देने में उसे बहुत घबराहट होती थी. शाम होते ही वह चाचा को खोजने लगता था और उनका फ़ोन घुमा देता था. एक दिलचस्प बात यह थी कि सुन्दरम चिकन और अंडे खाने का बहुत शौक़ीन था और अक्सर चाचा को कहता था कि वे आते हुए उसके लिए ऑमलेट लेते आयें. वह बीच-बीच में चाचा से चिकन खाने के लिए मनुहार करता और उम्मीद करता कि जैसे चाचा पहले उसके कहने पर उसके लिए बनवा देते थे, वैसे ही लाकर बनवा देंगे लेकिन चाचा ने चिकन के बढते खर्चे के मद्देनज़र भतीजे से यह कह दिया था कि उन्होंने चिकन खाना छोड़ दिया है. अब हालात यह थे कि चाचा तो घर में चिकन मटन नहीं ले जाते थे लेकिन घर का कोई और सदस्य भी इनमे से कुछ ले आये तो संदीप के लिए घर के शाकाहारी सदस्यों के साथ लौकी या नेनुआ की सब्जी बनाई जाती थी. जब वह धीरे धीरे लौकी की सब्जी से रोटी खा रहा होता, घर का कोई सदस्य कह बैठता, “ले लो एक पीस, टेस्ट तो कर लो, काहे छोड़ दिए?”

संदीप मुस्करा कर कहता, “अरे नहीं, ठीक है. आप लोग खाइए.”

कोई कहता, “अरे बहुत अच्छा बना है, चखो तो.”

वह मजबूरन कहता, “अरे हम छोड़ दिए तो छोड़ दिए, लौकी भी अच्छी बनी है.”

उसके साथ ऐसे दुखद पल अक्सर आते. एक बार उसने हमें अपने पारिवारिक टेलर खान के घर शादी का न्योता दिया. उसका अंदाज़ा था कि शादी अटेंड करने अपने घर से सिर्फ़ उसे ही भेजा जायेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उसके साथ सुन्दरम और उसके पिताजी यानि संदीप के बड़े भाई साहब (जिनका लंबी बीमारी से देहांत हो चुका है, उन्हें श्रद्धांजलि) भी आये. मैं विवेक को अपनी बाईक से लेकर पहुंचा. हम आमने-सामने ही बैठे. पार्टी करेली में थी और विवेक का कहना था कि करेली में मुसलमानों के यहाँ की पार्टियों की अलग ही रौनक होती है और उनका भोजन भी अलग होता है. मैं और विवेक अगल बगल बैठे थे और हमारे सामने संदीप सुन्दरम के साथ बैठा था. भाई साहब मित्रों से बात करने में व्यस्त थे. हम तीनों के खाने के लिए चिकन परोस दिए गए और संदीप के लिए शाही टुकड़ा लाया गया. शाही टुकड़ा थोड़ा हमने भी चखा जो बिलकुल फीका लगा और हम लोग फिर से चिकन पर जुट गए. हमारे सामने बैठा संदीप शाही टुकड़ा खाता रहा और हम चिकन. बीच-बीच में सुन्दरम कह उठता, “चाचा, चिकन बहुत स्वादिष्ट है.” हमने भी मुस्कराते हुए कहा, “वाकई बहुत टेस्टी है, चखोगे ?” संदीप के चेहरे पर अनगिनत भावों का कोलाज था और उसने दुखी आवाज़ में कहा, “सही कह रहे हो.”

हम कमरे पर चिकन बनाते तो संदीप को बुला लेते और इसका फायदा विवेक ने एकाधिक बार उठाया. उसने संदीप, जो कि अपने बयान अनुसार कहीं दूर ट्रैफिक जाम में फंसा हुआ था, को कहा कि कमरे पर चिकन बनाया जा रहा है और वह जल्दी से आ जाए. जब संदीप रात दस भजे भगा हुआ कमरे पर आया तो विवेक ने कहा कि उसका बहुत इंतजार किया गया और उसके न आने पर हमने खाकर खत्म कर दिया. वह गालियाँ देता. हम ले लेते क्योंकि हमारा उद्देश्य भी वही रहता.

मुखातिब अपनी साहित्यिक उपलब्धियों का सफर तय कर रहा था. पूरे इलाहाबाद में गोष्ठियों की धूम थी और हमें इसके बारे में अलग-अलग ख़बरें सुनाई पड़तीं जैसे-  उर्दू वाले नाराज़ हैं कि हिंदी वाले मुखातिब नाम से गोष्ठी कर रहे हैं और उन्हें बुलाया नहीं जा रहा, जैसे- वहाँ रचनाओं पर बड़ी बदतमीजी से बात की जाती है और बड़े-छोटे का लिहाज नहीं किया जाता, जैसे- एकाध लोग हैं जो बोलना शुरू करते हैं तो बोलते ही जाते हैं या फिर जैसे- वरिष्ठता और कनिष्ठता का कोई लिहाज नहीं रखा जाता और किसी सीनियर कवि के पहले किसी नए लड़के को बोलने के लिए आमंत्रित कर दिया जाता है. इन सब के बीच इस गोष्ठी में इतिहासकार और इतिहासबोध पत्रिका के संपादक लाल बहादुर वर्मा ने अपनी पहली कहानी का पाठ किया. शायद ‘बाहरवाले’ नाम से उन्होंने कहानी लिखी थी जिसके पाठ के बाद उस पर व्यापक चर्चा हुई और वर्मा जी उस चर्चा से बहुत खुश थे. सीमा ‘आज़ाद’ ने अपनी पहली कहानी ‘कारवां चलता रहेगा’ का पाठ किया तो रंगमंच के प्रसिद्ध निर्देशक अनिल रंजन भौमिक की संस्था के कार्यक्रम के बाद उनके नाटकों पर लिखी रिपोर्ट पर विस्तृत चर्चा हुई. लोगों की संख्या पांच से तीस हो चुकी थी और गोष्ठियों में कम से कम पांच-छह ऐसे अवसर आ चुके थे जब दो वरिष्ठ रचनाकारों के बीच में किसी कहानी पर प्रतिक्रिया देते हुए मारपीट की नौबत आ चुकी थी. मामला फिट था और मुखातिब हिट था.

मैंने रिलायंस में अनलिमिटेड फ्री वाला वाउचर डलवा लिया था और हमेशा उससे जुड़ा रहता था. वह मेरे सुबह उठने पर मेरे नाश्ते से लेकर रात तक मेरा ख्याल रखती और मैं उसकी एक छींक पर चिंतित हो जाता. वह मेरी कविताएँ सुनती और अपनी सुनाती. उसकी कविताएँ सुनते हुए मुझे लगता कि मुझे कविता लिखनी छोड़ देनी चाहिए. मैं उसे कविताएँ पत्रिकाओं में भेजने के लिए कहता तो वह मना कर देती. वह ईश्वर में बहुत विश्वास करती थी और नास्तिकता के मेरे सारे तर्क उसके प्यारे तर्कों के आगे घुटने टेक देते. वह ईश्वर से भी प्यार करती थी और उसकी श्रद्धा देखकर जिंदगी के साथ-साथ हर चीज़ में श्रद्धा जाग उठती. उसके भीतर इतना प्यार भरा था कि वह पूरी दुनिया को प्यार से भर देना चाहती थी. वह घोंसले से गिरे चिड़िया के बच्चे के लिए घंटों रो सकती थी और मैं भी उस जैसा होता ही जा रहा था. दुनिया अचानक बहुत खूबसूरत लगती जा रही थी और लगता जैसे ये वक्त हमेशा इसी रफ़्तार से चलेगा. हमेशा हम इसी ज़मीन पर इतने ही दबाव के साथ खड़े रहेंगे. उस समय यह सोचना भी मुश्किल था कि धीरे-धीरे ज़मीन से हमारी पकड़, ज़मीन पर हमारा दबाव और धरती पर हमारा वजन कम होता जायेगा. मैं उससे बहुत नाराज़ था, मैं दुनिया में उसे ही सबसे ज़्यादा प्यार करता था, मैं उससे इतना प्यार करता था कि कभी-कभी उसे मार डालने की इच्छा जागती और मैं उसे बता देता. मैं उससे खूब झगड़ा करता, “तुम मुझसे शादी करने के लिए कैसे मना कर सकती हो, जानती हो, पूरी दुनिया में तुम्हें मुझसे ज़्यादा प्यार कोई नहीं कर सकता.” वह कहती, “शायद मेरी किस्मत इतनी अच्छी नहीं.” ऐसी बातें मुझे हिंसक बना देतीं और मैं उसे झिडकता, कोसता और बातचीत बंद कर देता. सुबह से शाम होते-होते मेरे हाथ उसका नंबर डायल करने लगते या वो ही एक छोटी सी मिस्ड काल डे देती. “कैसी हो ?” “अच्छे हैं.” “हम दिन भर फ़ोन नहीं करेंगे तो तुम भी फ़ोन नहीं करोगी?” “आप सच में हमसे बिना बात किये रह सकते हैं न?” से बात शुरू होती जो जल्दी ही रोने में बदल जाती. हम आंसुओं में धुल कर फिर पाक हो जाते.

मेरी जिंदगी में उस वक्त मेरे प्यार के बाद नाम मात्र की चीज़ें थीं जिन्हें मैं पसंद करता था, मेरे दोस्त, मुखातिब और इलाहाबाद जो हर दिन मुझे और अधिक अपना सा लगता जा रहा था.
मुझे नहीं अंदाज़ा था कि किसी भी पल एक कागज के टुकड़े से डर कर मुझे अपना प्यारा शहर इलाहाबाद छोड़ना पड़ सकता है.


                                                               क्रमशः 

                                                   प्रत्येक रविवार को नयी किश्त ...

संपर्क - 

विमल चन्द्र पाण्डेय 
प्लाट न. 130 - 131 
मिसिरपुरा , लहरतारा 
वाराणसी , उ.प्र. 221002

फोन न. - 09820813904
         09451887246


फिल्मो में विशेष रूचि 
 



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