रविवार, 27 मई 2012

विमल चन्द्र पाण्डेय का संस्मरण --चौथी किश्त



                               विमल चन्द्र पाण्डेय 

पिछली किश्त में आपने पढ़ा कि विमल समाचार एजेंसी 'यू.एन.आई.' में नौकरी ज्वाईन करने के लिए उत्साहपूर्वक दिल्ली से इलाहाबाद तो पहुंचते हैं, लेकिन यह उत्साह उस समय जाता रहता है , जब उनका सामना वहाँ की जमीनी विपरीत परिथितियों से होता है | उन्हें लग जाता है , कि जीवन में कठिन संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है , वरन अभी तो इसकी शुरुआत हुई है | वे अपने लिए एक अलग ठिकाना तलाश करते हैं, और पत्रकारिता के नाम पर पैदा हुए इस अजीबोगरीब दलदल में अपनी छटपटाहट के साथ दाखिल हो जाते हैं |...और फिर आगे ........
                 

                        प्रस्तुत है विमल चन्द्र पाण्डेय के संस्मरण 
              शहरों से प्यार वाया इलाहाबाद - मेरी जिंदगी के सबसे उपजाऊ साल 
                                की चौथी किश्त 


                                    5.

इलाहाबाद में पत्रकारों की जो प्रजातियां थीं वैसी हर छोटे शहरों में होती होंगी लेकिन मेरा ऐसा पहला अनुभव था और मैं कई बार आश्चर्य में पड़ जाया करता था। एक दिन तंदूर रेस्टोरेंट में किसी नेता की प्रेस कांफ्रेंस में एक लम्बे तगड़े नौजवान ने आकर मुझसे हाथ मिलाया और मेरा परिचय पूछा। मैंने संकोच करते हुये बताया, ``यूएनआई।´´ यह बोल कर मैं यूएनआई के बारे में उसे बताने ही वाला था कि उसने मुझसे हाथ मिलाते हुये टोक दिया, ``मायसेल्फ रिंकू फ्रॉम द न्यूज क्रिटिक टाइम्स।´´ मैं पहले संकोच करने वाली बात का स्पष्टीकरण दे दूं। जब भी कोई मुझसे मेरे बैनर का नाम पूछता तो पहले तो मैं गर्व से बताया करता था, ``यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया।´´ लोग माथा सिकोड़ते, खूब सोचते कि ये नाम कहां सुना है, फिर हार कर मुझसे पूछते, ``ये छपता कहां से है ?´´ मैं उनका सामान्य ज्ञान बढ़ाता, ``ये न्यूज एजेंसी है। अखबारों में खबरें देती है। जो खबरें आप अखबारों में देखते हैं जिनके ऊपर या नीचे कोष्ठक में लिखा होता है एजेंसी, वह हम जैसे एजेंसी वाले ही देते हैं।´´ अगला कन्विंस तो नहीं होता लेकिन मेरे चेहरे की ईमानदारी का सम्मान करते हुये मान जाता कि ऐसा ही होता होगा हालांकि उनके मन में कई ईमानदार सवाल ज़रूर उठा करते थे, ``अरे जब अखबार के आपन रिपोर्टर होई तो कोई तुम्हार खबर काहे लेई ?´´ मैं फिर से समझाता। तरीका काफी कठिन था लेकिन बाद में मैंने देखा कि मेरे सीनियर श्री जियालाल जी एक बड़ा अच्छा तरीका अपनाते हैं तो मैं भी बाद में वही तरीका अपनाने लगा और वह काफी आरामदायक तरीका था भी। वह किसी को यूएनआई या यूनीवार्ता बताते और अगले के चेहरे पर प्रश्नवाचक चिन्ह बनने के साथ ही पूछ लेते, ``पीटीआई जानते हो न ?´´ अगला चहक कर कहता, ``हां हां, पीटीआई भाषा न ?´´ ``बस त वही, उसी तरह यूएनआई भी एजेंसी है एक ठो।´´ ये तरीका बहुत मारक था और इसमें पीटीआई का पिछलग्गू होने का कोई अपराधबोध अगर कभी रहा भी होगा , तो अब पूरी तरह खत्म हो चुका था। एक ज़माने में पीटीआई से आगे रही यूएनआई को पहचानने के लिये अब पीटीआई के नाम का सहारा लेना पड़ रहा था जिसके बारे में पूरी बेशर्मी से कहा जाता था कि ये हमारी राइवल एजेंसी है। हम अब पीटीआई के राइवल होने के कहीं से भी योग्य नहीं थे लेकिन एक ज़माने में रही राइवलरी को हम पूरी निर्लज्जता से ढो रहे थे।

मैं रिंकू की बात कर रहा था। उसने हाथ मिलाने के तुरंत बाद अपने अखबार का नाम बताया और मेरी एजेंसी का नाम सुनते ही बोला, ``वहां तो कोई और था न ?´´ मैं खुश हुआ कि इसे अपनी एजेंसी का काम नहीं बताना पड़ा। मैंने उससे पूछा कि उसका अखबार कहां से निकलता है और वह क्या कवर करता है। उसने बताया कि वह सब कुछ कवर करता है। मैंने शक से उसकी तरफ देखा और पूछा कि उसका अखबार किस भाषा का है। उसने `द न्यूज क्रिटिक टाइम्स´ अपनी जेब से निकाला। देवनागरी में लिखा हुआ यह नाम द टाइम्स ऑफ इंडिया को मात दे रहा था और सब कुछ कवर करने वाले इस पत्रकार ने चार पन्ने के अपने अखबार को चार बार मोड़ कर अपनी पिछली जेब में रखा था।

मुख्य तौर पर दो तरह के पत्रकार होते थे। एक तो चार पन्ने वाले अखबारों और लोकल न्यूज चैनलों के, जिनमें से ज्यादातर की ईमेल आईडी भी नहीं थी और ईमेल वगैरह जैसी फालतू चीज़ों के बारे में उनका रवैया तन्नी गुरू वाला हुआ करता था कि जिसको गरज होगी खुदै आयेगा। सभी तो नहीं, लेकिन इनमें से ज़्यादा पत्रकार पत्रकार-वार्ताओं में मिलने वाले गिफ्ट पर अपनी नज़रें गड़ाये रहते। कुछ लोग खाने के मेन्यू को लेकर भी बड़े चिंतित रहते। जब किसी बड़ी कंपनी की प्रेस कांफ्रेंस में नामों के आगे हस्ताक्षर कराकर सिर्फ बड़े अखबारों या सेटेलाइट चैनलों के पत्रकारों को ही गिफ्ट दिये जाते , और इन पत्रकारों के कार्ड देखने के बाद उनसे माफ़ी मांग कर निकाल दिया जाता, तो ये पत्रकार वह पूरा दिन सुभाष चौराहे (जिसे पत्रकार चौराहा भी कहा जाता था) पर यह चर्चा करते हुये निकाल देते कि देश में अविश्वास का जो माहौल बन रहा है वह इसकी एकता और अखंडता के लिये भारी खतरा है।

दूसरे तरह के पत्रकार अमर उजाला, दैनिक जागरण और हिंदुस्तान जैसे अखबारों के हुआ करते थे जिनमें से ज़्यादातर खाने के प्रति कोई रुचि नहीं दिखाते थे , चाहे मेन्यू कितना भी अच्छा क्यों न हो। इनके दोस्त तय थे, हाय हेलो करने वाले चेहरे तय थे और यहां तक कि इनके सवाल भी तय थे। कुछ सेटेलाइट चैनलों के लोग भी खुद को पुण्य प्रसून बाजपेयी और रवीश कुमार का स्थानीय संस्करण समझते। ये लोग स्वघोषित,  स्वपोषित और स्वयंभू सेलेब्रिटी थे जो रेवती रमण सिंह जैसे पुराने और अनुभवी नेताओं या नन्द गोपाल गुप्ता ‘नंदी’ जैसे नये खिलाड़ियों से एक ही गूढ़ सवाल पूछते, ``केत्ती सीट जीत रहे हैं इस बार ?´´ अपने इस धारदार प्रश्न के बाद वह बाकी पत्रकारों के चेहरे हिकारत से देखते और फिर जवाब नोट करने में मशगूल हो जाते , जिसमें वह नया या पुराना नेता कह रहा होता कि उसकी पार्टी इस बार सारी सीटें जीतने वाली है। ऐसे सवाल का इससे अच्छा जवाब कोई हो भी सकता है क्या ?  ये लोग कांफ्रेंस खत्म होते ही उठते और उस दरवाजे़ से बाहर निकलते जिधर खाने के आइटम रखे होते। रेस्टोरेंट का वेटर जिसे उस नेता का सख्त निर्देश होता कि कोई बिना खाए न निकले, गिड़गिड़ाता हुआ उनके पीछे भागता, ``सर कुछ खा लीजिये प्लीज़।´´ वे लोग अपना दाहिना हाथ ऊपर उठा कर मना करते जिसमें एक पतला सा लेटरपैड होता और बिना कुछ कहे इस ठसक के साथ बाहर निकल जाते कि उनके लिये काम ही पूजा है और वे फ्री के खाने को ठेंगे पर रखते हैं। मैंने ऐसे एकाध पत्रकारों से बात करने की कोशिश की थी , लेकिन मेरा फिजिकल अपीयरेंस कुछ ऐसा था कि मैं बहुत ध्यान दिये जाने लायक आदमी नहीं दिखायी देता था और वे आमतौर पर पहली राय फिजिकल अपीयरेंस को देखकर ही बनाते थे।
                            
                                                              6.         

दुर्गेश ने जिस विवेक से मेरा परिचय कराया था , वह इलाहाबाद की मेरी इंसानी उपलब्धियों में से एक साबित हुआ। मैंने उससे कहा कि मैं एक कमरा खोज रहा हूं जो सुलेम सराय से दूर हो और जहाँ आजादी से रहा जा सके। वह भी गाहे-बगाहे पीने वाला आदमी था और उसने मेरी आज़ादी का बिल्कुल सही मतलब निकाला। उसने एक कमरा खोज निकाला जो कीडगंज में ही था और एक लोहे के सामान्य दिखते शटर के पीछे अपने पूरे रंगरूप में आबाद था। वह एक लॉज था ,जिसके मालिक के रूप में मुझे शिशु भैया मिले जो हाईकोर्ट में वकालत करने के साथ-साथ साहित्य में भी रुचि रखते थे। मेरा कमरा नं 110 था जिसके एक तरफ राजन और उसके समस्याग्रस्त बड़े भाई रहते थे, तो दूसरी तरफ अतीव उत्साही, साहित्य अध्येता, परम पूज्यनीय और प्रात: स्मरणीय श्री श्री 1008 श्री अजय दूबे जी रहते थे। वह पहले इतने शाकाहारी आदमी थे, जिसे मैंने अपनी याद्दाश्त में देखा था। इसे आप मेरा कम अनुभव या कुछ और भी मान सकते हैं, लेकिन उनके जैसी शख्शियत से मैं पहली बार दो चार हो रहा था। लॉज तीनमंज़िला था और वह पूरे लॉज में ‘दूबे जी’ के नाम से जाने जाते थे। वह कभी भी किसी भी कमरे में जाकर उसका हालचाल ले सकते थे और उनके शब्दकोश में प्राइवेसी नाम का कोई शब्द नहीं था। मेरी वेशभूशा देखकर लॉज के बच्चे (ज्यादातर वहां सीए या आईएएस की तैयारी कर रहे बच्चे ही थे) मुझसे बात करने में रुचि नहीं दिखाते थे और शुरू-शुरू में दूबेजी भी मुझसे दूर-दूर रहा करते । बुरा हो सत्यकेतु जी का कि हिंदी दिवस के दिन उन्होंने मुझे अपने ऑफिस मिलने के लिये बुलाया और हिंदी दिवस की फिजूलखर्ची जैसे किसी विषय पर मेरे विचार के साथ मेरी फोटो भी छाप दी,  जिसे शिशु भैया ने भी अमर उजाला में देखा। विमल चन्द्र पाण्डेय, युवा कथाकार लिखे होने के कारण शिशु भैया की नज़रों में मेरा कद काफी बढ़ गया और उन्होंने यह बढ़ोत्तरी अपने तक ही नहीं रखी बल्कि अपने शुभचिंतकों को भी बांट दी। अब ‘दूबेजी’ भी मेरे शुभचिंतक होने की प्रबल इच्छा लिये घूम रहे थे , और मैं था कि अपने कमरे में घुसते ही दरवाज़ा बंद कर लेता था। लॉज में किसी से बात करने की जगह मैं अपने कंप्यूटर पर फिल्में या गाने देखता रहता या फिर नयी खरीदी कोई पत्रिका पढ़ता रहता। एक दिन दूबेजी ने मेरा दरवाज़ा खटखटाया और अखबार में मेरी तस्वीर प्रकाशित होने की बाबत पूछा। मैंने जैसे ही हामी भरी ,उन्होंने मुझे लगभग गले लगा लिया, और बताया कि वह भी कभी-कभी कविताएं लिखते हैं | मैं सोचने लगा कि अब कहां जाऊं।

वैसे दूबेजी थे बड़े प्यारे इंसान। पूरे लॉज के लोगों का हालचाल लेते और किसी भी ,कैसी भी समस्या में जान लेकर हाज़िर रहते। मेरी मदद करने के लिये भी वह बहुत कोशिशें कर रहे थे और मुझे मदद की दरकार ही नहीं हो रही थी। उनका मेरे कमरे में आना जाना बढ़ता जा रहा था और अब तो ये होने लगा था कि मैं विवेक के साथ पीते हुये किसी मुद्दे पर बात करता रहता कि वह आकर उस मुद्दे का कोई ऐसा पहलू बताने लगते कि वह बात , बात करने लायक ही नहीं बचती। एक दिन तो हद ही हो गयी जब मैं और विवेक रात के दो बजे तक धीमी गति से इसलिये पीते रहे कि शुद्ध शाकाहारी इस पड़ोसी के जाने के बाद चिकेन की हांडी खोली जाये और वह दो बजे तक बैठे हमारी बातचीत में हिस्सा लेते रहे। आखिरकार थक कर विवेक ने पोटली खोली और उनके सामने चिकेन थाली में परोसता हुआ बोला, ``चलिये भोग लगाइये मान्यवर।´´ दूबे जी थोड़ा दूर छिटक गये और हमारे चेहरे के भाव पढ़ते हुये बोले, ``मान्यवर, आप लोग गलत न समझें, अगर मेरी वजह से आप खाने में देरी कर रहे थे तो ये एकदम गलत बात है। मैं शाकाहारी अवश्य हूं परंतु आपके मांसाहार से मुझे कोई आपत्ति नहीं है। आप आराम से खांए।´´ जो ऐसी स्थिति में नहीं पड़ा वो नहीं जानता कि हमने उनके सामने शराब पीकर मांस खाते हुये कितनी शर्मिंदगी महसूस की। वो नहीं करते तो कम से कम हम तो करें, शायद ये हमारे मन में रहा हो।

इलाहाबाद में मैं जितने ठिकानों पर रहा उनमे सबसे अच्छा वक्त इसी लाज़ में गुज़रा | विवेक का कमरा मेरे कमरे से थोड़ी दूरी पर ही था और हमारी रूचियाँ काफ़ी हद तक मिलती थीं | हम दोनों अच्छी फिल्मों को देखने और घूमने-फिरने के शौक़ीन थे | पढ़ना मेरा जूनून था और जो अच्छी चीज़ें मैं पढ़ता उसे विवेक को भी अनुशंसित करता | कीडगंज में ही अर्बेन्द्र रहता था जिससे पत्रकारिता के दौरान फील्ड में मुलाकात हुई थी और वह भी हमारा अच्छा साथी बन गया था | उसका गांव शंकरगढ़ था और उसका पूरा नाम अर्बेन्द्र प्रताप सिंह राणा था जिसे वह बड़ी जतन से छिपा कर रखता था , लेकिन बदकिस्मती से एक दिन हमने उसके कमरे में रखी उसकी एक किताब पर यह नाम पढ़ लिया और काफ़ी दिन तक उसे राणा साहब पुकारते रहे , जिस पर उसकी भृकुटी तन जाती | उसके पास एक हैंडीकैम था जिससे वह ए टीवी में पत्रकारिता किया करता था. ए टीवी, बी टीवी, सी टीवी से लेकर छी टीवी तक वहाँ पाया जाना असंभव नहीं था | लोकल चैनलों की भरमार थी और विज्ञापनों के अलावा इनके पत्रकार कुछ चाहते थे तो सिर्फ़ प्रशासन का भ्रष्टाचार हटाना ताकि अपना भ्रष्टाचार फैला सकें | किसी ट्रैफिक पुलिस वाले से थोड़ी दूर छिप कर बैठना और कैमरा तैयार रखना इनकी पत्रकारिता का सबसे प्रमुख अंग था , जिसमे किसी ट्रकवाले से पैसे वसूल रहे पुलिसकर्मियों से फुटेज को ना प्रसारित करने की शर्त पर वे उनसे १०० या ५० रुपये झटक लेते | मैं ऐसे पत्रकारों के बीच खुद को बड़ा अप्रासंगिक महसूस करता | मेरा मन घबराने लगता और घबरा कर भाग जाने को कोई ठिकाना था तो सिर्फ़ और सिर्फ़ शेषनाथ का कमरा जहाँ वो अपने एक रिश्ते के भाई के साथ तैयारी के नाम पर रहकर साहित्य की किताबों और ख़बरों के बीच समय बिता रहा था.

                                                    क्रमशः .....
                                              
                                             प्रत्येक रविवार को नयी किश्त 

संपर्क - 

विमल चन्द्र पाण्डेय 
प्लाट न. 130 - 131 
मिसिरपुरा , लहरतारा 
वाराणसी , उ.प्र. 221002

फोन न. - 09820813904
         09451887246

फिल्मो में विशेष रूचि 

14 टिप्‍पणियां:

  1. मान्यवर का क्या लाजवाब डिस्क्रिप्शन है. " ए टी.वी. बी टी.वी सी टी.वी के साथ छी टी.वी तक वहाँ पाया जाना असंभव नहीं था." पत्रकारिकता का जो अनुभव यहाँ तुम ला रहे हो, वैसा फिक्शन में संभव नहीं था. सबसे बड़ी बात यह है कि पत्रकारिता के इस संस्करण से अभी बहुत लोग अपरिचित है. इसे इस तरह से भी कह सकते हो कि इसको लेकर लोग इतने डिटेल में नहीं गए है. अच्छा जा रहे हो. हमलोग फिर से इलाहाबाद को जी रहे है...

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  2. are vimal bhaiya apne u.n.i. me apne GADAKRI aur SANDEEP ji kb aayenge....
    aanand aaya padh kr jp aapne hindi me bhojpuri k sukshm prayog kiya jo apanatwa ko jagata hai......
    sbse mazedaar laga agenci ko paribhasit krne ka tarika...jo ki mai gadakri ji se sun sun kr yaad kr chuka tha....aur fir vahi padha....P.T.I. suna hai naaaa...vahi.............,
    BHUT wale room ka besabri se intejaar arega

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  3. विमल का संस्मरण उनकी कहानियों की तरह ही बेजोड है. भाषा की प्रवहमानता और घटनाओं को प्रस्तुत करने की साफगोई संस्मरण को पढाने के लिए बाध्य करती है. बधाई.

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  4. dhanyawaad Ashok bhai, Sheshnath, Chandu aur Santosh ji, Chandu, bhoot wale room me to ane do, abhi to Kydganj me hi hoon, sab log ayenge bari-bari

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  5. dhaaraavaahik roop me aane se mera dhairya jawaab de jata hai..baba ka intzaar hai...

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  6. बेनामी11:02 am, मई 28, 2012

    shandaar wit, bemisaal humour aur dhardaar andaze bayan, achha ho ek saath sari kishten laga di jayen, intazar karna kafi kathin hai guru....

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  7. प्रतीक्षित थी ये कड़ी .. दुबे जी का चरित्र चित्रण और अल्फाबेट चैनेल्स अनायास मुस्कराहट ले आये...

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  8. ये चौथी कड़ी भी मस्त है.कल पढ़ नहीं पाया जबकि याद था कि सिताब दियारा पर एक पन्ना फडफडा रहा होगा...विमल भाई का ये संस्मरण वाकई लाजवाब है...

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