बुधवार, 23 मई 2012

जरूरत है वैकल्पिक प्रकाशन संजाल की


              
                              अजय कुमार पाण्डेय 



लेखक और प्रकाशन संस्थानों के मध्य उपजे हालिया तनाव ने हिंदी साहित्यिक जगत में एक बड़ी बहस पैदा की है | 'इन रिश्तों को कैसा होना चाहिए' से लेकर 'आज ये कहाँ पर पहुँच गए हैं ' जैसे सवालों की पड़ताल करने में हमारे सामने कई असुविधाजनक तथ्य रास्ता रोककर खड़े हो जाते हैं | जहाँ एक तरफ संस्थानों की प्राथमिकताएं बदलती चली गयी हैं , वहीँ दूसरी ओर लेखकीय नैतिकताएं भी तिरोहित होती चली गयी हैं | ऐसे में व्यक्तिगत टीका - टिप्पड़ियों से बचते हुए कवि-समीक्षक अजय कुमार पाण्डेय ने अपने इस लेख में जहाँ कुछ असुविधाजनक सवाल उठायें हैं , वहीँ इन सवालों के उत्तर तलाशने की भी कोशिश की है |

         तो प्रस्तुत है 'सिताब दियारा' ब्लाग पर 'अजय कुमार पाण्डेय' का लेख 

             जरूरत है वैकल्पिक प्रकाशन संजाल की



 हिंदी भाषी समाज काफी बड़ा है , और इसमें रचा जाने वाला साहित्य भी दुनिया के श्रेष्ठ साहित्य की बराबरी करने में समर्थ है | लेकिन हिंदी में साहित्यकार की वह स्थिति नहीं है , जो अन्य भाषा में  साहित्यकारों की है | मसलन , वह उस समय अपने को सबसे कमजोर और बेचारा महसूस करता है , जब अपने संकलन के छपने या किताब को मूर्त रूप देने के बारे में सोचता है | जैसे ही वह अपनी पाण्डुलिपि लेकर किसी प्रकाशक के पास जाता है , वह अपने आपको असहाय पाने लगता है , और प्रकाशक की कृपादृष्टि का आकांक्षी हो जाता है |

दरअसल हिंदी में पुस्तकें प्रकाशित करना एक बड़ी समस्या बन गयी है | अब यह हर किसी के बस की बात नहीं | प्रकाशन क्षेत्र में यूं तो कई संस्थान सक्रिय हैं , लेकिन इस पर कुछ एक प्रकाशकों का ही वर्चस्व दिखाई देता है | इसमें सबसे दुखद बात यह है कि अब इन प्रकाशकों के भीतर साहित्यिक सरोकार नहीं बचा है, और इनका एक मात्र ध्येय मुनाफा कमाना ही रह गया है | इनकी रूचि भी कुछ खास लोगो की किताबों को ही छापने में सिमट गयी है | उदाहरणार्थ,  जो किसी किताब खरीदने वाली समिति में हो , या किसी अन्य श्रोत के जरिये इन प्रकाशकों की किताब को थोक बिक्री कराने में समर्थ हो , इत्यादि | इसीलिए यह अनायास नहीं है , कि इन बड़े प्रकाशकों की दिलचस्पी कम कीमत की पेपर बैक्स पुस्तके छापने में नहीं , बल्कि मोटी जिल्द वाली किताबें छापने पर केंद्रित होती चली गयी है |

कभी-कभी विशेष कद काठी के लोगों की सिफारिश पर कुछ अन्य लोगों की किताबे भी ये प्रकाशक छापते हैं , और इनमें से कुछ लोगों को थोड़ी बहुत रायल्टी भी देते हैं | लेकिन यह सब नाम मात्र और दिखावे के लिए होता है | दूसरी तरफ उक्त विशेष कद काठी के लोग जब तब ऐसे बयान देते रहते हैं कि प्रकाशकों और लेखकों के बीच रायल्टी को लेकर एक खास तरह का तनाव होना स्वाभाविक है | इस तरह के बयान का उद्देश्य प्रकाशकों द्वारा लेखकों के शोषण पर पर्दा डालने की कोशिश होती है | इन बयानों से ऐसा ध्वनित होता है , कि प्रकाशक तो लेखकों को रायल्टी दे ही रहे हैं , जबकि लेखकों की और अधिक पाने की आकांक्षा के चलते यह तनाव उत्पन्न हुआ है | जबकि सच्चाई यह है कि दस प्रतिशत से कम लेखक ही रायल्टी पाते हैं , और बाकी तो अपनी किताब का छप जाना ही सौभाग्य समझते हैं |

वास्तव में हिंदी समाज की लेखक आत्म मुग्ध और आत्मतुष्ट होता चला गया है और वह एक खास तरह की मनःस्थिति में जीता रहता है , जिसके चलते प्रकाशन जगत की सच्चाई सामने आने से रह जाती है | एक अन्य स्थिति यह भी है , कि पहले की अपेक्षा आज के हिंदी लेखकों की अच्छी खासी संख्या नौकरीशुदा और अच्छे पदों पर कार्यरत लोगों की है | आर्थिक रूप से संपन्न इन लेखकों को मोटा वेतन मिलता है , जिससे कुल मिलाकर लेखन कार्य पर उनकी आर्थिक निर्भरता नहीं रह जाती है | यही कारण है, कि वे बिना किसी चीज की परवाह किये अपनी महत्वाकांक्षा के वशीभूत होकर, अपनी किताबे प्रकाशकों की शर्तों पर छपवाते हैं | उनके साथ समझौता करते हैं | इस तरह के लोगों में वरिष्ठ और नयी पीढ़ी दोनों प्रकार के लेखक भी शामिल हैं , जिनकी अच्छी खासी साहित्यिक हैसियत और पहचान है | इसी महत्वाकांक्षा और अनैतिक समझौते के चलते इन प्रकाशकों को एक तरफ अच्छी साहित्यिक कृतियाँ प्रकाशित करने का अवसर भी मिल जाता है , और उन प्रकाशकों की साहित्यिक प्रतिष्ठा भी बच जाती है | वह भी बिना किसी रायल्टी के ही |

इस तरह हिंदी कारोबारी प्रकाशकों की एक बड़ी जमात पैदा हो गयी है ,जो किताबे छापकर लेखकों को उपकृत करती रहती है | स्थिति तो यहाँ तक चली आई है , कि जिन लेखकों के पास यह क्षमता नहीं होती कि वे पुस्तकों की थोक सरकारी खरीद करवा सकें , या जिन्हें किसी खास व्यक्ति द्वारा नामित नहीं किया गया होता है , उन्हें अपनी किताब को छपवाने के लिए प्रकाशकों को पन्द्रह से बीस हजार रुपये तक देने पड़ते हैं या अपनी ही किताब की कुछ सौ प्रतियाँ खरीदनी पड़ती है , जिससे प्रकाशन की छपाई का खर्चा आ जाए | बाकि प्रतियों से मिलने वाली धनराशि पुरी की पुरी प्रकाशक की हो जाती है | ऐसे लेखकों ने उन रचनाकारों के समक्ष संकट खड़ा कर दिया है , जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं या प्रतिबद्ध होकर रचनारत है | सच्चाई यह है कि आज पुस्तक का प्रकाशन लेखक के आर्थिक सामर्थ्य और सिफारिश तथा प्रकाशक की मर्जी पर निर्भर होकर रह गया है |

सच तो यह है कि किसी प्रकाशक की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शर्तों के अधीन किताबे छपवाना एक लेखक के लेखकीय कर्म और दायित्वों की असफलता और पराजय है | रायल्टी किसी लेखक की आर्थिक आवश्यकता नहीं , बल्कि उसका अधिकार , जो यह हार हाल में उसे मिलनी ही चाहिए | विडम्बना यह है कि एक लेखक , जो आमतौर पर साम्राज्यवाद और बाजारवाद का विरोधी तथा दूसरे के अधिकारों के प्रति संवेदनशील होता है , प्रकाशकों द्वारा अपने दोहरे शोषण पर चुप्पी साध जाता है | वह क्रांतिकारी मंसूबा बाँधे पुरी दुनिया से साम्राज्यवाद का खात्मा कर देने को तो तैयार दीखता है , लेकिन प्रकाशकों के इस छोटे से साम्राज्य के सामने आसानी से समर्पण कर जाता है | इस लिहाज से लेखन और लेखक के व्यक्तिगत जीवन में एक बड़ा विरोधाभास दिखाई देता है , जबकि एक लेखक से उसके लेखन को जीने की उम्मीद की जाती है |

ऐसे में उपाय भी इसी दुनिया से प्रेरणा लेकर ही निकल सकता है | लेखन एक वैकल्पिक दुनिया को रचने की कोशिश है | तो इसी आधार पर प्रकाशकों की नाजायज शर्तों की जगह पुस्तक छापने के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में क्यों नहीं सोचा जा सकता है ..? बिना रायल्टी के और ऊपर से पैसे देकर पुस्तक छपवाने से तो बेहतर है , कि सहकारिता के आधार पर प्रकाशन की कोशिश की जाए | लेखकों के बीच एक अंतरजाल तैयार किया जाए | इस तरह से प्रकाशकों के निरंकुश साम्राज्य के समानांतर एक गरिमापूर्ण व्यवस्था का निर्माण किया जा सकता है , और प्रतिबद्ध लेखन को प्रोत्साहित भी किया जा सकता है | यह आज का ऐसा ज्वलंत व प्रासंगिक सवाल है , जिस पर व्यापक बहस की गुंजाईश बनती है |

                                                                                                         अजय कुमार पाण्डेय
संपर्क ...
अजय कुमार पाण्डेय 
एडवोकेट, दीवानी कचहरी 
बलिया , उ.प्र. 277001 
मो. न. - 07398159483  

देश की सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में कवितायेँ और लेख प्रकाशित                                                   

4 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामी8:17 pm, मई 23, 2012

    ajay ji ka lekh mahatvpurn hai.sargarbhit aur tarkik.ye lekh puri system k asliyat samane lata hai. arvind ..vns

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  2. बेनामी8:18 pm, मई 23, 2012

    Ajay bhai ka aalekh padha.unhone prakashkon ke alawa us warg k lekhkon ki ore isara kiya ha jinke pas surplas money aa chuki ha lakhon rupya mahina kamate han.aur prakashkon ki he ulti seedhi sharten swikar ker leta ha.pista to bechara gareeb lekhak ha. Jo commitment ko leker shoshad ka shikar hota ha. Is sath ganth me uska mai bap koi nahi ha. Ijare dar poonji aur prakashkon ki jugal bandi ha.isi men kuchh prakashak kafi kam darön per kitaben leker aayen han.dekhen kab tak tikte han.per ak aasha ki kiran to jagaye hi han. keshav tiwari

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  3. अजय भाई ने ज़रूरी मुद्दे उठाये हैं. यह ज़रूरत मैं भी लंबे समय से महसूस कर रहा हूँ और इन दिनों गंभीरता से इस पर काम करने की कोशिश भी...

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  4. अजय पाण्डेय ने अपने आलेख में ऐसा सवाल उठाया है जिस पर खुल कर बात और बहस होनी चाहिए. दिक्कतें वहीं पैदा होती हैं जहां हम मात्र छपने-छपाने भर के लिए किसी भी हद तक समझौता करने के लिए तैयार हो जाते हैं. मुझे ऐसे कई नए-पुराने लेखक और अध्यापक मिले हैं जो खुलेआम यह स्वीकार करते हैं कि उन्हें अपनी किताब छपवाने के लिए इतना रुपया प्रकाशक को दिया है. प्रकाशक लेखकों को छाप कर यह एहसास जताने से कभी नहीं चूकता कि उसने उस लेखक पर बहुत बड़ा एहसान किया है. आज कि इस विडंबनापूर्ण स्थिति के लिए कमोबेश दोनों पक्ष उत्तरदायी हैं. हां यह अलग बात है कि इसका खामियाजा नए और आर्थिक रूप से कमजोर लेखकों को ज्यादा उठाना पडता है.

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